Sunday, May 30, 2021

हिंदी पत्रकारिता दिवस विशेष


पत्रकारिता ने आजादी की लड़ाई में निभाई मुख्य भूमिका

अंग्रेजी राज के शोषण के बावजूद अभिव्यक्ति की आजादी के लिए किया संघर्ष
अरुण कुमार कैहरबा
jagat kranti 30-5-2021


पत्रकारिता सूचनाओं के माध्यम से ज्ञान की रोशनी है। झूठ के खिलाफ सत्य का संघर्ष है। हालांकि आज भले ही मीडिया के एक हिस्से और उनकी पत्रकारिता पर कई प्रकार के आरोप लग रहे हैं। लेकिन यदि सच्ची पत्रकारिता की बात करें तो वह हमेशा सामाजिक सरोकारों से लैस रही है। झूठ, भ्रष्टाचार, प्रलोभन, अन्याय और अत्याचार से लड़ती हुई समाज के कमजोर वर्गों के हित में खड़ी रही।
भारत में पत्रकारिता के इतिहास की बात करें तो अंग्रेजी, बांग्ला, उर्दू, फारसी व हिन्दी समाचार-पत्रों के शुरूआती प्रकाशन का श्रेय कलकत्ता को जाता है। अंग्रेजों के आगमन, समाज सुधारकों व संस्कृतिकर्मियों के कारण बंगाल नवजागरण का केन्द्र बना। कलकत्ता से 29 जनवरी, 1780 में आयरिश नागरिक जेम्स ऑगस्टस हिकी ने अंग्रेजी भाषा में ‘हिकीज बंगाल गजट’ अखबार शुरू किया। यह भारत का ही नहीं भारतीय उपमहाद्वीप का पहला साप्ताहिक समाचार-पत्र बना। अपने पत्र में हिकी ने संपादक के नाम पत्रों की शुरूआत की। अंग्रेजों का प्रतिनिधि होने के बावजूद उन्होंने गवर्नर या अधिकारियों के जो भी कार्य अनुचित पाए, उसकी आलोचना की। आलोचना से बौखलाए अधिकारियों ने उनके पत्र को डाक के माध्यम से भेजने की सुविधा से वंचित कर दिया। व्यवस्था से टकराने के कारण हिकी को जेल भेज दिया गया। इसके बावजूद उन्होंने गलत को गलत कहना बंद नहीं किया, बल्कि उनके तेवर और तीखे हो गए। इस तरह से हम देखते हैं कि भारत में पत्रकारिता की शुरूआत ही प्रतिरोध की संस्कृति से हुई है।
23 मई,1818 को कलकत्ता से ही पहले बांग्ला समाचार-पत्र समाचार दर्पण निकाला जाने लगा। इस पत्र के कुछ हिस्से हिन्दी के भी होते थे। मार्शमैन इस पत्र के संपादक थे। राजा राममोहन राय को देशी पत्रकारिता का जनक माना जाता है। उन्होंने 20 अप्रैल, 1822 को फारसी के पहले अखबार मिरात-उल-अखबार के प्रकाशन की शुरूआत की। इस अखबार में पहले अंक में उन्होंने इसका उद्देश्य लोगों के अनुभव में वृद्धि करना, सामाजिक प्रगति करना, सरकार को जनता की स्थिति से और जनता को सरकार के नियम-कायदों से अवगत करवाना बताया। यह समाचार-पत्र एक ही साल निकल पाया। अंग्रेजों ने अध्यादेश लाकर प्रैस की स्वतंत्रता पर नकेल डाल दी। राजा राम मोहन राय ने अध्यादेश को न्यायालय में चुनौती दी, लेकिन उनकी याचिका को खारिज कर दिया गया। फारसी की तरह उर्दू का पहला समाचार-पत्र जाम-ए-जहाँनुमा 27 मार्च, 1822 को कोलकाता से ही निकाला जाने लगा। यह हर बुधवार को निकाला जाता था। इस पत्र के संपादक मुंशी सदासुख मिर्जापुरी और संचालक हरिहर दत्त थे।
30 मई, 1826 को ‘उदंत मार्तंड’ नाम से हिन्दी का पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ। कानपुर से कलकत्ता गए जुगल किशोर शुक्ल को यह पत्र निकालने का श्रेय जाता है। यह साप्ताहिक पत्र था और प्रति सप्ताह मंगलवार को लोगों के बीच पहुंचता था। बड़ा बाजार के पास 37, अमर तल्ला लेन, कोलूटोला कलकत्ता से यह समाचार-पत्र प्रकाशित होता था। देश के पहले हिन्दी समाचार-पत्र के प्रकाशन में इतनी देरी का मुख्य कारण यह था कि तत्कालीन भारत में अंग्रेजी, फारसी, उर्दू व बंगला आदि भाषाओं का वर्चस्व था। उदंत मार्तंड के पहले अंक की 500 प्रतियां प्रकाशित हुई थी। उस समय हिन्दी भाषा का कोई मानक रूप नहीं उभर पाया था। हिन्दी गद्य व समाचार का स्वरूप भी निश्चित नहीं था। इसलिए उदंत मार्तंड खड़ी बोली व ब्रज के मिले जुले रूप में निकलता था, जिसे मध्यदेशीय भाषा कहा जाता था। पहले अंक से उदाहरण देखिए-
‘यह उदन्त मार्तण्ड अब पहले-पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो, आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ पारसी ओ बंगाल में जो समाचार का कागज छपता है उनका सुख उन बोलियों के जान्ने और पढऩे वालों को ही होता है। और सब लोग पराए सुख सुखी होते हैं। जैसे पराए धन धनी होना और अपनी रहते परायी आंख देखना वैसे ही जिस गुण में जिसकी पैठ न हो उसको उसके रस का मिलना कठिन ही है और हिंदुस्तानियों में बहुतेरे ऐसे हैं।’
उदंत मार्तंड में अनेक सामाजिक रूढिय़ों पर सवाल उठाए गए। आम जनता की समस्याओं को मुखर होकर उठाया गया। पत्र में वैज्ञानिक उपलब्धियों व जानकारियों को विशेष रूप से स्थान दिया जाता था। उस समय समाचार-पत्र निकालना एक चुनौतिपूर्ण कार्य था। छपाई का कार्य भी अनेक प्रकार की मुश्किलों से भरा था। पत्र के सामने मुश्किल हालात थे। संसाधनों की कमी थी। कलकत्ता में हिन्दी पाठकों की संख्या कम थी। दूरवर्ती हिन्दी क्षेत्र में इसे पहुंचाने के मार्ग में अनेक प्रकार की समस्याएं थीं। खास तौर से सरकार ने बार-बार अनुरोध के बावजूद इस पत्र को डाक दरों में रियायत देने से मना कर दिया था। अनेक प्रकार की समस्याओं से जूझते हुए उदंत मार्तंड करीब डेढ़ साल निकाला जाता रहा। इसके कुल 79 अंक ही निकाले गए थे कि दिसंबर 1827 को इसे बंद कर देना पड़ा। इसके आखिरी अंक में जुगल किशोर जी ने लिखा- आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त। अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त। शुक्ल जी ने इस पत्र के बाद भी समदन्त मार्तण्ड नामक एक और पत्र निकाला। उसे भी लंबे समय तक नहीं निकाला जा सका।
1829 को राजा राममोहन राय, द्वारिकानाथ ठाकुर और नीलरतन हालदार ने मिलकर बंगदूत निकाला, जो हिन्दी के अलावा बांग्ला व पर्शिन में भी छपता था। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के तीन साल पहले 1854 में देश का पहला हिन्दी दैनिक समाचार सुधावर्षण श्याम सुंदर सेन के प्रकाशन व संपादन में निकाला गया। हालांकि यह पूरी तरह से हिन्दी समाचार-पत्र नहीं था। इसमें बांग्ला रिपोर्टें भी प्रकाशित होती थी। इस पत्र ने अंग्रेजी शासन की कारगुजारियों व काले कारनामों पर जमकर कलम चलाई। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में विद्रोहियों द्वारा बहादुर शाह जफर को हिन्दुस्तान का राजा घोषित कर दिया। जफर के हिन्दु-मुस्लिम एकता बनाने और अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के संदेश को पत्र में प्रमुख स्थान मिला। समाचार सुधावर्षण में मई, जून 1857 में प्रकाशित रिपोर्टों को आधार बनाकर अंग्रेजों ने पत्र पर देशद्रोह का आरोप लगाते हुए कोर्ट में घसीट लिया। हालांकि चाहते तो श्याम सुंदर माफी मांग कर कोर्ट केस से बरी हो जाते, लेकिन उन्होंने यह गवारा नहीं समझा। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता आंदोलन की हमकदम रही। देश की जनता को अंधेरे से उजाले की ओर लाने और अंग्रेजी शासन के बहरेपन को तोडऩे के लिए पत्रकारों व कलम के सिपाहियों ने खूब संघर्ष किया। स्वतंत्रता सेनानियों ने पत्रकारिता की और राजनीतिज्ञों व साहित्यकारों ने जनजागरण के उद्देश्य से पत्र-पत्रिकाएं निकाली। गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारों ने देश की आजादी, साम्प्रादायिक सौहाद्र्र व पत्रकारिता के मूल्यों के लिए शहादत दी। आज देश में अलग-अलग भाषाओं के कितने ही समाचार-पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। हिन्दी में भी पत्र-पत्रिकाओं की कमी नहीं है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। आज हमें देश की आम जनता के हित में पत्रकारिता के मूल्यों को बचाने की जरूरत है।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145  
prakhar vikas 29-5-2021


Friday, May 28, 2021

EKDA / DEVENDER SATYARTHI

 DAINIK TRIBUNE N29-5-2021

 

