‘दूर तक फैला हुआ जल, कागजों की किश्तियाँ
खोजती हैं
कोई संबल कागजों की किश्तियाँ’
‘किसी शाम चराग ना जले तो तुम अल्फाज सजा देना’
देश-प्रदेश के वरिष्ठ एवं नवोदित रचनाकारों ने पढ़ी कविताएं
अरुण कुमार कैहरबा
कोरोना
महामारी के दौर में जब बाहर ना निकलने और निकलते हुए भी दूरी के साथ मिलने की मजबूरी
आन खड़ी हुई है, ऐसे में मानवीय अभिव्यक्ति नए वर्चुअल साधनों का प्रयोग करके मुखर
हो रही है। साहित्यकारों एवं साहित्य प्रेमियों को आपस में जोडऩे और उन्हें अभिव्यक्ति
का मंच प्रदान करने के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी की पहल पर गूगल मीट पर कवि गोष्ठी
का आयोजन किया गया। गोष्ठी में कवयित्री एवं आईएएस अधिकारी सुमेधा कटारिया ने मुख्य
अतिथि के रूप में शिरकत की। सम्मेलन की अध्यक्षता अकादमी के निदेशक डॉ. चन्द्र त्रिखा
ने की और संचालन कवि राजीव रंजन ने किया।
काव्य गोष्ठी में कुरुक्षेत्र से जाने-माने शायर दिनेश दधीचि की एक गज़ल के कुछ शेर देखिए-
‘दूर तक फैला
हुआ जल, कागजों की किश्तियाँ
खोजती
हैं कोई संबल कागजों की किश्तियाँ
हृदय
पर पत्थर धरे दायित्व कंधों पर उठा
खे
रहे हैं लोग बोझल कागजों की किश्तियाँ
बेबसी
में बह रहे हैं, हाथ फिर भी मारते
आदमी
हैं फिर भी मांसल कागजों की किश्तियाँ’
उनके
द्वारा सुनाई एक अन्य गजल के शेर कुछ यूँ हैं-
‘ठिठकी मेरी
नजरें जो वो चेहरा नजर आया
जैसे
कि समंदर में जज़ीरा नजर आया।
क्या
देखने लायक है बताते हैं मुझे लोग
अब
देखने निकला हूँ तो क्या-क्या नजर आया।
जब
प्यास के मारे था निकलने को मेरा दम
जाकर
के कहीं तब मुझे दरिया नजर आया।
ऐसा
जो हुआ आप बताएं कि हुआ क्यों?
बस्ती
थी मगर मुझको तो सेहरा नज़र आया।
दीवार
मेरे मन में गिरती तो कहाँ पर
बस
इतना हुआ उसमें दरीचा नजर आया।’
दधीचि
द्वारा सुनाई गई अन्य गज़लों के अशआर देखिए-
‘तुम शिकायत
के सुरों में बोलते हो,
बोलने
से पेशतर क्या सोचते हो।’
‘बदली नजर
जरा-सी मंजर बदल गया है,
जैसे
कि नींव का कोई पत्थर बदल गया है।’
‘हृदय से जो
नहीं निकला, उसे सायास क्या कहना।
ना
कलियां खिल रही हों तो उसे मधुमास क्या कहना।’
भयभीत मानवता का सरदार, वाह रे चौकीदार: अमृत लाल मदान
कैथल
से वयोवृद्ध एवं उस्ताद कवि अमृत लाल मदान ने अपनी रात का चौकीदार कविता में कहा-
‘वाह रे चौकीदार
ना
किसी से दो गज की दूरी
ना
मास्क ओढऩे की मजबूरी
भयभीत
मानवता का सरदार,
वाह
रे चौकीदार’
उन्होंने
अपनी बाल कविता में कोरोना के समय को प्रतीकों में कुछ यूं बांधा कि श्रोता वाह-वाह
कह उठे-
‘देखो-देखो
आज चांद भी थका-थका सा लगता है
मास्क
लगा सा हाँफ रहा है
सुन
रहे वायरस चांद छोड़ दे मामू शूभ्र सलौना है
निर्धन
बच्चों का तो बस यह सस्ता एक खिलौना है।’
कवयित्री
सविता सिंह ने महिला-विमर्श पर आधारित अपनी कविताएं सुनाकर श्रोताओं को महिलाओं की
स्थिति के प्रति संवेदित किया।
हिन्दी अपनी मातृभूमि पीहर से गायब है: सरोज त्यागी
