Thursday, July 30, 2020

बदला नहीं, बदलाव था उधम सिंह की जिंदगी का मकसद

शहीदी दिवस विशेष

आजादी की लड़ाई में बेमिसाल है उधम सिंह की शहादत

अरुण कुमार कैहरबा

जीएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन अनेक क्रांतिकारियों की वीरगाथाओं से भरा हुआ है, जिन्होंने देश को आजाद करवाने वाले के लिए अदम्य साहस का परिचय दिया। लेकिन शहीद उधम सिंह की देशप्रेम की भावना, साहस और शहादत बेमिसाल है। उन्होंने दुष्यंत के शेर- मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए के अनुकूल साम्राज्यवादी देश में अपना संकल्प पूरा करने के बाद शहादत देकर एक मिसाल कायम कर दी। हालांकि उनके व्यक्तित्व को बदले की भावना से समझा नहीं जा सकता। वे साम्राज्यवादी लूट, शोषण, क्रूरता के प्रति आक्रोश से भरे हुए थे और सामाजिक बदलाव के लिए सम्राज्यवादी शासन को समाप्त कर देना चाहते थे।
उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर, 1889 में पंजाब के संगरूर जि़ला के गांव सुनाम में हुआ था। मां-बाप ने उसका नाम शेर सिंह रखा था। उधम सिंह का बचपन दु:खों में बीता। उधम सिंह अभी तीन साल का भी  नहीं हुआ था कि मां का देहांत हो गया। 1907 में पिता भी चल बसे। इसके उधम सिंह व उसके भाई मुक्ता सिंह को अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 24 अक्तूबर, 1907 को सरदार छांगा सिंह और किशन सिंह रागी ने उन्हें वहां दाखिल करवाया। अनाथालय के दाखिला-खारिज रजिस्टर में उधम सिंह का  नाम शेर सिंह व भाई का नाम साधु सिंह दर्ज है। 1917 में उसके बड़े भाई का भी निधन हो गया, जिससे जि़ंदगी के थपेड़े सहने के लिए उधम सिंह बिल्कुल अकेला हो गया। इतिहासकारों की मानें तो इन सभी दु:खद घटनाओं ने भी उधम सिंह को मजबूत बनाया और उनमें संघर्ष की क्षमता बढ़ गई। 
13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में इक_े हुए हजारों निहत्थे लोगों पर अंग्रेजों ने गोलियां बरसा कर नृशंसता की सारे हदें पार कर दी। उधम सिंह ने यह सारा मंजर देखा, तो उनका दिल दहल गया। उन्होंने खून से सनी मिट्टी को मस्तक से लगाकर संकल्प किया कि इस हत्याकांड के दोषियों को सबक सिखाएगा। अपने इस संकल्प को उसने मन में धारण कर लिया और उसे पूरा करने के लिए हरसंभव कोशिश की। हत्याकांड के लिए जिम्मेदार पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माईकल ओडवायर को मारने के लिए विदेश यात्रा की योजना बनाई। अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमरीका होते हुए ब्रिटेन पहुंचे। 
पढ़ाई के दौरान वह चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू सहित क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गया था। अमरीका में कैलिफोर्निया, न्यूयार्क व शिकागो में रहते हुए गदरियों के सम्पर्क में रहा। क्रांतिकारियों के पास अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए बलिदान देने का जज़्बा भी था और आज़ादी के बाद बराबरी और न्याय पर आधारित शासन की तस्वीर भी थी। उन्होंने अंग्रेजी शासन की आलोचना करने के साथ-साथ भारतीय समाज की विसंगतियों की भी तार्किक आलोचना की। सामंतशाही और जाति विभाजन को कठघरे में खड़ा किया। समाज में महिलाओं के लिए निर्धारित दोयम दर्जे को गुलाम मानसिकता का प्रतीक बताया। उधम सिंह के पास औपचारिक शिक्षा की कोई डिग्री तो नहीं थी, लेकिन किताबों के अध्ययन में विशेष रूचि थी। जिसके माध्यम से उन्होंने पूरी दुनिया के परिवर्तनों की जानकारी हासिल की। 
उधम सिंह ने जीवन भर घुमंतु जीवन जीया। इसके साथ ही उनके नामों की दास्तान भी बड़ी दिलचस्प है। जिस नाम से उन्हें हम सब याद करते हैं, वह नाम उन्होंने 34 साल की अवस्था में तब रखा, जब 20मार्च, 1933 को उन्होंने पासपोर्ट बनवाया। कारण यह था कि 1927 में गदरी साहित्य व गैर-कानूनी हथियार रखने के जुर्म में उन पर मुकदमा बना और उनके बचपन के नाम-शेर सिंह, उधे सिंह, उदय सिंह, फ्रेंक ब्राजील आदि नाम पुलिस के रिकॉर्ड में आ चुके थे। उनका सबसे पसंदीदा नाम था-मोहम्मद सिंह आजाद। कैक्सटन हाल में ओडवायर को गोली मारने के बाद इसी नाम से उधम सिंह ने पुलिस को बयान दिया था। इस नाम का उन्होंने बाजू पर टैटू भी बनवाया था।
उधम सिंह के पसंदीदा नाम में आज़ादी के लिए सभी धर्म-संप्रदायों की एकता का उनका दर्शन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लेकिन विडंबना यह है कि आज शहीदों को ही जातियों की जंजीरों में बांधने में लगे हुए हैं। जिन्होंने साम्राज्यवादी शासन व मानसिक गुलामी सहित जाति, धर्म-सम्प्रदाय की जंजीरों को काटने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, आज उन्हीं के द्वारा आजाद करवाए देश के लोग उन्हीं की विरासत के नाम पर उन्हें जातियों में जकडऩे में लगे हुए हैं।  शहीदी दिवस पर उन्हें याद करने का मतलब यह है कि उनके जीवन और विचारों को याद किया जाए। आज न्यायसंगत व समतामूलक समाज बनाने के रास्ते में जो चुनौतियां है, उन पर चर्चा करते हुए योजना बनाई जाए। उन्हें याद करने का मतलब जातीय मोर्चाबंदी व शक्ति-प्रदर्शन हरगिज नहीं होना चाहिए।
हिन्दी में उधम सिंह के जीवन व दस्तावेजों पर प्रामाणिक जानकारी के लिए किताबों का अभाव दिखाई देता है। इसे पूरा करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर डॉ. सुभाष चन्द्र ने महत्वपूर्ण किताब- शहीद उधम सिंह की आत्मकथा और चुनिंदा दस्तावेज लिखी, जिसे देस हरियाणा द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस किताब की खूबी यह है कि किताब में आत्मकथात्मक शैली में उधम सिंह के जीवन को कथारस के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस रचना का नाटकीय अंदाज पाठकों को अपनी तरफ खींचता है। इसके बावजूद एतिहासिक तथ्यों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। रंगकर्मी राजीव सान्याल ने तो इस रचना कईं बार मंचन किया है। किताब में उधम सिंह व उनसे जुड़ी चीजों के दुर्लभ चित्र, उनके पत्र, डॉ. सुभाष चन्द्र ने 30 अगस्त, 1927 में अमृतसर में पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर, गदर डायरेक्टरी में उधम सिंह का नाम,  उधम सिंह पर मुकद्दमा व अदालत के दस्तावेजों को संकलित किया है, जोकि आम पाठकों ही नहीं शोधकर्ताओं के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। 
उधम सिंह अपनी जेब में अपने मानस मित्र भगत सिंह का फोटो हमेशा रखते थे। इसके अलावा वे करतार सिंह सराभा के गीत की जो पंक्तियां हमेशा अपने पास रखते थे, आओ उन्हें समझें-
सेवा देश दी जिंदडि़ए बड़ी ओखी,
गल्लां करणियां ढ़ेर सुखल्लियां ने।
जिन्ना देश सेवा विच पैर पाइया
उन्नां लख मुसीबतां झल्लियां ने।
मो.नं.-09466220145 
AAJ SAMAJ 31-07-2020
HARANAN PRADEEP 31-07-2020
DAINIK JAMMU PARIVARTAN 31 JULY 2020
DAINIK JAGMARG 31-07-2020
NABH CHHOR 31-7-2020