12th Exam & Corona pendemic

 परीक्षा और कोरोना महामारी

12वीं की परीक्षा पर विद्यार्थियों को अनिश्चितता और उहापोह से निकालें

तनावमुक्त हो परीक्षा

अरुण कुमार कैहरबा
JANWANI 29-5-2021

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बढ़ते प्रकोप के कारण 14 अप्रैल को सीबीएसई ने दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा रद्द करने और 12वीं की परीक्षा स्थगित करने का फैसला किया था। सीबीएसई की तर्ज पर राज्यों के शिक्षा बोर्डों ने इसी तरह के फैसले करके दसवीं के विद्यार्थियों को राहत दे दी थी। लेकिन 12वीं कक्षा की परीक्षाएं अनिश्चितकाल के लिए स्थगित होने से देश के 1.4 करोड़ विद्यार्थियों को अपनी परीक्षाओं को लेकर भारी तनाव से गुजरना पड़ा है। गत 23 मई को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, प्रकाश जावडेकर, संजय धोत्रे की उपस्थिति में राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों के शिक्षा मंत्रियों, शिक्षा विभागों व बोर्डों के अधिकारियों की ऑनलाइन बैठक में 12वीं की परीक्षाओं को लेकर विचार-विमर्श हुआ है। बैठक में परीक्षा के आयोजन, परीक्षा के स्वरूप, परीक्षा केन्द्र सहित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई, लेकिन कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका।
बैठक में दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने परीक्षा से पहले विद्यार्थियों को कोरोना का टीका लगवाने का सुझाव दिया। महाराष्ट्र और झारखंड के शिक्षा मंत्रियों ने महामारी में बच्चों की मनोदशा को रेखांकित किया। खास तौर से उन विद्यार्थियों की जो खुद या उनके परिजन कोरोना की चपेट में हैं। उन विद्यार्थियों की दशा के बारे में सोचा जा सकता है, जिन्होंने महामारी में अपने स्वजनों को खो दिया है। केन्द्र ने राज्यों से लिखित सुझाव मांगे हैं।
यह सही है कि 12वीं की परीक्षा को लेकर अंतिम फैसला जल्द ही लिया जाना चाहिए। यह विद्यार्थियों को तनाव से निकालने के लिए भी जरूरी है। 12वीं स्कूली शिक्षा की अंतिम कक्षा होती है। इस कक्षा की परीक्षा और उसके परिणाम पर विद्यार्थियों का भविष्य निर्भर करता है। तब तो इन परीक्षाओं का महत्व और बढ़ जाता है, जब इनके बाद विद्यार्थियों को दूसरे शिक्षण संस्थान में दाखिला लेना होता है। 12वीं के बाद बहुत से विद्यार्थी देश भर के संस्थानों में प्रबंधन, इंजीनियरिंग, चिकित्सा सहित विभिन्न व्यावसायिक कोर्स में दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं देते हैं। बढ़ती प्रतियोगिता के कारण कईं बार एक अंक कम आने पर भी विद्यार्थियों का कॉलेज में वांछित कोर्स में दाखिला नहीं हो पाता है। परीक्षाओं को लेकर विद्यार्थी बहुत चिंतित रहते हैं। परीक्षाएं पूरी होने तक विद्यार्थियों पर इनका बोझ बना रहता है। अच्छे अंक हासिल करने के लिए विद्यार्थी कड़ी मेहनत करते हैं। किसी भी कारण से परीक्षाएं स्थगित होती हैं तो उन्हें की गई मेहनत के बेकार होने का भय सताने लगता है। परीक्षा समय पर नहीं होने पर इनका बोझ निरंतर बढ़ता ही जाता है।  
सामान्य स्थितियों में भी अंकों की होड़ व हमारी परीक्षा व्यवस्था की खामियां विद्यार्थियों को तनाव और अवसाद से भरे रखती हैं। परिजन भी तनाव में रहते हैं। कईं बार परिजनों व अध्यापकों की अपेक्षाओं का बोझ भी विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है। परिणाम घोषित होने के बाद वांछित परिणाम ना आने पर बहुत से विद्यार्थी आत्महत्या तक के निर्णय ले लेते हैं। जब सामान्य हालात में विद्यार्थियों पर ऐसी गुजरती है तो महामारी के दौर में परीक्षाओं की देरी और अनिश्चितता से उन पर क्या गुजर रही होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। चारों तरफ महामारी की दूसरी लहर से उपजी दर्दनाक खबरों का हर एक वर्ग पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। कितने ही गांवों व बस्तियों को इस समय क्वारंटाइन जोन में बदला जा चुका है। कोरोना की चपेट में खुद या परिजनों के आने, एकांतवास में होने, अस्पताल में दाखिल होने, ऑक्सीजन या दवाईयों के नहीं मिलने और जान चली जाने की स्थितियों से बच्चों पर क्या गुजर रही होगी। इसके बारे में विशेषज्ञों द्वारा समय-समय पर बताया जा रहा है। शिक्षाविदों व मनोवैज्ञानिकों की मानें तो महामारी का बच्चों व महिलाओं पर सबसे ज्यादा असर होता है।
ऐसे समय में सबकी जिम्मेदारी है कि महामारी के चंगुल से देश को निकालने के साथ-साथ विद्यार्थियों को तनाव से मुक्त किया जाए। उच्च स्तरीय बैठक में परीक्षाओं के आयोजन के बारे में तीन घंटे के परीक्षा समय की बजाय डेढ़ घंटे का परीक्षा समय और महत्वपूर्ण विषयों की बहुविकल्पीय या लघु उत्तरात्मक प्रश्रों की परीक्षाएं आयोजित करने का सुझाव दिया गया। विद्यार्थियों के स्कूल में ही परीक्षाएं आयोजित करने की बात की गई ताकि परीक्षा केन्द्रों की संख्या बढ़ जाए और शारीरिक दूरी बनाकर परीक्षाएं हो सकें। लेकिन एक बात की तरफ ध्यान नहीं दिया गया कि सरकारों ने खुद निर्णय करके बहुत से स्कूलों को आईसोलेशन सेंटर बना रखा है। जिन अध्यापकों को जमीनी स्तर पर परीक्षाएं आयोजित करवानी हैं, वे स्वास्थ्य जांच योजना के तहत सर्वेक्षण और एकांतवास केन्द्र में ड्यूटियां दे रहे हैं। बहुत से अध्यापक कोरोना पोजिटिव हैं और क्वारंटाइन हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में पंचायत की चुनावी ड्यूटी के कारण 15सौ से अधिक अध्यापक कोरोना की चपेट में आकर जान गंवा चुके हैं। हालांकि सरकार ये आंकड़े नहीं मान रही है। परीक्षाओं के बाद उत्तर पुस्तिकाओं की जांच में भी अध्यापकों को ड्यूटियां देनी होंगी। सवाल यह है कि ऐसे में परीक्षाएं होंगी कैसे? दूसरा, क्या परीक्षा केन्द्रों में विद्यार्थियों का आना सुरक्षित होगा? विद्यार्थियों को एक स्थान पर इक_ा करने से क्या महामारी के बढऩे का खतरा नहीं होगा?
यह ध्यान देने की जरूरत है कि कोरोना महामारी की पहली लहर के बाद दूसरी लहर की आशंकाएं जताई जा रही थी। उस समय दंभ से भरे नेताओं ने कोरोना को मात देने के दावे ठोंकने शुरू कर दिए थे और देश की सारी आबादी के वैक्सीनेशन से ध्यान हटा लिया। 18 से 44 साल तक के सभी लोगों के टीकाकरण की घोषणा के बाद टीकों का संकट गहरा गया है। टीके नहीं होने के कारण टीकाकरण केन्द्र बंद करने पड़ रहे हैं। वहीं, दूसरी लहर में बच्चों व युवाओं के भी कोरोना की चपेट में आने के समाचार मिल रहे हैं। 12वीं कक्षा की परीक्षा देने वाले अधिकतर विद्यार्थी 18 साल से कम उम्र के हैं। कायदे से कम उम्र के किशोरों व बच्चों के टीकाकरण को एजेंडे में लिया जाना चाहिए। लेकिन टीकों की कमी में यह कैसे होगा? काला व सफेद फंगस आगे आन खड़े हुए हैं। कोरोना की तीसरी लहर की संभावनाएं भी जताई जा रही हैं। ऐसे में बच्चों के स्वास्थ्य के साथ कोई भी समझौता नहीं होना चाहिए। 12वीं की परीक्षाओं को लेकर लचीला रूख अपनाए जाने की जरूरत है। ऐसा ना हो कि परीक्षाएं महामारी को ही हवा देने का कारण बन जाएं।


12वीं की परीक्षा के बाद विद्यार्थी पूरे देश में दाखिले लेते हैं। ऐसे में परीक्षाएं तो भले ही ले ली जाएं, लेकिन ये परीक्षाएं बहुत आसानी से दी जाने वाली होनी चाहिएं। विद्यार्थियों को दसवीं की तरह ही बिना परीक्षा दिए आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर परिणाम प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। जो विद्यार्थी लिखित परीक्षाएं देना चाहें, उनके लिए आईसोलेशन सेंटर बने स्कूलों में परीक्षाएं नहीं ली जानी चाहिएं। परीक्षा केन्द्रों पर ज्यादा विद्यार्थियों का जमावड़ा ना हो और जो बच्चे परीक्षा केन्द्र में ना आ पाएं, उनके लिए घर पर ही परीक्षाएं देने के विकल्प भी खुले रखे जा सकते हैं। ऐसे समय में परीक्षाएं विद्यार्थियों के समक्ष बाधाएं खड़ी करने के लिए नहीं होनी चाहिएं। महामारी, उससे उपजे संकट, परीक्षाओं को लेकर अनिश्चितता व उहापोह ने पहले ही जीवन में तनाव बना रखा है। ऐसे में शिक्षा विभाग व शिक्षा बोर्डों की जिम्मेदारी है कि विद्यार्थियों के लिए तनावमुक्त परीक्षाओं की योजना बनाकर तैयारी की जाए।
परीक्षा को लेकर रक्षा मंत्री की अध्यक्षता में मंत्रियों की उच्च स्तरीय बैठक भी इसी तरफ इशारा कर रही है कि महामारी में परीक्षाएं विद्यार्थियों के जीवन का काफी संवेदनशील मुद्दा है। इस मामले में धरातल पर विद्यार्थियों के साथ काम करने वाले अध्यापकों व अभिभावकों से अवश्य सलाह ली जानी चाहिए। क्योंकि शिक्षा व परीक्षा के मामले में वास्तविक स्थितियों का अध्यापकों व शिक्षाविदों को पता है। उनके साथ विचार-विमर्श के बिना उच्च स्तरीय कवायद बेमानी हो जाएगी।

Tuesday, May 18, 2021

Religion & Communalism A Nityanootan Seminar in the memory of Dr. Mahavir Narwal

 डॉ. महावीर नरवाल स्मृति नित्यनूतन व्याख्यान

धार्मिक होना साम्प्रदायिक होना नहीं होता: पंकज चतुर्वेदी

‘धर्म एवं साम्प्रदायिकता’ विषय पर ऑनलाइन संगोष्ठी 

कईं राज्यों के साहित्यकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने की शिरकत

अरुण कुमार कैहरबा

साक्षरता व ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले डॉ. महावीर नरवाल की स्मृति में नित्यनूतन वार्ता द्वारा धर्म एवं साम्प्रदायिकता विषय पर ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया। विभिन्न राज्यों के साहित्यकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संगोष्ठी में हिस्सा लिया। संगोष्ठी का संचालन लोक इतिहासविद सुरेन्द्र पाल सिंह ने किया। 

संगोष्ठी का शुभारंभ करते हुए नित्यनूतन वार्ता के संपादक राममोहन राय ने कहा कि गांधी विनोबा विचार को केन्द्रित नित्यनूतन पत्रिका दीदी निर्मला देशपांडे ने 1985 में शुरू की थी। कोरोना काल में नित्यनूतन वार्ताओं का दौर शुरू किया गया था। आज तक 350 के करीब वार्ताएं हो चुकी हैं। यह वार्ता डॉ. महावीर नरवाल को समर्पित है। डॉ. महावीर नरवाल की बेटी नताशा को हम सभी जानते हैं। वह सामाजिक उत्पीडऩ के प्रतिकार की प्रतीक बन गई है। वह साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ लड़ रही है। उसने पिंजड़ा तोड़ अभियान चलाया। देशद्रोह के आरोप लगाकर उसे जेल में डाल दिया गया। पिता की बीमारी के बावजूद वह बाहर नहीं आ पाई। पिता की मृत्यु के बाद उसे तीन सप्ताह का पैरोल मिला है। आज देश में आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन व भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद व सुभाष चंद्र बोस की क्रांतिकारी विरासत के मूल्य के विपरीत माहौल बन रहा है।

डॉ. महावीर नरवाल की बहन व पूर्व  प्रधानाचार्य गीता पाल ने कहा कि कोरोना और व्यवस्था की खामियों की वजह से 9 मई, 2021 को डॉ. महावीर नरवाल हमसे विदा हो गए, लेकिन अपने कार्यों व विचारों के माध्यम से वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे। महावीर एक बार भी जिनसे मिले थे, उनके साथ आत्मीयता का रिश्ता रखते थे। उन्होंने हमेशा  आम लोगों की मदद की। वे बहुत ही संवेदनशील एवं सहयोगी व्यक्ति थे। अन्याय के खिलाफ मजबूती से लड़ते रहने वाले थे। उन्होंने कहा कि वे उनके गॉड फादर थे। उनके गांव में आठवीं तक का स्कूल था। तीनों बहनों को उन्होंने पढ़ाया। उनकी प्रेरणा से हम आगे बढ़ पाए। वे आत्मनिर्भर बनाने में विश्वास रखते थे। उन्होंने बताया कि महावीर नरवाल को सारे संस्कार माता-पिता से मिले थे। पिता जी सेना से रिटायर हुए थे। गांव के लोग उन्हें सूबेदार साहब कहते थे। उन्होंने महिलाओं का घूंघट दूर करवाया। पिता जी और माता जी हर व्यक्ति का सहयोग करते थे। घोर जातिवाद के दौर में पिता जी हर घर में जाते थे और उनके शादी समारोहों में शिरकत करते थे। 

महावीर नरवाल ने हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाई की। हर वर्ष वे टॉप करते थे। एसएफआई को खड़ा किया। एमरजेंसी के दौरान 11 महीने जेल में रहे। तीन बहनों की जिम्मेदारी होने के कारण ही उन्होंने नौकरी जॉइन की। अध्यापकों के आंदोलन को खड़ा किया। संघर्ष और अध्ययन उनके जीवन का हिस्सा था। पहले दिन जब वे अध्यापक के रूप में कक्षा में गए तो 86 में से 11 विद्यार्थी कक्षा में आए थे। उन्होंने उन्हें बाहर बुलाया। कैंटीन गए। उन्हें चाय पिलाई और कल आने के लिए कहा। दूसरे दिन भी यही हुआ। अगले दिन विद्यार्थियों ने पढ़ाने के लिए कहा। उन्होंने पढ़ाना शुरू किया तो धीरे-धीरे सभी विद्यार्थी कक्षा में आने लगे। उन्होंने साक्षरता एवं ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। आरक्षण आंदोलन के दौरान उन्होंने सद्भावना मंच बनाया। किसान आंदोलन में किसानों का साथ दिया। सहयोग इकठ्ठा  किया और किसानों के पास भिजवाया। उनका एक बहुत बड़ा परिवार है।

वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार पंकज चतुर्वेदी ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए बताया कि महावीर नरवाल का जाना बहुत से लोगों की निजी क्षति है। उन्होंने बताया कि उनकी मृत्यु के बाद उनके पास  मुंबई से एक बहुत बड़े विद्वान का फोन आया, जिन्होंने अगले जन्म में डॉ. नरवाल जैसे माता या पिता के घी जन्म लेने की इच्छा जताई।


पंकज चतुर्वेदी ने कोरोना महामारी व इससे निपटने के उपायों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आज चारों तरफ हताशा व बेबसी दिखाई देती है। उन्होंने कहा कि व्यवस्था की नाकामी से मरे हैं लोग।  ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने वोट डालते हुए अस्पताल, स्कूल, ऑक्सीजन नहीं देखे। हमने मंदिर बनाने के लिए वोट दिए। हमने किसी एक समुदाय को सबक सिखाने के लिए वोट दिए। उसका परिणाम हम भुगत रहे हैं।

धर्म एवं साम्प्रदायिकता विषय का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने अपने निजी जीवन में बचपन के प्रसंग सुनाते हुए कहा कि वे मध्यप्रदेश के शिवपुर के जैन आश्रम में पढ़े। पिता ने 50 के दशक में एमए अंग्रेजी की। जनेऊ धारण करते थे। वे मंत्रोच्चार करते,पूजा करते, उसके बाद उनका धर्म के साथ नाता मानवता के साथ ही होता था। उनके घर में किसी के आने-जाने पर पाबंदी नहीं थी। ना ही किसी विशेष जातियों के खाने-पीने के लिए अगल बर्तन होते थे। इससे स्पष्ट होता है कि एक व्यक्ति धार्मिक हो कर भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। उन्होंने जावरा में मोहर्रम के दौरान ताजिया में सभी वर्ग के लोगों के शिरकत करने के साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रसंग सुनाए। उन्होंने कहा कि पूरे देश की तरह बाद में जावरा में भी साम्प्रदायिक सद्भाव दूर चला गया। क्यों हुआ ऐसा? क्या लोगों ने अपनी जड़ें खो दी? 80 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में मंदिर की घंटी और अजान इक_े होते थे। लेकिन 1992 में मस्जिद विध्वंस के बाद ऐसे अनेक स्थानों पर दंगे हुए।

उन्होंने कहा कि हमारा सौभाग्य था कि पिता जी हर चीज पर चर्चा करते थे। हर चीज का स्पष्टीकरण देते थे। आज ऐसे लोगों की बहुत कमी है जो धार्मिकता और साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता व नास्तिकता के बीच की बारीक लाईन का महत्व समझा पाते।

उन्होंने कहा कि आजादी के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी है कि 65 करोड़ की आबादी रोजी-रोटी के लिए पलायन कर चुकी है। यह पलायन देश के साम्प्रदायिक सौहाद्र्र के लिए घातक साबित हुआ है। पलायन करने वाले लोग अपने परिवार के मूल्यों, नैतिकता व सीख को छोड़ गए चले गए। लोग जड़ों से कट गए। दूसरी तरफ धर्म के नाम पर दुकानें खड़ी हुई। 

पहले मंदिर ना तो घरों में होते थे और ना ही आवासीय परिसरों में होते थे। आवासीय आबादी से दूर मंदिर व धार्मिक स्थान होते थे। आज घर-घर में मंदिर बना लिए हैं। अपराध करने के बाद लोग धर्म की छाया में चले जाते हैं।

चतुर्वेदी जी ने कहा कि धर्म व साम्प्रदायिकता को समझने के लिए हमें शहीदे आजम भगत सिंह का लेख- मैं नास्तिक क्यों हूँ पढऩा चाहिए। उन्होंने साम्प्रदायिकता के लिए रिश्तों की बजाय धन को वरियता देने की प्रवृत्ति को भी जिम्मेदार बताया। उन्होंने कहा कि धन के लिए नैतिकता को तिलांजलि दे दी। बढ़ती बेरोजगारी के कारण हर दल को ऐसे लोगों को सहारा मिला। उन्होंने सवाल उठाया कि साम्प्रदायिक विभाजन करने वालों का फायदा किसको है? क्या ऐसे लोग देशप्रेमी हैं। क्या वे देश की संस्कृति को प्रेम करते हैं? आसाम, गुजरात, यूपी के साम्प्रदायिक दंगों के उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि साम्प्रदायिकता हमेशा अपने साथ में आर्थिक विपन्नता को लेकर आती है। दंगों का कारण वास्तव में आर्थिक व सामाजिक है। लेकिन उसका फायदा राजनीतिक लोग उठाते हैं। 

उन्होंने कहा कि 12सौ साल से भारत में हिन्दु और मुसलमान साथ में रह रहे हैं। झगड़े तो हुए लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी के फ्रिज में मांस देखकर उसे मार दिया जाए। किसी के कपड़े देखकर उसे मार डाला जाए। उन्होंने कहा कि 1931 में कानपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ। गणेश शंकर विद्यार्थी को खो दिया था हमने। उस समय कांग्रेस ने छह सदस्यों का दल बनाया था, जिसने रिपोर्ट जारी की थी। जोकि बताती है कि दोनों समाजों में सांस्कृतिक मेल है। दंगे सोची समझी साजिश के तहत इसलिए करवाए जाते हैं ताकि मूल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके।

पंकज चतुर्वेदी ने तुष्टिकरण के सवाल पर बोलते हुए कहा कि तुष्टिकरण की बातें तो बहुत की गई, लेकिन यदि वास्तव में मुस्लिम तुष्टिकरण हुआ होता तो मुसलमानों को देश में नौकरियों में बराबरी के मौके मिलते। वे आर्थिक रूप से इस हालत में  नहीं होते। उन्होंने कहा कि हमारे देश में हिन्दू मुसलमान की पहचान करनी बेहद मुश्किल है। खास तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, जहां पर त्यागी, मलिक सहित कितने ही गोत्र हिन्दूओं और मुसलमानों में समान रूप से होते हैं। उनके कपड़ों व बोली-भाषा में भी अंतर नहीं होता। इसके बावजूद 2013 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दंगे हो गए। हजारों लोगों का पलायन हो गया। उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों के आर्थिक कारणों पर भी अपने विचार रखे। 

उन्होंने धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकता के संबंध पर चर्चा करते कहा कि आम तौर पर धर्मनिरपेक्ष होने को नास्तिक होने से जोड़ कर देखते हैं। धर्म को मजाक के रूप में लेते हैं। धर्मनिरपेक्ष हूँ तो हमें मंदिर-मस्जिद जाने की जरूरत नहीं ये माना जाता है। इसकी बजाय गांधी की धर्मनिरेक्षता का अनुसरण करना चाहिए, जोकि खुद तो हे राम कहते हैं, लेकिन दूसरे के धर्म व मान्यताओं को भी मानते हैं। उन्होंने कहा कि देश का विभाजन साम्प्रदायिकता के आधार पर नहीं हुआ था। धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हुआ था। जिन्हें धर्मनिरपेक्ष देश चाहिए था वे यहीं रह गए थे और जिन्हें साम्प्रदायिक देश चाहिए था वे पाकिस्तान चले गए।

धर्म और साम्प्रदायिकता विषय को समझने के लिए उन्होंने निम्र किताबों को पढऩे का सुझाव दिया-

1. क्या मुसलमान ऐसे ही होते हैं?- पंकज चतुर्वेदी 2012

2. साम्प्रदायिकता एक प्रवेशिका- प्रो. विपिन चंद्रा-एनबीटी

3. भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव- डॉ. गीता यादव

4. साम्प्रदायिकता -डॉ. राम पुनियानी

5. भारत में साम्प्रदायिकता इतिहास और अनुभव- असगर अली इंजीनियर

6. साम्प्रदायिक दंगों का सच- बीजीवीएस- 

7. दंगे क्यों और कैसे?- - गिरीराज शाह 1995

8. दंगों का इतिहास- शैलेश कुमार बंदोपाध्याय

9. आति-धर्म के झगड़े छोड़ो सही लड़ाई से नाता जोड़ो-भगत सिंह

10. क्या देश का विभाजन अनिवार्य था- भवानी प्रसाद चट्टोपाध्याय

11. भारत का विभाजन-अनीता इन्द्रपाल सिंह

12. हिन्दू धर्म क्या है?- महात्मा गांधी


पंकज चतुर्वेदी जी के व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब सत्र हुआ। जिसमें अनेक प्रतिभागियों ने सवाल जवाब किए।

सुरेन्द्र पाल सिंह ने मौजूदा दौर में भविष्य की चिंताओं और दिशाओं पर सवाल किया। उनका जवाब देते हुए पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि पिछले दो साल से स्कूल बंद हैं। आठ करोड़ बच्चे ड्रॉप आउट हो जाएंगे। शिक्षा शब्द पढऩे व बस का नाम पढऩे का मसला नहीं है। यह जागरूकता का विषय है। बुद्धि और विवेक शिक्षा देती है। महामारी ने अशिक्षा को बढ़ावा दिया है। अध्यापकों को खत्म कर दिया। उत्तर प्रदेश में दो हजार स्कूल अध्यापक मारे गए। चुनावों की ड्यूटी देते हुए कॉलेज के अध्यापक भी चपेट में आए हैं। महामारी में किताबें नहीं पहुंच पा रही हैं विद्यार्थियों तक। ऐसी परिस्थितियां ही साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं। हमें जागरूकता फैलानी चाहिए। उन्होंने कहा कि बहुत से लोग नहीं जानते कि मोहर्रम पर बधाई नहीं देते हैं। मुस्लिम समाज को भी मिलने-जुलने के मौके देने होंगे। ईद का चांद कैसा होता है? हमें पता नहीं है। यही अज्ञानता ही साम्प्रदायिकता की जननी बनती है।

साहित्यकार सत्यपाल सहगल ने कहा कि धर्मरिपेक्षता के सामने अनेक नई चुनौतियां हैं। लेकिन उनको चुनौती देने की हमारे पास नई भाषा नहीं होती है। नई भाषा, नई तर्कशीलता की जरूरत है। पवन कुमार आर्य ने महात्मा गांधी की पुस्तक से संदर्भ देते और भारत-पाक विभाजन के दौर में साम्प्रदायिक दंगों पर सवाल किया। अजेय ने भी सवाल किया। संगोष्ठी में देश भर से अनेक शख्सितयों ने शिरकत की और अपनी टिप्पणियों के जरिये हस्तक्षेप किया।

-अरुण कुमार कैहरबा

हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार एवं लेखक

वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,

जिला-करनाल, हरियाणा

मो.नं.-9466220145






Wednesday, May 12, 2021

INTERNATIONAL NURSING DAY / FLORENCE NIGHTINGALE / MODERN NURSING

 अन्तर्राष्ट्रीय नर्सिंग दिवस विशेष

जख्मों पर मरहम लगाती सिस्टर

फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने मानवता की सेवा के लिए नर्सिंग को माध्यम बनाया

