Sunday, June 28, 2020

Wild animals are not enemies, let's save them

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HAMARA BHUMANDAL JULY 2020

दुश्मन नहीं, दोस्त हैं वन्य जीव, आओ इन्हें बचाएं

अरुण कुमार कैहरबा
PURVANCHAL PRAHARI 29 JUNE, 2020

अपने मास्साब भी कुछ ना कुछ रचते ही रहते हैं। इस बार मास्साब एक वन्य प्राणी गोह के साथ दिखे तो लोगों को भी हैरत हुई। यह क्या इतने खतरनाक माने जाने वाले जीव को मास्साब ऐसे उठाए हुए हैं कि जैसे कोई बच्चा उठा रखा हो। यह जीव नकली भी नहीं है। कमाल की बात यह है कि यह मास्साब को कुछ कह भी नहीं रहा। किस्सा तो आपके मन में भी जिज्ञासा जगा ही रहा होगा।
आपको पता ही है कि गर्मी की छुट्टियों व कोरोना वायरस की वजह से स्कूल में बच्चे तो आ नहीं रहे। इसके बावजूद विभाग ने मास्टर-मास्टरनियों को स्कूल में आने का हुक्म दिया है। खैर, अपने मास्साब तो वैसे भी स्कूल के बिना नहीं रह सकते। वे गांव में बच्चों से मिलकर स्कूल आए तो स्कूल का माली दौड़ा-दौड़ा आया और बताया कि गांव के नाले में एक कछुआ दिखाई दे रहा है। मास्साब माली के साथ-साथ हो लिये-चलो दिखाओ कहाँ है। नाले के पास पहुंचे तो एक मुंडी दिखाई दी। बाकी हिस्सा नाले में डूबा हुआ था। मास्साब  ने कड़ी मेहनत करके पीड़ा और गुस्से से फन्नाते जिस जीव को निकाला वह माली द्वारा बताया गया कछुआ तो हरगिज नहीं था। वह था चार फुट लंबा सरिसृप प्रजाति का गोह। तड़पती-सी गोह। ओह! ये नाले में कैसे? मास्साब गोह को उठा लाए अपने ठिए-स्कूल में। नाले की गंदगी को धोने के लिए उसे साफ पानी में धोया। उसके शरीर पर तेज घावों के निशान थे, जैसे बल्लम से नुकीले हथियारों से उसे मारा गया हो। मास्साब को स्थिति समझते देर ना लगी। मार से शिथिल पड़ा जीव बीच-बीच में अपना फन उठाता, लेकिन अपने आप को बेबस पाता।
JAMMU PARIVARTAN 30-6-2020

मास्साब ने पशुओं व जीवों के डाक्टर से बात की। डाक्टर के बताए मुताबिक मास्साब ने गोह के घावों पर हल्दी-तेल का मल्हम लगाया। अब देखने वाले तो तमाशा देख रहे थे। मास्साब का मन दुखी था- ये कैसी दुनिया है? जिस इन्सान को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बताया जाता है, वही अपना धर्म आखिर क्यों भूल गया है। निरीह जीवों पर हमलावर होकर वह टूट पड़ता है और जीवों को मार कर अपने आप को बहादुर बताता है। धिक्कार है ऐसी बहादुरी पर, जिसमें दूसरों पर निर्ममता हो। बहादुरी तो वह हो सकती है, जिसमें किसी की जान बचाई जाए। जिसमें किसी की जान ली जाए, वह बहादुरी कैसे हो सकती है।
क्या यह धरती केवल मनुष्य के लिए बनाई गई है? हरगिज नहीं। धरती पर प्राकृतिक संतुलन में सभी जीवों का अहम स्थान है। सभी जीव, जंगल, वनस्पतियां, हवा, पानी आदि हैं, तभी तो धरती है। वन्य जीव ना तो मनुष्य के दुश्मन हैं और ना ही उसके उपभोग की वस्तु। ये जीव मनुष्य के संगी हैं। हां कुछ जीव मानव बस्ती में ना घुसें तो बेहतर है। लेकिन इसके लिए यह भी तो जरूरी है कि मनुष्य इन जीवों की बस्ती-जंगल में अतिक्रमण ना करे। मनुष्य जंगलों को अंधाधुंध काट कर कंकरीट के जंगल खड़े करके इसे अपनी उपलब्धि बताते हुए इतरा रहा है। कथित विकास की परियोजनाओं के लिए भी जंगलों को उजाड़ा जा रहा है। सडक़ों के किनारे खड़े पेड़ सडक़ों के चौड़ाकरण की भेंट चढ़ रहे हैं। ऐसे में हम देखते हैं कि बंदर व नीलगाय तक के रहने लायक जंगल नहीं रह गए हैं। बंदर बस्तियों में घुसते हैं तो बंदों को परेशानी होती है। नीलगाय फसलें चट करती हैं तो बंदे बंदूकें उठाकर मारने को दौड़ते हैं।

DAILY NEWS ACTIVIST 03 JULY, 2020
कभी खेतों में देखते थे तो पेड़ ही पेड़ नजर आते थे। अब खेतों में कईं-कईं किलोमीटर तक पेड़ों का नामोनिशान दिखाई नहीं देता। खेतों में लहलहाती फसलों पर कीटनाशकों व दवाईयों का अंधाधुंध छिडक़ाव किया जा रहा है और फसलों को जहरीला बनाने का खेल खेला जा रहा है। ऐसे में जब वन्य जीव बस्ती में आते हैं तो यह हश्र होता है, जैसा उस गोह का हुआ। कीड़े-मकोड़े आदि भोजन की तलाश में जब गलती से गोह गांव में चला गया तो वह खुद परेशान हो गया। ऐसे में अज्ञानता व डर के कारण लोगों ने जब उसे देखा होगा तो उसे जानलेवा मानकर उस पर टूट पड़े होंगे। जबकि सच्चाई यह है कि गोह जानबूझकर मनुष्य पर कभी हमला नहीं करता। ना ही यह जहरीला होता है। हां आत्मरक्षा के लिए अपने पंजों से वह मनुष्य को घायल जरूर कर सकता है। अन्य जीवों की तरह ही यह जीव भी प्रकृति चक्र को प्रत्यक्ष तौर पर मनुष्य को अप्रत्यक्ष तौर पर लाभ पहुंचाता है। अब कौन समझाए इन लोगों को, मास्साब जैसे सभी तो हैं नहीं। हां, हमारी तो यही कामना है कि मास्साब की मेहनत सफल हो और गोह की जान बचे।
AAJ SAMAJ 30-6-2020

School environment is important in Child's education


बच्चों की शिक्षा में स्कूल वातावरण की भूमिका अहम: धर्मपाल

नीलोखेड़ी के बीईओ ने नन्हेड़ा के स्कूल का किया निरीक्षण

इन्द्री, 28 जून
नीलोखेड़ी के बीईओ धर्मपाल चौधरी ने इन्द्री के गांव नन्हेड़ा स्थित राजकीय प्राथमिक पाठशाला एवं माध्यमिक विद्यालय का 
दौरा किया। उन्होंने प्राथमिक पाठशाला के शहीद उधम सिंह पार्क में लगाए गए विभिन्न प्रकार के पौधों का निरीक्षण किया और बच्चे के विकास में इस तरह के प्राकृतिक वातावरण को जरूरी बताया। इस मौके पर यमुनानगर जिला के रा.उ. विद्यालय करेड़ा खुर्द में हिन्दी प्राध्यापक अरुण कैहरबा, हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ के खण्ड प्रधान मान सिंह, रा.व.मा. विद्यालय निगदू के प्राध्यापक जयभगवान, सुरेन्द्र कुमार, दिनेश कुमार, संदीप शर्मा मौजूद रहे। स्कूल में पाठशाला प्रभारी महिन्द्र कुमार, मुख्याध्यापक सरनपाल सिंह, शिक्षक उधम सिंह, सुनील सिवाच, जसविन्द्र कौर, अनीश कांबोज, नरेश कुमार, सुदर्शन लाल, बाबू राम प्रेम, सुरेन्द्र गांधी, अभिषेक गिल आदि ने उनका स्वागत किया।
धर्मपाल चौधरी ने अध्यापकों से बातचीत करते हुए नीलोखेड़ी, निगदू व सौंकड़ा के राजकीय स्कूलों में शिक्षा सुधार के लिए किए गए अपने कार्यों के बारे में बताया। उन्होंने नन्हेड़ा की पाठशाला के वातावरण को बच्चों की शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि वातावरण बच्चे की शिक्षा का महत्वपूर्ण घटक होता है। स्कूल का वातावरण जितना आनंददायक होगा, उसके साथ बच्चे का रिश्ता उतना ही प्रगाढ़ होगा। स्कूल के वातावरण का समाज और अभिभावकों पर भी गहरा असर होता है। उन्होंने कहा कि अध्यापकों की मेहनत से सरकारी स्कूल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के केन्द्र बन गए हैं। इस तरह के प्रयास निरंतर किए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले गरीब परिवारों के बच्चे किसी भी मायने में कम नहीं हैं। उनमें अपार संभावनाएं छुपी हुई हैं, जिन्हें उभारने के लिए मिलकर प्रयास करने होंगे। अरुण कैहरबा ने कहा कि समाज के विकास में शिक्षा का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है। संवेदनशील व विचारशील इन्सान बनाने में मार्गदर्शन करने वाली शिक्षा ही अच्छी शिक्षा हो सकती है। महिन्द्र खेड़ा ने स्कूल प्रांगण में लगाए गए अंजीर, नींबू, केला, एप्पल बेर, विभिन्न प्रकार के पाम, इंडिका, कनेर सहित विभिन्न पौधों से अवगत करवाते हुए कहा कि स्कूल में लगाए गए पौधे विभिन्न प्रदेशों की नर्सरियों से लाए गए हैं। मुख्याध्यापक सरनदीप सिंह ने माध्यमिक स्कूल में करवाए गए रंगरोगन व पेंटिंग के बारे में जानकारी दी।