JAGAT KRANTI 31-07-2020

Thursday, July 23, 2020

परीक्षा का दिन

एक संस्मरण

अरुण कुमार कैहरबा

आज आपको अपनी बारहवीं की परीक्षाओं की बात सुनाता हूँ। कस्बा इन्द्री में मेरा स्कूल मेरे गांव कैहरबा से करीब छह किलोमीटर की दूरी पर था। पश्चिमी यमुना नहर के साथ की पटरी से मैं साइकिल से अपने स्कूल आया-जाया करता था। बोर्ड की परीक्षाओं से पहले कुछ दिन छुट्टियाँ थीं और मैं पढ़ाई में लगा था। परीक्षा के दिन अपनी साइकिल उठाई और चल दिया मेरे स्कूल में ही बने परीक्षा केन्द्र की ओर। साइकिल पुरानी थी। कईं दिन तक उस पर ध्यान भी नहीं दिया गया था। रास्ते के बीचों-बीच साइकिल की चैन उतर गई। पेपर में समय पर उपस्थित होने की चिंता और ऊपर से अडिय़ल रूख अपनाए साइकिल की चैन। ज्यों-ज्यों साइकिल की चैन चढ़ाने की कोशिश करता, वह और उलझ जाती। एक बार चैन चढ़ी भी लेकिन तुरंत फिर उतर गई। रास्ते से आते-जाते लोग मुझे देख रहे थे और कोई मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ा रहा था। एक बार तो मैंने तय किया कि साइकिल को यहीं छोड़ कर स्कूल की तरफ भाग जाऊं। लेकिन दौड़ कर भी स्कूल तक समय से पहुंचना संभव नहीं था। काफी मशक्कत के बाद चैन चढ़ी और स्कूल पहुंचा। पेपर शुरू हो गया था। मेरी देरी के कारण मेरे अध्यापक श्री साधु राम जी भी परेशान थे। मेरे पहुंचने पर उन्होंने मुझे डांटा भी कि परीक्षा में तो समय पर आना चाहिए। लेकिन उन्होंने मेरी स्थिति को जल्द ही भांप लिया। मेरी हिम्मत बंधाई और मुझे परीक्षा में बिठाया। 
HARYANA PRADEEP 25-07-2020

हिन्दी प्राध्यापक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, 
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145


Tuesday, July 21, 2020

Great Freedom fighter Shaheed Chader Shekhar Azaad


जयंती विशेष

चन्द्रशेखर आजाद: स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सेनानी

अरुण कुमार कैहरबा

गुलाम देश में भी जीता था, जो बन आज़ादी का परवाज़।
नहीं हुआ है, कभी ना होगा चन्द्रशेखर सा आज़ाद।

आजादी की लड़ाई में चन्द्रशेखर आजाद ने अपने साहस, त्याग और बलिदान की बदौलत एक खास पहचान बनाई थी। आजादी के प्रति उनकी दिवानगी बेमिसाल है। अपने नाम के अनुकूल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उन्हीं के लिए कहा जाता है कि वह हमेशा आजाद रहा, आजादी के लिए लड़ा और आजादी से पुलिस के हाथ आने से पहले मौत को वरण कर लिया। अपनी योजना के अनुरूप काम करने के लिए उन्हें अंग्रेजों की पुलिस को धोखा देने के लिए कईं बार भेष बदलने पड़े और पुलिस को गच्चा देकर वे पुलिसकर्मियों से बात करते हुए खिसक लिये।

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्यप्रदेश के वर्तमान अलीराजपुर के भाबरा गाँव में हुआ था। उनके पिता सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बहुल क्षेत्र के अपने गांव भाबरा में ही बीता। बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाये। इससे वे निशानेबाजी में माहिर हो गए। 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के युवा वर्ग को उद्वेलित कर दिया था। उस समय पढ़ाई कर रहे चन्द्रशेखर के मन में एक आग धधक उठी। वे गांधीजी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। अपने स्कूली छात्रों के जत्थे के साथ आन्दोलन में भाग लेने पर उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया और 15 बेंतों की सजा मिली। इस घटना का उल्लेख देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोडऩे वाले एक छोटे से लडक़े की कहानी के रूप में किया है-

