Tuesday, June 16, 2020

ARTICLE ON JHANSI KI RANI LAXMIBAI


खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी..

अरुण कुमार कैहरबा

भारत की आजादी की लड़ाई अनेक लोगों के साहस और शहादतों से भरी हुई है। पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में हुआ था। इस संग्राम में राजे-रजवाड़ों के साथ-साथ बड़ी संख्या में आम लोगों ने भागीदारी की थी। उन्हीं में से एक थी- खूब लड़ी मर्दानी..झांसी की रानी। एक आम परिवार में जन्म लेकर झांसी की रानी बनने और आजादी के लिए गौरवशाली कुर्बानी देने वाली लक्ष्मीबाई का जीवन-संघर्ष बच्चों और बड़ों सभी को आकर्षित करता है। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता-झांसी की रानी ने महारानी लक्ष्मीबाई की शहादत को जन-जन में पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। लक्ष्मीबाई ने झांसी की रक्षा के लिए सेना में महिला सैनिकों का दस्ता बनाते हुए सेना को मजबूत किया। महिलाओं को युद्ध कौशलों का बाकायदा प्रशिक्षण दिया गया। उस दौर में जब राजाओं की रानियां पर्दे में रहती थी। लक्ष्मीबाई पर्दे से निकल कर देश रक्षा का जिम्मा संभालती है। भले ही झांसी की लड़ाई को नहीं जीता जा सका,  लक्ष्मीबाई व उसकी साथिन सेनानियों की वीरता व शहादत एक मिसाल की तरह देखी जाती रहेगी।
लक्ष्मीबाई का जन्म 19नवंबर, 1828 को काशी में मोरोपंत तांबे व भागीरथी बाई के घर में हुआ था। जब नन्हीं बच्ची का जन्म हुआ तो उसका नाम मणिकर्णिका रखा गया। घर में प्यार से उसे मनु के नाम से पुकारते थे। चंचल और बेबाक स्वभाव की बालिका जब चार-पांच साल की थी तो उसकी माता का देहांत हो गया। पिता मराठा बाजीराव द्वितीय की सेवा में थे। मां के देहांत के बाद वे बिटिया को भी बाजीराव के दरबार में ले जाने लगे। मनु की चंचलता से प्रभावित होकर वहां पर सभी प्यार से उसे छबीली कहने लगे। वहां पर उसे शास्त्र पढऩे के साथ-साथ शस्त्र-तलवारबाजी, घुड़सवारी, तीरंदाजी आदि सीखने का मौका मिला। 1842 में उनका विवाह गंगाधर राव के साथ हुआ और वे झांसी की रानी बन गई। उसका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। लक्ष्मीबाई ने पुत्र को जन्म दिया। लेकिन चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई। 1853 में राजा गंगाधर राव की तबियत बिगड़ी तो उन्हें बेटा गोद लेने की सलाह दी गई। एक बच्चा गोद लेने के बाद राजा की मृत्यु हो गई। बच्चे का नाम दामोदर राव रखा गया।
DAINIK SWADESH 17-6-2020

लार्ड डल्हौजी द्वारा बनाई गई लैप्स की नीति के तहत पुत्र नहीं होने पर राज्य को अंग्रेजों ने हड़प लेने का हुक्म दिया। उन्होंने दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने को अवैध घोषित करवा दिया। लक्ष्मीबाई ने झांसी का किला छोड़ कर नजदीक ही रानी महल में शरण ली। और कोर्ट में केस को मजबूती से लडऩे के लिए मेरठ में अखबार निकालने वाले वकील जॉन लैंग की सेवाएं ली। लैंग भी इसी पक्ष में थे कि अदालत में मामले की पैरवी की जाए और लक्ष्मीबाई पैंशन लेना स्वीकार करे। लेकिन लक्ष्मीबाई ने उन्हें साफ तौर पर कहा कि वे किसी भी सूरत में झांसी नहीं देंगी।
आखिर युद्ध हुआ। युद्ध में लक्ष्मीबाई की वीरता के बारे में अंग्रेजी सेना की अगुवाई कर रहे कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने जो चित्रण किया है, उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। ब्रिग्स ने रानी को लड़ते हुए देखा था और खुद भी लड़ाई की थी। बताते हैं कि रानी ने दांतों में घोड़े की रस्सी दबा रखी थी। दोनों हाथों में तलवारें लेकर एक साथ दोनों तरफ तलवारें चला रही थी। सीने में तलवार लगने के बाद भी वह लड़ती रही। उन पर लिखने वाले अंग्रेज लेखकों ने लिखा है कि उसके बाद लक्ष्मीबाई के सिर पर तलवार लगी। उसके बावजूद लक्ष्मीबाई की इच्छा थी कि वह अंग्रेजों की पकड़ में ना आए। उसने मंदिर में शरण ली। 17जून 1858 को वह आजादी के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हो गई। उसके साथियों ने अंग्रेजों के हाथ नहीं ओने देने के संकल्प का पूरा करने के लिए उसके शव को जला दिया गया और अंतिम दम तक संघर्ष किया।
झांसी पर आखिरी कार्रवाई करने वाले सर ह्यू रोज ने कहा था, ‘सभी विद्रोहियों में लक्ष्मीबाई सबसे ज्यादा बहादुर और नेतृत्वकुशल थीं। सभी बागियों के बीच वही मर्द थीं।’  सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती हैं-
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता-नारी थी,दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी।
युद्ध में लक्ष्मीबाई की सेना के दुर्गा दल की सेनापति झलकारी बाई का योगदान भी कम नहीं है। झलकारी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी और रानी का वेश धारण करके ही लड़ती थी। 1857 में लक्ष्मीबाई के साथ ही झलकारी व अन्य वीरांगनाओं की शहादत को भी भुलाया नहीं जा सकता। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी पर लिखा है-
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।गोरों से लडऩा सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी।

No comments:

Post a Comment