Monday, June 22, 2020

जगाधरी व सरस्वती नगर में चलेगी सीसीटी परियोजना

सातवीं, आठवीं और नौवीं कक्षा के विद्यार्थियों को किया जाएगा कवर

हिन्दी, गणित व विज्ञान विषयों की होंगी गतिविधियां

यमुनानगर, 22 जून 
यमुनानगर जिला के खण्ड जगाधरी व सरस्वती नगर में सक्षम कार्यक्रम की सफलता के बाद क्रिएटिव एंड क्रिटिकल थिंकिंग (सीसीटी) परियोजना की शुरूआत हो रही है। सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों में रचनात्मकता एवं आलोचनात्क सोच का विकास करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण योजना को खण्ड जगाधरी में क्रियात्मक रूप देने के लिए गांव तेजली स्थित जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में कोर समूह की बैठक का आयोजन किया गया। डाइट प्राचार्य एवं डीपीसी सुरेश कुमार की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में विषय विशेषज्ञों को जिम्मेदारियां सौंपी गई। बैठक का संचालन डाइट में अंग्रेजी प्राध्यापिका डॉ. उषा नागी ने संचालन किया। बैठक में बीईओ रविन्द्र राणा, डीईओ कार्यालय से जिला विज्ञान विशेषज्ञ विशाल सिंघल, एपीसी सुभाष, अशोक राणा व राकेश गुप्ता ने शिरकत की।
जिला परियोजना संयोजक एवं प्राचार्य सुरेश कुमार ने कहा कि राज्य के 24 खंडों में से यमुनानगर के दो खंड जगाधरी व सरस्वती नगर का चयन राज्य स्तरीय परियोजना के लिए किया गया है। यह परियोजना सक्षम कार्यक्रम की सफलता के बाद मिली है। इसके तहत सातवीं, आठवीं व नौवीं कक्षाओं के विद्यार्थियों को कवर किया जाएगा। हिन्दी, गणित व विज्ञान विषयों के अन्तर्गत विद्यार्थियों की रचनात्मकता एवं क्रिटिकल सोच का विकास करने के लिए नियमित रूप से गतिविधियां व परीक्षण होंगे। उन्होंने कहा कि रचनात्मकता व आलोचनात्मक सोच शिक्षण का महत्वपूर्ण आयाम है। बच्चों को इसके साथ जोड़ कर वे सफलता के नए मुकाम हासिल कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि कार्यक्रम के संचालन में कोर समूह की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। विषय विशेषज्ञ विद्यार्थियों के लिए विषय वस्तु तैयार करने के साथ-साथ अध्यापकों के प्रशिक्षण में अहम भूमिका निभाएंगे।
बैठक में बीईओ रविन्द्र राणा ने एबीआरसी, बीआरपी व अन्य प्रतिभागियों को कार्यक्रम की सफलता के लिए निरंतर मेहनत करने का संदेश दिया। विशाल सिंघल, उषा नागी, सुभाष, तरसेम चंद ने अध्यापकों का मार्गदर्शन किया।
यह हैं कोर टीम सदस्य- 
खण्ड जगाधरी में सीसीटी के लिए बनाई गई कोर टीम में डीपीसी सुरेश कुमार, बीईओ रविन्द्र राणा, राकेश गुप्ता, तरसेम चंद, मधु, विशाल सिंघल, अरुण कुमार कैहरबा, गायत्री शर्मा, सुरेश कुमार, सुखजीत, राकेश मल्होत्रा, मनहर गोपाल, वंदना सैनी, नीलम आदि शामिल रहे। 

SHIKSHA VIMARSH

सरकारी शिक्षा में नई चुनौतियों व पहलकदमियों का दौर

अरुण कुमार कैहरबा

कोरोना महामारी की मार हर क्षेत्र पर पड़ी है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। महामारी के कारण स्कूल व बोर्ड स्तर की परीक्षाएं रोकनी पड़ी। तालाबंदी के दौरान ही जो भी परीक्षाएं हुई थी, उसी के आधार पर परिणाम बनाकर विद्यार्थियों को सूचित किया गया। नए सत्र का आगाज भी ऑनलाइन हुआ। स्कूलों के कक्षावार व्हाट्सअप समूह बनाकर विद्यार्थियों को उनसे जोड़ा गया। ऑनलाइन माध्यमों से ई-लर्निंग का नया अध्याय शुरू हुआ। अध्यापकों ने घर से पढ़ाओ ई-लर्निंग कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। ऐसे में एंड्रोयड फोन व इंटरनेट की सुविधा से वंचित परिवारों के बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से कटते गए और समावेशी शिक्षा में बड़ा व्यवधान पैदा हुआ। ई-लर्निंग के बच्चों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर पडऩे वाले दुष्प्रभावों ने भी शिक्षाविदों व मनोवैज्ञानिकों को चिंता में डाल दिया।
इन सारी स्थितियों के बीच में सरकारी स्कूलों के अध्यापकों ने शानदार कार्य किया है। हम सबकी है जिम्मेदारी, बेहतर हो शिक्षा सरकारी के मूलमंत्र के साथ विभिन्न प्रदेशों के अध्यापकों द्वारा बच्चों को साहित्य से जोडऩे, उनकी सृजनशीलता को उभारने व मंच प्रदान करने के लिए बाल मंथन ई-पत्रिका शुरू करने की खासी चर्चा हो रही है। मंथन टीम पत्रिका के माध्यम से सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के सृजन को नए पंख देना चाहती है। कोरोना काल में ही बाल मंथन का जून-जुलाई का दूसरे अंक का ऑनलाइन ही विमोचन किया गया। पहले अंक की ही तरह बाल कविताओं, कहानियों, गीतों, रंगों, चित्रों, जानकारियों से सुसज्जित दूसरा अंक भी बच्चों को अपनी तरफ खींचने वाला है। अंक में अध्यापकों की बालोपयोगी रचनाएं और बच्चों के सृजन के विभिन्न रंग हैं। शिक्षा व सृजन के क्षेत्र में पत्रिका उम्मीद जगाने वाली है।
दूसरे अंक में एक राजस्थानी लोक कथा-सुनेली का कुआं है। कहानी में राजस्थान के जल संकट में सुनेली लंबी दूरी तय करके पानी लेकर आती है। उसका सारा दिन पानी लाने के थकाऊ काम में बीतता है। कईं लोगों ने तो अपने घर ही कूओं के नजदीक बना लिए हैं। एक दिन जब वह पानी का घड़ा लेकर आ रही होती है तो उसे खेजड़े के पेड़ के नीचे चूहां द्वारा बना गया बिल दिखाई देता है, जिससे नम मिट्टी निकली हुई है। उसे वहां जमीन में पानी की संभावना नजर आती है। वह पक्का इरादा करके कुआं खोदने लग जाती है। पहले परिवार में भी उसका मजाक बनाया जाता है। फिर परिवार के लोग धीरे-धीरे करके उसके काम में जुट जाते हैं। बाद में गांव के लोग उसका मजाक बनाते हैं। आखिर वह सफल होती है और उस कुएं का नाम सुनेली का कुआं रखा जाता है। सुनेली की ही तरह बाल मंथन टीम का जोश और जज्बा है, जोकि सृजनशीलता का कूआं खोदने से किसी भी तरह से कम नहीं है। ऐसे परिवेश में जहां पर बच्चों की विचारशीलता, कल्पनाशीलता व प्रश्नाकूलता को हल्के में लिया जाता है। जहां पर बच्चों के नए विचारों और सवालों को दबा दिया जाता है। ऐसे में अध्यापकों का बच्चों की सृजनात्मकता को मंच प्रदान करने की कोशिश करना एक काबिलेतारीफ पहल है। यह पत्रिका सरकारी सकूलों के अध्यापकों व बच्चों की प्रतिभा का दस्तावेज बन रही है। पत्रिका के मुख्य संपादक सुरेश राणा, संपादक नरेश कुमार, सहसंपादक प्रदीप बालू हैं। डिजाईनिंग प्राथमिक शिक्षक सबरेज अहमद ने की है। कला-संयोजन सहित पत्रिका के सभी काम अध्यापक तल्लीनता से करते हैं। 
आशा है बाल मंथन पत्रिका निरंतरता में बालकों को उनकी सोच, उनकी जिज्ञासा, उनकी कल्पनाओं तथा उनकी रंगीन नटखट दुनिया को अभिव्यक्त करने का मंच उपलब्ध करवाते हुए उनमें छुपी प्रतिभा एवं रचनात्मक शक्ति को उभारने का प्रयास करेगी तथा भाषा संवर्धन में महती भूमिका अदा करेगी। बच्चों को साहित्य से संवाद करने का अवसर  मिलेगा। यह पत्रिका केवल बालकों के लिए ही नहीं अपितु शिक्षक, अभिभावक तथा शिक्षाविदों के लिए उपयोगी होगी। 