‘ऐसे ही कायदे-कानून तोडऩे के लिये एक छोटे से लडक़े को, जिसकी उम्र 15 या 16 साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह भारत माता की जय चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लडक़ा तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लडक़ा उत्तर भारत के आतंककारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना।’
फरवरी, 1922 में हुई चौरा-चौरी की घटना के बाद गाँधीजी द्वारा अचानक आन्दोलन वापिस ले लिए जाने से आजाद का कांग्रेस से मोह भंग हो गया। राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल व योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ का गठन किया। चन्द्रशेखर आजाद भी इस दल में शामिल हो गये। दल ने जब धन जुटाने के लिए अति सम्पन्न घरों में डकैतियाँ डालीं तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आजाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। 
संघ द्वारा 9अगस्त, 1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया। जब शाहजहाँ पुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाडऩे पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज चन्द्रशेखर आजाद को तो पकड़ नहीं सके पर राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी को 17 दिसंबर, 1927 तथा राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ व ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी गई। चार क्रान्तिकारियों को फाँसी और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने उत्तर भारत के सभी क्रान्तिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर,1928 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। 
सभा में यह तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया। चन्द्रशेखर आजाद को कमाण्डर-इन-चीफ का दायित्व दिया गया। 
DAINIK SWADESH 23-7-2020
चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आजाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश की। आजाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को 28 मई 1930 को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था। इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी। 
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने नेहरू से आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की। वे इसी सिलसिले में 27 फरवरी, 1931 को अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी खुफिया महकमे का एसएसपी नॉट बाबर भारी पुलिस बल के साथ वहां आया। आजाद के पास भी पिस्तौल थी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी हुई। अंग्रेजों के हाथ आने से पहले ही उन्होंने आखिरी गोली खुद को मार कर आजादी के लिए प्राण दे दिए। आजाद ने साबित कर दिया-
दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे,आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे। 
पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद के बलिदान की खबर जनता को लगी इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में लोगों का हुजूम उमड़ पडा। जवाहर लाल नेहरू ने आजाद के बारे में कहा था-‘चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आन्दोलन का नये रूप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा।’ 
मूंछों पर ताव देते चन्द्रशेखर आजाद का फोटो जिन युवाओं को आकर्षित करता है, उन्हें उनके बलिदान और विचारों पर जरूर ध्यान देना चाहिए। आजाद ने कहा था- ‘मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो समानता और भाईचारा सिखाता है।’ आज धर्म के नाम पर एक तरफ कट्टरता का बोलबाला है, दूसरी तरफ धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाए जा रहे हैं। राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल करने वालों ने कोरोना को देखने के लिए भी धर्म के चश्मे बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में चन्द्रशेखर आजाद के विचार हमें राह दिखाते हैं। आजाद ने कहा था- ‘मातृभूमि की इस वर्तमान दुर्दशा को देखकर अभी तक यदि आपका रक्त क्रोध से नहीं भर उठता है, तो यह आपकी रगों में बहता खून नहीं है, पानी है।’ इन विचारों के आलोक में देखने की बात है कि हम कहां हैं?
DAINIK NABH CHHOR 21-7-2020

Dainik Uttam Hindu 23-07-2020
AAJ SAMAJ 23-7-2020

DAINIK HALK 23-7-2020



JAMMU PARIVARTAN 23-7-2020

RASHTRIYA HINDI MAIL 23-7-2020


Saturday, July 18, 2020

Teachers in Corona Time


शिक्षा-विमर्श

अध्यापकों पर पड़ी कोरोना संकट की मार, निजी संस्थानों के अध्यापक हुए बेरोजगार!

अरुण कुमार कैहरबा

अध्यापक शिक्षा की प्रक्रिया का केन्द्रीय किरदार होता है। अध्यापक की कल्पनाशीलता, विचारशीलता, तर्कशीलता, विशेषज्ञता एवं योजनाएं विद्यार्थियों को सीधे लाभान्वित करती हैं। वह अध्यापक ही होता है, जो अपने पिटारे से हर रोज नया कुछ निकालता है और विद्यार्थियों में अध्ययन के प्रति रूचि का निर्माण करते हुए उन्हें आगे बढऩे के लिए प्रेरित करता है। अध्यापकों के सम्मान में तरह-तरह की बातें कहने वाले नेताओं की अगुवाई वाली सरकारों में कोरोना काल बेहद मुश्किल समय साबित हुआ है। खास तौर से निजी शिक्षण संस्थाओं में काम करने वाले अधिकतर अध्यापकों को या तो नौकरी से निकाल दिया गया है, या फिर उन्हें प्रलोभन देकर काम तो लिया जा रहा है और करीब पांच महीनों से वेतन नहीं दिया गया है। कुछ अध्यापकों को नाममात्र का वेतन देकर काम लिया जा रहा है।
HIMACHAL DASTAK 21-07-2020
अध्यापक दिवस जैसे अवसरों पर विभिन्न दलों के नेता अध्यापकों के सम्मान में कसीदे गढ़ते हैं। अधिकतर कबीर का दोहा सुनाकर उन्हें भगवान से भी ऊंचा दर्जा दे दिया जाता है। कोरोना काल में जब बच्चों का स्कूल आना मुश्किल हो गया तो अध्यापकों ने ऑनलाइन शिक्षा का मोर्चा संभाला। बच्चों से जीवंत सम्पर्क करने के लिए उन्होंने वीडियो बनाई और उनकी शिक्षा में व्यवधान से पार पाने के हर जतन किए, जोकि आज भी जारी हैं। हालांकि ऑनलाइन शिक्षा के दुष्प्रभावों से उदासीनता भी देखने को मिल रही है, लेकिन घर से पढ़ाओ अभियान और घर ही पाठशाला की अवधारणा को साकार करने में उनके योगदान को सराहनीय ही कहा जाएगा। इसके बावजूद कोरोना के संक्रमण के खतरों से बेपरवाह अध्यापकों को स्कूलों में बुलाकर बिठाने में अधिकारियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने मूल जिले से बाहर ड्यूटी कर रहे अध्यापकों के लिए यह बहुत मुश्किल कार्य रहा। जिम्मेदारी की भावना से अध्यापकों ने यह ड्यूटी निभाई। 
कोरोना काल में हरियाणा के स्कूलों में एक दशक से कार्यरत 1983 पीटीआई पर बहुत दुखद गाज गिरी। उच्चतम न्यायालय ने उनकी चयन प्रक्रिया को दोषपूर्ण करार दिया था। इसके बाद 1 जून, 2020 को उन्हें नौकरी से अपदस्थ कर दिया गया। इससे राज्य के चयन आयोगों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ गई है, लेकिन इसका खामियाजा पीटीआई को भुगतना पड़ रहा है। गौरतलब है कि न्यायालय ने उम्मीदवारों को दोषी  नहीं माना है, लेकिन कोरोना संकट में वे बेरोजगार कर दिए गए। संक्रमण के खतरों के बावजूद वे अपने रोजगार की बहाली के लिए अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं। विभिन्न अध्यापक संगठनों व कर्मचारी यूनियनों ने भी उनको समर्थन दिया है और सरकार को उनकी नौकरी बहाल करने की अपील की है। कमाल तो यह है कि हरियाणा सरकार नियुक्तियों में इतनी तत्परता नहीं दिखाती, जितनी पीटीआई को बर्खास्त करने में दिखाई गई। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन खत्म होने के बाद बर्खास्तगी व भर्ती प्रक्रिया शुरू करने के आदेश दिए थे।        कोरोना महामारी की सबसे ज्यादा मार निजी शिक्षा संस्थानों के अध्यापकों पर पड़ी है। सरकारी स्कूलों के प्रति सरकारी उदासीनता और निजीकरण को बढ़ावा देने की नीति के तहत निजी स्कूलों की तादाद निरंतर बढ़ रही है। कुल अध्यापकों का बड़ा हिस्सा इनमें काम करता है। दुखद यह है कि जिन निजी शिक्षा संस्थानों के भवन, बसों व संरचनात्मक ढ़ांचे में लगातार गुणात्मक व मात्रात्मक रूप से वृद्धि हो रही है, उनके अध्यापकों को नाममात्र वेतन मिलता है। इन संस्थानों के प्रबंधकों व मालिकों की कोशिश होती है कि बच्चों के अभिभावकों से ज्यादा से ज्यादा रूपया जुटाया जाए और कम से कम अध्यापकों व अन्य कर्मचारियों को दिया जाए। कोरोना संकट में तो वह नाममात्र का वेतन मिलना भी बंद हो गया है। कईं नामी-गिरामी संस्थानों ने अपने अध्यापकों को नौकरी से निकाल दिया है। या फिर कम से कम अध्यापकों को रख कर काम चलाया जा रहा है। जो अध्यापक कार्यरत हैं, उनमें से भी अधिकतर को वेतन देने में कोताही बरती जा रही है। ऐसे में अध्यापकों के परिवारों की आर्थिक स्थिति की आसानी से कल्पना की जा सकती है। गुरूजनों को अपना घर चलाने के लिए क्या-क्या काम करने पड़ रहे होंगे, इस स्थिति को समझना भी ज्यादा मुश्किल नहीं है। विड़ंबना यह भी है कि जो सरकारों के जो शिक्षा विभाग व शिक्षा बोर्ड निजी संस्थानों को मान्यता देते हैं, परीक्षाओं आदि का आयोजन करते हैं, वे इस संबंध में मौन साधे हुए हैं। सवाल यह है कि आखिर सारे संकट की मार अध्यापकों पर ही क्यों पड़ रही है? 