आधुनिक नर्सिंग की नींव रखकर सम्मानजनक सेवा में बदला

अरुण कुमार कैहरबा
VIR ARJUN 12-5-2021

कोरोना महामारी की दूसरी लहर से भारत व दुनिया के कईं देश त्रस्त हैं। स्वास्थ्य आपदा की इस स्थिति में जिन लोगों को भगवान की संज्ञा दी जा सकती है, वे हैं स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोग। डॉक्टरों का कदम-कदम पर साथ देने वाली नर्सों के काम पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। स्वास्थ्य सेवाओं में उनका योगदान कम नहीं है। बल्कि मरीजों की नि:स्वार्थ सेवा और देखभाल में उनका योगदान स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कार्य करने वाले अन्य सभी विशेषज्ञों से कहीं ज्यादा होता है। अन्तर्राष्ट्रीय नर्सिंग दिवस हमें आधुनिक नर्सिंग के जन्म और नर्सों की जिम्मेदारियों पर चर्चा करने का हमें अवसर प्रदान करता है।
सबसे पहले बात करते हैं आधुनिक नर्सिंग की जनक फ्लोरेंस नाइटिंगेल के जीवन व कार्यों के बारे में, जिनकी जयंती को ही दुनिया भर में नर्सिंग दिवस के रूप में मनाया जाता है। ‘लेडी विद द लैंप’ नाम से जानी जाने वाली नाइटिंगेल ने युद्ध के घायल सैनिकों की सेवा करने और अस्पताल की दशा सुधारने के लिए जो कार्य किया, वह मिसाल बन गया। फ्लोरेंस नाइटिंगेल का जन्म इटली के फ्लोरेंस नगर में 12 मई, 1820 में हुआ था, जिसकी वजह से सम्पन्न बैंकर पिता विलियम नाइटिंगेल व माता फेनी नाइटिंगेल ने उसका नाम फ्लोरेंस ही रख दिया। बाद में परिवार इंग्लैंड चला गया। लंदन के एक सम्पन्न इलाके में उसका बचपन बीता। घर पर ही अन्य बहनों के साथ उसकी पढ़ाई की व्यवस्था की गई। उसे गणित, दर्शन शास्त्र व आधुनिक भाषाओं की शिक्षा दी गई। वह पढऩे और याद करने में बहुत कुशाग्र थीं। 19वीं सदी की परंपरा के अनुसार परिवार उन्हें यूरोप के सफर पर ले गया। यात्रा के अनुभवों को फ्लोरेंस ने बहुत सुंदर भाषा में अपनी डायरी में दर्ज किया। डायरी में किसी देश व शहर की आबादी के आंकड़े, अस्पतालों और स्वैच्छिक संस्थाओं की सख्याएं भी लिखती। फ्लोरेंस की मां इस सबके खिलाफ थी। सफर के आखिर में फ्लोरेंस ने ऐलान कर दिया कि परमात्मा ने उसे मानवता की सेवा का आदेश दिया है। यह बात सुनकर मां-बाप परेशान हो गए। लेकिन अभी वह तय नहीं कर पाई थी कि उसे करना क्या है। सुंदर व शिक्षित फ्लोरेंस नाइटिंगेल की शादी के लिए रिश्ते आने शुरू हो गए थे। लेकिन उसे इन सबमें कोई रूचि नहीं थी। 1844 में उसने तय किया कि उसे नर्सिंग के द्वारा मानवता की सेवा करनी है।
बचपन में ही उसे प्रकृति के साथ प्रेम था। पशु-पक्षियों के बीच वह खेलती-कूदती। पशुओं को जरा सी तकलीफ होने पर उनकी सेवा में लग जाती। पहले वह अपनी गुडिय़ों की पट्टी करती थी। बाद में घायल होने पर पशुओं की मरहम-पट्टी करने लगी। उसका पहला मरीज चरवाहों का कुत्ता था। पशुओं से होते हुए सेवा का यह भाव मनुष्यों तक गया। बताते हैं कि जहां कहीं भी दुख व पीड़ा थी, वहां पर फ्लोरेंस नाइटिंगेल भी मिलती थी। उसकी प्रबल इच्छा थी कि वह अपनी प्रतिभा का मानवता की सेवा के लिए इस्तेमाल करे।
16 साल की उम्र में जब उसने अपने पिता के समक्ष नर्सिंग की इच्छा व्यक्त की तो उसे तीखे गुस्से का सामना करना पड़ा। इतने समृद्ध परिवार की बेटी नर्सिंग जैसे दोयम दर्जे के पेशे को अपनाएगी, यह परिवार की तौहीन थी। इसका मुख्य कारण यह था कि उस समय अस्तपालों की स्थिति अच्छी नहीं थी। गंदगी और दुर्गंध से भरे अस्पतालों में नर्स के रूप में काम करना तथाकथित अच्छे परिवारों की लड़कियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। माता-पिता की इच्छा के विरूद्ध ही उसने लंदन, रोम व पैरिस के अस्पतालों के दौरे किए। आखिर माता-पिता को यह तय हो गया कि फ्लोरेंस शादी करवाने व उनके अनुसार जीवन बिताने के लिए मानने वाली नहीं है। उन्होंने उसे जर्मनी में नर्सिंग प्रशिक्षण लेने की इजाजत दी।
प्रशिक्षण के बाद उसे लंदन के हार्ले स्ट्रीट अस्पताल में नर्स और बाद में नर्सिंग प्रमुख बनने का मौका मिला। 1853 में क्रीमिया का युद्ध शुरू हो गया, जिसमें हजारों सैनिक घायल हुए। ब्रिटिश अस्पतालों की दशा बहुत खराब थी। अखबारों में उनकी खबरें आने लगी। ब्रिटेन के युद्ध मंत्री सिडनी हर्बर्ट फ्लोरेंस को जानते थे। उन्होंने उसे 38 नर्सों के साथ तुर्की स्थित सेना के अस्पताल में जाने के आदेश दिए। इतिहास में यह पहली बार था कि सेना में महिलाओं की सेवाएं ली जा रही थी। बराक अस्पताल में पहुंचते ही उसने वहां के हालात का जायजा लिया। अस्पताल के फर्श पर गंदगी की बरतें बिछी हुई थी। गंदगी के कारण घायल सैनिकों की गरिमा व सम्मान तार-तार हो रहा था। शौचालयों स्थिति अत्यंत दयनीय थी। वे पहुंचते ही सफाई व्यवस्था दुरूस्त करने के काम में लग गई। उसने वहां पर अस्पताल की रसोई व कैंटीन का निर्माण किया और घायल सैनिकों की खुराक पर ध्यान केन्द्रित किया। सैनिकों के कपड़ों को धोने का प्रबंध किया गया। रात-रात को फ्लोरेंस नाइटिंगेल घायलों की हालत का ध्यान रखती। वह हाथ में लैंप लेकर एक के बाद दूसरे सैनिक का हाल-चाल जानती। उनके घावों पर मरहम लगाती। साथ ही वह स्नेह के शब्दों से उनकी मनोवैज्ञानिक समस्याओं व जरूरतों का भी ध्यान रखती। उसने नर्सों व सैनिकों की बौद्धिक जरूरतों व मनोरंजन के लिए अस्पताल में कक्षा कक्षा व पुस्तकालय स्थापित किया। इस तरह से देखते ही देखते सैनिकों की मृत्यु दर कम हुई। उनके चेहरों की खुशियां फ्लोरेंस की सफलता की कहानी कहती। उनके काम के आधार पर उन्हें द लेडी विद द लैंप व क्रीमिया की देवदूत की संज्ञा मिली।
अपने बारे में हो रही चर्चाओं से फ्लोरेंस चिंतित थी। प्रसिद्धि के प्रति उनके मन में जरा भी मोह नहीं था। इसलिए करीब डेढ़ साल सेना के अस्पताल में ऐतिहासिक सेवाओं के बाद लंदन में आने पर उन्होंने नाम बदल कर रहना शुरू किया। फिर वह रानी विक्टोरिया से मिली तो वह भी फ्लोरेंस की फैन थी। फ्लोरेंस ने रानी को सेना की सेहत पर आयोग गठित करने का सुझाव दिया। रानी ने फ्लोरेंस को ही इस काम की जिम्मेदारी दी। जांच में खुलासा हुआ कि बड़ी संख्या में सैनिकों की जानें घायल होने से नहीं गई, बल्कि अस्वच्छता व संक्रामक बिमारियों के कारण गई हैं। केवल स्वच्छता से ही बहुत सी जानें बचाई जा सकती थी। आयोग की सिफारिशों व फ्लोरेंस की कोशिशों से ब्रिटिश फौज में स्वास्थ्य, स्वच्छता व सांख्यिकी विभाग बनाए गए। 1859 में फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने अपनी सबसे मशहूर किताबें ‘नोट्स ऑन नर्सिंग’ और ‘नोट्स ऑन हॉस्पिटल्स’ प्रकाशित की। रानी के द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया।
रानी विक्टोरिया द्वारा मिली पुरस्कार राशि से उसने 1860 में सेंट थोमस अस्पताल की स्थापना की। अस्पताल में ही उसने नर्सों के लिए नाइटिंगेल प्रशिक्षण स्कूल भी स्थापित किया। वह प्रसिद्ध हो चुकी थी। उस पर गीत, कविताएं व नाटक लिखे गए। उनके पदचिह्नों का अनुसरण करने के लिए सम्पन्न परिवारों की लड़कियां उनके स्कूल में नर्सिंग का कोर्स करने के लिए दाखिल हुई। सेना के अस्पताल में सेवाएं देते हुए वह खुद भी संक्रमित हो चुकी थी, लेकिन इसके बावजूद उसने सेहत में सुधार के लिए अपना कार्य जारी रखा। फ्लोरेंस ब्रिटिश भारत में सेना की सेहत के मिशन से भी जुड़ी हुई थी। भारत की रिपोर्ट के आधार पर उन्होंने अकाल, अस्वच्छता व अस्वच्छ पानी पर चिंताएं जताते हुए सैनिकों की सेहत व साफ पानी की अहमियत को रेखांकित किया। फ्लोरेंस नाइटिंगेल अपनी लोकप्रियता से आत्ममुग्ध होने वाली थी, बल्कि इसका फायदा उठाकर सेहत व स्वच्छता को ब्रिटिश सरकार से अहम उपाय करवा रही थी। इसका पूरी दुनिया में असर गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा ऑर्डर ऑफ मेरिट प्राप्त करने वाली पहली महिला थी। 13 अगस्त, 1910 को उनका देहांत हुआ, लेकिन उनका काम आज तक दुनिया के काम आ रहा है। वह नर्सिंग व महिलाओं के जीवन को बदलने वाली प्रेरणादायी व्यक्तित्व है।
अमेरिका में पहली बार नर्स दिवस मनाने का प्रस्ताव 1953 में रखा गया था। इसकी घोषणा अमेरिका के राष्ट्रपति ड्विट डी. आइजनहावर ने की थी। पहली बार इसे साल 1965 में मनाया गया। जनवरी, 1974 में फ्लोरेंस नाइटिंगेल के जन्मदिन 12 मई को अंतर्राष्ट्रीय नर्सिंग दिवस के तौर पर मनाने की घोषणा की गई। भारत में हर साल 12 मई को सराहनीय सेवाएं देने वाली नर्सों को राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय फ्लोरेंस नाइटिंगल पुरस्कार दिया जाता है।
आज जब हम स्वास्थ्य आपदा से घिरे हुए हैं। भारत में ही चार लाख से अधिक लोग कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं और हजारों की जानें जा रही हैं। लाखों की संख्या में आए दिन लोग अस्पताल में सेवाएं लेने के लिए आ रहे हैं। ऐसे में नाइटिंगेल की वजह से आज नर्सिंग दुनिया भर में स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित सबसे बड़ा सम्मानजनक पेशा है। उनके बिना अस्पताल में स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा जाएंगी। उन्हें मरीजों की मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और चिकित्सीय जरूरतों के प्रति संवेदनशील और प्रशिक्षित बनाने के लिए जगह-जगह स्कूल चलाए जाते हैं। भारत के अस्पतालों में नर्सों के खाली पद चिंता की बात हैं। इससे भी अधिक कम वेतन में अधिक काम लिया जाना भी दुखदायी है। निजीकरण की वजह से नर्सों को भी ठेका व्यवस्था के तहत लगाए जाने से एक ही अस्पताल में एक ही काम करने वालों को अलग-अलग दर्जा व वेतन दिया जाना भी बड़ी समस्या है। यह ऐसा पेशा है, जिसमें अधिकतर महिलाएं सेवा देती हैं। इसलिए महिलाओं के सशक्तिकरण पर बल देने वाली सरकारों को नर्सों की समस्याओं पर उचित कदम उठाना चाहिए। सभी उन्हें सिस्टर कहते हैं तो सभी को उनके योगदान के बारे में जागरूक एवं संवेदनशील होना चाहिए।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

DAILY NEWS ACTIVIST 12-5-2021

EKDA / PRERAK PRASANG/ MANAVTA KI SEVA

 

DAINIK TRIBUNE 12-5-2021

Saturday, May 8, 2021

IN THE MEMORY OF DIDI NARMALA DESHPANDE (PADMVIBHUSHAN)