Sunday, June 21, 2020

Manthan Team Meating on Quality Education

सरकारी स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता के विभिन्न आयामों पर हुई चर्चा

मनोज पंवार व प्रदीप बालू ने मंथन के नूतन प्रयासों से अवगत करवाया

बाल मंथन ई-पत्रिका के दूसरे अंक का हुआ विमोचन

इन्द्री 21 जून 
सरकारी स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए अध्यापकों द्वारा बनाई गई मंथन टीम के वरिष्ठ सदस्य मा. मनोज पंवार व प्रदीप बालू उपमंडल के गांव पंजोखरा स्थित राजकीय प्राथमिक पाठशाला व इन्द्री में पहुंचे। इस मौके पर बाल मंथन ई-पत्रिका के दूसरे अंक का विमोचन किया गया। हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा व प्राथमिक शिक्षक सबरेज अहमद की अगुवाई में अध्यापकों ने दोनों अतिथियों का स्वागत किया।
मनोज पंवार व प्रदीप बालू ने कहा कि देश भर के सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए सभी अध्यापकों की एकजुटता व सजगता जरूरी है। शिक्षा में नवाचार व नूतन प्रयासों को आगे बढ़ाने व अध्यापकों को एक मंच प्रदान करने के लिए मंथन टीम का गठन किया गया। उन्होंने कहा कि कोरोना महामारी के कारण पैदा हुई नई स्थितियों में मंथन ने घर से पढ़ाओ अभियान के तहत ऑनलाइन शिक्षण के लिए कार्य किया। अभियान के तहत अनेक अध्यापकों ने घर पर रहते हुए ही मिलकर कार्य किया ताकि बच्चों तक अच्छी शिक्षण-अधिगम सामग्री पहुंच सके। उन्होंने बताया कि बच्चों की बाल मंथन पत्रिका मंथन टीम का एक दूसरा प्रयास है। इस पत्रिका के माध्यम से सरकारी स्कूलों के अध्यापक व बच्चों को रचनात्मक अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान किए जा रहे हैं। सरकारी स्कूलों में दाखिला बढ़ाने के लिए भी अभियान चलाया जा रहा है।
अरुण कैहरबा ने कहा कि ऑनलाइन शिक्षा आमने-सामने अध्यापक व विद्यार्थियों की सामूहिकता व सीखने-सिखाने का विकल्प नहीं हो सकता। कोरोना काल में बच्चों द्वारा अधिक समय मोबाइल के माध्यम से सीखने से अनेक प्रकार की समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। जिन बच्चों के घरों में इंटरनेट की सुविधा नहीं है, वे समावेशी शिक्षा से वंचित हो गए हैं। ऐसे में बच्चों को साहित्य के साथ जोड़े जाने की जरूरत है। उन्होंने बाल मंथन को एक सराहनीय प्रयास बताया। बाल मंथन में डिजाइनर की भूमिका निभाने वाले सबरेज अहमद ने इन्द्री क्षेत्र में अध्यापकों द्वारा होने वाले नवाचारों के बारे में जानकारी दी।  

HISTORY & TRADITIONS OF SIKLIGAR COMMUNITY / Mahender Singh / सिकलीगरों ...

Wednesday, June 17, 2020

ARTICLE ON BLOOD DONOR DAY (14JUNE)

विश्व रक्तदाता दिवस पर विशेष

मानवता के रिश्ते को मजबूत करता रक्तदाता

अरुण कुमार कैहरबा
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अक्सर बातचीत करते हुए लोग खून के रिश्तों की बात करते हैं। लोगों की बातचीत में अपना खून और पराया खून की भी बातें आपने खूब सुनी होंगी। शायद यहीं से नस्लीय एवं जातीय श्रेष्ठता का मिथ्या बोध जन्म लेता है। अहंकार में अंधा होकर मनुष्य दूसरों की जाति व सम्प्रदाय को हीन मानने लगता है। इस श्रेष्ठता ग्रंथि का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। फिर भी इसके कारण विश्व के इतिहास में अनेक युद्ध हुए हैं। हिटलर जैसे कट्टर लोगों ने फासीवाद जैसे क्रूर विचार को जन्म दिया। इसी श्रेष्ठता का दिखावा करते हुए उन्होंने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया। साम्प्रदायिक व जातीय दंगों के पीछे भी यही नस्लीय रक्त की सर्वोच्चता का मनोविकार काम करता है। एक तरफ यह दूसरों का खून करने और खून बहाने की भावना है। वहीं दूसरी तरफ रक्तदान का संदेश है, जिसमें दुनिया को बांटने-तोडऩे की बजाय जोडऩे का संदेश दिया जाता है। रक्तदान के संदेश में यह निहित है कि रक्त नालियों या सडक़ों पर बहने की बजाय मनुष्य की नाडिय़ों में बहे। जब किसी परिजन के लिए बीमारी या दुर्घटना में हमें खून की ज़रूरत पड़ती है, तब रक्तदान और रक्तदाता की महत्ता का पता चलता है। तब रक्तदान के रूप में हमें मानवता रूपी धर्म के मर्म का भी अहसास होता है।
रक्तदान को बढ़ावा देने और रक्तदाताओं का सम्मान करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2004 में हर वर्ष 14जून को रक्तदाता दिवस मनाने का निर्णय लिया था। सवाल यह है कि आखिर रक्तदाता दिवस के लिए यही दिन क्यों चुना गया। दरअसल यह दिन प्रसिद्ध जीव विज्ञानी एवं भौतिकीविद कार्ल लैण्डस्टाइनर का जन्मदिन (14जून, 1868) है। लैण्डस्टाइनर ने रक्त का ए, बी, एबी और ओ अलग-अलग रक्त समूहों में वर्गीकरण कर चिकित्सा विज्ञान में अहम योगदान दिया था। शरीर विज्ञान में उनके योगदान के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उनके जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए यह दिन रक्तदाता दिवस के रूप में चुना गया। मकसद यही था कि रक्त का व्यापार ना हो। ज़रूरत पडऩे पर रक्त पैसे देकर ना खरीदना पड़े। इसके साथ ही स्वास्थ्य संगठन ने शत-प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान नीति की नींव डाली। लेकिन अब तक लगभग 49 देशों ने ही इस पर अमल किया है। तंजानिया जैसे देश में 80 प्रतिशत रक्तदाता पैसे नहीं लेते। भारत सहित कईं देशों में बहुत से लोग पेशेवर रक्तदाता हैं, जोकि पैसे के बदले रक्त देते हैं। ब्राजील में तो यह क़ानून है कि आप रक्तदान के पश्चात किसी भी प्रकार की सहायता नहीं ले सकते।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार ही भारत में प्रतिवर्ष 1करोड़ यूनिट रक्त की ज़रूरत होती है। लेकिन उपलब्ध 75 लाख यूनिट ही हो पाता है। करीब 25 लाख यूनिट रक्त के अभाव में हर साल कितने ही मरीज दम तोड़ देते हैं। आंकड़ों के मुताबिक राजधानी दिल्ली में हर साल 3लाख 50 हजार रक्त यूनिट की आवश्यकता रहती है, लेकिन स्वैच्छिक रक्तदाताओं से इसका महज 30 फीसदी ही जुट पाता है। जो हाल दिल्ली का है वही शेष भारत का है। यह अकारण नहीं कि भारत की आबादी भले ही सवा अरब के पार पहुंच गयी हो। रक्तदाताओं का आंकड़ा कुल आबादी का एक प्रतिशत भी नहीं पहुंच पाया है। विशेषज्ञों के अनुसार भारत में कुल रक्तदान का केवल 59 फीसदी रक्तदान स्वैच्छिक होता है। वहीं तीसरी दुनिया के कई देश हैं जो इस मामले में भारत को काफ़ी पीछे छोड़ देते हैं।
रक्त की महिमा किसी से छुपी नहीं है। रक्त से हमारी जिन्दगी तो चलती ही है, इससे दुर्घटना या बीमारी के कारण खतरे में पड़े जीवन को भी बचाया जा सकता है। रक्त कारखाने में नहीं बनता और  ना ही इसे बनाने का कोई कृत्रिम तरीका है। वहीं मनुष्य के शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। चिकित्सा विज्ञान कहता है, कोई भी 18 से 60वर्ष उम्र और 45कि.ग्रा. वजन का कोई भी स्वस्थ व्यक्ति रक्तदान कर सकता है। बशर्ते वह एचआईवी व हैपीटाईटिस-बी व सी से पीडि़त ना हो। एक बार में सिर्फ 350 मिलीग्राम रक्त दिया जाता है। दिए गए रक्त की पूर्ति शरीर में चौबीस घण्टे के अन्दर हो जाती है और गुणवत्ता की पूर्ति 21 दिनों के भीतर हो जाती है। नियमित रक्तदान करने वालों को हृदय सम्बन्धी बीमारियां कम परेशान करती हैं। जानने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे रक्त की संरचना ऐसी है कि उसमें समाहित लाल रक्त कणिकाएँ तीन माह में स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं। प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति तीन माह में एक बार रक्तदान कर सकता है। जानकारों के मुताबिक आधा लीटर रक्त तीन लोगों की जान बचा सकता है। लेकिन एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि रक्त का लम्बे समय तक भण्डारण नहीं किया जा सकता।
भारत में अनेक शख्सियतें हैं, जोकि रक्तदान की अलख जगा रही हैं। भारतीय सेना में ऑनरेरी कैप्टन के पद से सेवानिवृत्त हुए हरियाणा के सुरेश सैनी 129 बार रक्तदान कर चुके हैं। यही नहीं उन्होंने 93 बार प्लेटलेट भी दान किया है। रक्तदान और प्लेटलेट दान के मामले में 222 का आंकड़ा छूने वालों में वे देशभर के गिने-चुने नामों में से एक हैं। उन्होंने अपनी बेटी के विवाह में कन्यादान करने से पहले रक्तदान की रस्म अदा की। जब भी किसी को रक्त की जरूरत होती है, वे रक्तदाताओं से संपर्क करके जरूरत पूरी करने में मदद करते हैं।
सारे वैज्ञानिक तथ्यों और शख्सियतों के बावजूद समाज में रक्तदान के प्रति अनेक भ्रांतियाँ व्याप्त हैं। मिथ्या धारणा है कि रक्तदान से शरीर कमजोर हो जाता है और उस रक्त की भरपाई होने में महीनों लग जाते हैं। यह ग़लतफहमी भी बनी हुई है कि नियमित रक्त देने से रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होती है और उसे बीमारियां जल्दी जकड़ लेती हैं। ये भ्रांतियाँ इतनी गहरे तक व्याप्त हैं कि लोग रक्तदान का नाम सुनकर ही सिहर उठते हैं। इन भ्रम-भ्रांतियों के होते हुए रक्तदान जैसे मानवता के काम को रक्तदाता ही आगे बढ़ा सकते हैं। संकट के समय तो रक्तदान की अहमियत और बढ़ जाती  है। अब जब पूरे विश्व में कोरोना का संकट फैला हुआ है। ऐसे में भी लोग घरों से निकल कर रक्तदान कर रहे हैं ताकि मुसीबत में फंसे लोगों की जान बचाई जा सके। ऐसे रक्तदाता असली कोरोना योद्धा हैं। जोकि भ्रांतियों को दूर करते हुए स्वैच्छिक रक्तदान का माहौल बनाने में लगे हुए हैं। आओ हम विश्व शांति, सद्भाव और भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए रक्तदान की ओर कदम बढ़ाएं।

