Saturday, May 19, 2018

रपट 'हरियाणा सृजन उत्सव-2018'

उपेक्षित लोगों के दर्द को बयां करते हैं सृजनकर्मी: सुरजीत पातर

तीन दिवसीय सृजन उत्सव में हुई चर्चाएं व प्रदर्शनियां व नाट्य मंचन
हरियाणा सृजन उत्सव के उद्घाटन सत्र में सृजनकर्मियों को संबोधित करते पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार सुरजीत पातर।

अरुण कुमार कैहरबा


पूरे देश में मेले और तीज-त्योहार मनाने की समृद्ध परंपरा है। हरियाणा में तो खास तौर पर हर गांव-शहर में मेले आयोजित होते हैं। मेलों में दंगल जैसे बहादुरी के उत्सव भी होते हैं। लेकिन सृजनशीलता और संवेदनशीलता के अभाव में मेले कर्मकांड में बदलते जा रहे हैं। इन विचारशून्य कर्मकांडों में नई चेतना की कल्पना करना भी बेमानी सा प्रतीत होता है। ऐसे परिदृश्य में साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका देस हरियाणा द्वारा सृजन उत्सवों की शृंखला खड़ी करना सुखद अहसास से भर देता है। देस हरियाणा ने कुरुक्षेत्र स्थित राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय के सभागार में 23, 24 और 25 फरवरी को तीन दिवसीय हरियाणा सृजन उत्सव आयोजित किया। पत्रिका के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र के संयोजन में 2017 के बाद 2018 में यह दूसरा सृजन उत्सव था। वर्ष भर अन्य अनेक विचार गोष्ठियों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और पुस्तक प्रदर्शनियों के आयोजन के साथ-साथ यह बड़ा वार्षिक कार्यक्रम साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, रंगकर्मियों, चित्रकारों, फिल्मकारों व पत्रकारों को मिल-बैठने और विचार-विमर्श का अवसर दे रहा है। सृजन उत्सव में प्रदेश के कलाकारों का मार्गदर्शन करने के लिए देश के प्रबुद्ध साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी पहुंचे और विभिन्न विषयों पर संगोष्ठियां हुई। देस हरियाणा सृजनशाला, जन नाट्य मंच कुरुक्षेत्र, एक्शन थियेटर, अभिनव टोली, जतन नाटक मंच और त्यागी आर्ट ग्रुप द्वारा नाटकों, लोकगीत, रागनी, गजल, कठपुतली की प्रस्तुतियां दी गई। विभिन्न प्रकाशकों व कलाकारों की तरफ से पुस्तक, पेंटिंग व पोस्टर प्रदर्शनियां लगाई गई। 
अध्यापक लहर मई, 2018


सृजन उत्सव की शुरूआत में पोस्टर मेकिंग प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। देस हरियाणा सृजनशाला की तरफ से चमन व उनकी टीम ने कबीर के दोहों व पदों की संगीतमयी प्रस्तुति दी। ‘सुखिया सब संसार है खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै।।’,  ‘कबीर कुंआ एक है और पाणी भरें अनेक।, भांडे में ही भेद है पाणी सबमें एक।।’, ‘तू पढ़-पढ़ के पत्थर भया और लिख-लिख भया जो ईंट।, कहे कबीरा काहे प्रेम की तेरे लगी न कोई छींट।। और ‘मेरा तेरा मनवा एक कैसे होए रे’ आदि के सुरीले गायन ने समां बांध दिया।
उत्सव का उद्घाटन प्रख्यात पंजाबी कवि सुरजीत पातर ने किया। उन्हें सुनने के लिए कुरुक्षेत्र विश्ववविद्यालय सहित आस-पास के अनेक लोग इक_ा हुए।

सुरजीत पातर ने कहा कि लेखक-साहित्यकार समाज की आंख होते हैं। शब्दों के माध्यम से वे समाज के उपेक्षित लोगों के दर्द को बयां करते हैं। गूंगे लोगों की आवाज बनते हैं। कला और साहित्य हर समय में यह काम करते आए हैं।

