Tuesday, August 11, 2020

समतापूर्ण विकास के लिए बदलाव के अगुवा बनें युवा / Youth should lead the change for equitable development

 अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष


पिछलग्गू व अंधभक्त बनने की बजाय नेतृत्व संभालें

अरुण कुमार कैहरबा

क्या करें युवा
-स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी, अंबेडकर व भगत सिंह के चिंतन की सांझी जमीन पहचानें।
-हिंसा, अश्लीलता, अपराध व दिखावे से बचें।
-व्हाट्सअप व सोशल मीडिया के शिकार ना हों।
-अच्छी किताबों को दोस्त और शिक्षा को हथियार बनाएं।
DAINIK JAGMARG
युवा किसी भी देश व समाज की सबसे बड़ी शक्ति है। यही वह समय है जब व्यक्ति ऊर्जा, प्रेरणा व लगन से लबरेज होता है। वह अपनी संवेदनशीलता व तकनीकी कुशलता के साथ सबसे ज्यादा कार्य कर सकता है। हालांकि वह अपने आप में ही सब कुछ नहीं कर सकता। युवाओं को शिक्षित, कार्य कुशल, जिम्मेदार, रोजगारशुदा व सामाजिक सरोकारों से सम्पन्न बनाने में सरकारों व समाज की निर्णायक भूमिका है। यह भी सच है कि आज युवाओं को नेतृत्व देने की बजाय उन्हें पिछलग्गू व अंधभक्त बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। आज युवाओं के सामने सही शिक्षा, तार्किकता और विवेक के ज़रिये अपनी सामाजिक भूमिका निर्धारित करने की चुनौती है। वहीं देश व समाज के लिए भी ज़रूरी है कि वे युवाओं की ऊर्जा, रचनात्मकता और कल्पनाशीलता को सही दिशा व मंच प्रदान करें ताकि वे देश व समाज के विकास में अपना सक्रिय योगदान कर सकें। युवाओं की दशा और दिशा को समझने के लिए राष्ट्रीय राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के संदर्भ में उनके विचारों, इच्छाओं, आकांक्षाओं, सपनों और आदर्शों को गहराई से समझना होगा।
हमारे समाज की जटिलतापूर्ण सरंचना के संदर्भ में सबसे पहले तो यह जानना महत्वपूर्ण है कि युवा कौन है? आमतौर पर किशोरावस्था के बाद 18 साल से लेकर 45-50 साल तक की अवस्था को युवावस्था कहा जाता है। लैंगिक भेदभाव के चलते हमारे देश के विभिन्न राज्यों में प्राय: लडक़ों व पुरूषों को तो युवा कहा जाता है और लड़कियों व महिलाओं को छोड़ दिया जाता है। इसी तरह से दलित, वंचित, अल्पसंख्यक, आदिवासी जातियों व समुदायों की इस उम्र की सारी आबादी कुल आबादी का बड़ा हिस्सा है। लेकिन कितने ही युवाओं को पढऩे, आगे बढऩे, रोजगार व गरिमापूर्ण जीवन जीने के अवसर नहीं मिल पाते हैं। बाल-विवाह, नशा, अपराध व अश£ीलता के जाल में फंस कर कितने ही लोगों का जीवन नर्क में तब्दील हो जाता है।
विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भी संकीर्णताओं, कुरीतियों व जातीयता का महिमामंडन करने में लगे हुए हैं। उनके द्वारा समाज में समय-समय पर नवजागरण की अलख जगाने और आज़ादी की लड़ाई में प्राणों की आहुति देने वाली शख्सियतों को भी जाति व सम्प्रदाय से जोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। कईं बार वे समाज के कमजोर वर्गों-दलितों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों-को दुत्कारते हुए पाए जाते हैं। युवा संकीर्णताओं और उन्हें पोषित करने वालों को तभी पहचान पाएँगे, जब वे संविधान की प्रस्तावना में ही दिए गए धर्मनिरपेक्षता, समानता, न्याय व समाजवाद आदि राष्ट्रीय मूल्यों को अपनी तार्किकता के साथ समझेंगे। इन मूल्यों के विकास में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि है। स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसावादी आंदोलन, भगत सिंह, अशफाक उल्ला खान, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, यतीन्द्रनाथ दास, सुभाष चंद्र बोस व शहीद उधम सिंह आदि अनेकानेक युवाओं की अगुवाई में क्रांतिकारी आंदोलन और डॉ. भीम राव अम्बेडकर द्वारा छूआछूत जैसी अमानवीय बुराईयों के विरूद्ध सामाजिक न्याय की मांग वाली तीन महत्वपूर्ण धाराएं हैं। आम लोगों में अज्ञानता के कारण इन धाराओं के प्रति जहां अनेक प्रकार की भ्रांतियां हैं, वहीं कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा इन धाराओं व इनके अगुवाओं को एक-दूसरे का दुश्मन करार देकर प्रचारित किया जाता है। इन सभी धाराओं का समग्र मूल्यांकन करने करने के साथ-साथ गांधी, अंबेडकर व भगत सिंह के वैचारिक मतभेदों ही  नहीं इनके चिंतन की सांझी जमीन को भी पहचानने की जरूरत है।  यह दायित्व शिक्षित युवाओं पर है कि वे स्तरीय किताबों का अध्ययन करके अपनी राय बनाएं। लोगों की सुनी सुनाई व प्रचारित बातों और समाज विरोधी शक्तियों द्वारा प्रकाशित की जाने वाली किताबों को पढ़ कर नहीं। आज व्हाट्सअप व सोशल मीडिया राय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसकी बजाय पढऩे-पढ़ाने की संस्कृति के विकास द्वारा बेहतर समझदारी का विकास हो सकता है ताकि एक संवेदनशील समाज बनाया जा सके। अच्छे साहित्य को पढऩे और इस पर चर्चा करने के रचनात्मक काम में युवा अगुवा का काम कर सकते हैं।