JAMMU PARIVARTAN 19-07-2020

Thursday, July 16, 2020

एक संस्मरण

ईनाम

HARYANA PRADEEP 18-07-2020
कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिनका मर्म कुछ समय बीतने पर समझ आता है। बात उन दिनों की है, जब मैं दयाल सिंह कॉलेज करनाल में कला स्नातक का विद्यार्थी था। मैं कक्षा में आगे ही बैठा करता था। राजनीति विज्ञान की हमारी कक्षा उत्साह व विद्यार्थियों की भागीदारी से भरी रहती थी। कक्षा में राजनीति विज्ञान के हमारे अध्यापक डॉ. कुशल पाल जी आते तो हम उनके विविधतापूर्ण प्रश्रों का जवाब देने के लिए कमर कस कर बैठ जाते। कईं बार अध्यापक द्वारा यह भी घोषणा की जाती कि प्रश्र का जवाब देने वाले विद्यार्थी को ईनाम मिलेगा। उनके प्रश्र पूछे जाते ही अक्सर मैं हाथ खड़ा कर लेता और उनके सवाल का जवाब देता। कक्षा से जाते हुए वे मेरे गाल पर एक चपत लगा जाते। उनके सवालों का सही जवाब देने के कारण मैं उनके पुरस्कार का इंतजार करता। लेकिन काफी लंबे समय तक कोई ईनाम नहीं मिलने निराशा भी होती। उनके द्वारा गालों पर दी गई स्नेह भरी चपत को आज जब भी याद करता हूँ तो आंखें नम हो जाती हैं। आखिर यही तो था ईनाम। यह ईनाम उन सभी पुरस्कारों व स्मृति चिह्नों से ज्यादा प्यारा लगता है, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता। 
अरुण कुमार कैहरबा
मो.नं.-9466220145

Wednesday, July 15, 2020

Private schools face cruelty in corona epidemic


शिक्षा-विमर्श

कोरोना महामारी में निजी स्कूलों का क्रूरतम चेहरा

अरुण कुमार कैहरबा


दोस्त की दोस्ती की परीक्षा मुसीबत में होती है। जो मुसीबत में काम आता है, वही अपना होता है। इसी तरह किसी व्यवस्था के कारगर व उपयोगी होने का पता लगाने का सबसे बेहतर समय संकटकाल होता है। इस संकट के दौर में निजी स्कूलों की सेवाओं का मूल्यांकन करें तो निराशा ही हाथ लगती है। विभिन्न प्रकार के अव्वल दर्जे पांचसितारा स्कूलों से लेकर ग्रामीण क्षेत्र के चलताऊ माने जाने वाले अधिकतर निजी स्कूलों के कार्य लोगों के जले पर नमक छिडऩे के जैसे हैं। सामान्य दिनों में बच्चों की अच्छी शिक्षा के नाम पर लोगों की आमदनी का बड़ा हिस्सा झटकने वाले इन स्कूलों को जहां अभिभावकों की खराब हुई आर्थिक हालत के प्रति संवेदनशील होना चाहिए था, वहीं अब वे अधिक क्रूर दिखाई दे रहे हैं। निजी स्कूलों की तरफ से लगातार फीस वसूली के फरमान जारी हो रहे हैं। ऐसे में अभिभावक उन स्कूलों से तौबा कर रहे हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला करवा रहे हैं। एक तरफ तो बच्चों व अभिभावकों के प्रति निजी स्कूलों की संवेदनशून्यता दिखाई दे रही है, दूसरी तरफ अपने अध्यापकों पर भी वे जुल्म ढ़ाने में लगे हुए हैं।
HIMACHAL DASTAK 16 JULY, 2020

महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवाओं के प्रति सरकारी उदासीनता और निजीकरण व उदारीकरण को बढ़ावा देने की सरकारी नीति के कारण हर क्षेत्र में ही निजीकरण बढ़ता गया है। स्वतंत्रता आंदोलन में जिन क्षेत्रों के लिए बड़े अरमान संजोये गए थे, शिक्षा भी उन्हीं में से एक है। बिना किसी भेदभाव के सबको अच्छी शिक्षा के प्रति हमारा संविधान भी संकल्प करता है। लेकिन सरकारों ने अपने स्वार्थ साधने और चुनावों के लिए निवेश करने वाले पूंजीपतियों की जेबें भरने के लिए उन संकल्पों को कूड़ेदान में डाल दिया है। यही कारण है कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र लगातार बढ़ता गया है। आज कुल बच्चों का बड़ा हिस्सा निजी स्कूलों में जाता है। अभिभावक भी इसके लिए ललचाते हैं। हालांकि निजी क्षेत्र का शिक्षा से अधिक पैसे कमाने पर ज्यादा जोर है। बड़े-बड़े स्कूल किताबें, वर्दी की पैंट, शर्ट, बैल्ट, बैज, बैग ऊंची कमाई के साथ बेच रहे हैं। आने-जाने के लिए बसें लगाकर उनमें मोटी कमाई कर रहे हैं। शिक्षा की बात आती है तो अभिभावकों के इंटरव्यू लिए जाते हैं। निजी स्कूलों के साथ-साथ ट्यूशन का नया व्यवसाय पनप गया है। शिक्षा का दिखावा करते हुए अधिक से अधिक आर्थिक लाभ पाने के लिए दौड़-धूप की जा रही है।