Tuesday, June 16, 2020

ARTICLE ON JHANSI KI RANI LAXMIBAI


खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी..

अरुण कुमार कैहरबा

भारत की आजादी की लड़ाई अनेक लोगों के साहस और शहादतों से भरी हुई है। पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में हुआ था। इस संग्राम में राजे-रजवाड़ों के साथ-साथ बड़ी संख्या में आम लोगों ने भागीदारी की थी। उन्हीं में से एक थी- खूब लड़ी मर्दानी..झांसी की रानी। एक आम परिवार में जन्म लेकर झांसी की रानी बनने और आजादी के लिए गौरवशाली कुर्बानी देने वाली लक्ष्मीबाई का जीवन-संघर्ष बच्चों और बड़ों सभी को आकर्षित करता है। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता-झांसी की रानी ने महारानी लक्ष्मीबाई की शहादत को जन-जन में पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। लक्ष्मीबाई ने झांसी की रक्षा के लिए सेना में महिला सैनिकों का दस्ता बनाते हुए सेना को मजबूत किया। महिलाओं को युद्ध कौशलों का बाकायदा प्रशिक्षण दिया गया। उस दौर में जब राजाओं की रानियां पर्दे में रहती थी। लक्ष्मीबाई पर्दे से निकल कर देश रक्षा का जिम्मा संभालती है। भले ही झांसी की लड़ाई को नहीं जीता जा सका,  लक्ष्मीबाई व उसकी साथिन सेनानियों की वीरता व शहादत एक मिसाल की तरह देखी जाती रहेगी।
लक्ष्मीबाई का जन्म 19नवंबर, 1828 को काशी में मोरोपंत तांबे व भागीरथी बाई के घर में हुआ था। जब नन्हीं बच्ची का जन्म हुआ तो उसका नाम मणिकर्णिका रखा गया। घर में प्यार से उसे मनु के नाम से पुकारते थे। चंचल और बेबाक स्वभाव की बालिका जब चार-पांच साल की थी तो उसकी माता का देहांत हो गया। पिता मराठा बाजीराव द्वितीय की सेवा में थे। मां के देहांत के बाद वे बिटिया को भी बाजीराव के दरबार में ले जाने लगे। मनु की चंचलता से प्रभावित होकर वहां पर सभी प्यार से उसे छबीली कहने लगे। वहां पर उसे शास्त्र पढऩे के साथ-साथ शस्त्र-तलवारबाजी, घुड़सवारी, तीरंदाजी आदि सीखने का मौका मिला। 1842 में उनका विवाह गंगाधर राव के साथ हुआ और वे झांसी की रानी बन गई। उसका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। लक्ष्मीबाई ने पुत्र को जन्म दिया। लेकिन चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई। 1853 में राजा गंगाधर राव की तबियत बिगड़ी तो उन्हें बेटा गोद लेने की सलाह दी गई। एक बच्चा गोद लेने के बाद राजा की मृत्यु हो गई। बच्चे का नाम दामोदर राव रखा गया।
DAINIK SWADESH 17-6-2020

लार्ड डल्हौजी द्वारा बनाई गई लैप्स की नीति के तहत पुत्र नहीं होने पर राज्य को अंग्रेजों ने हड़प लेने का हुक्म दिया। उन्होंने दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने को अवैध घोषित करवा दिया। लक्ष्मीबाई ने झांसी का किला छोड़ कर नजदीक ही रानी महल में शरण ली। और कोर्ट में केस को मजबूती से लडऩे के लिए मेरठ में अखबार निकालने वाले वकील जॉन लैंग की सेवाएं ली। लैंग भी इसी पक्ष में थे कि अदालत में मामले की पैरवी की जाए और लक्ष्मीबाई पैंशन लेना स्वीकार करे। लेकिन लक्ष्मीबाई ने उन्हें साफ तौर पर कहा कि वे किसी भी सूरत में झांसी नहीं देंगी।
आखिर युद्ध हुआ। युद्ध में लक्ष्मीबाई की वीरता के बारे में अंग्रेजी सेना की अगुवाई कर रहे कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने जो चित्रण किया है, उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। ब्रिग्स ने रानी को लड़ते हुए देखा था और खुद भी लड़ाई की थी। बताते हैं कि रानी ने दांतों में घोड़े की रस्सी दबा रखी थी। दोनों हाथों में तलवारें लेकर एक साथ दोनों तरफ तलवारें चला रही थी। सीने में तलवार लगने के बाद भी वह लड़ती रही। उन पर लिखने वाले अंग्रेज लेखकों ने लिखा है कि उसके बाद लक्ष्मीबाई के सिर पर तलवार लगी। उसके बावजूद लक्ष्मीबाई की इच्छा थी कि वह अंग्रेजों की पकड़ में ना आए। उसने मंदिर में शरण ली। 17जून 1858 को वह आजादी के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हो गई। उसके साथियों ने अंग्रेजों के हाथ नहीं ओने देने के संकल्प का पूरा करने के लिए उसके शव को जला दिया गया और अंतिम दम तक संघर्ष किया।
झांसी पर आखिरी कार्रवाई करने वाले सर ह्यू रोज ने कहा था, ‘सभी विद्रोहियों में लक्ष्मीबाई सबसे ज्यादा बहादुर और नेतृत्वकुशल थीं। सभी बागियों के बीच वही मर्द थीं।’  सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती हैं-
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता-नारी थी,दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी।
युद्ध में लक्ष्मीबाई की सेना के दुर्गा दल की सेनापति झलकारी बाई का योगदान भी कम नहीं है। झलकारी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी और रानी का वेश धारण करके ही लड़ती थी। 1857 में लक्ष्मीबाई के साथ ही झलकारी व अन्य वीरांगनाओं की शहादत को भी भुलाया नहीं जा सकता। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी पर लिखा है-
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।गोरों से लडऩा सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी।

