अध्यापक दिवस पर विशेष व्यंग्यात्मक लेख
शिक्षा सम्मान का हकदार, बना फिरे है ठेकेदार!
अरुण कुमार कैहरबा
फिर आ गया अध्यापक दिवस। गुरूजनों के गुण गाने का दिन। इस बार इस दिन पर कोरोना महामारी की छाया है। स्कूल और कॉलेज बंद हैं। अधिकतर निजी शिक्षण-संस्थानों ने गुरूजनों को घर का रास्ता दिखा दिया है। बाकी जो बचे हैं उनके लिए विद्यार्थियों से सम्पर्क का केवल डिजीटल माध्यम है। सरकारी स्कूलों के जिन विद्यार्थियों के पास एंड्रोयड फोन आदि नहीं है, वे तो अध्यापकों द्वारा भेजे जा रहे संदेशों से वंचित ही हो रहे होंगे। शिक्षा विभाग ने अध्यापकों के विवेक पर अविश्वास की अपनी परंपरा का निर्वहन करते हुए अध्यापकों को अध्यापक दिवस पर निबंध आदि की प्रतियोगिता आयोजित करने के आदेश-निर्देश दे दिए हैं। इससे अध्यापकों पर विभाग के कहे अनुसार ही कार्य करने का दबाव बना रहेगा। निबंध में विद्यार्थी गुरूजनों की महिमा गाते रहेंगे और जिन-जिन नेताओं को अध्यापक दिवस में मुख्य अतिथि बनने का अवसर मिलेगा, वे कुछेक अध्यापकों को सम्मानित करने की औपचारिकता के बाद अध्यापकों को राष्ट्र-निर्माता आदि कहते हुए उन्हें अपने प्राचीन गौरव को पुन: स्थापित करने का उपदेश देकर चलते बनेंगे। अगले दिन अखबारों में नेताओं के भाषण सुर्खियों में होंगे।
कहने को तो अध्यापक शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का केन्द्रीय किरदार है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भी उसे भविष्य निर्माता और राष्ट्र-निर्माता आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया है। लेकिन भले ही अध्यापक कितने ही कार्य करते हुए बच्चों की उपलब्धियों और स्कूलों के सौंदर्यीकरण के कीर्तिमान रचते रहें, इस व्यवस्था के लिए उसकी हैसियत एक कर्मचारी से अधिक नहीं है। यदि वह भली-भांति दिए गए कार्य कर देता है तो वह ज्यादा दूध देने वाली गाय के समान है, जाकि कभी-कभी सींग तो हिलाती है, लेकिन लात नहीं मारती। अध्यापक एक खूंटी है कि उस पर कुछ भी टांग दो। वह कभी मना नहीं करेगा। वह ऐसा निरीह प्राणी है कि उस पर कुछ भी लाद दो, वह विरोध नहीं करेगा।
देश के अधिकतर राज्यों में सरकार व विभाग के लिए अध्यापक का पढऩे-पढ़ाने का काम गौण है। सैद्धांतिक तौर पर चाहे जो मर्जी कहा जाता हो, लेकिन व्यावहारिक रूप से शिक्षण के मामले में भी वह परीक्षा पास करवाने वाले एजेंट से अधिक नहीं है। पढऩे-पढ़ाने के काम को इतना संकुचित कर दिया गया है कि वह काम डायरी में लिखा जरूर होना चाहिए। भले ही वह कक्षा में जा भी ना पाया हो। आईये देखते हैं विभाग की नजर में अध्यापकों के मुख्य काम क्या हैं? स्कूल में भवन, कमरों और शौचालयों का निर्माण अध्यापकों को करवाना होता है। बजट जारी होने के बाद ईंट, बजरी, सीमेंट, रोड़ा व निर्माण सामग्री खरीदना, मिस्त्री व मजदूर ढूंढऩा और उसकी दिहाड़ी को लेकर मोल-भाव करना, निर्माण कार्य शुरू होने से लेकर खत्म होने तक कितने ही काम होते हैं, इसके बारे में घर में काम करने वाले अनुभवी लोगों को ज्यादा पता है। बीच-बीच में विभाग के इंजीनियरों व अधिकारियों के आगमन पर उनकी सेवा-पानी करना और कमीशन ससम्मान घर पर पहुंचाना भी बड़ा काम है। बिना कमीशन दिए ईमानदारी से कार्य करवाने के प्रति जरा भी अडिय़ल रूख दर्शाने पर अधिकारियों की गाज गिरने का खतरा भी उठाना पड़ेगा। एक-एक बिल संग्रह करना, मिस्त्री-मजदूरों की दिहाड़ी आदि का लिखित ब्यौरा बनाना भी इस काम का हिस्सा है। बार-बार इस तरह के कार्य करवाने वालों के साथ हादसा यह होता है कि वे ठेकेदार बन जाते हैं और अध्यापक कहीं गायब हो जाता है।
