पुण्यतिथि विशेष
ख्वाजा अहमद अब्बास: सिनेमा, साहित्य व पत्रकारिता की बेमिसाल शख्सियत
अरुण कुमार कैहरबाहरियाणा की कल्चर को एग्रीकल्चर तक महदूद रखकर देखने वालों की कमी नहीं है। हालांकि एग्रीकल्चर में हरियाणा का अपना मुकाम है, जोकि प्रदेश की संस्कृति को भी समृद्ध करता है। इसके बावजूद हरियाणा को साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ा माना जाता है। इसके कुछ वाजिब कारण भी हैं। पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण प्रदेश के संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों व कलाकारों का अपनी सांस्कृतिक विरासत से अनभिज्ञ होना या जुड़ाव की कमी होना है। पंजाब से अलग होकर 1नवंबर, 1966 में अलग राज्य की पहचान बनाने वाले क्षेत्र में आजादी से पहले और इसके बाद में भी ऐसे नामी-गिरामी संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों व पत्रकारों की कमी नहीं है, जिन्होंने हरियाणा-पंजाब ही नहीं पूरे देश में अपनी एक अलग पहचान बनाई। उन्हीं में से एक हैं लोगों के दिलों पर राज करने वाले पत्रकार, संपादक, साहित्यकार, फिल्मकार, निर्देशक, पटकथा लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास। ख्वाजा अहमद अब्बास उर्दू के मकबूल शायर गालिब के शागिर्द मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली के परिवार से थे। हाली पानीपती के नाम से जाने जाने वाले मौलाना हाली उर्दू शायरी व आलोचना का बड़ा नाम है। उन्होंने पानीपत में लड़कियों का पहला स्कूल खोलने सहित समाज सुधार के अनेक काम किए थे। ख्वाजा अहमद अब्बास के दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ हुए विद्रोह के क्रांतिकारियों में से एक थे। उन्हें अंग्रेजों ने तोप से बांध कर उड़ा दिया था।
ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून, 1914 को पानीपत में गुलाम-उस सिबतैन व मसरूर खातून के घर में हुआ। अब्बास ने सातवीं तक की शिक्षा अपने शहर पानीपत में ही प्राप्त की। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से 1933 में बीए और 1935 में एलएलबी की पढ़ाई पूरी की। यहां पढ़ाई करते हुए उन्होंने अलीगढ़ ओपीनियन पत्रिका शुरू की। विश्वविद्यालय से बाहर आने के बाद उन्होंने बॉम्बे क्रॉनिकल में काम करना शुरू किया। शीघ्र ही वे फिल्म विभाग के संपादक के रूप में पदोन्नत कर दिए गए। हर बुधवार को उनका स्तंभ अंग्रेजी में द लास्ट पेज और उर्दू में आज़ाद कलम के नाम से छपता था। यह हैरान करने वाला है कि यह कॉलम उन्होंने 1987 में अपनी मृत्यु 52 साल तक लिखा, जोकि अपने आप में एक रिकॉर्ड है। बॉम्बे क्रॉनिकल में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म समीक्षाएं लोगों को खूब पसंद आने लगी। ऐसा भी होने लगा कि उनकी समीक्षाओं से फिल्में हिट और फ्लॉप होने लगी तो बॉम्बे टॉकीज के मालिक व मशहूर निर्माता हिमांशु राय ने उन्हें ताना मार दिया कि फिल्म को देखकर उसमें नुक्स निकालना आसान होता है, फिल्म खुद बनाओ तो जानें। इस बात को ख्वाजा अब्बास ने चुनौती की तरह लिया। उन्होंने नया संसार नाम की पहली फिल्म पटकथा लिखी और उसे बॉम्बे टॉकीज को बेच दिया। नया संसार के बाद उन्होंने तीन फिल्मों की पटकथाएं और लिखी। लेकिन जब वे फिल्में बन कर पर्दे पर आई तो अब्बास देखकर दंग रह गए। फिल्मों में कहानी का कुछ हिस्सा छोड़ कर बहुत से बदलाव कर दिए गए थे। उन्होंने निर्देशकों से शिकायत की तो टका-सा जवाब मिला कि पटकथा से इतना ही लगाव है तो खुद फिल्में निर्देशित करें।