दीदी निर्मला देशपांडे ने शांति, सद्भावना व एकता के लिए आजीवन किया काम

13वीं पुण्यतिथि पर दिखा अनोखा नजारा

ऑनलाइन स्मृति सभा व संगोष्ठी में जुटे कईं देशों के गांधीवादी विचारक

दीदी के विचारों को आगे बढ़ाने का लिया संकल्प

अरुण कुमार कैहरबा
PRAKHAR VIKAS 8-5-2021

महात्मा गांधी और आचार्य विनोबा भावे की अहिंसक क्रांति के विचार को आत्मसात करके उसे आगे बढ़ाने वाली दीदी निर्मला देशपांडे की 13वीं पुण्यतिथि पर उस समय अनोखा नजारा देखने को मिला, जब गांधी ग्लोबल फैमिली, निर्मला देशपांडे संस्थान तथा नित्यनूतन वार्ता के संयुक्त संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ऑनलाइन स्मृति सभा व संगोष्ठी में भारत के विभिन्न प्रदेशों के साथ-साथ नेपाल, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर सहित दुनिया के विभिन्न स्थानों में रह रहे उनके अनुयायियों ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि भेंट की। श्रद्धा से भरे गांधीवादी विचारकों ने दीदी निर्मला देशपांडे के विचारों व कार्यों को आगे बढ़ाने का संकल्प किया। स्मृति सभा की अध्यक्षता माता रुकमणी देवी सेवा संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष एवं स्वर्गीय दीदी के अनन्य सहयोगी पद्मश्री धर्मपाल सैनी ने की। सभा का संचालन पानीपत में निर्मला देशपांडे संस्थान के संस्थापक एडवोकेट राममोहन राय ने किया और संयोजन पंचकूला में रह रहे हरियाणा के जाने-माने लोक संस्कृति चिंतक सुरेन्द्रपाल सिंह ने किया।
स्व. दीदी निर्मला देशपांडे

स्मृति सभा की शुरूआत महादेव देसाई पुस्तकालय, गांधी आश्रम, दिल्ली की पुस्तकालयाध्यक्ष सीमा शर्मा ने दीदी निर्मला देशपांडे के जीवन-संघर्षों पर आधारित राममोहन राय का लेख पढ़ कर की। लेख में उन्होंने बताया कि 17 अक्तूबर, 1929 को दीदी का जन्म महाराष्ट्र के नागपुर में पुरूषोत्तम यशवंत देशपांडे व विमला बाई के घर में हुआ। घर में खुला वातावरण था, जिसमें देश भर की महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों का आना-जाना था और उनके साथ नन्हीं निर्मला को संवाद के मौके मिलते थे। नागपुर से ही उन्होंने राजनीति विज्ञान में एमए की पढ़ाई की और यहीं एक महाविद्यालय में प्राध्यापिका बन गई। समाज के कमजोर दलित, वंचित, उत्पीडि़त तबकों व महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय व भेदभाव से उनका मन व्याकुल रहता था, जिससे उन्होंने अपनी सुख-सुविधाएं त्याग कर संत विनोबा भावे के पवनार स्थित आश्रम में आ गई। विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में उन्होंने 40 हजार कि.मी. की पैदल यात्रा की। पूरी यात्रा में विनोबा भाव के प्रवचनों को उन्होंने ‘भूदान गंगा’ के नाम से कईं खंडों में संकलित किया। भूदान आंदोलन आजाद भारत का अनोखा अहिंसक आंदोलन था, जिसमें 40 लाख एकड़ भूमि लोगों ने दान में दी, जिसे गरीबों व वंचितों में बांटा गया। विनोबा ने अपने गुरु महात्मा गांधी के कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए शांति सेना का गठन किया था,  जिसका कमांडर उन्होंने निर्मला देशपांडे को नियुक्त किया। बाद में वह इंदौर स्थित शांति सेना विद्यालय की निर्देशिका बनी। निर्मला देशपांडे ने इंदिरा गांधी की मित्र व सचिव के रूप में कार्य किया। दीदी ने हरिजन सेवक संघ की अध्यक्षा के रूप में उन्होंने कार्य किया। अखिल भारतीय रचनात्मक समाज की स्थापना की। आतंकवाद से त्रस्त जम्मू कश्मीर, 1984 में पंजाब, बिहार में नक्सलवाद और महाराष्ट्र में हिंसा के समय उन्होंने पदयात्राएं निकाल कर शांति का संदेश दिया। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय दीदी ने ‘उन्हें रोको उन्हें रोको’ का शोर मचाया। गुजरात में नरसंहार के दौरान वहां पहुंच कर पीडि़तों के जख्मों पर मरमम लगाया। दीदी निर्मला देशपांडे ने पाकिस्तान के साथ दोस्ती का प्रबल समर्थन किया। नेपाल में संकट के समय वे वहां पहुंची। तिब्बत की मुक्ति साधना का समर्थन किया। आंग सान सू की के नेतृत्व में म्यांमार के जनतांत्रिक संघर्षों का समर्थन किया। इंडो पाक सोल्जर इनिशिएटिव फॉर पीस इन इंडिया एंड पाकिस्तान की स्थापना की। अनेक देशों में महिला शांति दल का नेतृत्व किया। उनके योगदान के लिए उन्हें राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार व पद्मविभूषण सम्मान प्रदान किया गया। पाकिस्तान सरकार द्वारा उन्हें लोकप्रिय सरकारी सम्मान सितारा-ए-इम्तियाज से नवाजा गया। 1997 से 2007 तक वे राज्यसभा की सदस्या के रूप में दीदी ने महत्वूपर्ण भूमिका निभाई। देश के राष्ट्रपति पद के लिए भी उनका नाम चलाया गया, लेकिन पद व सत्ता का मोह उनमें दूर-दूर तक नहीं था। उन्होंने विनोबा भावे की जीवनी लिखकर साहित्य को अमूल्य देन दी। चीन की महिला यात्री पर आधारित उनका उपन्यास ‘चिंगलिंग’ साहित्यिक जगत में चर्चाओं में रहा। 1मई, 2008 को मृत्यु को दिल्ली में उनकी मृत्यु हो गई। आज भी उनके विचारों व कार्यों को आगे बढ़ाने वाले लोग हैं, स्मृति सभा में विभिन्न व्यक्तित्वों द्वारा रखे गए विचार इसके गवाह हैं। मृत्यु के बाद उनकी याद में पानीपत में निर्मला देशपांडे संस्थान की स्थापना की गई।
PUNJAB KESARI 10-5-2021

संगोष्ठी में होप (हाली ओपन इंस्टिट्यूट फ़ॉर पीस एंड एजुकेशन) की संयोजिका पूजा सैनी ने संस्थान में हो रही व्यापक गतिविधियों के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि 2009 में पानीपत में उद्योगों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के स्कूल नहीं जाने वाले 8 बच्चों के साथ हाली स्कूल की स्थापना की गई थी। यहीं पर निर्मला देशपांडे संस्थान व पुस्तकालय चल रहा है।
पद्मश्री डॉ. एस.पी. वर्मा

गांधी ग्लोबल फैमिली के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद्मश्री डॉ. एसपी वर्मा ने कहा कि दीदी ने लोगों को जोडऩे में बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया। आज भी पूरे देश व दुनिया में दीदी के अनुयायी मिलते हैं और उनसे प्रेरणा लेकर शांति व एकता के लिए काम करते हैं। आज दीदी निर्मला देश पांडे की पुण्यतिथि ऐसे समय में मनाई जा रही है, जबकि कोरोना महामारी अपना विकराल रूप ले चुकी है। देश संकट में है। आपदा से निकलने के लिए मिलकर काम करने की जरूरत है। उन्होंने दीदी से जुड़े अपने संस्मरण सुनाते हुए कहा कि 1990 में जब आतंकवाद का दौर था, दीदी निर्मला देशपांडे जम्मू-कश्मीर पहुंची। पीडि़तों की मदद की। 1 लाख, दस हजार लोगों को राशन बांटा। कितने ही काम उन्होंने बिना रूपयों के शुरू किए। उन्होंने कहा कि लोगों की एकता और प्रतिबद्धता वह ताकत है, जिसे आगे लाने पर बड़ा बदलाव हो सकता है। दीदी की विचारधारा और दर्शन हमें विश्व शांति, एकता, भाईचारे का संदेश देता है।
सूर्य भूषाल, नेपाल

गांधी फैमिली के नेपाल चैप्टर के अध्यक्ष सूर्य भुषाल ने कहा कि दीदी निर्मला देशपांडे ने नेपाल में 1999 से 2001 के बीच काफी काम किया। नेपाल में शांति स्थापित करने के लिए माओवादियों से बात करने का प्रस्ताव रखा। नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड के साथ जंगलों में जाकर बातचीत की। कांग्रेस के गिरीजा प्रसाद कोईराला से बात की। जिस दिन उनकी मृत्यु हुई, उस दिन पांच सांसदों के साथ उन्हें काठमांडु में आना था। दीदी निर्मला देशपांडे ने नेपाल और भारत के संबंधों को और अधिक मजबूत बनाने और नेपाल में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता व शांति के प्रयास किए। नेपाल की समाजिक कार्यकर्ता पार्बती भंडारी ने दीदी देशपांडे के साथ अपने आत्मीय सम्बन्धों का भावपूर्ण ढंग़ चित्रण किया।
राष्ट्रीय सेवा परियोजना  के राष्ट्रीय संयोजक संजय राय ने कहा कि महिला होते हुए दीदी को अनेक प्रकार की मुसीबतों का सामना करना पड़ा। आज गांधीवादियों में भले ही कुछ मतभेद हों, लेकिन दीदी के नाम पर सभी एकजुट हैं। हरिजन सेवक संघ तमिलनाडु के अध्यक्ष पी मारुति व राजीव देशपांडे ने कहा कि दीदी स्वयं एक संस्था थी। गरीब, आदिवासियों व महिलाओं के जरिये उन्होंने भारत को देखने की नजर दी। दीदी ने माला के रूप में सभी को पिरोने की कोशिश की। दीदी के साथ बिताया समय गाईडिंग लाईट का काम करता है। 2007 में वे दीवाली के मौके पर जिस दिन उनके घर आई, उसी दिन पाकिस्तानी जम्मू कश्मीर में भूकंप आया। वे अंदर से फूट पड़ी। उनकी संवेदना हम सबके लिए प्रेरणा स्रोत है।
कर्नाटक से युवा गांधीवादी तथा शिक्षाविद आबिदा बेगम ने कहा कि दीदी गांधी व विनोबा की शक्ति बनकर चली। वे आज की महिलाओं व लड़कियों की मार्गदर्शक हैं। उनसे प्रेरणा लेकर हमें कोविड-19 में पीडि़तों को बाहर निकालने के काम को आगे बढऩा चाहिए।
प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता व जयपुर (राजस्थान) की शान्तिकर्मी कविता श्रीवास्तव ने कहा कि दीदी शांति को समर्पित थी। इंडो-पाक पीस के लिए उनके कार्यों के कारण दोनों देशों के बड़े-बड़े नेता व आम जन उनका सम्मान करते थे। जनसंपर्क के लिए बाडमेर से जो ट्रेन पाकिस्तान जाती थी, उसे शुरू करवाने में दीदी का बड़ा योगदान था। उन्होंने दीदी के साथ पाकिस्तान जाने के अपने संस्मरण सुनाए, जिसमें वहां के बड़े नेताओं से लेकर आम लोगों तक ने किस तरह से उनका स्वागत किया था। उन्होंने कहा कि उनकी मृत्यु के बाद पाकिस्तान में लाहौर, कराची सहित पाकिस्तान के कईं शहरों में लोगों ने यात्राएं निकाली गई, जिसमें वहां के मंत्री भी शामिल हुए। दीदी के बिछुडऩे से वे बहुत नुकसान महसूस कर रहे थे। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान से संवाद होना चाहिए। बात होनी चाहिए। यह वक्त है दीदी के बारे में लिखने व उनके संस्मरण संजोने का है और भारत-पाक दोस्ती के लिए काम करने का है।
जम्मू से प्रिया वर्मा ने कहा कि दीदी जब जम्मू आई थी मैं आठ-दस साल की थी। पिता एसपी शर्मा ने उनके साथ काम किया। दीदी यहां आई तो उन्होंने मुझे अपने साथ-साथ रखा। वे मुझे बहुत स्नेह करती थी। हिन्दु मुस्लिम सिख ईसाई सर्व धर्म प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करती थी। वे दिल्ली में भी उनके साथ रही। दीदी के साथ बहुत लोगों से मिली। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। कश्मीर से तारिक भट्ट ने कहा कि दीदी को कश्मीर, कश्मीरियत व कश्मीरी से बेहद मोहब्बत थी।
हरिजन सेवक संघ पंजाब के अध्यक्ष तथा प्रसिद्ध शान्तिकर्मी डॉ. पवन कुमार थापर ने कहा कि पंजाब में आतंकवाद जब चरम सीमा पर था तब निर्मला देशपांडे अपने चंद साथियों  के साथ वहां आई और शांति एवं सद्भाव के लिए कार्य किया। आज जब हिंसा, द्वेष एवम घृणा बढ़ती जा रही है, ऐसे में शांति एवं सद्भाव के कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की अत्यंत जरूरत है । दीदी के नारे गोली नहीं -बोली चाहिए ही पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों का आधार होना चाहिए।
हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष प्रो. शंकर कुमार सान्याल ने कहा कि राजनेता अपने भडक़ाऊ भाषणों के जरिये जाति, धर्म, भाषा व क्षेत्र की संकीर्णताओं को बढ़ा रहे हैं, लोगों को तोडऩे की कोशिश कर रहे हैं। हमें लोगों को जोडऩा है। आज युवाओं को नेतृत्व सौंप कर ही हम नए समाज का निर्माण कर सकते हैं। लेखक व शिक्षाविद अरुण कैहरबा ने कहा कि दीदी सदा ही प्रगतिशील ताकतों के समर्थन में थी। एक वैकल्पिक दुनिया मुमकिन है इसके लिए वे सदा प्रयत्नशील रही। गांधी विचार के युवा अध्येता विकास साल्यान ने कहा कि दीदी निर्मला देशपांडे की महान शख्सियत के पीछे महान विचार हैं। आज मानवता व विचार समाप्त होते जा रहे हैं। हमें विचारों के जरिये समाज बदलना है।
पद्मश्री धर्मपाल सैनी