कुछ गुरूजन डाकिए बने घूमते हैं। हर रोज थोक में डाक आती हैं और डाक मांगी जाती हैं। भले ही जानकारी का आपके स्कूल से कोई संबंध ना हो। आपको भी जवाब भेजना पड़ेगा, भले ही शून्य करके भेजना हो। स्कूल में अध्यापकों का टोटा है। कक्षाएं पहले ही खाली हैं। लेकिन यदि बीईओ या डीईओ कार्यालय में कोई मीटिंग आहुत की गई है तो फिर उसमें जाना ज्यादा जरूरी है। बच्चे जाएं भाड़ में। आप चाहें तो अघोषित रूप से बच्चों की छुट्टी कर दें। मीटिंग में खाली हाथ तो जाने से रहे। इससे पहले आपको कईं तरह के दस्तावेज तैयार करने होंगे, जो मीटिंग में जमा करवाने हैं।
सफाई कर्मचारी ना होने पर स्कूल प्रांगण, कक्षा-कक्ष व शौचालयों की सफाई करना तो बेहद जरूरी है। चाहे जैसे करें। आखिर स्वच्छता पर तो पढ़ाई से ज्यादा ही बल है। होना भी चाहिए क्योंकि स्वच्छता के बिना पढ़ाई कैसे होगी? मिड-डे-मील भी स्कूल का महत्वपूर्ण पक्ष है। मिड-डे-मील में भी कोई चूक नहीं होनी चाहिए। स्कूल में आने से पहले सब्जी मंडी से सब्जियां लेकर जानी होंगी। गुरू जी कक्षा में हैं कि मिड-डे-मील वर्कर ने आकर बताया कि सिलैंडर खत्म हो गया तो कक्षा छोड़ कर सिलैंडकर का प्रबंध कीजिए। गेहूँ पिसवाकर आईये। रजिस्टर में एक-एक बच्चे के खाने में मिड-डे-मील में डाली गई हल्दी-नमक-तेल आदि का हिसाब दर्ज होना सबसे ज्यादा जरूरी है। इसमें देरी होने पर तो गुरूजी के ऊपर गाज गिरना लाजिमी समझो। चुनाव, जनगणना, पल्स पोलियो अभियान में दो बूंद जिंदगी की, अलग-अलग अवसरों पर होने वाले सर्वेक्षण और जागरूकता अभियान सभी तो गुरूजी के भरोसे होते हैं। समय-समय पर वोटर-लिस्ट संभालने, नई वोटें बनवानें, वोटें कटवाने आदि का काम करने के लिए बीएलओ नाम का पद कौन संभाले। मास्टर जी और मास्टरनी जी को दे दो। सब संभाल लेंगे। साल में दो-तीन हजार का मानदेय देने पर तो गुरूजी को गुलाम समझो। बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर) का रूतबा क्या काम है। हर समय वोटर-लिस्ट उठाए घूमते रहो। यह बीएलओ का पद ना आया होता तो गुरूजी कभी अफसर ही ना बन पाते।
बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न अध्यापकों द्वारा किए जाने वाले कार्यों की लंबी फेहरिस्त है। कोरोना महामारी के इन दिनों में अध्यापकों ने स्वैच्छिक रूप से ऑनलाइन शिक्षा के जरिये बच्चों के विकास के लिए कार्य शुरू किया तो विभाग को लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है। स्कूल खोलने की जल्दबाजी का परिचय देते हुए अधिकारियों ने अध्यापकों को अवश्य ही स्कूल में आने के आदेश दिए। अब जब महामारी भयंकर रूप धारण करती जा रही है तो अध्यापकों को आठ दिन के अंदर-अंदर परिवार पहचान पत्र (पीपीपी) बनाने के आदेश दिए। बिना किसी प्रशिक्षण के अध्यापक पीपीपी में लगे हैं। वैबसाईट चल नहीं रही, सर्वर डाउन है तो भी अध्यापक लगे हुए हैं। परिवार के सभी सदस्यों के सभी प्रमाण-पत्र जुटाकर प्राप्त करना, उनके रिकॉर्ड दर्ज करना, स्कैन करना और फिर बंद प्राय: वैबासाईट में माथा-पच्ची करना यह सब कार्य अध्यापकों की अथाह सहनशीलता के द्योतक हैं। यही नहीं इसी बीच एक स्थान पर शराबियों व नशेडिय़ों की सूची बनाने के आदेश अध्यापकों को दे दिए गए। जो काम कोई ना कर पाए, वह अध्यापकों को दे दो। अध्यापक ना हुए कि अलादीन के चिराग हो गए कि हुक्म दो और काम लो।
गुरूजनों की महिमा अनंत है। आखिर हर आदेश को बिना ना-नुकूर के पूरा करने वाले गुरूजनों को प्रणाम कहने का मन करता है। क्या अध्यापक डर के साए में हैं। यदि वास्तव में यह सच है तो बच्चों को निर्भीक कैसे बनाएंगे। बच्चों को विचारशील, कल्पनाशील, क्रियाशील बनाते हुए उनकी प्रतिभा के विकास के लिए जमीन कैसे देंगे। सवाल है बाकी अध्यापक दिवस है। एक-दूसरे को बने-बनाए अच्छे-अच्छे संदेश व्हाट्सअप कीजिए। अध्यापक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
मो.नं.-9466220145
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AAJ SAMAJ 5-9-2020 |
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