कोरोना महामारी का दौर और बच्चों की शिक्षा
अरुण कुमार कैहरबा
विश्व व्यापी कोरोना महामारी से पूरी दुनिया त्रस्त है। दुनिया भर में लाखों लोग इसके शिकार हो चुके हैं। हजारों लोग जान गंवा चुके हैं। वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए समस्त भारत में लॉकडाउन करना पड़ा। जनता कफ्र्यू से शुरू करके लॉकडाउन और फिर बाद में अनलॉक के विभिन्न चरण हो चुके हैं। मार्च के आखिरी सप्ताह में लॉकडाउन के दौरान स्कूल बंद हुए थे। स्कूल खुल भी गए, लेकिन स्कूलों में बच्चों के आने और उनकी शिक्षा का रास्ता नहीं खुल पाया है। दूसरे शब्दों में कहें तो कोरोना महामारी से शिक्षा-व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है।महामारी से पूर्व अध्यापक स्कूलों में हर रोज बच्चों के साथ सीखने-सिखाने की विभिन्न गतिविधियों का आयोजन करते थे। स्कूल से जाने के बाद अगले दिन की योजना को लेकर चिंतन-मनन करना व योजनाएं बनाना आए दिन का कार्य था। बच्चों का हर्षोल्लास व रंग-उमंग स्कूल के वातावरण को जीवंतता प्रदान करते थे। प्रात:कालीन सभा में कक्षावार पंक्तिबद्ध होकर सभी बच्चों का खड़े होना। अध्यापकों द्वारा उठाई गई सावधान-विश्राम की तान पर विद्यार्थियों का कदम-ताल करना। नन्हें-नन्हें हाथों को जोडक़र एक सुर में प्रार्थना, राष्ट्रगान व चेतना गीत गाना। चेतना जगाने वाले नारों से पूरे वातावरण को गुंजायमान कर देना। अध्यापकों के दिशा-निर्देश और विभिन्न विषयों पर चर्चा करते हुए पीछे समय अधिक होने की खुसर-फुसर शुरू हो जाना। सभा के समापन पर विद्यार्थियों का फौजियों की तरह कदम-ताल करते हुए कक्षाओं की तरफ आगे बढऩा। कभी अध्यापकों के निर्देश पर प्रांगण में स्वच्छता अभियान चलाना। और कभी पूरे जोशो-खरोश के साथ खेल के मैदान में उतर पडऩा। पुस्तकालय में किताबें ढूंढ़ते और पढ़ते बच्चे। कईं बार बच्चों का आपस में लड़-झगड़ पडऩा। उस झगड़े को सुलझाने की तरह-तरह की युक्तियां लड़ाते हम अध्यापक। अध्यापक के कक्षा में पहुंचने से पहले बच्चों का ऊंचा उठता शोर, जिससे कईं बार पड़ोस की कक्षा में पढऩे वाले बच्चों और अध्यापकों को परेशानी होती। कईं बार समय पूरा होने के बावजूद अध्यापक का कक्षा से ना निकलना और कक्षा-कक्षा के बाहर इंतजार करते हुए होने वाली उकताहट। कईं बार समय पूरा होने पर विषय पूरा नहीं होने या फिर हो रही गर्मागर्म चर्चा के बीच में रूकने का अफसोस। बाहर खड़े अध्यापक द्वारा दरवाजा खटखटाकर बताना कि इस कक्षा में आपका एक कालांश पूरा हो चुका है और अब बारी उनकी है। पढऩे-पढ़ाने की क्रियाओं के बीच समय का इशारा करने वाली घंटी की स्वरलहरियां। निश्चय ही आधी छुट्टी और पूरी छुट्टी की घंटी बच्चों के लिए विशेष महत्व रखती है। पूरी छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चों का कुलांचें भरते और शोर करते हुए घरों की तरफ दौडऩा। अध्यापकों के आपसी संवाद से सीखने-सिखाने की क्रियाओं को जिंदादिल बनाने की जरूरत पर चर्चाएं करना। खाली समय में इक_े बैठ कर चाय की चुस्कियां लेना। आधी छुट्टी में बच्चों को खाना खिलाने के लिए लाईन बनाने की मशक्कत।
रंग-बिरंगी किताबें पढऩे, बातें करने, कहानियां, कविताएं, संस्मरण, जीवन अनुभव पर चर्चाएं और विभिन्न विषयों के सीखने-सिखाने की सामूहिक क्रियाओं से जो ऊर्जा मिलती थी। स्कूल में एक बच्चे को पानी के लिए कहा जाए तो दो-तीन का एकदम उठ कर चल देना।