बुल्लेशाह, कबीर, फरीद, नानक सहित रचनाकारों ने अपने समय की चुप्पी को तोड़ा। उन्होंने कहा कि कला और साहित्य कभी भी खामोश नहीं होते। वे अपने कहने का तरीका बदल सकते हैं। उन्होंने पंजाब के संदर्भ में कहा कि संघर्षों की धरती खुदकुशियों की धरती कैसे बन गई। ऐसे समय में रचनाकारों की अहम भूमिका बनती है। रचनाकार देश व समाज की आत्मा बुनते हैं। आज रचनाकारों और कलाकारों की जिम्मेदारी है कि वे अपने सृजन को जनता के साथ जोड़ें ताकि वह संघर्षों में अपने आप को अकेला महसूस ना करे। पातर साहब द्वारा तरन्नुम में सुनाई गई नज़्म की बानगी देखिए-होंदा सी इत्थे शख्स़ इक सच्चा जाणे किदर गया
इस पत्थरां दे शहर विचू शीशा किदर गया, 
जद दो दिलां नूं जोड़दी एक तार टुट गई,
साजिंदे पुछदे साज नूं नग़मा किदर गया, 
सिक्खां, मुसलमाना ते हिंदुआं दी पीड़ विच 
रब ढूंढदा फिरदा, मेरा बंदा किदर गया।
समारोह में सुरजीत पातर, मदन कश्यप, यशपाल शर्मा व टीआर कुंडू सहित अनेक रचनाकरों ने देस हरियाणा के सोलहवें अंक का विमोचन किया। उद्घाटन सत्र का संचालन देस हरियाणा संपादक मंडल के सदस्य अविनाश सैनी ने किया। 



शाम को राष्ट्रीय कवि सम्मेलन आयोजित किया गया। सम्मेलन में मदन कश्यप, ज्ञान प्रकाश विवेक, दिनेश दधीची, हरभगवान चावला, जयपाल, मंगतराम शास्त्री, मनोज छाबड़ा, दिनेश हरमन, सुशीला बहबलपुर, अल्पना सुहासिनी और दामिनी यादव सहित अनेक कवियों और कवयित्रियों ने अपनी रचनाएं पेश की। कवि सम्मेलन का संयोजन वरिष्ठ कवि ओम प्रकाश करूणेश ने किया। इस मौके पर करूणेश जी के काव्य-संग्रह ‘बुत गूंगे नहीं होते’ का विमोचन किया गया। पंजाबी के कवि एवं कलाकार निंदर घुगियाणवी ने अपने एकतारा के साथ अपनी रचनाएं पेश की। सांस्कृतिक संध्या में जन नाट्य मंच कुरुक्षेत्र ने विभाजन की पृष्ठभूमि पर रजिया की डायरी नाटक का मंचन करके भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के साथ-साथ देश की मौजूदा परिस्थितियों को भी दर्शाने की सफल कोशिश की गई।
सृजन उत्सव के दूसरे दिन ‘हरियाणा की संस्कृति के विविध रंग’ विषय पर परिसंवाद में मेवात के संस्कृतिकर्मी एवं साहित्यकार सिद्दिक अहमद मेव ने मेवात के इतिहास और संस्कृति पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि मेवात विकसित हरियाणा का पिछड़ा क्षेत्र है। मेवात का यह पिछड़ापन आर्थिक है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से मेवात बहुत समृद्ध है। मेवात का इतिहास इतना गौरवशाली है कि किसी को यदि वतनपरस्ती का सर्टीफिकेट लेना है तो वह मेवात में आ जाए। उन्होंने चिंता जताई कि मेवात की लोकसंस्कृति का डोक्यूमेंटेशन नहीं हुआ है। मेव मेवा है और यदि बिगड़ जाए तो जान लेवा है। मेवात गंगा-जमुनी संस्कृति का क्षेत्र है। मेवात जाति-धर्म की संकीर्णताओं से सदा दूर रहा है। उन्होंने कहा कि कभी ब्रज मेवात का हिस्सा था। मेवाती शायरों ने जो लिखा है, उसे पढ़ कर यहां की संस्कृति को जाना जा सकता है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एवं कवि प्रदीप कासनी ने कहा कि हरियाणा विविधताओं का संगम है। यहां खादर, बांगर, बागड़, अहीरवाल और मेवात है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब से सटे क्षेत्रों में व्यापक विविधता है। उन्होंने कहा कि इस विविधता का आनंद लेने की जरूरत है। परिसंवाद का संयोजन देस हरियाणा पत्रिका के संपादक मंडल के सदस्य अरुण कैहरबा ने किया। 