Wednesday, June 10, 2020

SARTHAK KI KAHANI- SUNDER SAPNA

कहानी

सुंदर  सपना

मीनू जब बिस्तर पर लेटने ही वाली थी तभी उसकी माँ आई - ‘बेटी सोने से पहले ब्रश कर लो और पैर धो लो। अच्छी  नींद  आएगी ।’ मीनू-‘अच्छा माँ’ बोल कर चली गई। वह ब्रश करने और पैर धोने के बाद जल्द ही सो गई। 
मीनू को सपना आया। वह अब हरे-भरे मैदान में दोस्तों के साथ खेल रही थी। कुछ देर बाद जाने क्या बात हुई कि उसके सारे मित्र कट्टी करके चले गए थे। वह जोर-जोर से रोयी-चिल्लाई- ‘मुझे कोई दोस्त दे दो।’ 
तभी वहां एक परी प्रकट हुई। परी ने पूछा-‘तुम क्यों रो रही हो।’ 
मीनू बोली-‘मेरा कोई मित्र नहीं है, जो भी था वह कट्टी करके चला गया।’ 
‘तुम मेरे साथ चलो। वहां तुम्हें बहुत मजा आएगा’-परी बोली।
‘हां, क्यों नहीं।’ बोलते हुए मीनू परी के साथ चल दी।
परी उसे अपने देश में ले गई। वहां पर कईं परियां थी। वहां पर मीनू जो भी मांगती। परियां छड़ी घुमाकर पलक झपकते ही ला देती। उसने मीनू की सारी इच्छाएं पूरी कर दी। परी ने मीनू को एक बार भी उदास होने नहीं दिया। परी मीनू को मां जैसा प्यार दे रही थी।  
तभी मीनू की मां की आवाज आई-‘मीनू जल्दी उठो। स्कूल के लिए जल्दी तैयार हो जाओ।’ तभी मीनू उठती है। वह परियों के सुंदर सपने से अब सच्ची दुनिया में लौट आती है। वह कहती है-‘ओह! यह तो सपना था।’ वह जल्दी से स्कूल के लिए तैयार हो जाती है और सोचती है- कितना सुंदर सपना था, जहां प्यार और रिश्तों की मिठास थी। क्या हमारा समाज भी ऐसा ही बन सकता है? 

रचनाकार-सार्थक
कक्षा-चौथी

Monday, June 8, 2020

अरुण कैहरबा का गीत- बरसात

गीत- बरसात

झम-झम बरस रही बरसात
चल तू पकड़े मेरा हाथ।

झुलस रही थी प्यासी धरती
मांग रही थी पानी खेती
ऐसे में जब घिर आए बदरा
चमक उठी रेती व परती।
लाएंगे बदलाव नया हम
मिले जो तेरा साथ।

बच्चे-बूढ़े थे अलसाए
गर्मी से मन थे घबराए
बाहर तो ऐसा लगता है
तन-मन सारा ज्यों जल जाए।
बारिश की बूंदों ने दे दी
सारी तपिश को मात

अब वर्षा से क्या है डरना
बाहर निकलें बनकर झरना
मिट्टी में कीचड़ बन खेलो
जीवन से जो दुख है हरना।
आओ बच्चे सब बन जाएं
ये रिमझिम है सौगात।

-अरुण कुमार कैहरबा 
हिन्दी प्राध्यापक

वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

Sunday, June 7, 2020

HABIB TANVIR- AN EXPERIMENTAL THEATRE ACTIVIST

पुण्यतिथि विशेष

हबीब तनवीर ने रंगकर्म को दिखाई नवाचार की राह

अरुण कुमार कैहरबा

बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार हबीब तनवीर रंगमंच के क्षेत्र में अपने प्रयोगों, नवाचार और जनपक्षधरता के लिए हमेशा याद किए जाते रहेंगे। उन्होंने अपनी कला को लोक परंपराओं के साथ जोड़ा और उन्हें आधुनिक बाना पहनाकर विश्व प्रसिद्ध बना दिया। उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की कला को प्रतिष्ठित करने का काम किया। रंगकर्म के क्षेत्र में उनके काम को देखते हुए उन्हें रंगमंच का विश्वकोष कहा जाता था।

हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर,1923 को मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के रायपुर में हुआ था। उनके पिता हफ़ीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के रहने वाले थे। स्कूली शिक्षा रायपुर और बी.ए. नागपुर के मौरिस कॉलेज से करने के बाद वे एम.ए. करने अलीगढ़ गए। युवावस्था में ही कविताएं लिखते हुए उन्होंने अपने साथ उपनाम तनवीर जोड़ लिया था। 1945 में वे मुंबई गए और ऑल इंडिया रेडियो से बतौर निर्माता जुड़ गए। इसी दौरान उन्होंने कुछ फि़ल्मों में गीत लिखने के साथ अभिनय किया। मुंबई में तनवीर प्रगतिशील लेखक संघ और बाद में इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़े। ब्रिटिशकाल में जब एक समय इप्टा से जुड़े तब अधिकांश वरिष्ठ रंगकर्मी जेल में थे। 1954 में उन्होंने दिल्ली का रुख किया और वहाँ कुदेसिया जैदी के हिंदुस्तान थिएटर के साथ काम किया। उन्होंने बच्चों यहां के लिए भी कुछ नाटक किए। दिल्ली में तनवीर की मुलाकात अभिनेत्री मोनिका मिश्रा से हुई जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी बनीं। यहीं उन्होंने अपना पहला महत्वपूर्ण नाटक आगरा बाजार किया। 
1955 में तनवीर इग्लैंड गए और रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक्स आट्र्स (राडा) में प्रशिक्षण लिया। इस दौरान उन्होंने यूरोप का दौरा करने के साथ वहाँ के थिएटर को करीब से देखा और समझा। वहां के अनुभवों से लैस होकर तनवीर 1958 में भारत लौटे और एक पूर्णकालिक निर्देशक के रूप में नाटक करने लगे। उन्होंने शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक मृच्छकटिका पर केंद्रित नाटक मिट्टी की गाड़ी तैयार किया और नया थिएटर की नींव तैयार करने लगे। फिर छत्तीसगढ़ के छह लोक कलाकारों को साथ लेकर उन्होंने 1959 में भोपाल में नया थिएटर की नींव डाली।
नया थिएटर ने रंगमंच को नई राह दिखाई। लोक कलाकारों के साथ किए गए इस प्रयोग ने नया थिएटर को रंगमंच के क्षेत्र में नवाचार के लिए प्रसिद्ध कर दिया। उनके नाटकों की बात ही अलग है। नाटक चाहे संस्कृत (‘मृच्छकटिकम’, मुद्राराक्षस, उत्तररामचरितम, मालविकाग्निमित्रम, वेणीसंहार) के हों या हिन्दी में असगर वजाहत का ‘जिन लाहौर नी वेख्या ओ जन्मया ही नी’ या फिर शेक्सपियर के ‘मिड समर नाइटस ड्रीम’ का अनुवाद ‘कामदेव का अपना-बसंत ऋतु का सपना’ हो या फिर आदिवासियों की आंतरिक पीड़ा को रेखांकित करता हुआ ‘हिरमा की अमर कहानी’ या फिर ‘चरनदास चोर’ जैसा अपार लोकप्रियता प्राप्त करने वाला नाटक,  सभी नाटकों की संवेदना दर्शकों को छूती है। ‘चरणदास चोर’ तो उनकी कालजयी कृति है। यह नाटक भारत सहित दुनिया के अनेक स्थानों पर खेला गया। इस नाटक की वजह से उन्हें अंतरर्राष्ट्रीय एडिनबर्ग नाटक समारोह में फ्रिंज फस्र्ट अवार्ड मिला। छत्तीसगढ़ की नाचा शैली में 1972 में किया गया उनका नाटक ‘गाँव का नाम ससुराल और मोर नाम दामाद’ ने भी खूब वाहवाही लूटी। उनके जहरीली हवा, उत्तर राम चरित्र, पोंगा पंडित, फुटपाथ और गांधी जैसे असंख्य नाटकों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने नाटक के विकास के लिए कभी सत्ता के गलियारों से मदद की कोई गुहार नहीं लगाई, बल्कि अपने बूते अपने तरह के रंगमंच की राह तैयार की।
भारतीय और विश्व रंगमंच को उनके योगदान के कारण कईं बार सम्मानित किया गया। तनवीर को 1969 और 1996 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 1983 में पद्श्रमी और 2002 में पद्मभूषण मिला। 1972 से लेकर 1978 तक वे उच्च सदन राज्यसभा के सदस्य रहे। 8 जून 2009 को हबीब दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनके नाटक और रंगकर्म रंगमंच से जुड़े लोगों को प्रेरणा देते रहेंगे।

