Sunday, June 7, 2020

HABIB TANVIR- AN EXPERIMENTAL THEATRE ACTIVIST

पुण्यतिथि विशेष

हबीब तनवीर ने रंगकर्म को दिखाई नवाचार की राह

अरुण कुमार कैहरबा

बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार हबीब तनवीर रंगमंच के क्षेत्र में अपने प्रयोगों, नवाचार और जनपक्षधरता के लिए हमेशा याद किए जाते रहेंगे। उन्होंने अपनी कला को लोक परंपराओं के साथ जोड़ा और उन्हें आधुनिक बाना पहनाकर विश्व प्रसिद्ध बना दिया। उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की कला को प्रतिष्ठित करने का काम किया। रंगकर्म के क्षेत्र में उनके काम को देखते हुए उन्हें रंगमंच का विश्वकोष कहा जाता था।

हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर,1923 को मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के रायपुर में हुआ था। उनके पिता हफ़ीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के रहने वाले थे। स्कूली शिक्षा रायपुर और बी.ए. नागपुर के मौरिस कॉलेज से करने के बाद वे एम.ए. करने अलीगढ़ गए। युवावस्था में ही कविताएं लिखते हुए उन्होंने अपने साथ उपनाम तनवीर जोड़ लिया था। 1945 में वे मुंबई गए और ऑल इंडिया रेडियो से बतौर निर्माता जुड़ गए। इसी दौरान उन्होंने कुछ फि़ल्मों में गीत लिखने के साथ अभिनय किया। मुंबई में तनवीर प्रगतिशील लेखक संघ और बाद में इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़े। ब्रिटिशकाल में जब एक समय इप्टा से जुड़े तब अधिकांश वरिष्ठ रंगकर्मी जेल में थे। 1954 में उन्होंने दिल्ली का रुख किया और वहाँ कुदेसिया जैदी के हिंदुस्तान थिएटर के साथ काम किया। उन्होंने बच्चों यहां के लिए भी कुछ नाटक किए। दिल्ली में तनवीर की मुलाकात अभिनेत्री मोनिका मिश्रा से हुई जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी बनीं। यहीं उन्होंने अपना पहला महत्वपूर्ण नाटक आगरा बाजार किया। 
1955 में तनवीर इग्लैंड गए और रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक्स आट्र्स (राडा) में प्रशिक्षण लिया। इस दौरान उन्होंने यूरोप का दौरा करने के साथ वहाँ के थिएटर को करीब से देखा और समझा। वहां के अनुभवों से लैस होकर तनवीर 1958 में भारत लौटे और एक पूर्णकालिक निर्देशक के रूप में नाटक करने लगे। उन्होंने शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक मृच्छकटिका पर केंद्रित नाटक मिट्टी की गाड़ी तैयार किया और नया थिएटर की नींव तैयार करने लगे। फिर छत्तीसगढ़ के छह लोक कलाकारों को साथ लेकर उन्होंने 1959 में भोपाल में नया थिएटर की नींव डाली।
नया थिएटर ने रंगमंच को नई राह दिखाई। लोक कलाकारों के साथ किए गए इस प्रयोग ने नया थिएटर को रंगमंच के क्षेत्र में नवाचार के लिए प्रसिद्ध कर दिया। उनके नाटकों की बात ही अलग है। नाटक चाहे संस्कृत (‘मृच्छकटिकम’, मुद्राराक्षस, उत्तररामचरितम, मालविकाग्निमित्रम, वेणीसंहार) के हों या हिन्दी में असगर वजाहत का ‘जिन लाहौर नी वेख्या ओ जन्मया ही नी’ या फिर शेक्सपियर के ‘मिड समर नाइटस ड्रीम’ का अनुवाद ‘कामदेव का अपना-बसंत ऋतु का सपना’ हो या फिर आदिवासियों की आंतरिक पीड़ा को रेखांकित करता हुआ ‘हिरमा की अमर कहानी’ या फिर ‘चरनदास चोर’ जैसा अपार लोकप्रियता प्राप्त करने वाला नाटक,  सभी नाटकों की संवेदना दर्शकों को छूती है। ‘चरणदास चोर’ तो उनकी कालजयी कृति है। यह नाटक भारत सहित दुनिया के अनेक स्थानों पर खेला गया। इस नाटक की वजह से उन्हें अंतरर्राष्ट्रीय एडिनबर्ग नाटक समारोह में फ्रिंज फस्र्ट अवार्ड मिला। छत्तीसगढ़ की नाचा शैली में 1972 में किया गया उनका नाटक ‘गाँव का नाम ससुराल और मोर नाम दामाद’ ने भी खूब वाहवाही लूटी। उनके जहरीली हवा, उत्तर राम चरित्र, पोंगा पंडित, फुटपाथ और गांधी जैसे असंख्य नाटकों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने नाटक के विकास के लिए कभी सत्ता के गलियारों से मदद की कोई गुहार नहीं लगाई, बल्कि अपने बूते अपने तरह के रंगमंच की राह तैयार की।
भारतीय और विश्व रंगमंच को उनके योगदान के कारण कईं बार सम्मानित किया गया। तनवीर को 1969 और 1996 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 1983 में पद्श्रमी और 2002 में पद्मभूषण मिला। 1972 से लेकर 1978 तक वे उच्च सदन राज्यसभा के सदस्य रहे। 8 जून 2009 को हबीब दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनके नाटक और रंगकर्म रंगमंच से जुड़े लोगों को प्रेरणा देते रहेंगे।

WATCH CHARAN DAS CHOR PLAY-
https://www.youtube.com/watch?v=yWKyGgPxWOQ

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