Saturday, August 29, 2020

बाजार का खेल

 व्यंग्य

खेल का बाजार और बाजार का खेल!

अरुण कुमार कैहरबा
DESHBANDHU 30-8-2020

HARIBHOOMI 31-8-2020

हर खेल के अपने नियम होते हैं। हर खेल का अपना अनुशासन होता है। खेल भावना के बिना खेल का कोई मतलब नहीं होता है। नियमों से खेल की भावना तय होती है। नियम ताकतवर के द्वारा और ताकतवर के लिए ही तय किए जाते हैं। आज चैनलों पर खेल देखते हुए दर्शकों को भी नहीं पता होता कि खिलाडिय़ों के जिस करतब को देखकर तुम खुशी से फूले नहीं समा रहे या फिर दुखी हो रहे हो, यह सब कुछ ना तो खिलाडिय़ों ने तय किया है और ना ही टीमों ने। यह सब एक अजीब किस्म की सत्ता ने तय किया है। उस बाजार की सत्ता ने यह भी तय किया है कि चाहे जीत किसी भी पलड़े में झुक जाए, उसकी जीत व फायदा होना तय है। दोनों टीमों व खिलाडिय़ों के समर्थक दर्शकों की सारी तालियां व गालियां और खुशियां व आंसू सभी उस सत्ता की पूंजी व ताकत में इजाफा करते हैं। इस सत्ता का पैर दुनिया के बड़े-बड़े देशों की सरकारों के ऊपर से लांघ रहा है और सरकारें खुश ही नहीं हो रही, कदमबोसी के लिए आतुर भी हैं।
बाजार की बड़ी-बड़ी कंपनियां उनके देश में आएं और खेल दिखाएं, इसके लिए सरकारें पलक-पांवड़े बिछाए बैठी हैं। इस बाजार की सभी खेलों पर कृपा दृष्टि नहीं होती। बाजार ने कुछ खेलों को हाशिए पर डाल दिया है और कुछ खेलों को आसमां की ऊंचाई बख्श दी है। खिलाड़ी कौन सा खेल खेलता है और उस खेल पर बाजार की कितनी कृपा दृष्टि होती है। इससे भी खिलाड़ी की ख्याति निर्धारित होती है। देश भी उन्हीं खिलाडिय़ों को अधिक तवज्जो देते हैं, जिन्हें बाजार अधिक अहमियत देता है। कुल मिलाकर बाजार आज बड़ी ताकत है, जोकि खेलों को अधिकृत, अधिनियमित और जनता को अर्पित करता है। कुछ खिलाड़ी खेलते और जीतते मर जाते हैं, कभी खेल चैनलों और न्यूज चैनलों पर उनकी शक्ल भी दिखाई नहीं देती है। कितने ही खिलाडिय़ों के आगे-पीछे कैमरे दौड़ते फिरते हैं।


JAGMARG 30-8-2020

यह बाजार खेलों में ही खेल नहीं दिखाता। बाजार के खेल के अनेक क्षेत्र हैं। काम-धंधे के नाम पर बाजार पैर पसारता है। इस्ट-इंडिया कंपनी की तरह फिर बाजार हर क्षेत्र का सिरमौर बन जाता है। अपना काम करने के लिए जिनसे वह इजाजत मांगता है, फिर उन्हें ही बाजार से इजाजत लेनी पड़ती है। बाजार पहले चापलूसी करता है और फिर एक निरंकुश हुक्मरान की भांति व्यवहार करने लगता है। प्राचीन काल से आधुनिक काल में बाजार के कारोबार और व्यवहार में बहुत अंतर आया है। आधुनिक काल की राजनीति में भी इसके खेल का जादू सर चढ़ कर बोलता है। चुनावों में जीत-हार बाजार तय करता है। अपने हितों के मुताबिक ही बाजार किसी राजनैतिक दल को अपना समर्थन देता है। बाजार उसे केवल समर्थन ही नहीं देता, तन-मन-धन सब कुछ देता है। मीडिया और सोशल मीडिया का रूख उस ओर मोड़ देता है। किसी की चाल को कदम-ताल बना देता है और किसी की कदम-ताल को कमाल बना देता है। किसी के गिड़गिड़ाने को भडक़ाना और किसी के चिढ़ाने को खडक़ाना बना देता है। किसी की शांति को कमजोरी बना देता है और किसे के विचारों को पुरजोरी बना देता है। अब जिन्हें सरकार बना दिया, फिर शासन में अपना खेल खेलता है। मजदूरों को भैंस का लोन नहीं चुका पाने के लिए सताता है और कारपोरेट घरोनों के हजारों करोड़ के ऋणों को छुपाता है और आखिर में राहत के नाम पर उन्हें माफ भी कर जाता है। कहने को तो सब कुछ सरकार करती है, वास्तव में बाजार सब कुछ कर जाता है। जो-जो बाजार बताता है, सत्ता में बैठा सिरमोर बस हुक्म बजाता है। क्योंकि उसे अगली बार के चुनावों का डर सताता है। ये बाजार ही है जो किसी खिलाड़ी को रत्न दिलाता है, वाहवाही करवाता है और कुर्सी पर बिठाता है और किसी खिलाड़ी को गरीबी की धूंल फांकने का काम करवाता है। उम्दा खिलाड़ी वही जो बाजार के साथ मेलजोल बढ़ाए, कमाए और खाए।
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JAMMU PARIVARTAN 30-8-2020

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