WATCH CHARAN DAS CHOR PLAY-
https://www.youtube.com/watch?v=yWKyGgPxWOQ

Friday, June 5, 2020

SUNIL DUTT- A TALENTED PERSONALITY OF INDIAN CINEMA & POLITICS



जन्मदिन विशेष

सुनील दत्त: भारतीय सिनेमा व राजनीति की बहुआयामी शख्सियत

अरुण कुमार कैहरबा

भारतीय सिनेमा, समाज व राजनीति में अपनी प्रतिभा के जरिये नई पहचान बनाने वाली शख्सियत हैं- सुनील दत्त। भारत-पाक विभाजन की पीड़ा झेलने वाले दत्त को जीवन में बड़ा संघर्ष करना पड़ा। संघर्षों के बूते वे लगातार अपने आप को तराशते रहे। लगातार अपने व्यक्तित्व में नए आयाम जोड़ते रहे। ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम से रेडियो स्टेशन में पत्रकारिता, फिल्मों में अभिनय, निर्देशन एवं निर्माण, सामाजिक कार्य, राजनीति में भारत के खेल एवं युवा मामलों के मंत्री के पद पर कार्य। उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इतनी ऊंचाईयों तक पहुंचने के बाद भी उन्होंने मूल्यों से समझौता नहीं किया। कितने ही आंधी-तूफान आए वे साम्प्रदायिक सद्भाव, धर्मनिरपेक्षता, भाईचारा व सामाजिक सरोकारों से अलग नहीं हुए।
सुनील दत्त का जन्म अविभाजित पंजाब के झेलम जिला के गांव खुर्द में 6 जून, 1929 को हुआ। उनका बचपन का नाम बलराज था और प्यार से उन्हें बल्लू कह कर पुकारा करते थे। बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया था। जब वे 18 साल की उम्र के थे, तब देश को आजादी मिली। लेकिन आजादी के साथ-साथ करोड़ों लोगों के लिए बड़ी आपदा भी आई। यह आपदा थी-देश विभाजन और विस्थापन की आपदा। उनके पिता के दोस्त याकूब ने उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान की और परिवार मौजूदा पाकिस्तान से आज के हरियाणा के जिला यमुनानगर में यमुना नदी के साथ लगते गांव मंडोली में आ बसा।
RASHTRIYA HINDI MAIL 6-6-2020
यहां से सुनील दत्त फिल्म नगरी बंबई पहुंचे। यहां पर उन्होंने फुटपाथ पर भी दिन गुजारे। जय हिंद कॉलेज में दाखिला लिया और एक छोटे से कमरे में मजदूरों के साथ रहे। ट्रांसपोर्ट कंपनी में बस कंडक्टर की नौकरी की। फिर वे रेडियो सिलोन में उद्घोषक बन गए। यहां पर वे फिल्मी अभिनेताओं के साक्षात्कार लिया करते थे। रेडियो में अपनी भूमिका में उन्होंने खूब नाम कमाया। अभिनेत्री नरगिस का इंटरव्यू करते हुए वे इतने नर्वस हो गए थे कि यह शो रद्द करना पड़ा था। फिल्मी शख्सियतों के इंटरव्यू करते हुए उन्होंने खुद फिल्मों की ओर रूख किया। उनके फिल्मी करियर की शुरूआत फिल्म-रेलवे प्लेटफॉर्म से हुई। 1955 में प्रदर्शित हुई यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई अधिक सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। इसके बाद आई कुंदन, राजधानी, किस्मत का खेल व पायल फिल्मों में भी उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली।

1957 में आई फिल्म-मदर इंडिया ने सुनील दत्त के फिल्मी करियर की एक अद्भुत फिल्म है, जिसमें उन्होंने नरगिस के बेटे की भूमिका में अभिनय किया। फिल्मी करियर के साथ-साथ उनके जीवन में भी यह फिल्म नया मोड़ लेकर आई। रील लाइफ तैयार करते हुए रीयल लाइफ में यह हुआ कि फिल्म के सेट पर आग लग गई। आग में फंसी नरगिस को बचाने के लिए सुनील दत्त ने अपनी जान जोखिम में डाल दी। हादसे में वे बुरी तरह से झुलस गए, लेकिन नरगिस को बचा लिया। इस दौरान नरगिस ने उनकी देखभाल की। धीरे-धीरे यह संबंध प्रेम से होते हुए विवाह तक जा पहुंचा। समाज में फैली साम्प्रदायिकता व संकीर्णताओं के बीच में अन्तर-धार्मिक विवाह की यह प्रेरणादायी मिसाल है।

JAMMU PARIVARTAN 6-6-2020

फिल्मी करियर में सुनील दत्त ने अनेक सफल फिल्में दर्ज करवाई। उन्होंने पड़ोसन, यादें, हमराज, मिलन, रेशमा और शेरा, एक ही रास्ता, वक्त, मेरा साया, मुझे, जीने दो, साधना, सुजाता व खानदान सहित अनेक सफल फिल्मों में काम किया। उन्होंने फिल्मों का निर्देशन व निर्माण करके इंडस्ट्री में अपनी खास पहचान बनाई।
फिल्म और गलैमर की दुनिया से उन्होंने राजनीति की ओर रूख किया। लोकसभा की सीट के लिए 1984 में कांग्रेस की तरफ से उन्होंने मशहूर वकील राम जेठमलानी के विरूद्ध पहला चुनाव लड़ा। चुनाव प्रचार में उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल पेश की और सभी को चौंकाते हुए जीत दर्ज की। सांसद के रूप में उन्होंने झुग्गीवासियों का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। 1991 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद जब मुंबई में दंगे भडक़ गए तो उन्होंने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। शांति व सामाजिक सद्भाव के लिए उनके द्वारा निकाली गई लंबी पदयात्राएं उनकी राजनीति की मिसाल हैं। पंजाब में उग्रवाद की समस्या के समाधान के लिए 1987 में बंबई से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर तक दो हजार कि.मी. की यात्रा, 1988 में जापान के नागासाकी से हिरोशिमा तक परमाणु हथियारों को नष्ट करने के लिए पांच सौ कि.मी. की पैदल यात्रा, 1990 में भागलपुर दंगे के समय वहां का दौरा करके उन्होंने लोगों को धार्मिक दंगों व युद्धों में उलझने की बजाय शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने की अपील की। अपने इन प्रयासों के जरिये वे दरअसल गांधी-नेहरू की विरासत को ही आगे बढ़ा रहे थे। 1981 में कैंसर से नरगिस की मृत्यु के बाद उन्होंने नरगिस दत्त मेमोरियल फाउंडेशन की शुरूआत की। फाउंडेशन से दुनिया के विभिन्न देशों से दान जुटाया और उसे कैंसर के इलाज के लिए अस्पतालों को दिया। उन्होंने कैंसर पर ‘दर्द का रिश्ता’ फिल्म बनाई। उसकी कमाई को टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल को दान किया।
पांच बार सांसद रहने के बाद आखिर 2004 में उन्हें खेल और युवा मामलों का मंत्री बनाया गया। इसके एक साल बाद ही 25 मई, 2005 को उनकी मृत्यु हो गई। बेटे संजय दत्त के बंबई बम धमाकों के अभियुक्त बनने से उनके राजनैतिक सिद्धांतों को चुनौती मिली। इसके बावजूद आज के राजनैतिक परिदृश्य में राजनीति में कदम-कदम पर अपने स्वार्थों के लिए पाले बदलने वालों और मूल्यों को तिलांजलि देने वालों के लिए सुनील दत्त की राजनीति प्रेरणा का स्रोत है।
सुनील दत्त को फिल्मों के लिए दो बार फिल्मफेयर अवार्ड मिला। दादा साहब पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हुआ। 1968 में उन्हें पद्मश्री मिला। उन्हें अंतरराष्ट्रीय शांति और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खान अब्दुल गफ्फ़़ार ख़ान, राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सौहार्द के लिए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और हिंसा और आतंकवाद के ख़िलाफ़ लडऩे के लिए राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना अवॉर्ड जैसे पुरस्कारों से नवाजा गया।
NAVIN KADAM 6-6-2020

