Monday, May 3, 2021

PRESS FREEDOM DAY / MEDIA & DEMOCRACY

 विश्व प्रैस दिवस पर विशेष

गर तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो.....
मीडिया पर निर्भर है लोकतंत्र की साख
अरुण कुमार कैहरबा
JANSANDESH TIMES 3-5-2021


प्रैस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इसकी महत्ता को रेखांकित करते हुए अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, ‘यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अखबार और सरकार में से किसी एक को चुनना है तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अखबारों का अस्तित्व अवश्य रहे।’  विश्व के सभी प्रगतिशील विचारों वाले देशों में अखबारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मीडिया में और विशेष तौर पर प्रिंट मीडिया में जनमत बनाने की अद्भुत शक्ति होती है। नीति निर्धारण में जनता की राय जानने में और नीति निर्धारकों तक जनता की बात पहुंचाने में समाचार पत्र एक सेतु का काम करते हैं। विभिन्न कालों में बदलाव की जरूरत को प्रस्तुत करने और बदलाव की वैचारिक भूमिका तैयार करने में समाचार पत्रों ने अहम भूमिका निभाई है। भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, लोकमान्य तिलक, और जवाहर लाल नेहरू जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अखबारों को अपनी लड़ाई का एक सशक्त हथियार बनाया। आजादी के लिए भारतीय समाज को शिक्षित करने, संगठित बनाने और संघर्ष को दिशा देने में समाचार पत्रों की विशेष भूमिका थी। इस प्रभाव से अंग्रेज इतना अधिक आतंकित थे, कि उन्होंने प्रैस की स्वतंत्रता बाधित करने के लिए हर संभव कदम उठाए। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और वकालत करने में अखबार अग्रणी रहे। आज मीडिया अखबारों तक सीमित नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वेब मीडिया भी मैदान में हैं। इसके बावजूद प्रिंट मीडिया का कोई विकल्प नहीं है। प्रिंट मीडिया में छपी हुई बातों को हम संदर्भ के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं और उनका अध्ययन भी कर सकते हैं।
अखबार की अहमियत को बयां करता मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी का शेर है-न खेंचो कमान, न तलवार निकालो। गर तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।’ संविधान में हर व्यक्ति को बिना किसी धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र व लिंग भेद के स्वतंत्रता व सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिला है। लोकतंत्र में मानवाधिकार का दायरा अत्यंत विशाल है। राजनैतिक स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, महिलाओं के अधिकार, बाल अधिकार, निशक्तों के अधिकार, आदिम जातियों के अधिकार, दलितों के अधिकार जैसी अनेक श्रेणियां मानवाधिकार में समाहित हैं। यदि गौर किया जाए तो कुछ ऐसी ही विषयवस्तु पत्रकारिता की भी है। पत्रकारों के लिए भी मोटे तौर पर ये संवेदनशील मुद्दे ही उनकी रिपोर्ट का स्रोत बनते हैं। भारत जैसे देश में जहां गरीबी, अज्ञानता व सामाजिक भेदभाव ने समाज के एक बड़े हिस्से को अंधकार में रखा है, वहां मानवाधिकारों के बारे में जागरुकता जगाने में, उनकी रक्षा में तथा आम आदमी को सचेत करने में अखबार व जनसंचार के साधन समाज की मदद कर सकते हैं। कोई भी राष्ट्र तब तक पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो जाता, जब तक उसके नागरिकों को अपने अधिकारों को जीवन में इस्तेमाल करने का संपूर्ण मौका नहीं मिल सकता। मानवाधिकारों का हनन मानवता के लिए खतरा है। आम आदमी को उसके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने में मीडिया निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूचना के प्रचार-प्रसार से लेकर आम राय बनाने तक में मीडिया अपने कर्तव्य का भली-भांति वहन करता है। प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ उसके मालिक, संपादक और पत्रकारों की निजी व व्यावसायिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं होती बल्कि यह उसके पाठकों की सूचना पाने की स्वतंत्रता और समाज को जागरुक होने के अधिकार को भी अपने में समाहित करती है। सवाल उठाना और समाज को जागरूक बनाना ही प्रैस का सबसे बड़ा फर्ज है।
मीडिया समाज की आवाज सत्ता के केन्द्रों तक पहुंचाने में उसका प्रतिनिधि बनता है। इसके बावजूद यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि क्या वाकई मीडिया अथवा प्रैस जनता की आवाज है? मीडिया के एक हिस्से में किसानों की आत्महत्याओं, किसान आंदोलन, कोरोना महामारी के दौरान लोगों की पीड़ाएं सहित विभिन्न विषयों पर प्रकाशित हो रहे समाचारों को देखकर उम्मीद बंधती है। लेकिन मीडिया एक हिस्सा ऐसा भी है, जोकि अधिक महत्वपूर्ण समाचार को छोड़ कर टीआरपी के चक्कर में कम महत्वपूर्ण विषयों को तरजीह देता है। कईं बार तो क्रिकेट की रिपोर्टिंग और किसी सलिब्रिटी की निजी जिंदगी को महिमामंडित करने में ही मीडिया अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेता है। कईं बार बाजारवादी ताकतों के प्रभाव में वह जनता के बुनियादी मुद्दों की उपेक्षा करता हुआ पाया जाता है। कईं बार देखने में आता है कि विज्ञापन के जरिये मुनाफा कमाना ही इसका एकमात्र ध्येय है। चुनावों के समय समाचारनुमा या डोक्यूमेंट्रीनुमा विज्ञापनों का प्रकाशन और प्रसारण मीडिया की मुनाफाखोरी का घिनौना चेहरा पेश करता है।
DAILY NEWS ACTIVIST 3-5-2021