एक अन्य सत्र में थियेटर ऑफ रेलिवेंस के जनक मंजुल भारद्वाज ने अपने 25वर्ष के अनुभवों पर चर्चा करते हुए कहा कि कलाकार विद्रोही होता है, लेकिन आज कलाकार को गुलाम बनाने की साजिशें हो रही हैं। उन्होंने कहा कि जनता के लिए थियेटर करने वाले कभी भूखे नहीं मरते। मंजुल भारद्वाज हरियाणा के झज्झर जिला के एक गांव से संबंध रखते हैं और पिछले कईं सालों से मुंबई में संघर्ष करते हुए रंगकर्म को नए आयाम दे रहे हैं। उनसे रंगकर्म के अध्यापक दुष्यंत कुमार ने बातचीत की।
अगले सत्र में ‘सृजन की चुनौतियां: किया क्या जाए’ विषय पर परिसंवाद में स्वराज आंदोलन के संयोजक योगेन्द्र यादव व सामाजिक चिंतक टीआर कुंडू ने बातचीत की। योगेन्द्र यादव ने अपने संबोधन में कहा कि सृजन, सांस्कृतिक कर्म व्यापक सामाजिक संदर्भ में होता है। वह व्यापक सामाजिक संदर्भ जिसका धरातल राजनीति तय करती है। आज इस देश में वह संदर्भ बहुत भयावह है। आज किसी एक पक्ष की चुनौति नहीं है। उन्होंने कहा कि आज भारत का सपना, जिसे मैं देश धर्म कहता हूं, खतरे में हैं। जिस जमीन पर खड़े होकर हम बात कर रहे हैं, उस पर खतरा है। यह खतरा किसी एक सरकार या पार्टी का नहीं है। यह व्यापक खतरा है। उन्होंने इटली के माक्र्सवादी चिंतक ऐंटोनियो ग्राम्शी का उदाहरण देते हुए कहा कि ग्राम्शी कहा करते थे कि पूंजीवादी सत्ता की ताकत सिर्फ डंडे या राजसत्ता से नहीं है, उसकी ताकत वैधता से है। पूंजीवाद दो तरीकों से राज करता है। पूंजीवाद डंडा भी चलाता है लेकिन वह संस्कृति के जरिये शोषित के शोषण को वैध ठहराने की कोशिश करता है। इसको ग्राम्शी हैजमनी कहते थे। शोषक शोषण बल से ही नहीं करता, उसके दिलो-दिमाग पर भी राज करता है। आज भारत के स्वधर्म पर जो खतरा है, वह है कि जनमानस को अपने पक्ष में किया जा रहा है। जनमानस में जहर घोलने का काम किया जा रहा है। ऐसे परिदृश्य में हमें अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाने होंगे और अभिव्यक्ति के नए तरीके भी निकालने होंगे। उन्होंने कहा कि यदि हम धर्मनिरपेक्ष हैं तो भी हमें धर्म को साम्प्रदायिक ताकतों के ही हाथों की कठपुतली नहीं बनने देना चाहिए। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्ष, लिबरल और वाम ताकतों को आत्मालोचना की जरूरत है। उन्होंने कहा कि आज गुंडई का नंगा नाच हो रहा है और सारा समाज टुकर-टुकर देख रहा है। जो लोग नफरत फैलाने का काम कर रहे हैं, वे 90वर्ष तक निरंतर जनता के बीच में जाकर काम कर रहे हैं। हमने राष्ट्रवाद की समृद्ध विरासत से परहेज किया और राष्ट्रवाद को भी साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों का खिलौना बनने दिया। योगेन्द्र यादव ने जनता के बीच में जाकर काम करने की जरूरत बताई। परिसंवाद का संयोजन देस हरियाणा के सलाहकार सुरेन्द्रपाल सिंह ने की।
