Wednesday, September 2, 2020

NEW EDUCATION POLICY 2020 शिक्षा ढ़ांचे में होगा बुनियादी बदलाव

 राष्ट्रीय शिक्षा  नीति-2020

शिक्षा ढ़ांचे में होगा बुनियादी बदलाव

10+2 के स्कूली ढ़ांचे का स्थान लेगा 5+3+3+4

प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा को लेकर हुए महत्वपूर्ण प्रावधान

मिड-डे-मील में बच्चों को नाश्ता भी मिलेगा


अरुण कुमार कैहरबा

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में स्कूली शिक्षा ढ़ांचे में बड़ा बदलाव करने का प्रस्ताव है। इसमें 10+2+3 के शैक्षिक ढ़ांचे को पूरी तरह बदल दिया गया है। पहले 10+2 स्कूली शिक्षा से संबंधित था और जमा 3 स्नातक की पढ़ाई के लिए दिया गया था। 10+2 के अनुसार पढ़ाई छह साल से शुरू होती थी। शिक्षा के अधिकार को लेकर किए गए संविधान संशोधन में भी छह से 14 साल तक की शिक्षा को अधिकार बनाया गया। बाद में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 में भी छह साल की उम्र में पहली कक्षा से लेकर 14 साल तक आठवीं कक्षा तक शिक्षा को अधिकार में शामिल किया गया था।  अब स्कूली ढ़ांचा 5+3+3+4 के हिसाब से होगा। इसका मतलब है कि अब स्कूली शिक्षा को 3-8, 8-11, 11-14, और 14-18 उम्र के बच्चों के लिए बांटा गया है। इसमें तीन से लेकर आठ साल के बच्चों के लिए पांच साल की नर्सरी से दूसरी कक्षा तक एक हिस्सा, आठ से 11 साल के बच्चों के लिए तीसरी से पांचवीं तक दूसरा हिस्सा, छठी से आठवीं तक तीसरा हिस्सा और नौंवी से 12वीं तक आखिरी हिस्सा होगा।  यह महत्वपूर्ण है कि देश में ही अधिकतर बच्चों की शिक्षा ढ़ाई-तीन साल की उम्र में ही शुरू होती है। साधन-सम्पन्न वर्ग काफी पैसा खर्च करके नर्सरी या प्री-प्राइमरी प्ले स्कूलों में अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करता है। निजी स्कूलों में पूर्व प्राथमिक कक्षाओं के लिए अलग से सुसज्जित भवन बनाए गए हैं, जहां पर केजी, एलकेजी व यूकेजी आदि कक्षाएं लगाई जाती हैं। विभिन्न चरणों से होते हुए बच्चे पहली कक्षा तक पहुंचते हैं। इन निजी संस्थानों की अलग-अलग श्रेणियां हैं तथा गुणवत्ता व शुल्क के भी कईं स्तर हैं। बहुत से स्कूलों में लाखों रूपये की डोनेशन फीस जमा करवाकर बच्चों को दाखिल करवाया जाता है। अधिकतर निजी स्कूलों में पालकों पर आर्थिक बोझ तो बहुत अधिक पड़ता है, लेकिन पढ़ाई की बात करें तो ऊंची दुकान-फीके पकवान वाली कहावत चरितार्थ होती है।

कहने को तो सरकारी स्तर पर भी आंगनवाडिय़ां बनाई गई हैं, जोकि बच्चों को पूर्व प्राथमिक शिक्षा, पोषाहार, स्वास्थ्य आदि के लिए ही शुरू हुई थी। शिक्षाविदों और बाल-विशेषज्ञों ने इसकी जरूरत और गुणवत्ता को रेखांकित किया है। लेकिन सच्चाई यह है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को दिए गए विभिन्न प्रकार के कार्यों के कारण वे पढ़ाई का कार्य नहीं करवा पाती हैं। आंगनवाड़ी केंद्र में सुविधाओं का अभाव व गैर-शैक्षिणक कार्यों में कर्मियों की अत्यधिक व्यस्तता के कारण समाज के एक हिस्से ने तो उनसे पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। बहुत कम उम्र में ही निजी संस्थानों में चले गए बच्चों का अपने स्कूलों के साथ लगाव भी होता है और फिर पहली कक्षा में अच्छी शिक्षा की व्यवस्था होने के बावजूद उनका सरकारी स्कूलों में आना संभव नहीं हो पाता। सरकारी स्कूलों में बच्चों की कम होती संख्या का यह एक बड़ा कारण साबित होता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि राजकीय पाठशालाओं के अध्यापकों ने प्रयास ना किए हों। प्रावधान नहीं होने के बावजूद बहुत सारे राजकीय स्कूलों ने अपने स्तर पर नर्सरी कक्षाएं चलाई हैं। इसके लिए पंचायतों व समुदाय का सहयोग लेकर स्वैच्छिक शिक्षकों को भी रखा जाता है। जिन स्कूलों ने अपने स्तर पर पहलकदमी करते हुए यह व्यवस्था की है, उन स्कूलों में बच्चों की संख्या में भी बढ़ौतरी हुई है। पूर्व प्राथमिक कक्षा के लिए दाखिल किए गए बच्चों को मिड-डे-मील से वंचित नहीं किया जा सकता। इसके लिए औपचारिक रूप से व्यवस्था नहीं होने के बावजूद आपसी सहयोग से अध्यापक यह प्रबंध करते हैं। अध्यापक लंबे समय से प्राथमिक स्कूलों में नर्सरी कक्षाएं लगाए जाने और उसके लिए अध्यापकों की व्यवस्था करने की मांग कर रहे हैं।