संगोष्ठी के अध्यक्ष पद्मश्री धर्मपाल सैनी ने कहा कि दीदी ने गांधी जी के विचारों को नई पीढ़ी में नए संदर्भों में  फैलाया। उनकी बहुत संवेदनशील सोच थी। दीदी जहां जाती थी, वहां बच्चों, महिलाओं, युवाओं व समाज के हर वर्ग के साथ जुड़ती थी। बच्चों व युवाओं को शांति के विचार से जोडऩे के लिए शैक्षणिक संस्थान शुरू किए जाने चाहिएं। सैनिक राकेश्वर सिंह की रिहाई पर उनका कहना था कि यह गांधी-विनोबा विचार के कारण ही सम्भव हो सका है।
संगोष्ठी के संयोजक सुरेन्द्रपाल सिंह ने कहा कि आजादी का आंदोलन एक फुलवारी की तरह था। गांधी जी माली की तरह थे। उन्होंने फूलों को सजाया-संवारा। वे फूल आज तक खुश्बू बिखेर रहे हैं। निर्मला देशपांडे द्वारा दुनिया भर में प्यार का संदेश देना आसान काम नहीं रहा होगा। आज भी शांति, सद्भाव के मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं हैं। नफरत का माहौल व नफरत की राजनीति के दौर में निर्मला देशपांड की परंपरा से जुड़े होने के कारण हमारी महत्वपूर्ण भूमिका है। सिर जोड़ कर आगे बढ़ें और सद्भाव व अहिंसा पर आधारित परंपरा को आगे बढ़ाएं।
संगोष्ठी में मणिपुर के युवा सामाजिक कार्यकर्ता ऋषि शर्मा तथा जूनागढ़ (गुजरात) के चतुर्भुज राजपारा, चंडीगढ़ से मनोहर लाल शर्मा, वयोवृद्ध गांधीवादी अमरनाथ भाई, इप्सी के संयोजक जन. तेज कौल, पंजाब की पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मालती थापर, दिव्या भुषाल (सिडनी), फरहद फाल्सी (कश्मीर),  गांधी ग्लोबल फैमिली के कोषाध्यक्ष अशोक कपूर, अखिल भारत रचनात्मक समाज के राष्ट्रीय महासचिव बीजी विजय राव, फि़ल्म सेंसर बोर्ड की पूर्व सदस्य अरुणा मुकीम, सौलीफय के निदेशक सिद्धार्थ मस्करी व स्मृति राज, देहरादून से प्रवक्ता श्री विजय बहुगुणा, माता सीता रानी सेवा संस्था, पानीपत की अध्यक्ष कृष्ण कांता, सचिव प्रिया लूथरा व परामर्शदात्री सुनीता आनंद उपस्थित रहे। राममोहन राय ने बताया कि इंडोनेशिया में बाली से श्रीइंद्राउदयाना बांग्लादेश में नोआखाली स्थित गांधी आश्रम ट्रस्ट के निदेशक नब कुमार राहा, गांधी फैमिली बांग्लादेश की राष्ट्रीय संयोजक तन्द्रा बरुआ, अमेरिका में डॉ. दिव्या आर नायर व लाहौर पाकिस्तान से जुबैदा नोमानी ने कार्यक्रम की सफलता के लिए शुभकामनाएं दी।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145 

Friday, May 7, 2021

GURUDEV RABINDERNATH TEGORE

 जयंती विशेष

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत की सांस्कृतिक पहचान के प्रतीक

बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न शख्सियत

अरुण कुमार कैहरबा


किसी भी देश की वास्तविक पूंजी उसके नागरिकों में ही छिपी होती है। लोगों की प्रतिभा और मेहनत से देश की शान भी बढ़ती है। कुछ लोग तो अपनी प्रतिभा के बल पर किसी देश व समाज की पहचान तक बन जाते हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर भी ऐसी ही शख्सियत हैं, जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक पहचान को चार चांद लगाए। उन्होंने अपनी प्रतिभा, मानवतावादी विचारों, कार्यों व लेखनी के माध्यम से दर्शन, साहित्य, संगीत, चित्रकला, शिक्षा सहित विभिन्न क्षेत्रों को नई देन दी, जिसे सदा याद रखा जाएगा। अंग्रेजी शासन की नृशंस कार्रवाईयों को देखते हुए उन्होंने सर व नाइटहुड आदि की उपाधियों को लौटा दिया। उनके योगदान को देखते हुए देश की जनता ने उन्हें सम्मान स्वरूप गुरुदेव की उपाधि दी।
रवीन्द्रनाथ का जन्म 7मई, 1861 को कलकत्ता में देवेन्द्रनाथ ठाकुर व शारदा की चौदहवीं संतान के रूप में हुआ था। पिता ब्रह्म समाज से जुड़े थे। परिवार समृद्ध व सम्पन्न था। मां की तबीयत ठीक नहीं रहती थी। बच्चों की देखरेख व खान-पान का जिम्मा नौकरों के हाथ में था। बच्चों की सक्रियता पर लगाम लगाने के लिए एक बार एक नौकर ने रामायण का लक्ष्मण रेखा प्रसंग सुनाया और लक्ष्मण रेखा लांघने पर मुसीबत में पड़ जाने का उपदेश दिया। बालक रबीन्द्रनाथ की पढ़ाई के लिए घर पर ही शिक्षक आते थे। अपने बड़े भाईयों की तरह उनका मन भी स्कूल जाने के लिए मचलता था। बताते हैं कि जब उन्होंने स्कूल जाने की इच्छा व्यक्त की तो अध्यापक ने उनकी पिटाई कर दी। बाद में उन्हें स्कूल में भेजा जाने लगा, लेकिन अध्यापकों की क्रूरता और मार-पिटाई से रवीन्द्रनाथ ठाकुर का मन शिक्षा से विचलित रहने लगा। उनके मन में सवाल पैदा हुआ कि जिन स्कूलों को विद्या मंदिर कहा जाता है, उनमें हिंसा आखिर क्यों होती है?
स्कूली शिक्षा से ऊबे बालक रबीन्द्रनाथ ने अपने पिता के साथ हिमालय की यात्रा की। शांतिनिकेतन से वे अमृतसर पहुंचे। यहां से सात हजार फीट की ऊंचाई पर डलहौजी पहुंचे। हिमालय की आगोश में उन्होंने चार महीने बिताए, जिसका उनकी सोच व संस्कारों पर गहरा प्रभाव पड़ा। घर लौटने पर वे परिजनों व आसपास के बच्चों को हिमालय के किस्से सुनाते।  
12 साल की उम्र में रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘अभिलाषा’ कविता लिखी, जोकि तत्वबोधिनी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। रबीन्द्र की उम्र 13 साल की ही थी कि मां का देहांत हो गया और रबीन्द्र फिर से हिमालय जाने की सोचने लगे। ऐसे में बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ और उनकी पत्नी कादंबरी देवी ने बड़ा सहारा दिया। सदमे से उबरने पर 14 वर्ष के रबीन्द्र ने 1600 शब्दों की कविता-बनफूल लिखी, जोकि ज्ञानांकुर पत्रिका में प्रकाशित हुई।