JANSANDESH TIMES 17-07-2020
AAJ SAMAJ 17 JULY, 2020
GHATATI GHATNA 16-7-2020
सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा की मांग करने की बजाय विभिन्न प्रकार की तोहमतें लगाते हुए अभिभावकों ने अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजा। ऊंची फीस व अन्य शुल्क भी अदा किए। लेकिन कोरोना जैसा संकट लोगों के जीवन में प्रवेश कर गया तो भले ही उनसे संवेदनशीलता की अपेक्षा तो पहले ही नहीं की जा सकती थी, लेकिन इतनी निर्ममता की उम्मीद तो नहीं ही की जानी चाहिए। हालांकि सच यह भी है कि कोरोना महामारी की मार जहां आम लोगों पर पड़ी है, वहीं निजी स्कूलों पर भी संकट आया है। फीस नहीं मिलने से निश्चय ही दिक्कत तो स्कूलों को भी आई है। तो भी क्या इसी का बहाना लगाकर अध्यापकों व अन्य स्टाफ को नौकरी से निकाल दिया जाए। जिन अभिभावकों से बार-बार निजी स्कूलों द्वारा फीस मांगी जा रही है, उन अभिभावकों को भी देखना चाहिए कि कहीं स्कूलों ने स्टाफ को तो नहीं निकाल दिया। यह निजीकरण सिर्फ एक ही तरह से लोगों का नुकसान नहीं करता, यह लोगों को बांटता और काटता भी है। जिससे कोई परेशानी सिर्फ भुक्तभोगी को ही महसूस होती है। बाकी लोग प्रभावित होते हुए भी बेपरवाह हुए फिरते हैं। आज जब निजी स्कूलों का यह चरित्र एक बार फिर से क्रूरतम रूप धारण कर चुका है। अध्यापकों को नौकरी से निकाल चुके स्कूलों से सरकार को भी पूछताछ नहीं करनी चाहिए। यदि वास्तव में स्कूल अपने अध्यापकों को वेतन देने में सक्षम नहीं हैं, तो सरकार को अभिभावकों व अध्यापकों को राहत पहुंचाने के लिए आगे आना चाहिए।  
DAINIK HALK 16 JULY, 2020

Thursday, July 9, 2020

WORLD PAPULATION DAY (11 JULY)

जनसंख्या दिवस विशेष

जनसंख्या नियंत्रण के लिए अंतिम जन केन्द्रित हो विकास का मॉडल

अरुण कुमार कैहरबा

बढ़ती जनसंख्या को लेकर देश और दुनिया में अनेक प्रकार से चिंताएं जताई जाती हैं। भारत आज जनसंख्या के मामले में विश्व भर में दूसरे नंबर पर है। इसके बढऩे का सिलसिला यूंही चलता रहा तो निश्चय ही कुछ सालों में भारत जनसंख्या के मामले में नंबर-1 स्थान हासिल कर लेगा। कायदे से तो जनता किसी भी देश की ताकत होनी चाहिए। मानव संसाधन की अवधारणा भी इसी बात पर बल देती है कि मुनष्य किसी देश पर बोझ नहीं हैं, बल्कि उसे संसाधन की तरह देखा जाना चाहिए। बच्चों व युवाओं को कुशल संसाधन के रूप में विकसित करने के लिए देश में मानव संसाधन विकास मंत्रालय बनाया गया है। इसके बावजूद जनसंख्या को लेकर जागरूकता के कार्य कर रहे लोगों में एकांगी नजरिये से जनसंख्या वृद्धि की बजाय जनसंख्या पर चिंता जताई जाती है, जोकि कईं बार बहुत अखरता है। 
DAINIK HARIBHOOMI 11JULY, 2020
आज जब हम कोरोना वायरस के हर रोज बढ़ते आंकड़ों के बीच जनसंख्या दिवस मना रहे हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि जनसंख्या को कैसे देखा जाए। जनसंख्या का मुद्दा विकास के साथ जुड़ा हुआ है। जनसंख्या बढऩे के कारणों की तह में जाएं तो गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा व असुरक्षा आदि इसके मुख्य कारक मिलेंगे। समाज में जिन भी लोगों को पढऩे का मौका मिल गया, उनमें परिवार का आकार छोटा दिखाई देता है। जो आबादियां शिक्षा व विकास में पिछड़ गई, उनकी आबादी आज भी ज्यादा है। 
हमारे आस-पास ही ऐसी बहुत सी सुविधाहीन बस्तियां होंगी। उनके घरों में झांका जाए तो हमें काफी बच्चे दिखाई देंगे। ज्यादा बच्चों वाले कुछ परिवारों का ही अध्ययन कर लें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा। गरीबी और असुरक्षा को मिटा दें और शिक्षा के अवसर दे दें तो उस परिवार में जनसंख्या नियंत्रण की समझ अपने आप आ जाएगी। किसी ने सही ही कहा है कि विकास सबसे बड़ा गर्भ निरोधक है। 
जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए सबसे पहले विकास के मॉडल पर बात करनी पड़ेगी। आज देश में जो विकास का मॉडल अपनाया जा रहा है, वह गैर-बराबरी को कम करने की बजाय बढ़ाने वाला है। आज देश की पूंजी का बड़ा हिस्सा कुछ लोगों की जेबों व तिजोरियों में सिमट गया है। गरीब लोग और अधिक गरीब होते जा रहे हैं। कोरोना महामारी ने ही देश के लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया है। असुरक्षा के माहौल में उन्हें अस्थायी रूप से बनाए गए ठिकाने छोड़ कर भागना पड़ा। बेरोजगार हुए लोगों को रोजगार देने के लिए बनाई गई योजना के तहत श्रम कानूनों में बदलाव किए गए। यह बदलाव मजदूरों को ध्यान में रखकर नहीं किए गए, उद्योगपतियों को ध्यान में रखकर किए गए। यह है विकास की अधोगति। सरकारों को गरीब लोगों की भलाई दिखाई नहीं दे रही है। सभी लोगों को रहने, खान-पान, स्वास्थ्य व शिक्षा की सुविधाएं और मान-सम्मान का जीवन मिले, इसकी कोशिशें होती हुई दिखाई नहीं दे रही हैं। लोगों को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने के लिए ऐसी व्याख्याएं प्रचारित की जाती हैं, जिनमें जनसंख्या वृद्धि का ठीकरा अल्पसंख्यकों व गरीब लोगों पर फोड़ दिया जाता है। इन व्याख्याओं का परिणाम यह होता है कि जन कल्याण की योजनाओं के लिए जिम्मेदार सरकारी ताना-बाना बच निकलता है। 
RASHTRIYA HINDI MAIL 11JULY, 2020
ऐसा नहीं है कि समाज में जनसंख्या वृद्धि के अन्य कारण नहीं हैं। समाज में लैंगिक भेदभाव भी जनसंख्या बढऩे का महत्वपूर्ण कारण है। लड़कियों की प्रतिभा के अनेक उदाहरणों के बावजूद आज भी हमारे समाज में लड़कियों को बोझ माना जाता है। पुत्र लालसा के वशीभूत होकर परिवार में लड़कियां पैदा होती जाती हैं या फिर उन्हें गर्भ में ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। लड़कियों को बोझ मानने की सोच के कारण भी लड़कियों का बाल विवाह कर दिया जाता है। गैर-कानूनी होने के बावजूद बाल विवाह भी जनसंख्या बढ़ौतरी का कारण बन जाता है। नन्हीं उम्र में जब बच्चों को पढऩा और भावी जीवन को समझना होता है, परिवार की चक्की में वे ही बच्चों के मां-बाप बन जाते हैं। विवाह से पूर्व युवाओं को आगामी जीवन लिए तैयार करना या शिक्षित करना समाज  की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।
GHATATI GHATNA 11JULY, 2020
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा 1989 में विश्व स्तर पर जनसंख्या दिवस मनाए जाने की शुरूआत हुई थी। 11 जुलाई, 1987 वह दिन माना जाता है जबकि दुनिया की आबादी पांच अरब होने का पता चला था। उसी वर्ष पहली बार जनसंख्या दिवस मनाया गया। इस वर्ष कोरोना महामारी के दृष्टिगत जनसंख्या दिवस का मुख्य विषय महिलाओं व लड़कियों के स्वास्थ्य व अधिकारों की रक्षा करना निर्धारित किया गया है। कोरोना व लॉकडाउन के चलते घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि हुई है, जिससे उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। जनता के सभी वर्गों को उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के अवसर मिलें, यही जनसंख्या शिक्षा का सार है। इसके लिए विकास के मॉडल को अंतिम जन केन्द्रित करना होगा। जन-जन में जनसंख्या शिक्षा फैलाने के अलावा जनसंख्या दिवस का दिन सरकारों पर ऐसी नीतियां बनाने के लिए दबाव बनाने का भी है, जिससे हाशिये के लोगों को विकास का लाभ मिल सके।    
हमारे देश में जनसंख्या संबंधी आंकड़े जुटाने के लिए दस साल बाद जनगणना की जाती है। लॉकडाउन से पहले ही देश में जनगणना-21 की तैयारियां शुरू हो चुकी थी। गांव स्तर पर आंकड़े जुटाने के लिए प्रगणकों व पर्यवेक्षकों की ड्यटी भी लगा दी गई थी, लेकिन लॉकडाउन के विभिन्न चरणों व अनलॉक के दौरान पूरी दुनिया का ध्यान कोरोना पर केन्द्रित हो गया है, जिससे जनगणना का कार्य बाधित हो गया है। ऐसे में कोरोना महामारी के जाल से निकलने पर ही जनगणना का कार्य शुरू हो पाएगा।  
JAMMU PARIVARTAN 11JULY, 2020