अब जब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी थी तो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा ढ़ांचे में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए तीन से छह साल तक के बच्चों को समाहित करना एक सुखद अहसास कराने वाला है। हालांकि यह भी तय है कि इसे लागू करने में जितनी देरी होगी, उतना ही नुकसान बढ़ता जाएगा। नीति में कहा गया है कि बच्चे के मस्तिष्क का 85 प्रतिशत विकास छह वर्ष से पहले ही हो जाता है। इसलिए बच्चों के शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास के लिए जीवन के पहले छह वर्ष काफी महत्वपूर्ण होते हैं। समुचित व्यवस्था नहीं होने के कारण समाज के सबसे वंचित वर्ग के बच्चे गुणवत्तापूर्ण पूर्व प्राथमिक शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। इस तरह से वे समान रूप से शिक्षा प्रणाली में हिस्सा लेने के अपने अधिकार से भी वंचित हो रहे हैं।

शिक्षा नीति में प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा (ईसीसीई) को सीखने की नींव बताया गया है। सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित जो करोड़ों बच्चे गुणवत्तापूर्ण ईसीसीई से वंचित हो रहे हैं। उनके लिए निवेश को बढ़ाने की बात भी की गई है। ईसीसीई के लिए दो भागों में उत्कृष्ट पाठ्यक्रम एवं शैक्षिक ढ़ांचा विकसित करने की जिम्मेदारी एनसीईआरटी को दी गई है। पहले भाग में 0-3वर्ष तक के बच्चों के लिए सब-फे्रमवर्क और दूसरे भाग में 3-8 वर्ष तक के लिए सब-फ्रेमवर्क बनाया जाएगा। इसके लिए बाल्यावस्था में देखभाल के लिए स्थानीय परंपराओं और भारत में प्राचीन काल से चली रही परंपराओं के अनुकूल राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय नवाचार पर शोध किया जाएगा। ईसीसीई में कला-शिल्प, कहानियां, कविता, गीत और खेल सब कुछ शामिल होंगे। प्रारंभिक बाल्यावस्था के लिए विकसित किया जाने वाला यह मॉडल माता-पिता और आंगनवाडिय़ों के लिए एक मार्गदर्शक का कार्य करेगा। इसके लिए उच्चतर गुणवत्ता के ईसीसीई संस्थान स्थापित किए जाएंगे, जिनके द्वारा ईसीसीई प्रणाली को पहले से चल रहे आंगनवाड़ी केन्द्रों, स्कूलों में चल रहे आंगनवाड़ी केन्द्रों, प्राथमिक पाठशालाओं, प्री-प्राईमरी स्कूलों, प्ले स्कूलों के माध्यम से लागू किया जाएगा। इसके लिए ईसीसीई पाठ्यक्रम में प्रशिक्षित कर्मचारियों व शिक्षकों की भर्ती करने की बात भी कही गई है।

लचीली, बहु आयामी, खेल आधारित, गतिविधि आधारित व खोज आधारित प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम विकास एवं शिक्षण-विधि की सारी जिम्मेदारी मानव संसाधन विकास मंत्रालय की होगी। ईसीसीई का स्कूलों में सहज एकीकरण एवं मार्गदर्शन को बढ़ावा देने के लिए एक टास्क फोर्स गठित की जाएगी। ईसीसीई के आयोजन एवं क्रियान्वयन में शिक्षा मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और जनजाति कार्य मंत्रालय मिलकर कार्य करेंगे। 