रबीन्द्रनाथ के पिता उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने 1878 में रबीन्द्रनाथ को ब्रिटेन भेज दिया। वहां पर उन्हें पश्चिमी संगीत व नृत्य आदि कलाएं सीखने का मौका मिला। बाद में पढ़ाई बीच में छोड़ कर वे भारत आ गए। यहां वापिस लौटे तो घर में ना भाई-भाभी थे और ना पिता जी। अत: अकेलेपन में उन्होंने उदास गीतों की रचना की, जोकि उनके ‘सांध्यगीत’ संग्रह में प्रकाशित हुए। इस दौरान उन्होंने दो नाटक भी लिखे। उनका विवाह मृणालिनी से कर दिया गया। पोस्टमास्टर, चित्रा, नदी, चैताली, विदाई अभिशाप, चिरकुमार सभा व काबुलीवाला सहित अनेक रचनाएं आई। उनकी काबुलीवाला पर तो हेमेन गुप्ता के निर्देशन में फिल्म भी बनी है, जिसमें बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका निभाई। उनका बच्चों के लिए लिखा गया- शारदोत्सव नाटक बंगाल में बहुत प्रसिद्ध है। उनके उपन्यास नष्टनीड़ पर चारूलता फिल्म बनी। उनकी अनेक रचनाओं को आधार बनाकर फिल्मकारों ने फिल्मों का निर्माण किया।
रबीन्द्रनाथ ठाकुर अराजनैतिक व्यकितत्व थे, जिनका दुनिया के अनेक शासकों ने स्वागत किया। भारत में हो रहे राजनैतिक बदलावों पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रियाएं जताई। 1905 में बंगाल विभाजन का उन्होंने जोरदार विरोध किया। अनेक सभाओं का संबोधित किया। 1919 में जलियांवाला बाग के हत्याकांड ने रबीन्द्रनाथ को झकझोर दिया। उन्होंने नाइटहुड की उपाधि लौटाते हुए अंग्रेज वायसराय को पत्र लिखा। हत्याकांड के सबसे बड़े किरदार को अंग्रेजी संसद द्वारा माफ किए जाने पर उन्होंने रोष जताया।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के कार्य देश की सीमा से निकल कर दुनिया भर में चमके। 1913 में उनके गीत संग्रह-गीतांजलि के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। यह केवल भारत का ही नहीं बल्कि साहित्य के क्षेत्र में एशिया महाद्वीप का पहला नोबेल पुरस्कार था। वे दुनिया के पहले ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनके लिखे गए गीत दुनिया के दो देशों के राष्ट्रगान के रूप में विभूषित हुए। उनका लिखा गया-‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ भारत का राष्ट्रगान है तो उन्हीं की रचना-‘आमार सोनार बांंग्ला’ बांग्लादेश का राष्ट्रगान है। 1911 में उन्होंने भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मण’ लिखा और उसी साल उन्होंने ब्रह्मसमाज की पत्रिका ‘तत्वबोध प्रकाशिका’ में इसे ‘भारत विधाता’ शीर्षक से प्रकाशित किया था। इस पत्रिका का सम्पादन गुरुदेव ही करते थे। 1911 में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 27 दिसंबर को इसे गाया गया। शुरु में इस पर आरोप लगाया जाता रहा कि यह जार्ज पंचम की अभ्यर्थना में लिखा गया है। कहा तो यहां तक गया कि गीत में जार्ज पंचम को ही भारत भाग्य विधाता कहा गया है। यह संयोग ही था कि जिस अधिवेशन में यह गाया गया उसी अधिवेशन में जार्ज पंचम का अभिनंदन करने का निर्णय लिया गया था। अभिनंदन करने का कारण था कि उन्होंने बंगभंग के फैसले को रद्द करने का ऐलान किया था। गुरुदेव ने इन विवादों का ज़ोरदार विरोध किया और कहा कि ‘भारत भाग्य विधाता’ और ‘जय हे’ का प्रयोग भारत की जनता के लिए किया गया है। यह गीत देश के जनगण को समर्पित है। रविन्द्रनाथ ने यूरोप, रूस, अमेरिका के दोनों महाद्वीप, चीन, जापान, मलाया, जावा, ईरान आदि देशों की यात्रा की। उनकी विलियम रोथेन्स्टाइन, कवि यीट्स, एचजी वेल्स, आईंस्टाइन से मुलाकात हुई। प्रसिद्ध वैज्ञानिक बोस से उनकी गहरी मित्रता थी।
शिक्षा की दृष्टि से रबीन्द्रनाथ के मन में बड़ी बेचैनी थी। 22 दिसंबर 1901 में उन्होंने शांति निकेतन में आश्रम शुरू कर दिया। पांच बच्चों और इतने ही अध्यापकों के साथ स्कूल की स्थापना हुई थी। गुरुदेव प्रकृति को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक मानते थे। यही कारण है कि आश्रम में पेड़ों के नीचे कक्षाएं लगती थी। रबीन्द्रनाथ ने बच्चों के लिए प्रार्थना लिखी थी। उनका मानना था कि अध्यापक दीपक की तरह होता है, उसके ज्ञान से बच्चे सीखते हैं। आश्रम को चलाने के लिए पत्नी मृणालिनी ने शादी के जेवर व सोने की घड़ी तथा अपने लिए बनवाया गया घर तक बेच दिए। आश्रम का खर्च चलाने के लिए कर्ज भी लेना पड़ा। कोलकाता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। गुजरात से आया प्रतिनिधिमंडल शांति निकेतन में पहुंच गया और आर्थिक सहयोग का आश्वासन दिया। योग, कसरत, खेल, बागवानी, बंगाली, अंग्रेजी, इतिहास, गणित, विज्ञान, चित्रकला, संगीत, नृत्य आदि विषय थे। 1921 आते-आते विद्यालय का नाम विश्व भारती हो गया। विश्व भारती विश्वविद्यालय देश में शिक्षा का ऐसा केन्द्र है, जहां पर दुनिया भर के विभिन्न देशों के विद्यार्थी पढऩे के लिए आते हैं। भारतीय संस्कृति व कला के साथ ही दुनिया की विभिन्न भाषाओं की यहां पर शिक्षा दी जाती है। हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस संस्थान में कईं वर्षों तक हिन्दी शिक्षण किया। उन्होंने अपने संस्मरणों में भी गुरुदेव की संवेदनशीलता व प्रकृति प्रेम को उजागर किया है। एक कुत्ता और एक मैना नामक रचना में द्विवेदी जी बेजुबान पशु-पक्षियों के प्रति गुरुदेव के स्नेह को प्रकट करते हैं।
गुरुदेव का बनावटी और दिखावटी शिक्षा के प्रति आक्रोश उनकी कहानी-तोता में बड़े तीखेपन के साथ प्रकट होता है। जिस तोते को पढ़ाने का जिम्मा राजा के द्वारा दिया जाता है, सारी व्यवस्था उस तोते को नजरंदाज करते हुए भी आत्ममुग्ध होती है। सारे उपक्रमों और क्रियाओं के बीच ही तोता मर जाता है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का शिक्षा-दर्शन उस बच्चे को खेल, रचनात्मक क्रियाओं के द्वारा प्राकृतिक माहौल में शिक्षा प्रदान करने की पक्षधरता करता है। रवीन्द्रनाथ अपने जीवन के आखिरी वर्षों में चित्रकारी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाली विरली शख्सियत हैं। वे तीन हजार के करीब  पेंटिंग बनाते हैं और भारतीय चित्रकला को अपना अन्यतम योगदान देते हैं। संगीत के क्षेत्र में उनके नाम से रवीन्द्र संगीत की एक धारा चल पड़ती है। उनका संगीत जहां एक ओर प्रकृति के साथ जुड़ा है, वहीं उसमें पाश्चात्यत संगीत के तत्व भी देखे जा सकते हैं।
संक्षेप में कहें तो रवीन्द्रनाथ टैगोर का व्यक्तित्व इतना विराट था कि किसी एक रचना से उसे समझा नहीं जा सकता। उनकी कविताएं, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटकों ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाई तो संगीत, नृत्य, नाट्य व चित्रकला के क्षेत्रों को भी देन दी। अपने शिक्षा संस्थान को चलाने के लिए उन्होंने देश भर में जा-जाकर नाटक खेले। सात अगस्त, 1941 को उनका निधन हो गया, लेकिन अपने काम व रचनाओं के जरिये वे सदा भारत की शान व पहचान बने रहेंगे।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
पिन-132041
मो.नं.-9466220145

 
JAGAT KRANTI 7-5-2021

 

SARTHAK KA YATRA VRITTANT- TOPRA KALAN, AADI BADRI, LOHGARH

 यात्रा-वृत्तांत


आनंद और ज्ञान से सराबोर करती यात्रा

हरियाणा के पर्यटक स्थल-टोपरा कलां, आदिबद्री व लोहगढ़ 

-सार्थक

हरियाणा के करनाल जिला के इन्द्री कस्बे में अपने घर से यमुनानगर जिला के गांव टोपरा कलां में जाने की योजना बनी थी। मुझे यात्रा करना बहुत अच्छा लगता है, इसलिए मैं उत्साहित था। हमने 12 फरवरी को जल्दी से तैयार होकर अपनी गाड़ी से यात्रा शुरू कर दी। मैं अगली सीट पर बैठना पसंद करता हूँ। क्योंकि  इससे मैं पापा को गाड़ी चलाते हुए देख सकता हूँ। कार में अपने पसंद के गाने भी लगा सकता हूँ। यमुनानगर जिला के गांव करेड़ा खुर्द के बाद हम टोपरा कलां की ओर बढ़े। वहां पहुंच कर देखा कि वहां पर ऐतिहासिक अशोक चक्र बना हुआ है। अशोक चक्र बहुत बड़ा था। उसके पास एक बोर्ड पर अशोक चक्र के बारे में जानकारियां लिखी हुई थी। अशोक चक्र को धर्म चक्र भी कहते हैं। 23सौ साल पहले सम्राट अशोक ने टोपरा कलां में एक स्तंभ बनवाया था। फिर 14वीं सदी में फिरोजशाह तुगलक इस स्तंभ को उतार कर ले गया। जिसे बाद में फिरोजशाह कोटला मैदान, दिल्ली में लगाया गया। गांववासियों की इच्छा थी कि टोपरा कलां में अशोक स्तंभ की यादगिरी होनी चाहिए। तो 2018 में अशोक चक्र बनने लगा। 2019 में इसे गांव के पास ही स्थापित किया गया। यह चक्र आठ हजार किलोग्राम का है और उसमें 5500कि.ग्रा. लोह का इस्तेमाल किया गया है। यह चक्र भारत के तिरंगे झंडे के मध्य में स्थित अशोक चक्र जैसा ही है, जिसमें 24 तीलियां लगाई हैं। लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस ने इस चक्र को देश का सबसे बड़ा अशोक चक्र घोषित किया है। मेरे पापा ने इस चक्र के बारे में जानकारियों को समेटते हुए एक वीडियो भी बनाई।


अशोक चक्र देखने के बाद हम जगाधरी की तरफ चल दिए। जगाधरी बस अड्डे से पहले ही आदि बद्री का बोर्ड देख कर वहां जाने की इच्छा हुई और पापा ने गाड़ी उसी तरफ मोड़ दी। रास्ते में हमें भूख लगने लगी। थोड़ी देर बाद हम बिलासपुर पहुंच गए। वहां पर एक जूस की दुकान पर हमने नारियल शेक पीया। बर्फ के कारण शेक बहुत ठंडा था। बिलासपुर से आगे निकले तो कुछ देर बाद आदि बद्री के पहाड़ दिखने शुरू हो गए। आगे जाकर एक मोड़ आ गया। वहां से पूछने पर पता चला कि इस मोड़ से मुडऩे पर ही आगे आदि बद्री आएगा। पहले गांव काठगढ़ दिखाई दिया। हमें पता चला कि आदि बद्री भी काठगढ़ गांव का हिस्सा है। कुछ दूरी पर पहाड़ शुरू हो गए थे। मुझे बहुत मजा आ रहा था, क्योंकि पहली बार हम अपनी गाड़ी को पहाड़ों में ले जा रहे थे और मेरे पापा पहली बार पहाड़ों में ड्राईव कर रहे थे। मैं साथ-साथ गाने का आनंद ले रहा था। 


पहले हम वहां पहुंचे, जहां से सरस्वती निकली थी। फिर हम थोड़ा आगे गए। जहां एक सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक केन्द्र दिखा। पापा ने कहा कि यहां बाद में आएंगे। थोड़ा आगे चलकर रास्ता खत्म हो रहा था। वहां पर गाड़ी पार्क करके हम सीढिय़ां चढक़र ऊपर गए। सीढिय़ों के दोनों ओर रेलिंग पर बंदर अठखेलियां कर रहे थे। वे ऊपर जा रहे थे और नीचे आ रहे थे। ऊपर जाकर हमने ऊंचे पहाड़ देखे। सबसे ऊपर एक मंदिर था, जहां तक जाने का रास्ता बहुत लंबा है। लेकिन वहां जाने का हमारे पास समय नहीं था। दूसरे रास्ते से हम नीचे आए। एक नाले पर बने पुल को पार करके और कुछ सीढिय़ां चढक़र हम गऊशाला पहुंचे। वहां पर बहुत सारी गायें थी। गाय के दूध से सेवकों द्वारा चाय का प्रसाद बनाकर रखा गया था। हमने सोचा कि पहले ऊपर के मंदिरों में जाते हैं। मंदिरों में प्रवेश से पहले हमने घंटी बजाई। ऊपर की तरफ जाते हुए रास्ते में एक कुत्ता बैठा था। लोगों को रास्ते से आते देखकर वह साईड में हो गया और आराम करने लगा। हम मंदिरों के दर्शन करके नीचे आ गए। हमने चाय का प्रसाद लिया। 
वहां से वापिस आकर हम गाड़ी में वापिस चल दिए। फिर हम सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक केन्द्र में आए। इस संग्रहालय के प्रांगण में चबूतरे बनाकर पुरानी मूर्तियां रखी गई थी। जोकि खुदाई में मिली थी। इनमें एक पत्थर की मूर्ति महात्मा बुद्ध की थी, जोकि मुझे पसंद आई। संग्रहालय के तीन कमरों में प्राचीन काल के इतिहास को दर्शाने वाले चित्र लगाए गए थे। वे चित्र हरियाणा के विभिन्न स्थानों के थे। पहले कमरे के बीचों-बीच आदि बद्री के नक्शे का मॉडल बना था, जोकि सबका ध्यान खींचता था। आदि बद्री के पहाड़ मुझे बहुत अच्छे लगे। 


वहां से वापिस आए तो योजना बनी कि लोहगढ़ भी चलेंगे। हमने जलपान किया और लोहगढ़ की ओर चल दिए। वहां पर भगवानपुर पंचायत में पडऩे वाले लोहगढ़ में हिमाचल प्रदेश की सीमा के साथ लगता एक पुराना गुरुद्वारा है। यह गुरुद्वारा बंदा बहादुर जी के द्वारा बनाया गया था। हमने गुरुद्वारे में माथा टेका। वहां से मिला प्रसाद हमने खाया। लेकिन गुरुद्वारा जाने का रास्ता मुश्किलों से भरा था। वहां पुल बन रहा था। इसलिए धूल-मिट्टी थी। गाड़ी को एकदम नीचे जाना था। वापसी में ऊपर की चढ़ाई करनी थी। वहां से वापिस चले तो शाम हो गई थी। रास्ते में अंधेरा हो गया। गाड़ी में मुझे नींद आ गई थी। हम अपने घर आठ बजे पहुंचे। दादा जी घर पर हमारा इंतजार कर रहे थे। मैंने अपने दादा जी को यात्रा की सारी कहानी सुनाई। 

