डॉ. महावीर नरवाल स्मृति नित्यनूतन व्याख्यान
धार्मिक होना साम्प्रदायिक होना नहीं होता: पंकज चतुर्वेदी
‘धर्म एवं साम्प्रदायिकता’ विषय पर ऑनलाइन संगोष्ठी
कईं राज्यों के साहित्यकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने की शिरकत
अरुण कुमार कैहरबा
साक्षरता व ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले डॉ. महावीर नरवाल की स्मृति में नित्यनूतन वार्ता द्वारा धर्म एवं साम्प्रदायिकता विषय पर ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया। विभिन्न राज्यों के साहित्यकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संगोष्ठी में हिस्सा लिया। संगोष्ठी का संचालन लोक इतिहासविद सुरेन्द्र पाल सिंह ने किया।
संगोष्ठी का शुभारंभ करते हुए नित्यनूतन वार्ता के संपादक राममोहन राय ने कहा कि गांधी विनोबा विचार को केन्द्रित नित्यनूतन पत्रिका दीदी निर्मला देशपांडे ने 1985 में शुरू की थी। कोरोना काल में नित्यनूतन वार्ताओं का दौर शुरू किया गया था। आज तक 350 के करीब वार्ताएं हो चुकी हैं। यह वार्ता डॉ. महावीर नरवाल को समर्पित है। डॉ. महावीर नरवाल की बेटी नताशा को हम सभी जानते हैं। वह सामाजिक उत्पीडऩ के प्रतिकार की प्रतीक बन गई है। वह साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ लड़ रही है। उसने पिंजड़ा तोड़ अभियान चलाया। देशद्रोह के आरोप लगाकर उसे जेल में डाल दिया गया। पिता की बीमारी के बावजूद वह बाहर नहीं आ पाई। पिता की मृत्यु के बाद उसे तीन सप्ताह का पैरोल मिला है। आज देश में आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन व भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद व सुभाष चंद्र बोस की क्रांतिकारी विरासत के मूल्य के विपरीत माहौल बन रहा है।
डॉ. महावीर नरवाल की बहन व पूर्व प्रधानाचार्य गीता पाल ने कहा कि कोरोना और व्यवस्था की खामियों की वजह से 9 मई, 2021 को डॉ. महावीर नरवाल हमसे विदा हो गए, लेकिन अपने कार्यों व विचारों के माध्यम से वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे। महावीर एक बार भी जिनसे मिले थे, उनके साथ आत्मीयता का रिश्ता रखते थे। उन्होंने हमेशा आम लोगों की मदद की। वे बहुत ही संवेदनशील एवं सहयोगी व्यक्ति थे। अन्याय के खिलाफ मजबूती से लड़ते रहने वाले थे। उन्होंने कहा कि वे उनके गॉड फादर थे। उनके गांव में आठवीं तक का स्कूल था। तीनों बहनों को उन्होंने पढ़ाया। उनकी प्रेरणा से हम आगे बढ़ पाए। वे आत्मनिर्भर बनाने में विश्वास रखते थे। उन्होंने बताया कि महावीर नरवाल को सारे संस्कार माता-पिता से मिले थे। पिता जी सेना से रिटायर हुए थे। गांव के लोग उन्हें सूबेदार साहब कहते थे। उन्होंने महिलाओं का घूंघट दूर करवाया। पिता जी और माता जी हर व्यक्ति का सहयोग करते थे। घोर जातिवाद के दौर में पिता जी हर घर में जाते थे और उनके शादी समारोहों में शिरकत करते थे।
महावीर नरवाल ने हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। हर वर्ष वे टॉप करते थे। एसएफआई को खड़ा किया। एमरजेंसी के दौरान 11 महीने जेल में रहे। तीन बहनों की जिम्मेदारी होने के कारण ही उन्होंने नौकरी जॉइन की। अध्यापकों के आंदोलन को खड़ा किया। संघर्ष और अध्ययन उनके जीवन का हिस्सा था। पहले दिन जब वे अध्यापक के रूप में कक्षा में गए तो 86 में से 11 विद्यार्थी कक्षा में आए थे। उन्होंने उन्हें बाहर बुलाया। कैंटीन गए। उन्हें चाय पिलाई और कल आने के लिए कहा। दूसरे दिन भी यही हुआ। अगले दिन विद्यार्थियों ने पढ़ाने के लिए कहा। उन्होंने पढ़ाना शुरू किया तो धीरे-धीरे सभी विद्यार्थी कक्षा में आने लगे। उन्होंने साक्षरता एवं ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। आरक्षण आंदोलन के दौरान उन्होंने सद्भावना मंच बनाया। किसान आंदोलन में किसानों का साथ दिया। सहयोग इकठ्ठा किया और किसानों के पास भिजवाया। उनका एक बहुत बड़ा परिवार है।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार पंकज चतुर्वेदी ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए बताया कि महावीर नरवाल का जाना बहुत से लोगों की निजी क्षति है। उन्होंने बताया कि उनकी मृत्यु के बाद उनके पास मुंबई से एक बहुत बड़े विद्वान का फोन आया, जिन्होंने अगले जन्म में डॉ. नरवाल जैसे माता या पिता के घी जन्म लेने की इच्छा जताई।