वर्तमान में आंगनवाड़ी केन्द्रों में आने वाले बच्चों की शिक्षा के जिन विविध पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। उन पर विशेष ध्यान केन्द्रित करने की बात की गई है। मजबूत प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा के अभाव में बहुत से बच्चे बुनियादी साक्षरता व भाषा ज्ञान व संख्या ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। वर्तमान प्राथमिक पाठशालाओं में पूरे देश में ऐसे बच्चों की अनुमानित संख्या 5 करोड़ है। यह सीखने की एक गंभीर समस्या है। यह समस्या बाल्यावस्था को बोझिल बनाते हुए निराशा से भर देती है और अंत में बच्चे ड्रॉपआउट कर जाते हैं। शिक्षा नीति में तीसरी कक्षा तक अनिवार्य रूप से मूलभूत साक्षरता एवं संख्या ज्ञान प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय अभियान बनाए जाने का संकल्प किया गया है। इसके लिए 2025 तक प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता एवं संख्या ज्ञान को शिक्षा प्रणाली की सर्वोच्च प्राथमिकता घोषित किया गया है और इसके लिए राष्ट्रीय मिशन स्थापित करने की भी बात की गई है। इस महत्वपूर्ण एवं महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के लिए निश्चय ही स्कूलों में अध्यापकों की कमी एक बड़ी समस्या है। इसके लिए अध्यापकों की भर्ती और प्राथमिक स्कूलों में विद्यार्थी-अध्यापक अनुपात 30:1 से कम और जिन स्कूलों में वंचित समुदाय के बच्चों की अधिकता होती है, उनमें यह अनुपात 25:1 से कम होगा। बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान में बच्चों को पारंगत बनाने के लिए सतत रचनात्मक मूल्यांकन पद्धति अपनाए जाने और बच्चों के सीखने को ट्रैक करने की नीति अपनाई जाएगी। द डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर फॉर नॉलेज शेयरिंग (दीक्षा) पर इससे संबंधित उच्चतर गुणवत्ता वाली सामग्री का राष्ट्रीय भंडार उपलब्ध करवाया जाएगा। अध्यापकों के सतत व्यावसायिक विकास एवं प्रशिक्षण के लिए डिजीटिल माध्यमों का इस्तेमाल किया जाएगा। बच्चों के सीखने को आनंददायी बनाने के लिए अध्यापकों के कुशल मार्गदर्शन में पीयर ट्यूटरिंग को बढ़ावा दिया जाएगा। 

शिक्षा नीति में पढऩे की संस्कृति को विकसित करने के लिए स्कूली पुस्तकालयों को विकसित करने और नए पुस्तकालयों की स्थापना और उनमें बालोपयोगी उच्च गुणवत्ता वाली पुस्तकों की उपलब्धता बढ़ाई जाएगी। बच्चों के स्वास्थ्य के लिए उनकी स्वास्थ्य जांच नियमित रूप से की जाएगी। 

बच्चों के शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास के लिए और सीखने को बढ़ावा देने के लिए पौष्टिक भोजन का महत्वपूर्ण स्थान है। गरीबी और बेरोजगारी की दशा का बच्चों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। आज भी बहुत से बच्चे भूखे पेट स्कूलों में आते हैं। उनके लिए मिड-डे-मील ही सहारा होता है। मिड-डे-मील के कारण परिजन भी आश्वस्त होते हैं। मिड-डे-मील योजना को बढ़ाने के लिए माध्याह्न भोजन के साथ-साथ पौष्टिक नाश्ते की जरूरत को शिक्षा नीति ने रेखांकित किया है। सुबह के भोजन के लिए भोजन पकाने की व्यवस्था नहीं होने की स्थिति में अन्य पोषहार व फल आदि उपलब्ध करने की बात की गई है। 

इस तरह से राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 स्कूली शिक्षा में बहुत से महत्वपूर्ण प्रावधान कर रही है। तीन वर्ष के बच्चों के प्रति प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा के रूप में राष्ट्रीय जिम्मेदारी का विस्तार करके महत्वपूर्ण प्रावधान कर रही है। हालांकि इसको स्कूलों के साथ समेकित किया जाना भी बहुत जरूरी है। आंगनवाडिय़ां स्कूलों से अलग-थलग नहीं होनी चाहिएं। इसे शीघ्रता से लागू किए जाने की तरफ बढऩा चाहिए। इसके लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम में तीन साल से 18 साल तक के बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार का विस्तार करते हुए संशोधन किया जाना चाहिए। यह भी देखने में आता है कि नीतियां बन तो जाती हैं, लेकिन इन्हें लागू होने में वर्षों लग जाते हैं। जिससे शिक्षाविदों की सारी बातें कागजों में सिमट कर रह जाती हैं। 







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