ख्वाजा अब्बास का स्वभाव था-चुनौतियों को स्वीकार करना। 1943 में बंगाल में अकाल आया था। उन्होंने अकाल के क्षेत्र में खुद जाकर अनुभव प्राप्त किए। इस पर उन्होंने फिल्म लिखी-धरती के लाल। इसे इप्टा के लिए उन्होंने खुद निर्देशित किया। 1945 में आई इस फिल्म ने आर्ट फिल्मों की राह बनाई। अपनी मर्जी यथार्थपरक सामाजिक फिल्में बनाने के लिए 1951 में उन्होंने नया संसार नाम की खुद की कंपनी बनाई। इस बैनर से उन्होंने 13 फिल्में बनाई। गोवा की आजादी पर बनाई गई फिल्म-सात हिन्दुस्तानी अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म है। चाय बागानों में मजदूरों की स्थितियों पर आधारित फिल्म ‘राही’, बड़े शहरों की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती ‘बम्बई रात की बाहों में’, फुटपाथ पर जिंदगी बिताने वालों की दुर्दशा पर आधारित ‘शहर और सपना’ तथा नक्सल समस्या पर ‘द नक्सलाइट्स ’ जैसी फिल्मों को अब्बास साहब के भारतीय सिनेमा को सामाजिक सरोकारों की दिशा में मोडऩे के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। हालांकि इन बहुत सी फिल्मों को आलोचकों ने डोक्यूमेंट्री फिल्में बताकर नजरंदाज करने की कोशिश की।
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DAINIK TRIBUNE 7-6-2020 |
ख्वाजा अहमद अब्बास ने राज कपूर के लिए सबसे अधिक फिल्में लिखी, जिनमें आवारा(1951), श्री 420 (1955), जागते रहो(1956), मेरा नाम जोकर(1972) और बॉबी(1973) आदि प्रमुख हैं। उन्होंने 40 के करीब फिल्मों की पटकथाएं लिखी। उन्होंने बच्चों के लिए भी फिल्में बनाई।
अब्बास साहब ने पांच दशकों की अवधि में 73 से अधिक अंग्रेज़ी, हिंदी और उर्दू में पुस्तकें लिखीं। उन्हें आज भी उर्दू साहित्य की एक विलक्षण प्रतिभा माना जाता है। उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब इंकलाब रही है, जो सांप्रदायिक हिंसा के मुद्दे पर चोट करती है। इंकलाब सहित उनकी कई पुस्तकों का अनुवाद कई भारतीय और विदेशी भाषाओं जैसे रूसी, जर्मन, इतालवी, फ्रेंच और अरबी में किया गया है। उनकी आत्मकथा आई एम नॉट एन आयलैंड, एन एक्सपैरीमेंट इन ऑटोबायोग्राफ़ी पहली बार 1977 में प्रकाशित हुई और फिर 2010 में इसे पुन: प्रकाशित किया गया। शहर और सपना, सात हिन्दुस्तानी और दो बूँद पानी के लिए अब्बास साहब को राष्ट्रीय एकता बनी सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए नरगिस दत्त पुरस्कार जीते। नीचा नगर फिल्म अंतरराष्ट्रीय ख्याति जुटाने में कामयाब रही और इसने कान्स फि़ल्म समारोह में पाल्मे डी ओर पुरस्कार जीता। परदेसी (1957) भी इसी पुरस्कार के लिए नामित होने में सफल रही। 1969 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
ख्वाजा अहमद अब्बास भारतीय सिनेमा, साहित्य व पत्रकारिता की सम्मानित शख्सियत हैं। उन्होंने जिस काम में हाथ डाला उसे अपनी प्रतिभा से निखार डाला। उनका बहु आयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व हम सबके लिए प्रेरणादायी है। वे 1जून 1987 को मृत्यु से पहले भी अपनी फिल्म-एक आदमी की डबिंग में लगे हुए थे। उनका काम हम सबके लिए एक बेमिसाल और अनमोल विरासत है।
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बहुत अच्छा।
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