Thursday, June 4, 2020

HINDI CINEMA ON ENVIRONMENTAL ISSUES

पर्यावरण दिवस विशेष

व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में पर्यावरण के सरोकारों को भूला हिन्दी सिनेमा

अरुण कुमार कैहरबा

जैव-विविधता और पर्यावरण का संरक्षण आज का सबसे बड़ा मुद्दा है। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है, जोकि पर्यावरण के मुद्दों पर लोगों को मनोरंजक ढ़ंग से जागरूक कर सकता है। लेकिन मुख्यधारा के सिनेमा की दिक्कत यह है कि उसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर नजर डालने की फुर्सत ही नहीं है। अधिकाधिक पैसा कमाने के चक्कर में सिनेमा ऐसे मुद्दों में उलझा हुआ है, जिनका हमारे जीवन से कोई रिश्ता नहीं है। इस तरह से सिनेमा मनोरंजन को जीवन से अलग करता हुआ नया संसार रच रहा है। खास तौर से बॉलीवुड पर यह बात पूरी तरह से लागू होती है। 
गिनी चुनी फिल्मों को छोड़ दें तो फिल्में पर्यावरण के मुद्दे पर नजर तक नहीं डालती। हां रोमांस के दृश्यों को फिल्माने के लिए सिनेमा के लोग बाग-बगीचों, पहाड़ों, जंगलों, नदी, नालों, सागरों, जीव-जंतुओं सहित प्रकृति की सुंदरता का जमकर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इनके ऊपर आ रहे संकट और इससे मानव जाति पर आ रहे संकट को रेखांकित करने, दर्शाने और लोगों को विचार के लिए तैयार करने के प्रति उदासीनता दिखाते हैं। हालांकि पर्यावरण प्रेमियों का मत है कि यदि मुख्यधारा की फिल्में अपने व्यावसायिक हितों का ध्यान रखते हुए भी पर्यावरण के संकट की तरफ संकेत कर दें तो यह महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। 
जैसाकि हम पहले कह चुके हैं कि पर्यावरण पर गिनी चुनी फिल्में हैं। इनमें से रेमो डिसूजा निर्देशित सुपरहीरो फिल्म ए फ्लाइंग जट मेेंं पर्यावरण असंतुलन और प्रदूषण की समस्या को प्रमुखता से उठाया गया है। फिल्म में टाइगर श्रॉफ ने सुपरपॉवर से युक्त सिख युवक का किरदार निभाया, जो एक पेड़ को बचाने के लिए विलेन से टक्कर लेता है। फि़ल्म में हॉलीवुड एक्टर नेथन जोंस को प्रदूषण का प्रतीक दिखाया गया था। अक्षय कुमार की फि़ल्म-टॉयलेट- एक प्रेम कथा स्वच्छता अभियान पर आधारित है, जिसमें महिलाओं के खुले में शौच जाने की विषय को उठाया गया है। हालांकि फिल्म सीधे-सीधे पर्यावरण के मुद्दे पर केन्द्रित नहीं है। निखिल आडवाणी की एनिमेशन फि़ल्म दिल्ली सफ़ारी (2012) में जंगलों के अंधाधुंध कटान को दिखाया गया था। 
पर्यावरण के मुद्दे पर बॉलीवुड में जहां अकाल पसरा है, वहीं हॉलीवुड की बात की जाए तो वहां पर पर्यावरण के मुद्दे पर नियमित रूप से फिल्में बनती हैं। अवतार, 2012, द हैपनिंग, वॉल ई, हैप्पी फीट, द डे आफ्टर टूमॉरो सहित कईं ऐसी फिल्में हॉलीवुड में बनी हैं, जिनमें पर्यावरण संरक्षण के मुख्य सरोकार है।

मुझे बंगाल के अकाल पर केन्द्रित धरती के लाल फिल्म बनाने वाले ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा राजस्थान के जल संकट पर बनाई गई फिल्म- दो बूंद पानी जल एवं पर्यावरण के मुद्दे पर महत्वपूर्ण फिल्म दिखाई देती है। हरियाणा के पानीपत में जन्मे अब्बास साहब भारतीय सिनेमा को जन सरोकारों से जोडऩे की कोशिश करते हैं। दो बूंद पानी फिल्म के जरिये वे ऐसे विषय को बहुत यथार्थपरक ढ़ंग से उठाते हैं, जो मौजूदा दौर की एक ज्वलंत समस्या है। पानी के अंधाधुंध दोहन व प्रदूषण के चलते विकराल होती समस्या भविष्य में मानव जाती को गहरे संकट की ओर धकेल सकती है। इस फिल्म की विशेषता यह है कि पानी की कमी और पानी की अधिकता दोनों क्षेत्रों के लोगों को यह फिल्म पानी की अहमियत को बड़े मार्मिक ढ़ंग से समझाती है। दूसरे, यह फिल्म निराशा के वातावरण में हमें निराशा व अवसाद से निकाल कर आशा व उम्मीद जगाने का काम करती है। फिल्म में आशा-निराशा और निष्क्रियता व कर्म के अंत तक संघर्ष चलता है। गांव में अकाल आने पर फिल्म का हरी सिंह अपनी जमीन छोडऩे से मना कर देता है। अकाल व जल संकट के कारण सभी परिवार गांव छोड़ चुके हैं। हरी सिंह अपने बेटे गंगा सिंह को गांव में नहर लाने के लिए डैम बनाने के लिए भेजता है और आखिर समय तक नहर के आने का इंतजार करता है। लंबी दूरी तय करके फिल्म की नायिका गौरी व सोनकी पानी लेकर आते हैं। इस पानी से कभी ही कोई नहा पाता है। जब थोड़े पानी से कोई नहाता है तो यह उत्सव का क्षण होता है। अन्तर्जातीय विवाह, जाति व्यवस्था, गरीबी सहित सामाजिक समस्याओं के बीच में पानी एक मुख्य समस्या है। पानी के संकट के कारण समाज में अपराध बढ़ते हैं। पानी आने पर सभी अपराध समाप्त होने की कल्पना की जाती है। हालांकि दो बूंद पानी फिल्म ने व्यावसायिक बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म सफलता नहीं प्राप्त कर पायी, लेकिन पानी व पर्यावरण के मुद्दे पर बनी फिल्मों में यह एक यादगार दस्तावेज है। हालांकि फिल्म 1971 में रिलीज हुई थी, लेकिन इसे देखा जाना आज भी प्रासंगिक है।
DAILY NEWS ACTIVIST 7-6-2020
 

Monday, June 1, 2020

CORONA AWARENESS IN KARERA KHURD


मास्क लगाएं और बार-बार धोएं हाथ: अरुण


अध्यापकों ने गांव में बच्चों व अभिभावकों का किया मार्गदर्शन 
घर पर रह कर करते रहें पढ़ाई
यमुनानगर, 1 जून
गांव करेड़ा खुर्द स्थित राजकीय उच्च विद्यालय के अध्यापक शारीरिक दूरी का ध्यान रखते हुए गांव में बच्चों का हाल-चाल जान रहे हैं। हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा, ईएसएचएम विष्णु दत्त, विज्ञान अध्यापक ओमप्रकाश कांबोज, प्राथमिक शिक्षक किशोरी लाल ने सोमवार को गांव करेड़ा खुर्द में बच्चों के साथ संपर्क किया। ऑनलाइन शिक्षा की प्रगति के बारे में जानकारी लेते हुए उनकी नोटबुक जांची। अभिभावकों का मार्गदर्शन किया।
विद्यार्थियों व अभिभावकों को संपर्क करते हुए अरुण कैहरबा ने कहा कि कोरोना वायरस ने समाज के सामने स्वास्थ्य को लेकर नई चुनौतियां पेश की हैं। वायरस से बचने के लिए सभी को प्रयास करने होंगे। उन्होंने कहा कि बच्चा हो या बड़ा बाहर निकलते हुए मास्क पहन कर रही बाहर निकलें। बाहर से जाने के बाद घर में सबसे पहला काम साबुन से हाथ धोना होना चाहिए। उन्होंने बच्चों को कहा कि जल्दबाजी में साबुन से हाथ धोने की औपचारिकता पूरी नहीं करनी है। 20 सेकिंड लगाकर भली प्रकार से हाथ धाएं। घर में रहते हुए भी थोड़ी-थोड़ी देर के बाद हाथ धाने की आदत सभी को होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि बाहर निकलते हुए सेनिटाइजर का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि घर से बाहर निकलते हुए शारीरिक दूरी बनाए रखना भी बेहद जरूरी है। उन्होंने कहा कि शारीरिक दूरी सामाजिक एकता की परिचायक है। उन्होंने विद्यार्थियों को पढ़ाई के साथ जुड़े रहने की अपील करते हुए कहा कि बच्चे अधिक समय घर पर रहें, लेकिन समय को व्यर्थ ना गवाएं। समय का सदुपयोग करने के लिए अपनी किताबें पढ़ते रहें। अध्यापकों द्वारा ई-लर्निंग के लिए भेजी जा रही सामग्री का पूरा लाभ उठाएं। 
विष्णु दत्त व ओमप्रकाश ने बताया कि अध्यापक बारी-बारी से करेड़ा खुर्द, बाग का माजरा, मिस्री का माजरा व बीच का माजरा के गांवों में जाकर विद्यार्थियों का हाल-चाल जान रहे हैं। साथ ही पढ़ाई में विद्यार्थियों की प्रगति को जानकर विद्यार्थियों का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