पंकज चतुर्वेदी ने कोरोना महामारी व इससे निपटने के उपायों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आज चारों तरफ हताशा व बेबसी दिखाई देती है। उन्होंने कहा कि व्यवस्था की नाकामी से मरे हैं लोग। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने वोट डालते हुए अस्पताल, स्कूल, ऑक्सीजन नहीं देखे। हमने मंदिर बनाने के लिए वोट दिए। हमने किसी एक समुदाय को सबक सिखाने के लिए वोट दिए। उसका परिणाम हम भुगत रहे हैं।
धर्म एवं साम्प्रदायिकता विषय का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने अपने निजी जीवन में बचपन के प्रसंग सुनाते हुए कहा कि वे मध्यप्रदेश के शिवपुर के जैन आश्रम में पढ़े। पिता ने 50 के दशक में एमए अंग्रेजी की। जनेऊ धारण करते थे। वे मंत्रोच्चार करते,पूजा करते, उसके बाद उनका धर्म के साथ नाता मानवता के साथ ही होता था। उनके घर में किसी के आने-जाने पर पाबंदी नहीं थी। ना ही किसी विशेष जातियों के खाने-पीने के लिए अगल बर्तन होते थे। इससे स्पष्ट होता है कि एक व्यक्ति धार्मिक हो कर भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। उन्होंने जावरा में मोहर्रम के दौरान ताजिया में सभी वर्ग के लोगों के शिरकत करने के साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रसंग सुनाए। उन्होंने कहा कि पूरे देश की तरह बाद में जावरा में भी साम्प्रदायिक सद्भाव दूर चला गया। क्यों हुआ ऐसा? क्या लोगों ने अपनी जड़ें खो दी? 80 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में मंदिर की घंटी और अजान इक_े होते थे। लेकिन 1992 में मस्जिद विध्वंस के बाद ऐसे अनेक स्थानों पर दंगे हुए।
उन्होंने कहा कि हमारा सौभाग्य था कि पिता जी हर चीज पर चर्चा करते थे। हर चीज का स्पष्टीकरण देते थे। आज ऐसे लोगों की बहुत कमी है जो धार्मिकता और साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता व नास्तिकता के बीच की बारीक लाईन का महत्व समझा पाते।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी है कि 65 करोड़ की आबादी रोजी-रोटी के लिए पलायन कर चुकी है। यह पलायन देश के साम्प्रदायिक सौहाद्र्र के लिए घातक साबित हुआ है। पलायन करने वाले लोग अपने परिवार के मूल्यों, नैतिकता व सीख को छोड़ गए चले गए। लोग जड़ों से कट गए। दूसरी तरफ धर्म के नाम पर दुकानें खड़ी हुई।
पहले मंदिर ना तो घरों में होते थे और ना ही आवासीय परिसरों में होते थे। आवासीय आबादी से दूर मंदिर व धार्मिक स्थान होते थे। आज घर-घर में मंदिर बना लिए हैं। अपराध करने के बाद लोग धर्म की छाया में चले जाते हैं।
चतुर्वेदी जी ने कहा कि धर्म व साम्प्रदायिकता को समझने के लिए हमें शहीदे आजम भगत सिंह का लेख- मैं नास्तिक क्यों हूँ पढऩा चाहिए। उन्होंने साम्प्रदायिकता के लिए रिश्तों की बजाय धन को वरियता देने की प्रवृत्ति को भी जिम्मेदार बताया। उन्होंने कहा कि धन के लिए नैतिकता को तिलांजलि दे दी। बढ़ती बेरोजगारी के कारण हर दल को ऐसे लोगों को सहारा मिला। उन्होंने सवाल उठाया कि साम्प्रदायिक विभाजन करने वालों का फायदा किसको है? क्या ऐसे लोग देशप्रेमी हैं। क्या वे देश की संस्कृति को प्रेम करते हैं? आसाम, गुजरात, यूपी के साम्प्रदायिक दंगों के उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि साम्प्रदायिकता हमेशा अपने साथ में आर्थिक विपन्नता को लेकर आती है। दंगों का कारण वास्तव में आर्थिक व सामाजिक है। लेकिन उसका फायदा राजनीतिक लोग उठाते हैं।
उन्होंने कहा कि 12सौ साल से भारत में हिन्दु और मुसलमान साथ में रह रहे हैं। झगड़े तो हुए लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी के फ्रिज में मांस देखकर उसे मार दिया जाए। किसी के कपड़े देखकर उसे मार डाला जाए। उन्होंने कहा कि 1931 में कानपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ। गणेश शंकर विद्यार्थी को खो दिया था हमने। उस समय कांग्रेस ने छह सदस्यों का दल बनाया था, जिसने रिपोर्ट जारी की थी। जोकि बताती है कि दोनों समाजों में सांस्कृतिक मेल है। दंगे सोची समझी साजिश के तहत इसलिए करवाए जाते हैं ताकि मूल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके।