हिन्दी
व भोजपुरी कवि कैलाश गौतम की पुत्री एवं स्वयं कवयित्री सरोज त्यागी ने अपने पिता को
याद करते हुए उनकी कविता- भाभी की चि_ी सुनाने के साथ-साथ उनके दोहे कुछ यूं कहे-
‘प्रजातंत्र
की आंख में हम हैं केवल वोट
और
वोट की हैसियत कंबल कुर्ता कोट।।
महिला
ग्राम प्रधान के पति का देखो हाल।
बीवी
सरकारी हुई, मिलना हुआ मुहाल।।’
अपनी
गजल में सरोज त्यागी ने कहा-
‘उसकी बातों
पर मुस्काना अच्छा लगता है
कहते
जिसको लोग दीवाना अच्छा लगता है।
यूं
तो दोस्त सभी प्यारे हैं, फिर भी जाने क्यूं
बचपन
का वह मीत पुराना अच्छा लगता है।’
सरोज
त्यागी ने अपनी कविता-‘पत्रकार’ में पत्रकार की स्थितियों की सशक्त अभिव्यक्ति की। उन्होंने हिन्दी
की व्यथा इस तरह बयां किया-
‘हिन्दी अपनी
मातृभूमि पीहर से गायब है
जैसे
हिन्दुस्तान की पगड़ी सर से गायब है।’
उनका
एक दोहा दृष्टव्य है-
‘नए धनी के
शोक भी होते बड़े अजीब
आते
हैं बाजार में लेने को तहजीब।।’
जया
पाटिल ने अपनी गजल में कहा-
‘किरदार मेरा
तो ऐसा नहीं था
इन
अश्कों से धुलकर निखरने से पहले
तमन्ना-ए-दिल
ने नया जख्म खाया
पुराना
कोई जख्म भरने से पहले
कदम
राहे-उल्फत में तुम रोक लेना
जहां
की नजर से उतरने से पहले’
कवि-गोष्ठी
के नई कलम नाम के अंश में झांसी से सुनीता प्रसाद ने अपने परिचय में कहा- ‘मेरे परिचय
में कुछ विशेष नहीं, मैं पथिक हूँ कविता है मेरी यात्रा।’ उन्होंने
अपनी-‘उसकी कविताई’ में कहा-
‘वह लिखता
है कविताएं ऐसे
मेरी
मां पसंद का व्यंजन बनाती थी जैसे’
हिसार
से नवोदित कवयित्री नागिता जागलान ने अपनी कविता में कहा-
‘नाव मेरी
कलम बनी है अल्फाजों की नदिया में.. ..
किसी
शाम चराग ना जले तो तुम अल्फाज सजा देना
ये
जो नादान परिंदे हैं, तुम इनको उड़ जाने दो
इनकी
आजादी पर तुम कोई अंकुश ना लगा देना’
मंच संचालन करते हुए कवि राजीव रंजन ने अपनी कविता में कहा-
‘वैश्वीकरण
के दौर में भूख से आत्महत्या का युग है
सूचना
क्रांति के युग में अफवाहों का युग है।’
कोरोना की निराशाओं में कविता देती है हौंसला: सुमेधा कटारिया
मुख्य
अतिथि सुमेधा कटारिया ने कहा कि कोरोना महामारी में अवसाद और निराशा का माहौल है। ऐसे
में निराशा को तोडऩे के लिए कविता सशक्त औजार है। ऐसे दौर में जब हम अनेक प्रकार की
मानसिक परेशानियों व भय से गुजर रहे हैं। कोरोना ने शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए
मजबूर किया है। घर में किसी का आना भी दहशत पैदा करता है। ऐसे में कविता बहुत उम्मीद
जगाती है। हौंसला बढ़ाती है। ताकत देती है। उन्होंने कहा कि नई कविता समय की मांग है।
उन्होंने कहा कि कोरोना काल को अवसर की तरह देखा जाना चाहिए। ऐसे में साहित्य, संगीत
व फिजीकल फिटनैस के प्रति रूझान बढ़ा है। जब हम बाहर नहीं जा सकते, हम अंदर झांकते
हैं। अपने आप से बात करते हैं। चीजों को भली-भांति समझते हैं। संवेदनाओं को धार देते
हैं। इसी में कविता जन्म लेती है। उन्होंने वर्चुअल माध्यमों के जरिये नई अभिव्यक्तियां