दोपहर बाद के सत्र में ‘हरियाणा के दर्शकों की अभिरूचियां’ विषय पर परिचर्चा में फिल्म डिवीजऩ के पूर्व डायरेक्टर वी.एस कुंडू ने कहा कि हमारी ऑडियंस परिपक्व और प्रशिक्षित नहीं है। ज्यादातर ऑडियंस मनोरंजन को प्राथमिकता देने वाली है। हरियाणवी समाज में कल्चर्ड ऑडियंस तैयार करने की कोशिशें नहीं की गई। आज अच्छी ऑडियंस तैयार करने की ज़रूरत है। ‘हरियाणा के दर्शक की अभिरूचि क्या है’ इसकी चिंता करने की बजाय उसकी अभिरुचि को अच्छा साहित्य पढऩे व अच्छा सिनेमा देखने की तरफ मोडऩा होगा। अच्छे कंटेंट की लाइब्रेरी बनाकर दर्शकों में अच्छी क्वालिटी के कंटेंट तलाशने की इच्छा पैदा होगी। हरियाणा में सिनेमा स्क्रीन 65 हैं जोकि परकैपिटा के हिसाब से बहुत ही कम हैं। संसाधनहीन ऑडियंस के लिए सस्ता सिनेमा दिखाने के मौके तलाश किये जाने चाहिए।   
रंगकर्मी व बॉलीवुड अभिनेता यशपाल शर्मा ने कहा कि हरियाणा की ऑडियंस को अपनी छवि को बेहतर बनाने की ज़रूरत है। हरियाणा के लोगों में ज़ज्बा है। यहां के खिलाड़ी, फ़ौजी, पहलवान, किसान बेमिसाल हैं तो ऑडियंस भी बेमिसाल हो सकती हंै। अच्छे दर्शक अच्छी चीज़ें देखने से बनते हैं। लोगों को चाहिए कि वे अच्छी किताबें पढ़ें, अच्छा सिनेमा देखें, अच्छे कार्यक्रमों में जायें और अपनी छवि को बदलने का प्रयास करें। इस परिचर्चा का संयोजन प्रो. रमणीक मोहन ने किया।
‘दलित जब लिखता है’ विषय पर परिसंवाद में प्रसिद्ध दलित कवि मलखान सिंह व रत्नकुमार सांभरिया ने अपने विचार रखे। संयोजन जय सिंह ने किया। सृजन की राह में लघु कथा विषय पर परिसंवाद का संयोजन राधेश्याम भारतीय ने किया। परिसंवाद में राम कुमार आत्रेय, कमलेश भारतीय, अशोक भाटिया, विरेन्द्र भाटिया, कमलेश चौधरी, डॉ. अशोक वैरागी, सतविन्द्र राणा और कुणाल शर्मा ने हिस्सा लिया। 
‘साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं: सरोकार एवं प्रसार’ विषय पर आयोजित परिसंवाद में अहा जिंदगी के पूर्व संपादक आलोक श्रीवास्तव, बनासजन पत्रिका के संपादक पल्लव, हंस पत्रिका से जुड़े विभास वर्मा एवं युवा संवाद पत्रिका के संपादक डॉ. ए.के. अरुण ने साहित्यिक पत्रकारिता के परिदृश्य और प्रसार की चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की। संवाद का संचालन देस हरियाणा से जुड़े डॉ. कृष्ण कुमार ने की। युवा संवाद के संपादक डॉ. ए.के. अरुण ने कहा कि सरोकारी एवं लघु पत्रिकाओं के पास संसाधनों की कमी है। पाठक इन पत्रिकाओं से जुडऩा चाहता है। पत्रिकाओं के पास पाठकों तक पहुंचने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है। जब अंधेरा गहरा रहा हो, जब स्थितियां विकट हों और जब विमर्श पर ताला लगाया जा रहा हो, ऐसे समय में लघु पत्रिकाओं की और ज्यादा जरूरत है। पाठकों के भरोसे 15वर्षों से लगातार युवा संवाद पत्रिका को प्रकाशित किया जा रहा है। विभास वर्मा ने कहा कि पारम्परिक पाठक वैज्ञानिक व प्रगतिशील साहित्य की ओर नहीं जा रहा है। उसका रुझान विवादित व अश्लील साहित्य की ओर हो रहा है। पाठकीयता हमेशा कम रही है और गंभीर चीज़ों की ओर रुझान बहुत कम है। इसकी 2-3 वजह हैं। एक तो प्रिंट साहित्य पर इलेक्ट्रोनिक(रेडियो,टीवी) का हमला हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि छिटपुट कहानियों के सीरियल बनने लग गए और पत्र-पत्रिकाओं के विमर्श की जगह टीवी सीरियल और न्यूज़ कार्यक्रमों ने ले ली। समय के दबाव में चीज़ों को