Monday, July 6, 2020

What will happen to the education of children of poor labourers?


शिक्षा-विमर्श

गरीबों-मजदूरों के बच्चों की शिक्षा का क्या होगा?

कोरोना महामारी ने समतापूर्ण शिक्षा के सपनों से बढ़ाई दूरी

अरुण कुमार कैहरबा

DAINIK HARIBHOOMI 7 JULY, 2020
कोरोना महामारी ने देश व दुनिया में अनेक प्रकार के संकट पैदा कर दिए हैं। पहले ही गरीबी व बेकारी की मार झेल रहे लोग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। स्कूलों व कॉलेजों में पढऩे वाले विद्यार्थियों की शिक्षा-व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। मार्च महीने से स्कूल बंद हैं। बच्चे स्कूल के समतापूर्ण व आनंददायी वातावरण व अध्यापकों से आमने-सामने सहभागितापूर्ण शिक्षा से वंचित हो गए हैं। विकल्प के रूप में पेश की गई ऑनलाईन शिक्षा से कुछ क्षतिपूर्ति तो हुई है। लेकिन अनेक प्रकार की चुनौतियां भी पैदा कर दी हैं। जिन मोबाइल व इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के दुष्प्रभावों को देखते हुए बच्चों को उनसे बचाने की बातें हो रही थी। ऑनलाइन शिक्षा ने अभिभावकों व अध्यापकों को बच्चों के लिए उसका प्रयोग करवाने को विवश कर दिया है। भले ही सीखने के लिए हो, मोबाइल के बेतहाशा प्रयोग ने बच्चों के स्वास्थ्य की समस्या को गंभीर बना दिया है। मोबाइल की स्क्रीन का बच्चों की आंखों पर बुरा असर हुआ है। मोबाइल की लत लगने की समस्या हो गई है। लॉकडाउन के कारण पहले ही बाहर खेलने के अवसरों से वंचित हुए बच्चों में मोटापा बढ़ रहा है। उनके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भी बाल-स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा चिंता जताई जा रही है।
AAJ SAMAJ 6 july, 2020

बच्चों की शिक्षा का एक आयाम स्कूल का समतामूलक वातावरण है। यह वातावरण बच्चों के विकास में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसमें विद्यार्थी अन्य बच्चों के साथ मिलकर सीखना, खेलना और सहयोग करना सीखते हैं। यह सामूहिकता व परस्पर सहयोग के मूल्य देश के सामाजिक विकास को मजबूत करते हैं। हालांकि सरकारी स्कूलों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के निजी स्कूलों ने पहले ही बच्चों के माध्यम से समाज को बांटने का काम किया है। शिक्षा की प्रक्रिया से पारिवारिक, आर्थिक व सामाजिक स्तर के अंतर व भेदभाव को खत्म करने की अपेक्षा की जाती है। जाति, धर्म, लिंग व अन्य प्रकार की संकीर्णताएं भी शिक्षा से ही खत्म हो सकती हैं। लेकिन निजी स्कूलों में लाखों रूपये की डोनेशन फीस, विभिन्न प्रकार के फंड, दिखावे की प्रवृत्ति ने शिक्षा के सार को ही बदल कर रख दिया है और शिक्षा ग्रहण करने में बच्चे के परिवार की आर्थिक हैसियत को मुख्य बना दिया है। हालांकि इसका शिक्षा की गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन देखने में यही लगता है जैसे महंगे स्कूलों में अच्छी शिक्षा मिलती होगी। राजकीय स्कूली शिक्षा में बहुत कम निवेश और सरकारों की उदासीनता के कारण सरकारी स्कूलों को हेय मानने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई है। हरियाणा व पंजाब जैसे आर्थिक रूप से सम्पन्न माने जाने वाले राज्यों में देखादेखी विकराल स्थिति पैदा हो गई है। अन्य राज्यों में भी कमोबेश स्थिति ऐसी ही है। लोग अपना पेट काट कर भी अपने बच्चों को निजी स्कूल में दाखिल करवाना बेहतर मानते हैं। बच्चों को टाई पहना कर स्कूल की पीली बसों में नन्हें बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना स्टेटस सिंबल की तरह देखा जाना समाज के नकारात्मक चिंतन के स्तर को ही दर्शाता है।
कोरोना के दौर ने शिक्षा के क्षेत्र में पहले से ही बढ़ती जा रही असमानता को और ज्यादा गहरा करने का काम किया है। सडक़ों पर आ गए प्रवासी मजदूरों के बच्चे अपने स्कूलों से दूर चले गए हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के बावजूद उनके शिक्षा के दायरे से बाहर चले जाने का खतरा पैदा हो गया है। क्योंकि माता-पिता के रोजगार पर ही उनके जीवन में स्थायित्व व बच्चों की शिक्षा निर्भर थी। अब जब रोजगार ही चला गया तो वे अपने बनाए घर छोड़ कर सडक़ों पर आ गए हैं। बेरोजगारी के बाद पैदल लंबी यात्राएं करने को मजबूर हुए लाखों मजदूरों के बच्चों की शिक्षा के बारे में सरकारी स्तर पर कोई सोच-विचार होता हुआ भी दिखाई नहीं दे रहा है। फिलहाल तो देश का मानव संसाधन मंत्रालय व प्रदेशों के शिक्षा मंत्रालय स्कूल खोलने और नहीं खोलने के निर्णय में असमंजस के झूले में झूल रहे हैं। इसके अलावा सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे दो नए वर्गों में बंट गए हैं-एक वे जिनके पास एंड्रोयड फोन हैं और दूसरे वे जिनके पास यह सुविधा नहीं है। बच्चों के दबाव में कुछ अभिभावकों ने मोबाइल खरीद लिए हैं, लेकिन उनके लिए नेट का पैक खरीदना भी आफत बना हुआ है। अधिकारियों के दबाव में भले ही कागजों में अधिकतर बच्चे ऑनलाईन शिक्षा से लाभान्वित होते हुए दिखाए जा रहे हैं।

किसी तरह से जुगाड़ करके निजी स्कूलों में बच्चों को भेजने लगे अभिभावकों के सामने रोजगार का संकट आने के कारण उन बच्चों का अपने स्कूलों में टिकना किसी भी सूरत में संभव नहीं है। स्कूल नहीं खुलने के बावजूद निजी स्कूलों द्वारा बार-बार फीस देने का दबाव बनाए जाने से अभिभावकों में परेशानी और गुस्सा है। यदि सरकारी स्कूलों के अध्यापक एक बार भी उन्हें अपने बच्चों को उनके स्कूलों में भेजने के लिए कह दें तो वे सहर्ष अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेज दें। ऐसे में कोरोना काल ने बच्चों की शिक्षा में अस्थिरता को बढ़ा दिया है। शिक्षा में बढ़ती असमानता समाज को किस गर्त में लेकर जाएगी। इस पर सरकारी व शैक्षिक स्तर पर गंभीर चिंतन करके योजना बनाए जाने की जरूरत है ताकि बच्चों को समतापूर्ण शिक्षा मुहैया करवाई जा सके।

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