व्यंग्य
कोरोना की भी कयामत, हमारी करो हिफाजत!
अरुण कुमार कैहरबा
‘अपराध कोई करे और सजा कोई भुगते। बलधों की लड़ाई मैं झूंडों का नुकसान। चालाक व्यक्ति शरारतें करते हैं और शरीफ लोग मारे जाते हैं। ऐसा ही हो रहा है आज कल।’ दुनिया जहान के शोरो-गुल, चीख-चिल्लाहटों, आतिशबाजियों, फुसफुसाहटों, हंसी-ठठ्ठे, रोने-धोने की आवाजों को सुनने का जिम्मा वाले कान कराह उठे। बड़े गुस्से और वेदना के साथ वह बोले- ‘लेखक महाराज, कभी हम पर भी दया-दृष्टि करो। हर रोज कीबोर्ड पर टप-टप करते रहते हो। कम्प्यूटर पर ना जाने किस-किस की बातें लिखते हो। मैं कीबोर्ड की आवाजें भी सुनता हूँ और स्क्रीन पर देखता भी हूँ। यह भी देखता हूँ कि मेरे दिल की बात तुमने कभी नहीं लिखी। कभी हमारी बात भी लोगों तक पहुंचाओ। हालांकि हमारे जिम्मे सुनने का काम आया है। इसलिए हर किसी को यही लगता है कि बस इनसे सुनते जाओ, इनकी एक ना सुनो।’कान का किस्सा जारी था- अब तुम्हीं बताओ- मुंह और जुबान को बोलने का जिम्मा मिला है। शायद इसी एवज में इनकी कितनी खातिर होती है। हर रोज नए-नए पकवान मिलते हैं। मुंह और चेहरे की सुंदरता पर इतना ध्यान दिया जाता है। बताओ, हमने कौन-सा कसूर किया है। चेहरे के दोनों ओर हम लगे हैं। चेहरा व जुबान एक है और मेरी संख्या दो है। इसका साफ-सा मतलब है कि मेरी जरूरत ज्यादा है। लेकिन जितनी ज्यादा हमारी जरूरत है, उतनी ही ज्यादा हमारी बेकद्री हो रही है। सबसे दुखद तो यह है कि हमारी बात तक सुनी नहीं जाती। चेहरा क्या करता है, लेकिन उसकी बात और जज्बात को समझा जाता है। उसके लिए तरह-तरह की क्रीमें लगाई जाती हैं। होंठों पर लिपिस्टिक लगाई जाती है। हमारी तरह आँखें भी दो हैं। लेकिन उसकी भी देखभाल खूब होती है। काजल लगाकर उसे सजाया जाता है। डॉक्टर उसे बार-बार धोने की सलाह देते हैं। चेहरे को सजाने के लिए एक से एक चश्मे बाजार में मिलते हैं। आँखें थोड़ी भी खराब होती हैं, तो चश्मा लगा लिया जाता है। जुर्म तो तब होता है जब चश्मे का सारा भार हमारे ऊपर डाल दिया जाता है। टेलर मास्टर को मेरे ऊपर पैंसिल लटकाए भी आपने देखा होगा। कान नहीं हुए हम खूँटी हो गए। बस क्या इसीलिए कि हम बोलते नहीं।
जुबान या आंखें कोई कसूर करती हैं तो कान ऐंठे जाते हैं। स्कूल में मास्टर जी हम पर ही कहर ढ़ाते हैं। उम्र बढ़ती है तो बालियां और झुमके लटकाने के लिए नुकीली मशीन से हमारा छेदन किया जाता है। लड़कियां तो लड़कियां इस मामले में लडक़े भी कम नहीं हैं। भारी-भरकम सामान हम पर लटकाते हैं और तारीफ चेहरे की होती है। पहले लोग सादगी के साथ हमसे सुनते थे तो अच्छा लगता था, लेकिन अब तो हर दूसरा बंदा हमारे भीतर लीड के माइक फंसाए हुए है। क्या इसे ही इज्जत कहते हैं। कुछ लोग तो हमारे प्रति इतने बेपरवाह हैं कि हमारे भीतर गंदगी इक_ा होती जाएगी और वे सफाई नहीं करेंगे। बाद में डॉक्टर के पास गंदगी की सफाई करवाते हैं तो डाक्टर एक से एक नुकीले औजारों को चुभो-चुभो कर हमारी सफाई करते हैं तो जान निकलने को हो जाती है। बस क्या इसीलिए कि हम बोलते नहीं है। बोलने वाले हमेशा आगे रहते हैं। चुप रहने वालों पर इतनी बर्बरता होती है।
अब यह कोरोना नई बिमारी आई है। कोरोना का वायरस नाक के जरिये फैलता है। मुंह और नाक के जरिये निकलने वाली छींटों से वायरस फैल सकता है। वायरस से बचाने के लिए मास्क लगाने का नियम बना दिया गया है। बिना मास्क के घर से बाहर निकलने पर जुर्माना होता है, जोकि पहले 500 रूपये था और अब यह एक हजार रूपये कर दिया गया है। अच्छा है हम इसे गलत नहीं कहते। आखिर इस जानलेवा भयानक वायरस से बचने के उपाय तो करने ही होंगे। मास्क लगाएं, लेकिन भाई यह कौन-सा नियम है कि नासिका को बचाने के लिए फिर हम पर कहर बरपाया जाए। मास्क लगाते हैं मुंह और नासिका पर और हमें बिना बात के फांसी दे दी जाती है। कईं मास्क तो इतने छोटे साईज के होते हैं कि उनकी डोर बुरी तरह से हमें खींचती हैं। मास्क लगाना मजबूरी भी है और जरूरी भी है। लेकिन सजा हमें क्यों दी जा रही है? हमने कौन-सा कसूर किया है। अब तो मास्क भी नए-नए डिजाइन के आ गए हैं। तो भईया ऐसे मास्क क्यों नहीं बनाए जाते, जो हमें जुल्मों-सितम से मुक्ति दिला दें। तो लेखक महोदय, हमारी व्यथा को भी जन-जन तक पहुँचाएं।
अपन बोले-‘तुम्हारे बोलते-बोलते हमने सारी पीड़ा लिख डाली है। लेकिन क्या बताएं, जन-जन तक पहुंचाना संपादक पर निर्भर करता है। वे बड़े देवता हैं, जब तक वे इसे छापेंगे नहीं, तब तक तुम्हारी पीड़ाएं लोगों तक नहीं पहुंच पाएंगी। खैर, मैं यह सारी बातें भेज रहा हूँ। अब आगे छपेगी या नहीं, यह तुम्हारी किस्मत है।’
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