इत्मीनान से बैठकर देखने-सुनने की बजाय चलते-फिरते देखना पड़ता है जिसके कारण दिमाग़ चीज़ों को गंभीरता से नहीं पकड़ता जबकि पढऩे से दिमाग़ चीज़ों को अच्छी तरह समझता है। सोशल मीडिया के दुरुपयोग ने भी मुद्रित माध्यमों से पाठकों का ध्यान हटाया है। हालाँकि ई-पत्रिका के प्लेटफार्म से पाठकों की पहुंच साहित्य तक बनी है। किसी रचना को पन्ने पर पढ़ें या स्क्रीन पर उसकी महत्ता कम नहीं होती। छवियों से ज्यादा शब्द की सार्थकता अधिक है। इसलिए शब्दों को बचाना ज़रूरी है। पत्रिका निकालने वालों को यह समझना ज़रूरी है कि उसका पाठक कौन है?, कैसा है? और उसकी समझ कितनी है ? पत्रिकाओं की प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए वितरण तंत्र पर काम करने की ज़रूरत है। लघु पत्रिकाएं जन सहयोग में विकसित हुई हैं। 
आलोक श्रीवास्तव ने कहा कि पिछले 30 बरस का समाज भूमंडलीकरण की सतत प्रक्रिया का समाज है। संचार, कंप्यूटर और साइबर क्रांति के कारण प्रिंट, टेलीविजऩ और न्यू मीडिया डिजिटल रूप में हमारे सामने आए हैं। बड़े मीडिया घरानों ने पत्रिकाओं को समेट दिया है जिसकी वजह बताई जा रही है कि इनके पाठक कम हो गये हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। 
‘बनास जन’ के सम्पादक पल्लव ने कहा कि छह साल पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में केन्द्रीय पुस्तकालय के बगल में एक छोटी सी दुकान होती थी वहाँ पर सभी लघु पत्रिकाएं मिल जाती थी। लेकिन बाद में वह भी बंद हो गई। लघु पत्रिकाओं को बचाने के लिए हमें सबसे पहला काम यह करना चाहिए कि हम ख़ुद उस पत्रिका की सदस्यता लें और अपने साथियों को भी सदस्यता लेने के लिए कहें। आज के इन्टरनेट और डिजिटल तकनीक के दौर में लघु पत्रिकाओं तक हमारी पहुंच आसन हो गई है तो हम पत्रिकाओं की सॉफ्ट कॉपी को सोशल मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा शेयर करें क्योंकि एक हज़ार सॉफ्ट कॉपियों को एक लाख लोग पढ़ सकते हैं। 
‘स्त्री सृजन के संकल्प, सरोकार व उपलब्धियां’ विषय पर आयोजित परिसंवाद में लेखिका विपिन चैधरी, हरियाणा के लोकगीतों व लोक कलाओं पर शोध कर रही अनुराधा, अध्यापिका गीता पाल, सामाजिक कार्यकर्ता कमला व मोनिका भारद्वाज  ने अपने विचार व्यक्त किए। नीलाभ श्रीवास्तव ने किताबों और पत्रिकाओं के ऑनलाईन करने की जरूरत पर बल दिया और अपनी नोटनल परियोजना के बारे में विस्तार से जानकारी दी। 
समापन समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर राज्यसभा चैनल के पूर्व संपादक, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक उर्मिलेश ने शिरकत की। उर्मिलेश ने अपने सम्बोधन में कहा कि भारत के राष्ट्र राज्य की बुनियादी समस्या राजनैतिक समस्या नहीं है।  