सार्थक

कक्षा-पांचवीं, शहीद उधम सिंह व.मा. विद्यालय, 

मटक माजरी, इन्द्री, करनाल 

घर का पता- सार्थक पुत्र अरुण कैहरबा

वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, 

इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा

मो.नं.-9466220145   

Tuesday, May 4, 2021

GREAT REVOLUTIONARY BIRKANYA PRITILATA WADDEDAR

 जयंती विशेष

आजादी की लड़ाई की वीरकन्या क्रांतिकारी शहीद प्रीतिलता वादेदार
विचार, बहादुरी और देश भक्ति में बेमिसाल व्यक्तित्व
स्वतंत्रता आंदोलन में प्रीतिलता ने 21 साल की उम्र में दी शहादत
DAILY NEWS ACTIVIST -5-2021


अरुण कुमार कैहरबा
आजादी की लड़ाई अनेक प्रेरक व संघर्षशील व्यक्तित्वों से भरी हुई है, जिन्होंने अपनी देशभक्ति की भावना, योजना, कुशलता, सामूहिकता, विचारशीलता, बौद्धिकता, त्याग और बलिदान के बल देश को आजाद करवाने के लिए अथक संघर्ष किए। दुखद यह है कि कितने ही नाम या तो भुला दिए गए या फिर उन्हें बहुत कम याद किया जाता है। आजादी के बाद बंटवारे के बावजूद विशाल देश में अलग-अलग क्षेत्रों के लोग अपने ही क्षेत्र के क्रांतिकारी वीरों व वीरांगनाओं को तो जानते हैं, लेकिन अपने ही देश के दूसरे राज्यों के स्वतंत्रता सेनानियों व शहीदों को नाम से भी नहीं जानते हैं। ऐसे ही सेनानियों में बंगाल की पहली महिला शहीद प्रीतिलता वादेदार का नाम भी शामिल है, जिन्होंने चट्टगांव के प्रसिद्ध विद्रोह में हिस्सा लिया और 21 साल की कम उम्र में आजादी के लिए प्राण देकर देश के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया। लैंगिक भेदभाव व अवसरों की कमी के चलते अन्य अनेक सामाजिक व राष्ट्रीय मोर्चों की ही तरह आजादी की लड़ाई में भी महिलाओं की कम भागीदारी के संदर्भ में ता प्रीतिलता व स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं के योगदान को व्यापक संदर्भों में देखा ही जाना चाहिए। इसके अलावा भी युवा प्रीतिलता विचार व बहादुरी में आज के युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है।
यह वह दौर था जब बांग्लादेश अलग देश के रूप में दुनिया के मानचित्र पर नहीं आया था। संयुक्त भारत के उसी क्षेत्र में एक कस्बा है चट्टगांव। चट्टगांव के एक गांव ढ़ालघाट 5 मई, 1911 को प्रीतलता का जन्म हुआ। उनके पिता जगतबंधु एक क्लर्क थे। मां प्रतिभा भी शिक्षा के महत्व को समझती थी। इस तरह परिवार आर्थिक दृष्टि से अधिक सम्पन्न तो नहीं था, लेकिन शैक्षिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में था। नन्हीं प्रीतिलता को घर में ही शिक्षा दी गई। जब वह दस वर्ष की हुई तो उसे स्कूल में सीधे तीसरे दर्जे में दाखिला मिला। प्रतिभावान छात्रा होने के कारण उसे छात्रवृत्ति भी मिली। जब प्रीतिलता आठवीं कक्षा में थी, उसने अंग्रेजों द्वारा मास्टर दा सूर्यसेन को जेल भेजते हुए देखा। अंगे्रजों द्वारा क्रांतिकारियों पर अत्याचार के दृश्यों ने उसमें देशभक्ति की भावना को आगे बढ़ाया। शीघ्र ही उसने स्वतंत्रता सेनानियों के दर्शन व जीवनियों पर आधारित किताबें इक_ा करके पढऩे लगी। 17 साल की उम्र में 1928 में उसने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद ढ़ाका के मशहूर इडेन कॉलेज में दाखिला लिया। यहां पर पढ़ते हुए ही वह उस समय के स्वतंत्रता सेनानियों से प्रभावित होने लगी थी। यहां पर वह अनेक सामाजिक गतिविधियों के साथ जुड़ी। लीला नाग की अगुवाई में चलाए जा रहे ‘स्त्री संघ’ की वह सक्रिय सदस्य हो गई। ‘दीपाली संघ’ के अन्तर्गत महिलाओं के द्वारा गुप्त रूप से चलने वाली क्रांतिकारी गतिविधियों में भी हिस्सा लेने लगी। कला और साहित्य उसके रूचिकर विषय थे। इंटरमीडिएट की परीक्षा में पूरे ढ़ाका बोर्ड में पांचवां स्थान पाया। यहां से कलकत्ता के बेथुन कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की। यहां से उसने दर्शशास्त्र में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन आजादी के लिए किए जा रहे क्रांतिकारी संघर्षों में हिस्सेदारी के कारण अंग्रेज सरकार ने प्रीतिलता व बीना दास की डिग्री रोक ली थी। मृत्यु के 80 साल बाद 2012 में विश्वविद्यालय ने प्रीतिलता की डिग्री जारी की।
पढ़ाई के बाद उसने लड़कियों के नंदनकरण अपर्णाचरण नाम के सैकेंडरी स्कूल में मुख्याध्यापिका के लिए रूप में कार्यभार ग्रहण किया। आजादी की गतिविधियों में रूझान होने के कारण स्कूल में तो मुख्याध्यापिका के रूप में ज्यादा लंबे समय तक काम नहीं कर सकी, परंतु स्वतंत्रता आंदोलन में शहादत देकर अध्यापिका के रूप में उन्होंने सदा-सदा के लिए नाम अमर कर लिया। ढ़ाका व कलकत्ता में पढ़ते हुए ही वह क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ जुड़ गई थी। कलकत्ता में पढ़ते हुए भी क्रांतिकारियों के लिए असला-बारूद आदि छुपा कर भेजती थी। लेकिन बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों के अग्रणी नेता सूर्यसेन के साथ उसकी मुलाकात नहीं हुई थी। सूर्यसेन भी उसे अपनी गतिविधियों में शामिल करने के पक्षधर नहीं थे। वे मानते थे कि महिलाओं के लिए क्रांतिकारी सरगर्मियों में हिस्सा लेना ज्यादा सुविधाजनक नहीं होगा। प्रीतिलता से सूर्यसेन की पहली भेंट हुई तो उसके तर्क और अंग्रेजी राज को समाप्त करने के उसके मजबूत इरादों को देखकर सूर्यसेन को उसे अपने क्रांतिकारी ग्रुप की कॉमरेड स्वीकार करना पड़ा।
सूर्यसेन के सैनिक दल के निर्माण, रणनीति व प्रयासों में प्रीतिलता ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। उसने खुद भी मार्शल आर्ट, लाठी खेला व बंदूक चलाने का अभ्यास किया और अन्य युवाओं व लड़कियों को अंग्रेजी शासन की समाप्ति और आजादी के लिए हथियारों का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया। आजादी की लड़ाई के इतिहास में इस क्रांतिकारी दल ने चट्टगांव विद्रोह किया। इतिहासकारों का मानना है कि यदि यह क्रांतिकारी कार्रवाई सफल हो जाती तो देश को जल्दी ही आजादी मिल जाती। चट्टगांव विद्रोह में सूर्यसेन, प्रीतिलता, गणेश घोष, लोकेनाथ बाल, अंबिका चक्रबर्ती, आनंद प्रसाद गुप्ता, त्रिपुरा सेन, बिधूभूषण भट्टाचार्य, कल्पना दत्त, हिमांशु घोष, बिनोद बिहारी चौधरी, सुबोध राय, मनोरंजन भट्टाचार्य सहित 65 लोगों के समूह ने ब्रिटिश सेना के शास्त्रागार व पहाड़ताली यूरोपियन क्लब पर कब्जा करने के लिए टेलीग्राफ व टेलिफोन सिस्टम व रेलवे की व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। समूह में अधिकतर सदस्य कम उम्र के विद्यार्थी थे। उनमें से सुबोध राय केवल 14 साल के थे। इस कार्रवाई में कुछ कार्य सफलता पूर्वक कर लिए गए। लेकिन योजना में थोड़ी चूक रह जाने के कारण कईंयों को पकड़ लिया गया और कईंयों को भागना पड़ा। 1932 में चट्टग्राम के पहाड़ताली यूरोपियन क्लब पर हमला किया गया। इस पर हमले का मुख्य कारण यह था कि यह साम्राज्यवाद व जातीय भेदभाव का प्रतीक केन्द्र था। उसके बाहर लिखा हुआ था- ‘कुत्ते और भारतीयों को अनुमति नहीं है।’ प्रीतिलता वादेदार की अगुवाई में 10 सदस्यों की टीम ने 23 सितंबर, 1932 की रात को कार्रवाई को अंजाम दिया। हमले के दौरान क्लब में 40 के करीब सदस्य थे। हमले में एक महिला मारी गई और कईं सदस्य घायल हुए। तभी क्लब की रक्षा कर रहे सिपाहियों ने समूह के सदस्यों पर हमला कर दिया। प्रीतिलता घायल हो गई। ऐसे में जिंदा पकड़ाई में ना आने की चाह के कारण प्रीतिलता ने पोटाशियम साइनाइड का सेवन करके खुद मौत को गले लगा लिया।
भारत व बांग्लादेश प्रीतिलता की स्मृतियों व आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को प्रचारित करने के लिए वीरकन्या प्रीतिलता ट्रस्ट बनाया गया है, जोकि उनकी जयंती और शहीदी दिवस पर उन्हें याद करता है। चट्टगांव में प्रीतिलता की याद में सडक़ का नाम भी रखा गया है। यूरोपियन क्लब के पास ही उनकी प्रतिमा स्थापित की गई है। दोनों देशों में उनके नाम पर स्कूलों, कॉलेजों व सभागारों के नाम रखे गए हैं। हरियाणा के करनाल जिला में साक्षरता अभियान के तहत बनाए गए कलाजत्थों में एक नाटक टीम का नाम शहीद प्रीतिलता के नाम पर रखा गया था। हालांकि अब वह टीम सक्रिय नहीं है। बॉलीवुड ने चटगांव व खेलें हम जी जान से नाम की दो फिल्में बनाई गई हैं, जिनमें चट्टगांव विद्रोह, मास्टरदा सूर्यसेन, प्रीतिलता व कल्पना दत्त आदि चरित्रों को दिखाया गया है। बांग्लादेश में प्रीतिलता वादेदार के व्यक्तित्व पर आधारित फिल्म निर्माण की घोषणा हुई थी। फिलहाल शायद वह फिल्म बनकर तैयार नहीं हुई है।
वैसे तो विद्यार्थियों की पाठ्यपुस्तकों में स्वतंत्रता आंदोलन व विशेष रूप से क्रांतिकारी धारा की घोर उपेक्षा होती आई है, लेकिन पुरूष प्रधान समाज विशेष रूप से क्रांतिकारी आंदोलन में प्रीतिलता वादेदार व कल्पना दत्त, शांति घोष व सुनीति चौधरी जैसी उनकी समकालीन महिलाओं के योगदान की और ज्यादा उपेक्षा होती हुई दिखाई देती है। यह भी होता है कि महिलाओं बारे में कपोल-कल्पित विवरण भी चला दिए जाते हैं, जिन पर ज्यादा चर्चा होने लगती है और उनकी असली भूमिका हाशिये पर चली जाती है। आजादी की लड़ाई ही नहीं देश के इतिहास में प्रीतिलता महिलाओं की बराबरी व सामाजिक राष्ट्रीय परिदृश्य में उनकी सक्रिय भूमिका को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्रीतिलता का जीवन व संघर्ष उनके जीवन काल में ही प्रकाशस्तंभ नहीं थे, आज भी हैं। प्रीतिलता ने उस समय लिखा था, ‘मुझे पूरी उम्मीद है कि मेरी बहनें अब खुद को कमजोर नहीं समझेंगी और खुद को सभी खतरों और कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार करेंगी और हजारों की संख्या में क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होंगी।’

अरुण कुमार कैहरबा
स्वतंत्रता आंदोलन के अध्येता,
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा पिन-132041
मो.नं.-9466220145
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