Tuesday, July 7, 2020

कविता                                                                                                                          मिलना ही चाहिए

रचनाकार-अरुण कुमार कैहरबा

सबको सेहत सबको ज्ञान मिलना ही चाहिए
सबको खुशियां सबको मान मिलना ही चाहिए

बच्चा कोई भी भूखा ना हो 
चेहरा मुरझाया-सूखा  ना हो
सबको बेहतर खान-पान मिलना ही चाहिए।

अंतर मिटे जाति-वर्ण का 
भेदभाव हटे लिंग-धर्म का 
सबको हक एक समान मिलना ही चाहिए।

सत्ताओं को मुंह चिढ़ाए
बेरोजगारी बढ़ती ही जाए
सबको काम, पूरा दाम मिलना ही चाहिए।

मजदूर पे गिरती गाज क्यों
फिर भी नहीं आवाज क्यों
श्रमिक को सुरक्षा-सम्मान मिलना ही चाहिए

खुद को समझें शहंशाह
जनता की नहीं परवाह
जनतंत्र में जनता को ध्यान मिलना ही चाहिए।
JAMMU PARIVARTAN 08-07-2020

Monday, July 6, 2020

What will happen to the education of children of poor labourers?


शिक्षा-विमर्श

गरीबों-मजदूरों के बच्चों की शिक्षा का क्या होगा?

कोरोना महामारी ने समतापूर्ण शिक्षा के सपनों से बढ़ाई दूरी

अरुण कुमार कैहरबा

DAINIK HARIBHOOMI 7 JULY, 2020
कोरोना महामारी ने देश व दुनिया में अनेक प्रकार के संकट पैदा कर दिए हैं। पहले ही गरीबी व बेकारी की मार झेल रहे लोग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। स्कूलों व कॉलेजों में पढऩे वाले विद्यार्थियों की शिक्षा-व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। मार्च महीने से स्कूल बंद हैं। बच्चे स्कूल के समतापूर्ण व आनंददायी वातावरण व अध्यापकों से आमने-सामने सहभागितापूर्ण शिक्षा से वंचित हो गए हैं। विकल्प के रूप में पेश की गई ऑनलाईन शिक्षा से कुछ क्षतिपूर्ति तो हुई है। लेकिन अनेक प्रकार की चुनौतियां भी पैदा कर दी हैं। जिन मोबाइल व इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के दुष्प्रभावों को देखते हुए बच्चों को उनसे बचाने की बातें हो रही थी। ऑनलाइन शिक्षा ने अभिभावकों व अध्यापकों को बच्चों के लिए उसका प्रयोग करवाने को विवश कर दिया है। भले ही सीखने के लिए हो, मोबाइल के बेतहाशा प्रयोग ने बच्चों के स्वास्थ्य की समस्या को गंभीर बना दिया है। मोबाइल की स्क्रीन का बच्चों की आंखों पर बुरा असर हुआ है। मोबाइल की लत लगने की समस्या हो गई है। लॉकडाउन के कारण पहले ही बाहर खेलने के अवसरों से वंचित हुए बच्चों में मोटापा बढ़ रहा है। उनके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भी बाल-स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा चिंता जताई जा रही है।
AAJ SAMAJ 6 july, 2020