जिन आधारों पर भारत की राजनैतिक सत्ता व संरचना खड़ी है, उसमें कोई बड़ा खोट नहीं है। दुनिया के बेहतरीन संविधानों में एक भारत का संविधान है। दुनिया के प्रौढ़ लोकतंत्रों के पास भी इतना खूबसूरत संविधान नहीं है, जितना हमारे पास है। दुनिया में जितने भी लोकतांत्रिक राज्य हैं, उनमें भारत की तरह इतने कानून नहीं हैं। संविधान के द्वारा देश में लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना की गई है। लोकतंत्र में ढ़ांचागत तो कोई कमजोरी नहीं है। लेकिन लोकतंत्र की मूलभावना से अभी देश कोसों दूर है। उन्होंने स्विटजरलैंड व उरूग्वे देश के उदाहरण देकर समझाया कि किस तरह से इन छोटे से देशों में जन भावना के विपरीत सरकार द्वारा कार्य किए जाने पर वहां के लोगों ने सामूहिक विरोध किया और सरकार को अपने फैसले वापिस लेने पड़े। लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं है। उन्होंने एसईजेड का उदाहरण देते हुए बताया कि हमारे देश की संसद में बिना बहस के ही कईं कानून भी पारित हो जाते हैं। कानून बनाने से पहले सरकारें रायशुमारी करवाने की कोशिश नहीं करती, जबकि आधार कार्ड जैसे मुद्दे देश की बड़ी जनसंख्या को प्रभावित करते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि यूआईडी का कानून संसद की अनुमति के बिना ही बना दिया गया। बहुत बाद में इस पर संसदीय मंजूरी ली गई। उन्होंने कहा कि देश में तानाशाही व फासीवादी तत्वों का बुनियादी कारण राजनीतिक संरचना में नहीं है। संविधान को देश की जनता को सुपुर्द करते हुए प्रारूप कमेटी के चेयरमैन डॉ. भीमराव अंबेडकर  ने कहा था- 
‘26जनवरी, 1950 को हम अन्तर्विरोधों के जीवन में दाखिल होने जा रहे हैं। राजनीति के स्तर पर तो हमारे  यहां समानता होगी, लेकिन सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में एक व्यक्ति एक वोट का सिद्धांत लागू रहेगा, परंतु सामाजिक जीवन में इसे खारिज किया जाता रहेगा। हमें अपने समाज के इन अन्तर्विरोधों को जल्दी से जल्दी खत्म करना होगा, वरना असमानता के शिकार लोग हमारी इस संचरना को ध्वस्त करने में जुटेंगे।’ 
उर्मिलेश ने तकलीफ के साथ कहा कि अंबेडकर का यह सपना अभी पूरा नहीं हुआ। जनता ने ऐसी अन्याय पर टिकी सामाजिक संरचना को ध्वस्त करने की कोशिश तेज अभी तक नहीं की है। क्योंकि रूलिंग इलीट ने बाबा साहब की चेतावनी का पालन नहीं किया। उन्होंने कहा कि हमारा शासन ना तो पारदर्शी है और ना जवाबदेह है। हमारे देश का शासन अदृश्य शक्तियां चला रही हैं और प्रशासनिक व राजनीतिक लोग उनके कारकूनों की तरह काम कर रहे हैं और निजीकरण के पक्ष में एक विमर्श खड़ा किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सत्ता के जनविरोधी फैसलों को रोकने के लिए जनता को खड़ा होना पड़ेगा। जब हम प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों की विदेश यात्राओं, गाडिय़ों, घोड़ों, भोजों पर पैसा खर्च कर सकते हैं तो रायशुमारी पर हम पैसा खर्च क्यों नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि भागीदारी पूर्ण लोकतंत्र के लिए पारदर्शिता जरूरी है। हमारा लोकतंत्र जनभागीदारी वाला नहीं है। हमारा लोकतंत्र तानाशाही से भी गया गुजरा है। उन्होंने कहा कि नोटबंदी का फैसला कैबिनेट ने भी नहीं किया था। क्या संसदीय लोकतंत्र में ऐसा होना चाहिए। संविधान के अनुसार कैबिनेट जवाबदेह होती है और प्रधानमंत्री भी कैबिनेट का एक भाग है। अत: राजनैतिक संरचना हमारे यहां उतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी बड़ी समस्या है उसका मकैनिज्म और विधि। हमारी सबसे बड़ी सामाजिक व आर्थिक है। उर्मिलेश ने सवाल उठाते हुए कहा कि भारत और नेपाल को छोड़ कर कौन सा ऐसा मुल्क है, जहां इस