जयंती विशेष
चन्द्रशेखर आजाद: स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सेनानी
अरुण कुमार कैहरबा
गुलाम देश में भी जीता था, जो बन आज़ादी का परवाज़।
नहीं हुआ है, कभी ना होगा चन्द्रशेखर सा आज़ाद।
आजादी की लड़ाई में चन्द्रशेखर आजाद ने अपने साहस, त्याग और बलिदान की बदौलत एक खास पहचान बनाई थी। आजादी के प्रति उनकी दिवानगी बेमिसाल है। अपने नाम के अनुकूल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उन्हीं के लिए कहा जाता है कि वह हमेशा आजाद रहा, आजादी के लिए लड़ा और आजादी से पुलिस के हाथ आने से पहले मौत को वरण कर लिया। अपनी योजना के अनुरूप काम करने के लिए उन्हें अंग्रेजों की पुलिस को धोखा देने के लिए कईं बार भेष बदलने पड़े और पुलिस को गच्चा देकर वे पुलिसकर्मियों से बात करते हुए खिसक लिये।
चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्यप्रदेश के वर्तमान अलीराजपुर के भाबरा गाँव में हुआ था। उनके पिता सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बहुल क्षेत्र के अपने गांव भाबरा में ही बीता। बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाये। इससे वे निशानेबाजी में माहिर हो गए। 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के युवा वर्ग को उद्वेलित कर दिया था। उस समय पढ़ाई कर रहे चन्द्रशेखर के मन में एक आग धधक उठी। वे गांधीजी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। अपने स्कूली छात्रों के जत्थे के साथ आन्दोलन में भाग लेने पर उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया और 15 बेंतों की सजा मिली। इस घटना का उल्लेख देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोडऩे वाले एक छोटे से लडक़े की कहानी के रूप में किया है-
‘ऐसे ही कायदे-कानून तोडऩे के लिये एक छोटे से लडक़े को, जिसकी उम्र 15 या 16 साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह भारत माता की जय चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लडक़ा तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लडक़ा उत्तर भारत के आतंककारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना।’
फरवरी, 1922 में हुई चौरा-चौरी की घटना के बाद गाँधीजी द्वारा अचानक आन्दोलन वापिस ले लिए जाने से आजाद का कांग्रेस से मोह भंग हो गया। राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल व योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ का गठन किया। चन्द्रशेखर आजाद भी इस दल में शामिल हो गये। दल ने जब धन जुटाने के लिए अति सम्पन्न घरों में डकैतियाँ डालीं तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आजाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये।
संघ द्वारा 9अगस्त, 1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया। जब शाहजहाँ पुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाडऩे पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज चन्द्रशेखर आजाद को तो पकड़ नहीं सके पर राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी को 17 दिसंबर, 1927 तथा राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ व ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी गई। चार क्रान्तिकारियों को फाँसी और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने उत्तर भारत के सभी क्रान्तिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर,1928 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया।
सभा में यह तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया। चन्द्रशेखर आजाद को कमाण्डर-इन-चीफ का दायित्व दिया गया।
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DAINIK SWADESH 23-7-2020 |
चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आजाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश की। आजाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को 28 मई 1930 को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था। इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने नेहरू से आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की। वे इसी सिलसिले में 27 फरवरी, 1931 को अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी खुफिया महकमे का एसएसपी नॉट बाबर भारी पुलिस बल के साथ वहां आया। आजाद के पास भी पिस्तौल थी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी हुई। अंग्रेजों के हाथ आने से पहले ही उन्होंने आखिरी गोली खुद को मार कर आजादी के लिए प्राण दे दिए। आजाद ने साबित कर दिया-
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे।
पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद के बलिदान की खबर जनता को लगी इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में लोगों का हुजूम उमड़ पडा। जवाहर लाल नेहरू ने आजाद के बारे में कहा था-‘चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आन्दोलन का नये रूप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा।’
मूंछों पर ताव देते चन्द्रशेखर आजाद का फोटो जिन युवाओं को आकर्षित करता है, उन्हें उनके बलिदान और विचारों पर जरूर ध्यान देना चाहिए। आजाद ने कहा था- ‘मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो समानता और भाईचारा सिखाता है।’ आज धर्म के नाम पर एक तरफ कट्टरता का बोलबाला है, दूसरी तरफ धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाए जा रहे हैं। राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल करने वालों ने कोरोना को देखने के लिए भी धर्म के चश्मे बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में चन्द्रशेखर आजाद के विचार हमें राह दिखाते हैं। आजाद ने कहा था- ‘मातृभूमि की इस वर्तमान दुर्दशा को देखकर अभी तक यदि आपका रक्त क्रोध से नहीं भर उठता है, तो यह आपकी रगों में बहता खून नहीं है, पानी है।’ इन विचारों के आलोक में देखने की बात है कि हम कहां हैं?
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DAINIK NABH CHHOR 21-7-2020 |
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