Tuesday, May 26, 2020

ये क्या हो रहा है?.. ..ऐसा तो नहीं सोचा था!ja


JAMMU PARIVARTAN 26-5-2020

अरुण कुमार कैहरबा
जिस दौर से आज हम गुजर रहे हैं, शायद उसके बारे में पहले किसी ने सोचा भी नहीं होगा। कोरोना वायरस दुनिया के लोगों की जान का दुश्मन बन जाएगा। वायरस से बचने के लिए दुनिया के नामी-गिरामी देशों को लॉकडाउन लगाना पड़ेगा। जहाज, रेल गाडिय़ां, बसें व वाहन नहीं चलेंगे। सडक़ें सुनसान व गांव-शहर वीरान हो जाएंगे। लोग अपने ही घरों में सिमट जाएंगे। लोगों का एक दूसरे से मिलना और इक_ा होना अपराध बन जाएगा। वे एक-दूसरे से कतराते फिरेंगे। सामाजिक एकता व मिलवर्तन के स्थान पर सामाजिक दूरी का प्रचार किया जाएगा। ये शेर तो जरूर सुना था- ‘कोई हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से, ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।’ लेकिन ऐसा तो नहीं ही सोचा था कि एक दूसरे से गले मिलकर और हाथ मिलाकर अभिवादन करने की बजाय दूरी बनाते हुए हाथ जोड़ कर मुंह को मास्क से ढ़ांपे हुए अभिवादन करने की रिवायत शुरू होगी। एकांतवास व क्वारंटाइन जैसे शब्द हवा में यूं उछाले जाएंगे। शहरों व गांवों को युद्ध स्तर पर सेनिटाइज करने की जरूरत आएगी। ये सारी चीजें अप्रत्याशित रूप से हम होते हुए देख रहे हैं।
DEVPATH 25-5-2020

यही नहीं इसके बारे में भी किसने सोचा होगा कि शासक लोगों को जनता कफ्र्यू के बारे में बताएंगे और घर पर ही रहने की अहमियत समझाएंगे। घर पर ही रह कर पूरी तरह ऊब चुके लोगों को घंटियां, थालियां व बर्तन बजाकर मनोरंजन करने के लिए कहा जाएगा। फिर एक दिन कोरोना को भगाने के लिए नौ बज कर नौ मिनट पर दीप जलाने के लिए कह दिया जाएगा। कुछ लोग इस अपील पर इतने अधिक उत्साहित हो जाएंगे कि वे गलियों में उतर कर उन्माद से भरे नारे लगाते हुए आतिशबाजी करने लगेंगे। बम फोडऩे वाले उन्मादियों के लिए तो शायद कोरोना को भगाने और सबक सिखाने का यही एकमात्र तरीका रहा होगा, लेकिन बाद में वो ही लोग अपने आप को ठगा सा महसूस करेंगे।
कहां किसी ने सोचा था कि फिर से लोगों को भारत-पाक विभाजन के दौरान लोगों के उजडऩे जैसे दृश्य दिखाई देंगे। एक ही देश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रोजी-रोटी कमाने वाले मजदूरों को प्रवासी मजदूर बताया  जाएगा। अपनी आंखों में सपने लेकर अपने गांव छोड़ कर शहरों में आए, झोंपडिय़ां व कच्चे मकान बनाकर रह रहे लोगों को अपने से लगने वाले घरों में रोटी नहीं मिल पाएगी। काम छिन जाएगा। सरकारें उनके लिए रोटी का प्रबंध नहीं कर पाएंगी। वे सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके अपने घरों को जाने को मजबूर होंगे। छोटे बच्चों को गोद में उठाए, सामान की पोटलियों को कंधों पर लटकाए व गर्भवती महिलाओं को साथ लिए जब वे जाएंगे तो रास्ते में कोरोना योद्धा कहलाने वाले पुलिसकर्मी उनका लाठियों से स्वागत करेंगे। देश के विकास की रीढ़ कहलाने वाले मजदूर रेलगाडिय़ों के नीचे दबकर मरेंगे। भूखे मरेंगे। सडक़ों में गर्भवती महिला मजदूरों को बच्चे जनने पड़ेंगे। मजदूरों को ना तो ससम्मान भेजा जाएगा और ना ही जाने दिया जाएगा। उनके रूकने के लिए बहुत से स्थानों पर शिविर बनाए जाएंगे, लेकिन वहां ना तो भरपेट रोटी दी जाएगी और ना ही अन्य सुविधाएं। देश के लाखों लोग बेरोजगार और बेघर-बार हो जाएंगे। जो नेता उनकी वोट पाकर सत्ता की ऊंचाईयों तक पहुंचते हैं, वे नेता उन मजदूरों को इस तरह अपने ही हाल पर छोड़ देंगे।
हालांकि हमारे नेताओं का व्यवहार अप्रत्याशित नहीं है। हमें अनुमान था कि हमारे नेता देश पर आने वाली हर आपदा के समय राजनीति से बाज नहीं आएंगे। कुछ दल और नेता शारीरिक दूरी के स्थान पर लोगों को सामाजिक रूप से बांटने के लिए साम-दाम-दंड-भेद कोई भी तरीका अपनाएंगे। धर्म-सम्प्रदाय को गोटियां बनाकर खेलने में व्यस्त होंगे। ऐसे गहरे संकट के समय में अप्रत्याशित और प्रत्याशित के बीच में कुछ नया सोचने और करने का समय है। क्या हम सोच सकते हैं कि सडक़ों पर मरने के लिए मजबूर हो रहे लोग भी कुछ अप्रत्याशित कर बैठे तो क्या होगा?

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