बच्चों की शिक्षा का एक आयाम स्कूल का समतामूलक वातावरण है। यह वातावरण बच्चों के विकास में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसमें विद्यार्थी अन्य बच्चों के साथ मिलकर सीखना, खेलना और सहयोग करना सीखते हैं। यह सामूहिकता व परस्पर सहयोग के मूल्य देश के सामाजिक विकास को मजबूत करते हैं। हालांकि सरकारी स्कूलों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के निजी स्कूलों ने पहले ही बच्चों के माध्यम से समाज को बांटने का काम किया है। शिक्षा की प्रक्रिया से पारिवारिक, आर्थिक व सामाजिक स्तर के अंतर व भेदभाव को खत्म करने की अपेक्षा की जाती है। जाति, धर्म, लिंग व अन्य प्रकार की संकीर्णताएं भी शिक्षा से ही खत्म हो सकती हैं। लेकिन निजी स्कूलों में लाखों रूपये की डोनेशन फीस, विभिन्न प्रकार के फंड, दिखावे की प्रवृत्ति ने शिक्षा के सार को ही बदल कर रख दिया है और शिक्षा ग्रहण करने में बच्चे के परिवार की आर्थिक हैसियत को मुख्य बना दिया है। हालांकि इसका शिक्षा की गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन देखने में यही लगता है जैसे महंगे स्कूलों में अच्छी शिक्षा मिलती होगी। राजकीय स्कूली शिक्षा में बहुत कम निवेश और सरकारों की उदासीनता के कारण सरकारी स्कूलों को हेय मानने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती गई है। हरियाणा व पंजाब जैसे आर्थिक रूप से सम्पन्न माने जाने वाले राज्यों में देखादेखी विकराल स्थिति पैदा हो गई है। अन्य राज्यों में भी कमोबेश स्थिति ऐसी ही है। लोग अपना पेट काट कर भी अपने बच्चों को निजी स्कूल में दाखिल करवाना बेहतर मानते हैं। बच्चों को टाई पहना कर स्कूल की पीली बसों में नन्हें बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना स्टेटस सिंबल की तरह देखा जाना समाज के नकारात्मक चिंतन के स्तर को ही दर्शाता है।
कोरोना के दौर ने शिक्षा के क्षेत्र में पहले से ही बढ़ती जा रही असमानता को और ज्यादा गहरा करने का काम किया है। सडक़ों पर आ गए प्रवासी मजदूरों के बच्चे अपने स्कूलों से दूर चले गए हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के बावजूद उनके शिक्षा के दायरे से बाहर चले जाने का खतरा पैदा हो गया है। क्योंकि माता-पिता के रोजगार पर ही उनके जीवन में स्थायित्व व बच्चों की शिक्षा निर्भर थी। अब जब रोजगार ही चला गया तो वे अपने बनाए घर छोड़ कर सडक़ों पर आ गए हैं। बेरोजगारी के बाद पैदल लंबी यात्राएं करने को मजबूर हुए लाखों मजदूरों के बच्चों की शिक्षा के बारे में सरकारी स्तर पर कोई सोच-विचार होता हुआ भी दिखाई नहीं दे रहा है। फिलहाल तो देश का मानव संसाधन मंत्रालय व प्रदेशों के शिक्षा मंत्रालय स्कूल खोलने और नहीं खोलने के निर्णय में असमंजस के झूले में झूल रहे हैं। इसके अलावा सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे दो नए वर्गों में बंट गए हैं-एक वे जिनके पास एंड्रोयड फोन हैं और दूसरे वे जिनके पास यह सुविधा नहीं है। बच्चों के दबाव में कुछ अभिभावकों ने मोबाइल खरीद लिए हैं, लेकिन उनके लिए नेट का पैक खरीदना भी आफत बना हुआ है। अधिकारियों के दबाव में भले ही कागजों में अधिकतर बच्चे ऑनलाईन शिक्षा से लाभान्वित होते हुए दिखाए जा रहे हैं।

किसी तरह से जुगाड़ करके निजी स्कूलों में बच्चों को भेजने लगे अभिभावकों के सामने रोजगार का संकट आने के कारण उन बच्चों का अपने स्कूलों में टिकना किसी भी सूरत में संभव नहीं है। स्कूल नहीं खुलने के बावजूद निजी स्कूलों द्वारा बार-बार फीस देने का दबाव बनाए जाने से अभिभावकों में परेशानी और गुस्सा है। यदि सरकारी स्कूलों के अध्यापक एक बार भी उन्हें अपने बच्चों को उनके स्कूलों में भेजने के लिए कह दें तो वे सहर्ष अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेज दें। ऐसे में कोरोना काल ने बच्चों की शिक्षा में अस्थिरता को बढ़ा दिया है। शिक्षा में बढ़ती असमानता समाज को किस गर्त में लेकर जाएगी। इस पर सरकारी व शैक्षिक स्तर पर गंभीर चिंतन करके योजना बनाए जाने की जरूरत है ताकि बच्चों को समतापूर्ण शिक्षा मुहैया करवाई जा सके।

Friday, July 3, 2020

STATE LEVEL KAVI SAMMELAN

‘यार मेरा मेरे तै जुदा भी नहीं, आदमी सै बड़ा पर खुदा भी नहीं’

एविड मोटिवेशन व रेडियो मेरी आवाज 2.0 ने करवाया राजय स्तरीय कवि सम्मेलन

हरियाणा के अलावा हिमाचल प्रदेश व यूपी के कवियों ने पढ़ी अपनी कविताएं

अरुण कुमार कैहरबा

एविड मोटिवेशन व रेडियो मेरी आवाज 2.0 के तत्वावधान में राज्य स्तरीय ऑनलाइन कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में कवियों ने हिन्दी व हरियाणवी में अपनी कविताएं व गजलें सुनाई। सम्मेलन का संयोजन अध्यापक एवं कवि मोनू कुमार ने किया। सम्मेलन की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार अरुण कुमार कैहरबा ने की और संचालन उत्तर प्रदेश के सहारनपुर की कवयित्री स्मृति चौधरी ने किया। कवि सम्मेलन में हिमाचल प्रदेश के मंडी से कवयित्री मंजूला वर्मा, जींद से हरियाणवी के प्रसिद्ध कवि मंगत राम शास्त्री खड़तल, हिसार से राज कुमार जांगड़ा राज, फरीदाबाद से मोहन कुमार शास्त्री व देवेन्द्र गौड़, चरखी दादरी से राजेश कुमार, कैथल से कर्मचंद केसर, झज्झर से एडवोकेट सुमित पांडवान, फरीदाबाद से संजय तन्हा व बहादुरगढ़ जगबीर कौशिक ने विभिन्न विषयों पर अपनी रचनाएं सुनाई।