पंकज चतुर्वेदी ने तुष्टिकरण के सवाल पर बोलते हुए कहा कि तुष्टिकरण की बातें तो बहुत की गई, लेकिन यदि वास्तव में मुस्लिम तुष्टिकरण हुआ होता तो मुसलमानों को देश में नौकरियों में बराबरी के मौके मिलते। वे आर्थिक रूप से इस हालत में नहीं होते। उन्होंने कहा कि हमारे देश में हिन्दू मुसलमान की पहचान करनी बेहद मुश्किल है। खास तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, जहां पर त्यागी, मलिक सहित कितने ही गोत्र हिन्दूओं और मुसलमानों में समान रूप से होते हैं। उनके कपड़ों व बोली-भाषा में भी अंतर नहीं होता। इसके बावजूद 2013 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दंगे हो गए। हजारों लोगों का पलायन हो गया। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों के आर्थिक कारणों पर भी अपने विचार रखे।
उन्होंने धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकता के संबंध पर चर्चा करते कहा कि आम तौर पर धर्मनिरपेक्ष होने को नास्तिक होने से जोड़ कर देखते हैं। धर्म को मजाक के रूप में लेते हैं। धर्मनिरपेक्ष हूँ तो हमें मंदिर-मस्जिद जाने की जरूरत नहीं ये माना जाता है। इसकी बजाय गांधी की धर्मनिरेक्षता का अनुसरण करना चाहिए, जोकि खुद तो हे राम कहते हैं, लेकिन दूसरे के धर्म व मान्यताओं को भी मानते हैं। उन्होंने कहा कि देश का विभाजन साम्प्रदायिकता के आधार पर नहीं हुआ था। धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हुआ था। जिन्हें धर्मनिरपेक्ष देश चाहिए था वे यहीं रह गए थे और जिन्हें साम्प्रदायिक देश चाहिए था वे पाकिस्तान चले गए।
धर्म और साम्प्रदायिकता विषय को समझने के लिए उन्होंने निम्र किताबों को पढऩे का सुझाव दिया-
1. क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?- पंकज चतुर्वेदी 2012
2. साम्प्रदायिकता एक प्रवेशिका- प्रो. विपिन चंद्रा-एनबीटी
3. भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव- डॉ. गीता यादव
4. साम्प्रदायिकता -डॉ. राम पुनियानी
5. भारत में साम्प्रदायिकता इतिहास और अनुभव- असगर अली इंजीनियर
6. साम्प्रदायिक दंगों का सच- बीजीवीएस-
7. दंगे क्यों और कैसे?- - गिरीराज शाह 1995
8. दंगों का इतिहास- शैलेश कुमार बंदोपाध्याय
9. आति-धर्म के झगड़े छोड़ो सही लड़ाई से नाता जोड़ो-भगत सिंह
10. क्या देश का विभाजन अनिवार्य था- भवानी प्रसाद चट्टोपाध्याय
11. भारत का विभाजन-अनीता इन्द्रपाल सिंह
12. हिन्दू धर्म क्या है?- महात्मा गांधी
पंकज चतुर्वेदी जी के व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब सत्र हुआ। जिसमें अनेक प्रतिभागियों ने सवाल जवाब किए।
सुरेन्द्र पाल सिंह ने मौजूदा दौर में भविष्य की चिंताओं और दिशाओं पर सवाल किया। उनका जवाब देते हुए पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि पिछले दो साल से स्कूल बंद हैं। आठ करोड़ बच्चे ड्रॉप आउट हो जाएंगे। शिक्षा शब्द पढऩे व बस का नाम पढऩे का मसला नहीं है। यह जागरूकता का विषय है। बुद्धि और विवेक शिक्षा देती है। महामारी ने अशिक्षा को बढ़ावा दिया है। अध्यापकों को खत्म कर दिया। उत्तर प्रदेश में दो हजार स्कूल अध्यापक मारे गए। चुनावों की ड्यूटी देते हुए कॉलेज के अध्यापक भी चपेट में आए हैं। महामारी में किताबें नहीं पहुंच पा रही हैं विद्यार्थियों तक। ऐसी परिस्थितियां ही साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं। हमें जागरूकता फैलानी चाहिए। उन्होंने कहा कि बहुत से लोग नहीं जानते कि मोहर्रम पर बधाई नहीं देते हैं। मुस्लिम समाज को भी मिलने-जुलने के मौके देने होंगे। ईद का चांद कैसा होता है? हमें पता नहीं है। यही अज्ञानता ही साम्प्रदायिकता की जननी बनती है।
साहित्यकार सत्यपाल सहगल ने कहा कि धर्मरिपेक्षता के सामने अनेक नई चुनौतियां हैं। लेकिन उनको चुनौती देने की हमारे पास नई भाषा नहीं होती है। नई भाषा, नई तर्कशीलता की जरूरत है। पवन कुमार आर्य ने महात्मा गांधी की पुस्तक से संदर्भ देते और भारत-पाक विभाजन के दौर में साम्प्रदायिक दंगों पर सवाल किया। अजेय ने भी सवाल किया। संगोष्ठी में देश भर से अनेक शख्सितयों ने शिरकत की और अपनी टिप्पणियों के जरिये हस्तक्षेप किया।
-अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार एवं लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
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