KHWAJA AHMAD ABBAS- A GREAT PESONALITY OF INDIAN CINEMA, JOURNALISM & LITERATURE


पुण्यतिथि विशेष

ख्वाजा अहमद अब्बास: सिनेमा, साहित्य व पत्रकारिता की बेमिसाल शख्सियत

अरुण कुमार कैहरबा
हरियाणा की कल्चर को एग्रीकल्चर तक महदूद रखकर देखने वालों की कमी नहीं है। हालांकि एग्रीकल्चर में हरियाणा का अपना मुकाम है, जोकि प्रदेश की संस्कृति को भी समृद्ध करता है। इसके बावजूद हरियाणा को साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ा माना जाता है। इसके कुछ वाजिब कारण भी हैं। पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण प्रदेश के संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों व कलाकारों का अपनी सांस्कृतिक विरासत से अनभिज्ञ होना या जुड़ाव की कमी होना है। पंजाब से अलग होकर 1नवंबर, 1966 में अलग राज्य की पहचान बनाने वाले क्षेत्र में आजादी से पहले और इसके बाद में भी ऐसे नामी-गिरामी संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों व पत्रकारों की कमी नहीं है, जिन्होंने हरियाणा-पंजाब ही नहीं पूरे देश में अपनी एक अलग पहचान बनाई। उन्हीं में से एक हैं लोगों के दिलों पर राज करने वाले पत्रकार, संपादक, साहित्यकार, फिल्मकार, निर्देशक, पटकथा लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास। ख्वाजा अहमद अब्बास उर्दू के मकबूल शायर गालिब के शागिर्द मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली के परिवार से थे। हाली पानीपती के नाम से जाने जाने वाले मौलाना हाली उर्दू शायरी व आलोचना का बड़ा नाम है। उन्होंने पानीपत में लड़कियों का पहला स्कूल खोलने सहित समाज सुधार के अनेक काम किए थे। ख्वाजा अहमद अब्बास के दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ हुए विद्रोह के क्रांतिकारियों में से एक थे। उन्हें अंग्रेजों ने तोप से बांध कर उड़ा दिया था।


ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून, 1914 को पानीपत में गुलाम-उस सिबतैन व मसरूर खातून के घर में हुआ। अब्बास ने सातवीं तक की शिक्षा अपने शहर पानीपत में ही प्राप्त की। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से 1933 में बीए और 1935 में एलएलबी की पढ़ाई पूरी की। यहां पढ़ाई करते हुए उन्होंने अलीगढ़ ओपीनियन पत्रिका शुरू की। विश्वविद्यालय से बाहर आने के बाद उन्होंने बॉम्बे क्रॉनिकल में काम करना शुरू किया। शीघ्र ही वे फिल्म विभाग के संपादक के रूप में पदोन्नत कर दिए गए। हर बुधवार को उनका स्तंभ अंग्रेजी में द लास्ट पेज और उर्दू में आज़ाद कलम के नाम से छपता था। यह हैरान करने वाला है कि यह कॉलम उन्होंने 1987 में अपनी मृत्यु 52 साल तक लिखा, जोकि अपने आप में एक रिकॉर्ड है। बॉम्बे क्रॉनिकल में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म समीक्षाएं लोगों को खूब पसंद आने लगी। ऐसा भी होने लगा कि उनकी समीक्षाओं से फिल्में हिट और फ्लॉप होने लगी तो बॉम्बे टॉकीज के मालिक व मशहूर निर्माता हिमांशु राय ने उन्हें ताना मार दिया कि फिल्म को देखकर उसमें नुक्स निकालना आसान होता है, फिल्म खुद बनाओ तो जानें। इस बात को ख्वाजा अब्बास ने चुनौती की तरह लिया। उन्होंने नया संसार नाम की पहली फिल्म पटकथा लिखी और उसे बॉम्बे टॉकीज को बेच दिया। नया संसार के बाद उन्होंने तीन फिल्मों की पटकथाएं और लिखी। लेकिन जब वे फिल्में बन कर पर्दे पर आई तो अब्बास देखकर दंग रह गए। फिल्मों में कहानी का कुछ हिस्सा छोड़ कर बहुत से बदलाव कर दिए गए थे। उन्होंने निर्देशकों से शिकायत की तो टका-सा जवाब मिला कि पटकथा से इतना ही लगाव है तो खुद फिल्में निर्देशित करें।


ख्वाजा अब्बास का स्वभाव था-चुनौतियों को स्वीकार करना। 1943 में बंगाल में अकाल आया था। उन्होंने अकाल के क्षेत्र में खुद जाकर अनुभव प्राप्त किए। इस पर उन्होंने फिल्म लिखी-धरती के लाल। इसे इप्टा के लिए उन्होंने खुद निर्देशित किया। 1945 में आई इस फिल्म ने आर्ट फिल्मों की राह बनाई। अपनी मर्जी यथार्थपरक सामाजिक फिल्में बनाने के लिए 1951 में उन्होंने नया संसार नाम की खुद की कंपनी बनाई। इस बैनर से उन्होंने 13 फिल्में बनाई। गोवा की आजादी पर बनाई गई फिल्म-सात हिन्दुस्तानी अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म है। चाय बागानों में मजदूरों की स्थितियों पर आधारित फिल्म ‘राही’, बड़े शहरों की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती ‘बम्बई रात की बाहों में’, फुटपाथ पर जिंदगी बिताने वालों की दुर्दशा पर आधारित ‘शहर और सपना’ तथा नक्सल समस्या पर ‘द नक्सलाइट्स ’ जैसी फिल्मों को अब्बास साहब के भारतीय सिनेमा को सामाजिक सरोकारों की दिशा में मोडऩे के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। हालांकि इन बहुत सी फिल्मों को आलोचकों ने डोक्यूमेंट्री फिल्में बताकर नजरंदाज करने की कोशिश की।
DAINIK TRIBUNE 7-6-2020

ख्वाजा अहमद अब्बास ने राज कपूर के लिए सबसे अधिक फिल्में लिखी, जिनमें  आवारा(1951), श्री 420 (1955), जागते रहो(1956), मेरा नाम जोकर(1972) और बॉबी(1973) आदि प्रमुख हैं। उन्होंने 40 के करीब फिल्मों की पटकथाएं लिखी। उन्होंने बच्चों के लिए भी फिल्में बनाई।
अब्बास साहब ने पांच दशकों की अवधि में 73 से अधिक अंग्रेज़ी, हिंदी और उर्दू में पुस्तकें लिखीं। उन्हें आज भी उर्दू साहित्य की एक विलक्षण प्रतिभा माना जाता है। उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब इंकलाब रही है, जो सांप्रदायिक हिंसा के मुद्दे पर चोट करती है। इंकलाब सहित उनकी कई पुस्तकों का अनुवाद कई भारतीय और विदेशी भाषाओं जैसे रूसी, जर्मन, इतालवी, फ्रेंच और अरबी में किया गया है। उनकी आत्मकथा आई एम नॉट एन आयलैंड, एन एक्सपैरीमेंट इन ऑटोबायोग्राफ़ी पहली बार 1977 में प्रकाशित हुई और फिर 2010 में इसे पुन: प्रकाशित किया गया। शहर और सपना, सात हिन्दुस्तानी और दो बूँद पानी के लिए अब्बास साहब को राष्ट्रीय एकता बनी सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए नरगिस दत्त पुरस्कार जीते। नीचा नगर फिल्म अंतरराष्ट्रीय ख्याति जुटाने में कामयाब रही और इसने कान्स फि़ल्म समारोह में पाल्मे डी ओर पुरस्कार जीता। परदेसी (1957) भी इसी पुरस्कार के लिए नामित होने में सफल रही। 1969 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
ख्वाजा अहमद अब्बास भारतीय सिनेमा, साहित्य व पत्रकारिता की सम्मानित शख्सियत हैं। उन्होंने जिस काम में हाथ डाला उसे अपनी प्रतिभा से निखार डाला। उनका बहु आयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व हम सबके लिए प्रेरणादायी है। वे 1जून 1987 को मृत्यु से पहले भी अपनी फिल्म-एक आदमी की डबिंग में लगे हुए थे। उनका काम हम सबके लिए एक बेमिसाल और अनमोल विरासत है।
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