हरियाणा के प्रसिद्ध हरियाणवी कवि मंगत राम शास्त्री ने अपनी गजल में कुछ यूं कहा-यार मेरा मेरे तै जुदा भी नहीं, आदमी सै बड़ा पर खुदा भी नहीं। एक अन्य गजल से उनका शेर गौर फरमाएं- काम करण की नीत जै हो तो कुछ नी मुश्किल, सब कुणबे की ठीक रै हो तो कुछ नी मुश्किल। पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता जताते हुए वे कहते हैं- पाणी हवा जमीन बना दी जहरीली, धरती की तासीर बिगाड़ी माणस नै। कैथल से हरियाणवी शायर कर्मचंद केसर की गजल का अंदाजे बयां देखिए- 'क्यों गेरै सै पतंगा तूं नरभाग पाणी मैं, क्या काढ़ैगा ला कै नै आग पाणी मैं।' उनका एक अन्य शेर देखिए-'किसे तै घाट नहीं सै मां मेरी, पीसा-पीसा हाथ बोच कै जोड़ दिया।'

कवि सम्मेलन में मंडी हिमाचल प्रदेश की कवयित्री मंजूला वर्मा ने तरन्नुम में अपना प्रसिद्ध गीत-बदरिया सुनाया तो श्रोता झूम उठे- मंजूला वर्मा- कारे-कारे बदरा घिर-घिर आए, उमड़ घुमड़ अमृत बरसाए, रिमझिम-रिमझिम बरसे रे पानी, नाचे रे नाचे झमाझम बरखा की रानी।

फरीदाबाद के उस्ताद कवि मोहन कुमार शास्त्री ने कहा- उजाला ढूंढऩे वालो उजाला दिल के अंदर है, नदी तट पर थके हो तुम अति गहरा समंदर है, नहीं मिलती उन्हें मंजिल बहाना जो बनाते हैं, लगादे जान की बाजी वही तो बस सिकंदर है। उन्होंने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा- हुए जो देश पर कुर्बां सभी के दिल में रहते हैं, सदा उनके तराने ही सदा महफिल में रहते हैं।
 चरखी दादरी से कवि राजेश कुमार डागर ने कविताओं में लय पर चिंतनपरक कविता पढ़ी तो कवियों ने खूब दाद दी। उन्होंने एक अन्य कविता में कहा- जिद भी जिद है मैं हर जिद भी मान लेता हूँ, उसकी जिद की हर बात मैं जान लेता हूँ।

हिसार के कवि राज कुमार जांगड़ा राज ने अपनी हरियाणवी और हिन्दी रचनाएं सुनाई-'अक्ल के दाणे नहीं मगज मैं खुद विद्वान बता रे सैं, झूठे भरैं हुंकारे सारे भेड़चाल मैं जारे सैं।' उन्होंने हिन्दी कविता में कुछ यूं कहा- 'रोज-रोज यूं ना रूलाया कर ऐ जिंदगी, कभी-कभी मां सी भी बन जाया कर ऐ जिंदगी। ज्ञान का दीप जलाओ साथी, अज्ञान अंधेरा मिटाओ साथी।'
फरीदाबाद के ही शायर संजय तन्हा ने आपस में लड़ते झगड़ते लोगों पर कहा- 'प्यारे सब के जानवर रिश्तों में टकराव। दिन-दिन होता जंगली लोगों का बर्ताव।।' उनकी गजल के शेर पढि़ए- 'गूंगा है पर बयान रखता है, उंगलियों में जुबान रखता है। काम उसके नहीं बिगड़ते हैं, जो बसर इत्मिनान रखता है, खेत पहले ही बिक गए उसके, अब तो गिरवी मकान रखता है। पेट क्या-क्या ना मुझसे बिकवाता, रोज सर पर दुकान रखता है। चाल सारी नहीं चला करता, गोटी कुछ हुक्मरान रखता है।'
बहादुरगढ़ से कवि जगबीर कौशिक ने समसामयिक चिंताओं को अपने गीत में कुछ यूं बयां किया- 'आजादी का पर्व खुशी का पर कैसे खुशी मनाऊं मैं, जहां भी देखूं भारत मां को वहीं बिलखते पाऊं मैं। दिन-प्रतिदिन टूट रहा है भारत में भाईचारा, भारत मां की आंखों से आज बह रही है अश्रुधारा, धर्म-जाति की आग लगी है, कैसे इसे बुझाऊं मैं।'

वरिष्ठ कवि देवेन्द्र गौड़ ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समसामयिक राजनैतिक परिदृश्य पर करारे तंज कसे-'इलाज में लगे हैं कुछ बचाव में लगे, कुछ अपने घर व पेट के बढ़ाव में लगे, कुछ रैली कर बिहार के चुनाव में लगे। उन्होंने कहा- जो बदबूदार थे वो सारे इत्र बन गए, वो कुर्सी के लिए सारे मित्र बन गए।'

कवि सम्मेलन के संयोजक कवि मोनू कुमार ने कवियों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कहा कि इससे पहले सात राज्यों में सफल कवि सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं। वर्चुअल कवि सम्मेलन कवियों को आपस में जोडऩे और एक दूसरे की रचनाओं को सुनने-सुनाने का रचनात्मक मंच बना है। उन्होंने अपनी कविता सुनाते हुए कहा-'एक मिट्टी की मूरत बना कर चला, एक भोली सी सूरत बनाकर चला, तुम नहीं मेल खाते मेरे अक्स से। तुम्हें फिर भी दिल में बसा कर चला।'
अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए कवि अरुण कुमार कैहरबा ने कहा कि कविताएं अपने समय का दस्तावेज होती हैं, जोकि सोयी हुई चेतना को झकझोरने का काम करती हैं। कवि अपने समय की चुनौतियों, सुंदरता और विद्रूपता को श्रेष्ठ शब्दों में पिरोता हुआ अपना दायित्व निभाता है। उन्होंने कहा कि कवि सम्मेलन में विविध रंगों का समावेश देखने को मिला। आनंद, चिंतन व सरोकार का सामंजस्य कवियों की कविताओं में समाया हुआ था। उन्होंने कवियों को अपना रचनाकर्म आगे बढ़ाते रहने के लिए शुभकामनाएं दी। उन्होंने तरन्नुम में अपना बरसात गीत सुनाते हुए कहा- 'झम-झम बरस रही बरसात, चल तू पकड़े मेरा हाथ। अब वर्षा से क्या है डरना, बाहर निकलें बनकर झरना, मिट्टी में कीचड़ बन खेलो, जीवन से जो दुख है हरना। आओ बच्चे सब बन जाएं, ये रिमझिम है सौगात।'
HARYANA PRADEEP 6-7-2020