तरह की जातीय व्यवस्था है। नफरत, हिकारत, सम्मान दबदबा सारा कुछ वर्ण व्यवस्था पर निर्भर है। उन्होंने कहा कि आज अज्ञान के आनंद लोक का दिल्ली पर कब्जा है। अंबेडकर बार-बार कहते रहे कि जाति राष्ट्र विरोधी है। उन्होंने दुख व्यक्त किया कि अंबेडकर के जीते जी देश के वामपंथी और उदारवादी लोगों ने उनकी रचनाओं को नहीं पढ़ा। अंबेडकर के मूक नायक को नहीं पढ़ाया गया। दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों से पढ़े डॉ. अंबेडकर को अपनी बात कहने के लिए पांच लघु पत्रिकाएं निकालनी पड़ी। उनके जीते जी मीडिया ने कभी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। 1978 तक हिन्दी क्षेत्र में अंबेडकर की किताबों को नहीं देखा गया। उन्होंने कहा कि कांशी राम के हिन्दी क्षेत्र की राजनीति में सक्रियता के बाद अंबेडकर से परिचय बढ़ा। यही हाल भगत सिंह के साथ हुआ। जगमोहन और चमन लाल के लिखने से पहले भगत सिंह को उन्हें बहुत कम जाना गया। आज देश को डॉ. भीम राव अंबेडकर व शहीद भगत सिंह जैसे विचारकों के विचारों और संघर्षों को जानने और आत्मसात करने की जरूरत हैं। उन्होंने कहा कि भारत के वामपंथी आंदोलन को अंबेडकर और भगत सिंह की विचारधारा का एक मिलाजुला मॉडल खड़ा करना चाहिए। इसके बगैर भारत में बदलाव की संस्कृति व राजनीति का कोई और दूसरा मॉडल नहीं है। उन्होंने कहा कि भगत सिंह और अंबेडकर को फूल चढ़ाने की जरूरत नहीं है। इनके दार्शनिक चिंतन को समझने की जरूरत है। 
उर्मिलेश ने कहा कि एक वर्ष में अर्जित संपदा में भारत के एक प्रतिशत का 73 फीसदी हिस्सा है। 1991 में दस प्रतिशत के पास 52फीसदी और 1952 में दस प्रतिशत के पास 92फीसदी संपदा थी। उन्होंने सवाल उठाया कि सरकार द्वारा लागू किए जा रहे आर्थिक सुधार आर्थिक सुधार नहीं आर्थिक विध्वंस हैं। उन्होंने कहा कि आज बहुत से समाचार-पत्र इन आर्थिक सुधारों और निजीकरण की पक्षधरता करते हैं। उन समाचार-पत्रों से को पढऩे से यथार्थ समझ नहीं आएगा। दुनिया का महान अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने कहा कि 1922 में पहली बार इंकम टैक्स कानून अंग्रेजी सरकार ने भारत में लागू किया। उस समय से इस समय बहुत अधिक आर्थिक असमानता है। इस मामले में हम 180मुल्कों में 135वें नंबर पर हैं। उन्होंने कहा कि असमानता का जब इंडेक्स जारी हुआ था तो भजन मंडलियां लेकर बैठे टेलीविजन चैनलों ने इस पर बहस करवाने की जरूरत भी नहीं समझी। 
समापन समारोह में अतिथियों व सृजनकर्मियों का आभार व्यक्त करते सृजन उत्सव के संयोजक एवं देस हरियाणा पत्रिका के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र ने फरवरी-2019 में भी हरियाणा सृजन उत्सव आयोजित करने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि सृजनकर्मियों को आज ज्यादा संवाद और एकता  की जरूरत है। देस हरियाणा पत्रिका और सृजन उत्सव यही कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि कन्या भ्रूण हत्या, खाप पंचायतों के तानाशाही फैसले, ऑनर कीलिंग व जातीय हिंसा के लिए हरियाणा जाता है। हरियाणा कला, साहित्य, सृजनशीलता व हरियाणा सृजन उत्सवों के लिए जाना जाए, ऐसी कोशिशें मिलकर करनी होंगी। 
मो.नं.-9466220145  

No comments:

Post a Comment