Monday, June 22, 2020

SHIKSHA VIMARSH

सरकारी शिक्षा में नई चुनौतियों व पहलकदमियों का दौर

अरुण कुमार कैहरबा

कोरोना महामारी की मार हर क्षेत्र पर पड़ी है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। महामारी के कारण स्कूल व बोर्ड स्तर की परीक्षाएं रोकनी पड़ी। तालाबंदी के दौरान ही जो भी परीक्षाएं हुई थी, उसी के आधार पर परिणाम बनाकर विद्यार्थियों को सूचित किया गया। नए सत्र का आगाज भी ऑनलाइन हुआ। स्कूलों के कक्षावार व्हाट्सअप समूह बनाकर विद्यार्थियों को उनसे जोड़ा गया। ऑनलाइन माध्यमों से ई-लर्निंग का नया अध्याय शुरू हुआ। अध्यापकों ने घर से पढ़ाओ ई-लर्निंग कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। ऐसे में एंड्रोयड फोन व इंटरनेट की सुविधा से वंचित परिवारों के बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से कटते गए और समावेशी शिक्षा में बड़ा व्यवधान पैदा हुआ। ई-लर्निंग के बच्चों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर पडऩे वाले दुष्प्रभावों ने भी शिक्षाविदों व मनोवैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया।
इन सारी स्थितियों के बीच में सरकारी स्कूलों के अध्यापकों ने शानदार कार्य किया है। हम सबकी है जिम्मेदारी, बेहतर हो शिक्षा सरकारी के मूलमंत्र के साथ विभिन्न प्रदेशों के अध्यापकों द्वारा बच्चों को साहित्य से जोडऩे, उनकी सृजनशीलता को उभारने व मंच प्रदान करने के लिए बाल मंथन ई-पत्रिका शुरू करने की खासी चर्चा हो रही है। मंथन टीम पत्रिका के माध्यम से सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के सृजन को नए पंख देना चाहती है। कोरोना काल में ही बाल मंथन का जून-जुलाई का दूसरे अंक का ऑनलाइन ही विमोचन किया गया। पहले अंक की ही तरह बाल कविताओं, कहानियों, गीतों, रंगों, चित्रों, जानकारियों से सुसज्जित दूसरा अंक भी बच्चों को अपनी तरफ खींचने वाला है। अंक में अध्यापकों की बालोपयोगी रचनाएं और बच्चों के सृजन के विभिन्न रंग हैं। शिक्षा व सृजन के क्षेत्र में पत्रिका उम्मीद जगाने वाली है।
दूसरे अंक में एक राजस्थानी लोक कथा-सुनेली का कुआं है। कहानी में राजस्थान के जल संकट में सुनेली लंबी दूरी तय करके पानी लेकर आती है। उसका सारा दिन पानी लाने के थकाऊ काम में बीतता है। कईं लोगों ने तो अपने घर ही कूओं के नजदीक बना लिए हैं। एक दिन जब वह पानी का घड़ा लेकर आ रही होती है तो उसे खेजड़े के पेड़ के नीचे चूहां द्वारा बना गया बिल दिखाई देता है, जिससे नम मिट्टी निकली हुई है। उसे वहां जमीन में पानी की संभावना नजर आती है। वह पक्का इरादा करके कुआं खोदने लग जाती है। पहले परिवार में भी उसका मजाक बनाया जाता है। फिर परिवार के लोग धीरे-धीरे करके उसके काम में जुट जाते हैं। बाद में गांव के लोग उसका मजाक बनाते हैं। आखिर वह सफल होती है और उस कुएं का नाम सुनेली का कुआं रखा जाता है। सुनेली की ही तरह बाल मंथन टीम का जोश और जज्बा है, जोकि सृजनशीलता का कूआं खोदने से किसी भी तरह से कम नहीं है। ऐसे परिवेश में जहां पर बच्चों की विचारशीलता, कल्पनाशीलता व प्रश्नाकूलता को हल्के में लिया जाता है। जहां पर बच्चों के नए विचारों और सवालों को दबा दिया जाता है। ऐसे में अध्यापकों का बच्चों की सृजनात्मकता को मंच प्रदान करने की कोशिश करना एक काबिलेतारीफ पहल है। यह पत्रिका सरकारी सकूलों के अध्यापकों व बच्चों की प्रतिभा का दस्तावेज बन रही है। पत्रिका के मुख्य संपादक सुरेश राणा, संपादक नरेश कुमार, सहसंपादक प्रदीप बालू हैं। डिजाईनिंग प्राथमिक शिक्षक सबरेज अहमद ने की है। कला-संयोजन सहित पत्रिका के सभी काम अध्यापक तल्लीनता से करते हैं। 
आशा है बाल मंथन पत्रिका निरंतरता में बालकों को उनकी सोच, उनकी जिज्ञासा, उनकी कल्पनाओं तथा उनकी रंगीन नटखट दुनिया को अभिव्यक्त करने का मंच उपलब्ध करवाते हुए उनमें छुपी प्रतिभा एवं रचनात्मक शक्ति को उभारने का प्रयास करेगी तथा भाषा संवर्धन में महती भूमिका अदा करेगी। बच्चों को साहित्य से संवाद करने का अवसर  मिलेगा। यह पत्रिका केवल बालकों के लिए ही नहीं अपितु शिक्षक, अभिभावक तथा शिक्षाविदों के लिए उपयोगी होगी। 

No comments:

Post a Comment