विवेकानंद ने कहा था कि-‘‘मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन जापान में आना चाहिए। .....सठियाई बुद्धिवालो तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जाएगी। अपनी खोपड़ी में वर्षों के अंधविश्वास का वृद्धिगत कूड़ा-कर्कट भरे बैठे, सैंकड़ों वर्षों से आहार की छूआछूत के विवाद में अपनी सारी शक्ति नष्ट करने वाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी मानवता का गला घोंटने वाले, भला बताओ तो सही तुम कौन हो?..... आओ मनुष्य बनो। उन पाखंडी पुरोहितों को जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मार कर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा। उनकी उत्पत्ति तो सैंकड़ों वर्षों के अंधविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। कूपमंडूकता छोड़ो और बाहर दृष्टि डालो।’’ कूपमंडूकता का आज भी बोलबाला है। अंधविश्वास आज चरम पर हैं। अफवाहों का बाजार गर्म है और तकनीकी साधनों का प्रयोग भी अंधविश्वास फैलाने के लिए किया जा रहा है। मनोरंजक फिल्मों व सिरियलों में घोल-घोल कर हमें दिन-रात संकीर्णताएं पिलाई जा रही हैं। टेलिविज़न पर प्रस्तुत होने वाले अधिकतर कार्यक्रमों में उच्च वर्ग के रीति-रिवाजों और बुराईयों की महिमा गाई जाती है। आलीशान शादियां और दहेज का विरोध करने की बजाय इन्हें युवाओं का आदर्श बताया जा रहा है। बाज़ार द्वारा परोसा जा रहा नशा, हिंसा और अश£ीलता का पैकेज बच्चों के बचपन और युवाओं के यौवन को लील रहा है। महिलाओं को उपभोग की वस्तु के तौर पर पेश किया जा रहा है। वहीं बिना किसी बात के फिल्मों व नाटकों का हिंसक विरोध करने वालों की भी कमी नहीं है।
ऐसे वातावरण में शिक्षा की हस्तक्षेपकारी भूमिका होनी चाहिए। शिक्षा के बारे में विवेकानंद ने कहा था-‘हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।’ लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारी शिक्षा प्रमाण-पत्र, डिग्रियां व डिप्लोमे अधिक बांट रही है। वह पैरों पर खड़ा होने, आत्मनिर्भता व स्वावलंबन का पाठ नहीं पढ़ा रही। गाँधी जी ने कहा था कि हमें समाज के सबसे कमजोर लोगों को दृष्टि में रखकर काम करना चाहिए। लेकिन सारहीन शिक्षा हमें स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित बना रही है। व्यवसायिक दबावों और अन्य अनेक तनावों के कारण युवा सफलता के शोर्टकट ढूंढ़ते हैं। ऐसे में कईं बार वे राह भूल जाते हैं। पथभ्रष्टता की इस स्थिति में बड़ों का अनुभवी मार्गदर्शन उन्हें मिलना चाहिए। युवाओं और बड़ी उम्र के लोगों के बीच में विश्वास और संवाद की स्थिति बनाए रखने के लिए दोनों तरफ से प्रयास होना चाहिए। एक दूसरे पर आरोप लगाते रहना ठीक नहीं है। एक दूसरे की स्थिति के प्रति संवेदनशीलता से सोचना और समझना होगा।
JAGAT KRANTI 12-8-20
JAGAT KRANTI
जटिलताओं और विसंगतियों वाले सामाजिक परिदृश्य में युवाओं की ऊर्जा का देशहित में रचनात्मक प्रयोग करने के लिए सरकार को भी उपाय करने चाहिए। नई शिक्षा नीति में उचित ही छह से 14 साल से बढ़ाकर 3 साल से लेकर 18 साल की शिक्षा को मुफ्त शिक्षा के दायरे में लाने की बात की गई है। लेकिन निजीकरण को छोड़ कर इस पर अमल करने का लोग इंतजार कर रहे हैं। अमीरों और गरीबों के लिए अलग-अलग प्रकार के स्कूलों की व्यवस्था इस सब पर पलीता लगा रही है। बराबरी का भाव जगाने वाली समान शिक्षा की जरूरत है। रूचि अनुसार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ-साथ युवाओं को रोजगार के अधिक अवसर प्रदान किए जाने चाहिएं। रोजगार प्रदान करने में योग्यता को तरजीह देनी चाहिए। सरकारी नौकरियों की बंदरबांट पर भी रोक लगानी चाहिए। कोरोना महामारी के संदर्भ में इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस के लिए ‘वैश्विक कार्रवाई में युवाओं के लगने’ को विषय बनाया है। कोरोना महामारी व जलवायु परिवर्तन की चुनौति से जूझने में निश्चय ही युवाओं की केन्द्रीय भूमिका है। व्यवस्थागत कमजोरियों की आलोचना करके परिवर्तन लाने में युवाओं की जि़म्मेदारी सबसे अहम है। भगत सिंह के शब्दों में कहें तो उसे ही इन्कलाब की धार विचारों की सान पर तेज करनी है। विवेकानंद के उन विचारों को ध्यान में रखना होगा-‘उठो, जागो और तब तक नहीं रूको, जब तक मंजि़ल ना मिल जाए।’
PURAVANCHAL PRAHRI

DAILY NEWS ACTIVIST

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