लॉकडाउन के दौरान हम सब उससे वंचित हुए। सारा दिन घर में रहने की बोरियत से परेशान भी हुए। अब स्कूल में जाते भी हैं तो स्कूल में वह जान नहीं है, जो बच्चों के साथ होती है। कोई बच्चा या उसके अभिभावक जब स्कूल में कभी आते भी हैं तो उनके चेहरों पर वह चमक नहीं होती। अभिभावकों के चेहरों पर उनके जीवन के संकट होते हैं। कईं दिन तक काम-काज नहीं लगने के कारण उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। व्हाट्सअप ग्रुप या टेलिविजन के चैनलों पर चल रही पढ़ाई बारे उनसे बात होती है, कुछ बच्चों को छोड़ दें तो अधिकतक बच्चों के लिए शिक्षा का यह मार्ग सुगम नहीं है। व्हाट्सअप ग्रुप में भेजी जा रही वीडियो, ऑडियो, पाठ्य सामग्री आदि के प्रयोग के बारे में जब बात होती है तो कईं बार बच्चे सारी स्थिति के बारे में नहीं बता पाते। कईं बार कईं भाई-बहनों के लिए एक मोबाइल फोन होने, पिता द्वारा मोबाइल ले जाने, नेट पैक नहीं होने, नेटवर्क नहीं आने, वीडियो नहीं खुलने, काम के दौरान मोबाइल पिता द्वारा ले जाने सहित अनेक प्रकार की मुश्किलें सामने आती हैं। उनके चेहरे से निराशा दूर करने के लिए यही कहना पड़ता है कि कोई बात नहीं आप अपने किताब से कुछ ना कुछ पढ़ते रहा करें।
महामारी के इस संकट में जब व्हाट्सअप ग्रुपों में अध्यापकों द्वारा अंधाधुंध सामग्री भेजे जाने की स्थिति पर चिंता ही होती है। यह भी चिंता होती है कि ऑनलाइन शिक्षा के ऐसे दौर में उन बहुत से बच्चों का क्या होगा, जिनके पास मोबाइल की सुविधा ही नहीं है। घर में टेलिविजन भी नहीं है। ऐसे में अध्यापकों द्वारा यदि सिलेबस निटपा दिए जाने की बातें की जा रही हैं तो उसका उन बच्चों के लिए क्या मतलब है।
कुछ अभिभावकों ने तो यह भी बताया कि उनके बच्चे मोबाइल तो लेकर रखते हैं, लेकिन उसका इस्तेमाल पढ़ाई के लिए करने की बजाय कार्टून या अन्य चीजें देखने में करने लगे हैं। ऐसे में कहीं ऑनलाइन शिक्षा बच्चों को गहरे गर्त में तो नहीं धकेल देगी? जिस मोबाइल से आज तक बचने के उपदेश दिए जाते थे, एक दम उसे शिक्षा का माध्यम बना देने की सैद्धांतिक बातें तो ठीक हैं, लेकिन इसे क्रियान्वित करने की मुश्किलों पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
हालांकि बच्चों की सुरक्षा व स्वास्थ्य हम सबका ध्येय है। हमारे बच्चे किसी भी प्रकार के वायरस व अन्य असुरक्षित वातावरण के खतरों से बचे, यह महत्वपूर्ण है। इसके बावजूद बच्चों की अनुपस्थिति से बेजान हुए स्कूल से अध्यापकों में निराशा का माहौल है। ऐसे में जब बच्चे स्कूल में नहीं आ पा रहे हैं तो बच्चों की हुड़दंग से बहुत से अभिभावक भी परेशान हैं। उन्हें बच्चों को रचनात्मक कार्यों में लगाए रखने के तरीकों का नहीं पता है। ऐसे में बच्चों की ऊर्जा किसी ना किसी तरीके से निकलती ही है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही कोरोना वायरस व इससे उपजी महामारी को भी मानवता जल्द परास्त करके आगे बढ़ेगी। स्कूलों में बच्चों की आवाजाही और शिक्षा सुचाारू होगी। कोरोना महामारी ने स्कूलों व शिक्षा संस्थानों के सामने एक नई चुनौति पेश की है। जब भी स्कूल खुलेंगे तो वायरस के बचाव के लिए कक्षाओं का स्वरूप भी बदल जाएगा। मास्क लगाना एक अनिवार्यता होगी। चिकित्सकों द्वारा सुझाए जा रहे अच्छी किस्म के सुविधाजनक मास्क सभी बच्चों को उपलब्ध करवाए जाने चाहिएं ताकि वे इसका नियमित रूप से प्रयोग कर सकें। बच्चों में शारीरिक दूरी बनाए रखना भी आसान काम नहीं होगा। स्कूलों में स्वच्छता और कक्षा-कक्षा को सेनिटाइज करना होगा। आने वाले समय में स्कूलों को तैयार करने के लिए इच्छाशक्ति के साथ-साथ संसाधनों की भी जरूरत होगी।
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