शिक्षा-विमर्श
अध्यापकों पर पड़ी कोरोना संकट की मार, निजी संस्थानों के अध्यापक हुए बेरोजगार!
अरुण कुमार कैहरबा
अध्यापक शिक्षा की प्रक्रिया का केन्द्रीय किरदार होता है। अध्यापक की कल्पनाशीलता, विचारशीलता, तर्कशीलता, विशेषज्ञता एवं योजनाएं विद्यार्थियों को सीधे लाभान्वित करती हैं। वह अध्यापक ही होता है, जो अपने पिटारे से हर रोज नया कुछ निकालता है और विद्यार्थियों में अध्ययन के प्रति रूचि का निर्माण करते हुए उन्हें आगे बढऩे के लिए प्रेरित करता है। अध्यापकों के सम्मान में तरह-तरह की बातें कहने वाले नेताओं की अगुवाई वाली सरकारों में कोरोना काल बेहद मुश्किल समय साबित हुआ है। खास तौर से निजी शिक्षण संस्थाओं में काम करने वाले अधिकतर अध्यापकों को या तो नौकरी से निकाल दिया गया है, या फिर उन्हें प्रलोभन देकर काम तो लिया जा रहा है और करीब पांच महीनों से वेतन नहीं दिया गया है। कुछ अध्यापकों को नाममात्र का वेतन देकर काम लिया जा रहा है।
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HIMACHAL DASTAK 21-07-2020 |
अध्यापक दिवस जैसे अवसरों पर विभिन्न दलों के नेता अध्यापकों के सम्मान में कसीदे गढ़ते हैं। अधिकतर कबीर का दोहा सुनाकर उन्हें भगवान से भी ऊंचा दर्जा दे दिया जाता है। कोरोना काल में जब बच्चों का स्कूल आना मुश्किल हो गया तो अध्यापकों ने ऑनलाइन शिक्षा का मोर्चा संभाला। बच्चों से जीवंत सम्पर्क करने के लिए उन्होंने वीडियो बनाई और उनकी शिक्षा में व्यवधान से पार पाने के हर जतन किए, जोकि आज भी जारी हैं। हालांकि ऑनलाइन शिक्षा के दुष्प्रभावों से उदासीनता भी देखने को मिल रही है, लेकिन घर से पढ़ाओ अभियान और घर ही पाठशाला की अवधारणा को साकार करने में उनके योगदान को सराहनीय ही कहा जाएगा। इसके बावजूद कोरोना के संक्रमण के खतरों से बेपरवाह अध्यापकों को स्कूलों में बुलाकर बिठाने में अधिकारियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने मूल जिले से बाहर ड्यूटी कर रहे अध्यापकों के लिए यह बहुत मुश्किल कार्य रहा। जिम्मेदारी की भावना से अध्यापकों ने यह ड्यूटी निभाई।
कोरोना काल में हरियाणा के स्कूलों में एक दशक से कार्यरत 1983 पीटीआई पर बहुत दुखद गाज गिरी। उच्चतम न्यायालय ने उनकी चयन प्रक्रिया को दोषपूर्ण करार दिया था। इसके बाद 1 जून, 2020 को उन्हें नौकरी से अपदस्थ कर दिया गया। इससे राज्य के चयन आयोगों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ गई है, लेकिन इसका खामियाजा पीटीआई को भुगतना पड़ रहा है। गौरतलब है कि न्यायालय ने उम्मीदवारों को दोषी नहीं माना है, लेकिन कोरोना संकट में वे बेरोजगार कर दिए गए। संक्रमण के खतरों के बावजूद वे अपने रोजगार की बहाली के लिए अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं। विभिन्न अध्यापक संगठनों व कर्मचारी यूनियनों ने भी उनको समर्थन दिया है और सरकार को उनकी नौकरी बहाल करने की अपील की है। कमाल तो यह है कि हरियाणा सरकार नियुक्तियों में इतनी तत्परता नहीं दिखाती, जितनी पीटीआई को बर्खास्त करने में दिखाई गई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन खत्म होने के बाद बर्खास्तगी व भर्ती प्रक्रिया शुरू करने के आदेश दिए थे। कोरोना महामारी की सबसे ज्यादा मार निजी शिक्षा संस्थानों के अध्यापकों पर पड़ी है। सरकारी स्कूलों के प्रति सरकारी उदासीनता और निजीकरण को बढ़ावा देने की नीति के तहत निजी स्कूलों की तादाद निरंतर बढ़ रही है। कुल अध्यापकों का बड़ा हिस्सा इनमें काम करता है। दुखद यह है कि जिन निजी शिक्षा संस्थानों के भवन, बसों व संरचनात्मक ढ़ांचे में लगातार गुणात्मक व मात्रात्मक रूप से वृद्धि हो रही है, उनके अध्यापकों को नाममात्र वेतन मिलता है। इन संस्थानों के प्रबंधकों व मालिकों की कोशिश होती है कि बच्चों के अभिभावकों से ज्यादा से ज्यादा रूपया जुटाया जाए और कम से कम अध्यापकों व अन्य कर्मचारियों को दिया जाए। कोरोना संकट में तो वह नाममात्र का वेतन मिलना भी बंद हो गया है। कईं नामी-गिरामी संस्थानों ने अपने अध्यापकों को नौकरी से निकाल दिया है। या फिर कम से कम अध्यापकों को रख कर काम चलाया जा रहा है। जो अध्यापक कार्यरत हैं, उनमें से भी अधिकतर को वेतन देने में कोताही बरती जा रही है। ऐसे में अध्यापकों के परिवारों की आर्थिक स्थिति की आसानी से कल्पना की जा सकती है। गुरूजनों को अपना घर चलाने के लिए क्या-क्या काम करने पड़ रहे होंगे, इस स्थिति को समझना भी ज्यादा मुश्किल नहीं है। विड़ंबना यह भी है कि जो सरकारों के जो शिक्षा विभाग व शिक्षा बोर्ड निजी संस्थानों को मान्यता देते हैं, परीक्षाओं आदि का आयोजन करते हैं, वे इस संबंध में मौन साधे हुए हैं। सवाल यह है कि आखिर सारे संकट की मार अध्यापकों पर ही क्यों पड़ रही है?
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JAMMU PARIVARTAN 19-07-2020 |
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