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि सच्चाई क्या है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया हर समाचार को बड़ा समाचार कह कर प्रस्तुत कर रहा है। 24घंटे तक लगातार चलते रहने के कारण कईं बार चैनलों के पत्रकार गैरजरूरी चीजों को तूल देते हैं। टीआरपी की चाह में टीवी न्यूज चैनल सिर्फ अगंभीर विमर्शों तक सीमित नहीं हैं अपितु वे फिल्मी चकाचौंध, सास-बहू के किस्सों, क्रिकेट की दुनिया के अलावा अंधविश्वासों तक को अपने प्रोग्राम में काफी स्थान देते हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकारों को कईं बार समाचार जुटाने के लिए संवेदनहीनता के चरम तक जाते हुए देखा जाता है। दर्दनाक हादसे के पीडि़तों से समय काटने के लिए वे बिना उनकी स्थिति को सवयं महसूस किए वे यहां तक पूछ लेते हैं कि ‘आप कैसा महसूस कर रहे हैं?’
वास्तव में आज की पत्रकारिता एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जब उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्रचिन्ह लग रहे हैं। पिछले कुछ सालों से मीडिया के बड़े हिस्से ने सरोकारों को छोड़ कर सरकार को समर्पित कर दिया है। सरकार यदि एक कदम भी चलती है तो मीडिया उसे कदमताल दिखाता है। सरकार का भोंपू बन कर मीडिया ने अपनी कद्र घटाई है। जनतंत्र के प्रति मीडिया की घट रही प्रतिबद्धता की वजह से कहा जाने लगा है कि चैनलों पर समाचार देखकर समय नष्ट ना करें। इस तरह के मीडिया को गोदी मीडिया कहा जाने लगा है और उसकी साख दिनोंदिन कम होती गई है। देश के लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए पत्रकारों, साहित्यकारों व कलाकारों की जिम्मेदारी है कि वह विपक्ष की भूमिका निभाए। लेकिन यह भी देखने में आता है कि मीडिया के एक हिस्से ने प्रतिपक्ष को ना दिखाने की कसम खा ली है। विपक्ष को खत्म करके मीडिया अपनी वास्तविक उपयोगिता व प्रासंगिकता भी खत्म कर देगा।
भारत में मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले हो रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी पुष्टि हो रही है। रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स की ओर से जारी ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2021’ में भारत 180 देशों में 142वें स्थान पर है। पिछले साल भी भारत 142वें स्थान पर ही था जबकि 2016 में भारत का स्थान 133वां था। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अपना काम ठीक से करने वाले पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में से एक है। कवरेज के दौरान पत्रकारों को पुलिस हिंसा, राजनैतिक कार्यकर्ताओं व अपराधियों के हमले का शिकार होना पड़ता है। भारत में कोरोना महामारी का बहाना बनाकर भी मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाए गए हैं। सोशल मीडिया के मंचों को भी सरकार द्वारा नियंत्रित किया गया है। सूचकांक में शीर्ष पर नॉर्वे तथा फिनलैंड और डेनमार्क क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर हैं। एरिट्रिया इस सूची में सबसे निचले पायदान पर है। सूची में चीन का 177वां स्थान है। तुर्कमेनिस्तान 178वें और उत्तर कोरिया 179वें स्थान पर है। सूची में नेपाल 106वें, श्रीलंका 127वें, म्यांमार 140वें, पाकिस्तान 145वें और बांग्लादेश 152वें स्थान पर है।
तमाम प्रकार की परिस्थितियों के बावजूद बहुत कम प्राप्त करने के बावजूद बहुत से पत्रकार जमीनी हकीकत को उजागर करने के लिए जान जोखिम में डाल रहे हैं। ऐसे में पत्रकार के रूप में प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि दिग्गज साहित्यकारों द्वारा सामाजिक बोध जगाने के अपने दायित्व का निर्वहन किया जाना युवा पत्रकारों के लिए प्रेरणास्रोत है। उन्होंने पीडि़त, शोषित आम जन के जीवन के मुद्दों को गहरी समझ के साथ उठाते हुए अपने दायित्वबोध का परिचय दिया। उनकी संवदेनाएं, उनकी भाषा और उनके सरोकार आज भी अनुकरणीय हैं। फटाफट के युग में आज ये गुण कहीं खो से गए लगते हैं। लेकिन नाउम्मीदी के दौर में भी आशा और उम्मीद की कमी नहीं है।
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जि़ला-करनाल, हरियाणा
मो.नं-9466220145

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