उभर रही हैं। जहां समय की कमी महसूस होती है, वहां ऐसे मिलना महत्वपूर्ण है। उन्होंने
कहा कि वर्चुअल कवि गोष्ठी का आयोजन प्रशंसनीय है। कविता जहां हममें होती है, हम उसके
बिना जी नहीं सकते। कवि व काव्य-प्रेमी व्यक्ति कविता के साथ ही जी सकता है। अभिव्यक्ति
आज की मांग हैं, हम बंद हो रहे हैं, यह अच्छा नहीं है। उन्होंने सवाल उठाया कि आखिर
क्यूँ हमसे कविता छूट रही है, छिटक रही है। इस पर विचार करना है। उन्होंने डॉ. चन्द्र
त्रिखा को साहित्य का विश्वकोष बताते हुए कहा कि हरियाणा साहित्य अकादमी व उर्दू साहित्य
अकादमी उनके नेतृत्व में नए आयाम स्थापित कर रही है। उन्होंने कहा कि जल्द ही अन्य
वर्चुअल कवि गोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए, ताकि नए कवियों व लेखकों को मंच मिल
सके। उन्होंने कहा कि कहा कि दिनेश दधीचि की जंग बर्फ के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि
राजीव रंजन की पंचकूला में उपस्थिति के कारण क्षेत्र में साहित्य की बयार बहने की उम्मीद
बन गई है।
सुमेधा
कटारिया ने अपने काव्य-संकलन से प्रसिद्ध कविता-‘आज भी अग्रिपरीक्षा’ सुनाते हुए
कहा-
‘सच है कि
आज भी होती है अक्सर
अपेक्षाओं,
तोहमतों व आरोपों की अग्रिपरीक्षा
सच
है कि आज भी सिद्ध होना है सच के वास्ते।’
संवेदनहीनता के संकट से साहित्य ही उबार सकता है: डॉ. चन्द्र त्रिखा
साहित्य
अकादमी के निदेशक एवं जाने-माने साहित्य शिल्पी डॉ. चन्द्र त्रिखा ने कवि गोष्ठी में
शामिल हुए सभी साहित्यकारों व कवियों का आभार जताते हुए कहा कि संवेदनहीनता के दौर
में साहित्य ही इस संकट से उबार सकता है। करुणा के संकट से साहित्य मुक्ति दिला सकता
है। उन्होंने कहा कि साहित्य अकादमी ऐसे में साहित्यकारों को जोडऩे की पहल कर रही है।
उन्होंने आने वाले समय में अन्य वर्चुअल कवि गोष्ठियों के आयोजन की उम्मीद जताई। उन्होंने
कहा कि अकादमी के अनेक कर्मियों ने गोष्ठी
को सफल बनाने के लिए मेहनत की है। उन्होंने कहा कि सुमेधा कटारिया जी का मार्गदर्शन
हमें राह दिखाता है।
राजीव
रंजन ने कहा कि हरियाणा मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली, बाबू बाल मुकुंद गुप्त व बाबू बालमुकुंद
गुप्त की भूमि है। साहित्य अकादमी अपने कबीर, रैदास, तुलसी व सूर सहित सभी पूर्वजों
की विरासत को आगे बढ़ा रही है। कवि गोष्ठी को सेवानिवृत्त शिक्षा अधिकारी सरोज बाला
गुर, शुरूआत समिति की पदाधिकारी रीता, आजमगढ़ से मानविन्द्र, अंजलि सिंह, अनिल यादव,
राहुल, मनीष, सुनीता व इन पंक्तियों के लेखक सहित अनेक साहित्यकार उपस्थित रहे। युवा
संस्कृतिकर्मी विकल्प ने निराला की प्रसिद्ध कविता- ‘बांधो ना नाव इस ठांव बंधु, पूछेगा
सारा गांव बंधु’ की गीतात्मक
प्रस्तुति के जरिये कवि गोष्ठी का समापन किया।
मो.नं.-9466220145HARYANA PRADEEP 21-09-2020
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