Thursday, August 27, 2020

गंगा जमुनी तहज़ीब के शायर हैं फ़िराक़ गोरखपुरी

 'मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे 
तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के'


DAILY NEWS ACTIVIST 28-8-2020

अरुण कुमार कैहरबा

“बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं।
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं।”
JAGMARG 28-8-2020

जगजीत सिंह और चित्रा की दिलकश आवाज में इस ग़ज़ल के शे'रों का जादू अपने भी महसूस किया होगा। यह ग़ज़ल जिंदगी को गहराई से पहचानने और आजमाने वाले उर्दू के प्रसिद्ध शायर फ़िराक़ गोरखपुरी की है। फ़िराक़ ने शायरी को लोक बोलियों से जोड़कर उसमें नई लोच और रंगत पैदा की। उन्हें उर्दू, फारसी, हिंदी व ब्रजभाषा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति की गहरी समझ थी। जिस कारण उनकी शायरी में भारत की विविधताओं से युक्त सांझी संस्कृति रची बसी हुई है। वह जनकवि के रूप में विख्यात हुए।
फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उनका का मूल नाम रघुपति सहाय था। किंतु शायरी में वे अपना उपनाम 'फिराक' लिखते थे। उनके पिता का नाम मुंशी गोरख प्रसाद था। वे भले ही पेशे से वकील थे किंतु शायरी में भी उनका बहुत नाम था। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि शायरी फिराक साहब को विरासत में मिली थी। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद वे डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुए। उस दौरान देश में आजादी के लिए आंदोलन चल रहा था। महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन छेड़ा तो फिर फिराक साहब ने अपनी नौकरी त्याग दी और आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें डेढ़ साल की सजा हुई जेल से छूटने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में उन्हें अंडर सेक्रेटरी ओहदा दे दिया। बाद में नेहरू जी के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने यह पद छोड़ दिया। नेहरू जी के साथ उनके प्रगाढ़ रिश्ते थे। जेल में भी दोनों साथ रहे।
विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार, ''फिराक का व्यक्तित्व बहुत जटिल था। वे मिलनसार, हाजिर जवाब और विटी थे। अपने बारे में तमाम उल्टी-सीधी बातें खुद करते थे। अपने दुख को बढ़ा चढ़ाकर बताते थे। स्वाभिमानी हमेशा रहे। पहनावे में अजीब लापरवाही झलकती थी, लेकिन बीसवीं सदी के इस महान शायर की गंभीरता और विद्वता का अंदाज उनकी शायरी से ही पता चलता है।''
शायर-ए- जमाल (सौंदर्य का कवि) कहलाने वाले फिराक साहब ने 1918 में शायरी शुरू की। उनके कविता संग्रह 'गुले नग्मा' के लिए 1960 में उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला और इसी रचना पर वे 1969 में भारत के एक और प्रतिष्ठित सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गए। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया। गुले नग़्मा के अलावा उनके मशअल, रूहे कायनात, नग्मे साज, गजालिस्तान, शेरिस्तान, रूप व धरती की करवट आदि अनेक काव्य संकलन प्रकाशित हुए जिनमें तकरीबन 20 हजार अशआर शामिल हैं। उन्होंने एक उपन्यास 'साधु और कुटिया' और कई कहानियां भी लिखी थी।
वह सौंदर्य बोध के शायर हैं और यह भाव ग़ज़ल और रूबाई दोनों में बराबर व्यक्त हुआ है। फिराक साहब ने गजल और रूबाई को नया लहज़ा और नई आवाज अदा की। इस आवाज में अतीत की गूंज, वर्तमान की बेचैनी और भविष्य के लिए उम्मीदें हैं। उर्दू शायरी में बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बंधा रहा है, जिसमें लोक जीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। उर्दू शायरी की परंपरा की बेड़ियों को तोड़ने वालोें में नज़ीर अकबराबादी और अल्ताफ हुसैन हाली के बाद फिराक साहब का नाम आता है। फिराक साहब खुद कहते थे कि उर्दू को हिंदुस्तान आए अरसा हो गया। लेकिन हैरत की बात है कि इसमें यहां के खेत-खलिहान, समाज-संस्कृति, हिमालय, गंगा-जमुना क्यों नहीं दिखाई पड़ते? फिराक ने अपनी शायरी में लोक जीवन के विभिन्न रंग उकेरे। सूरदास के से वात्सल्य का एक रूप इस रूबाई में देखिए-
आँगन में ठुनक रहा है जि़दयाया है
बालक तो हई चाँद पे ललचाया है
दर्पण उसे देकर कह रही है माँ
देख आईने में चाँद उतर आया है।
फ़िराक़ गोरखपुरी साम्प्रदायिक सौहार्द के शायर थे। अपने समय में मानवता पर प्रहार करने वाली साम्प्रदायिकता से वे बहुत बेचैन रहते थे। उनका एक शेर काबिले जिक्र है-
“मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे 
तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के”
अपने अंतिम दिनों में जब शारीरिक अस्वस्थता निरंतर उन्हें घेर रही थी, वह काफी अकेले हो गए थे। अपने अकेलेपन पर उन्होंने कुछ इस तरह बयां किया-
अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं, यूं ही कभी लब खोले हैं,
पहले फिराक को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं। 
शायद अपने आखिरी दिनों में ही उन्होंने लिखा होगा 
अब तुम से रुखसत होता हूं आओ संभालो साजे ग़ज़ल,
नए तराने छेड़ो मेरे नग़मों को नींद आती है।
3 मार्च 1982 में फिराक गोरखपुरी का देहांत हो गया वे उर्दू नक्षत्र का वह जगमगाता सितारा है जिसकी रोशनी लगातार शायरी को सराबोर करती रहेगी। इस अलमस्त शायर की शायरी की गूंज हमारे दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी उनके ही शब्दों में कहें तो- 
ए मौत आकर खामोश कर गई तू,
सदियों दिलों के अंदर हम गूंजते रहेंगे।
JAMMU PARIVARTAN 28-8-2020

HARYANA PRADEEP 28-8-2020

AAJ SAMAJ 28-8-2020

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