दयाल सिंह मजीठिया की पुण्यतिथि पर विशेष
शिक्षा, समाज सुधार व पत्रकारिता के अग्रदूत: दयाल सिंह मजीठियाअरुण कुमार कैहरबा
महाराष्ट्र में शिक्षा व समाज सुधार के लिए जो काम महात्मा ज्योतिबा फुले व उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने किया, जो काम बंगाल में राजा राममोहन राय ने किया, वही काम पंजाब व उत्तर भारत में दयाल सिंह मजीठिया ने किया है। लेकिन उनके योगदान को बहुत कम लोग जानते हैं। कट्टरता और भेदभाव के दौर में दयाल सिंह बेहद उदार विचारों के धनी थे। वे पश्चिमी शिक्षा और आधुनिकता के समर्थक थे। शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा संस्थानों को उदारता के साथ दान दिया। उन्होंने लाहौर में पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपनी सम्पत्ति से द ट्रिब्यून ट्रस्ट, दयाल सिंह पब्लिक लाईब्रेरी ट्रस्ट और दयाल सिंह कॉलेज ट्रस्ट सोसायटी की स्थापना की। द ट्रिब्यून ट्रस्ट ने स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को बढ़ावा दिया और कॉलेज व पुस्तकालय ने शिक्षा का प्रसार किया, जिसने देश की आजादी में अहम भूमिका निभाई।
दयाल सिंह ऐसे परिवार की संतान थे, जिसने महाराजा रणजीत सिंह द्वारा स्थापित सिख राज्य में अहम भूमिका निभाई। परिवार की तीन पीढिय़ों ने रणजीत सिंह की सेना को जनरल प्रदान किए। दयाल सिंह के दादा सरदार देसा सिंह रणजीत सिंह के भरोसेमंद सैन्य जनरल थे, जिन्हें बाद में मंडी और साकेत के पहाड़ी राज्यों का गर्वनर नियुक्त किया गया था। उनकी सराहनीय सेवाओं के लिए रणजीत सिंह ने उन्हें उपाधियां प्रदान की। दयाल सिंह के पिता लहना सिंह को अपने पिता की सम्पत्ति का अपना हिस्सा विरासत में मिला। वे साहित्य प्रेमी, विज्ञान में रूचि रखने वाले थे और उनका बहुत सम्मान था। लहना सिंह लाहौर से तीर्थयात्रा के लिए निकले और अनेक स्थानों से होते हुए उन्होंने बनारस में सम्पत्ति खरीदी। बनारस में ही 1848 में दयाल सिंह मजीठिया का जन्म हुआ। वे सरदार लहना सिंह के एकमात्र पुत्र थे। सरदार लहना सिंह की मृत्यु 1854 में ही हो गई थी, तब दयाल सिंह केवल छह साल के थे। लहना सिंह अपने बेटे दयाल सिंह का जिम्मा कमांडर इन चीफ तेजा सिंह को देकर गए थे। दयाल सिंह एक राज कुमार की तरह रहते थे। अमृतसर के क्रिश्चयन मिशन स्कूल में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की।
दयाल सिंह ने कुश्ती व दंगल को संरक्षण प्रदान किया। वे शतरंज व पतंगबाजी के शौकीन थे। दयाल सिंह शास्त्रीय संगीत के शौकीन थे और खुद सितार बजाते थे। वे एक कवि भी थे और ‘मशरिक’ तखल्लुस के साथ उर्दू में लिखते थे। उनकी तीन ‘सिहाफिय़ाँ’ लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी में रखी हुई हैं। उन्होंने समृद्ध गद्य भी लिखा। वे आधुनिक विचारों के व्यक्ति थे। रूढिय़ां और कट्टरता उन्हें छू भी नहीं पाती थी। उनकी रसोई में मुस्लिम और इसाई रसोईये थे। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई व पारसी उनके अनेक मित्र थे। वे पढऩे के शौकीन थे।
अपनी अपार संपत्ति से दयाल सिंह ने लाहौर में व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए आधुनिक सेवाओं से युक्त दयाल सिंह हवेली का निर्माण करवाया। वह एक बड़े संस्था निर्माता थे। वे पंजाब नेशनल बैंक के संस्थापकों में भी शामिल थे। दयाल सिंह ने केवल 50 वर्ष की आयु में 1898 में दुनिया को अलविदा कह दिया था।
दयाल सिंह के जीवन काल में किसी को यह अंदेशा नहीं था कि आने वाले 50 सालों में धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हो जाएगा। दयाल सिंह की कर्मस्थली लाहौर बंटवारे के बाद बने नए देश पाकिस्तान में रह गई। परिणाम यह हुआ कि दयाल सिंह द्वारा स्थापित तीनों संस्थाओं को चलाने वाले ट्रस्ट की संपत्ति तो पाकिस्तान में रह गई, जबकि अधिकांश ट्रस्टी भारत में आने को मजबूर हो गए।
करनाल स्थित दयाल सिंह कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे वीबी अबरोल ने बताया कि भारत आने के बाद प्रमुख ट्रस्टी दीवान आनंद कुमार के प्रयासों से दयाल सिंह कॉलेज 1949 में करनाल में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की कोठी में पुनसर््थापित हो गया। बाद में दीवान आनंद कुमार ने राजधानी दिल्ली के प्रमुख इलाके लोधी रोड़ पर जमीन अलॉट करवाकर वहां भी दयाल सिंह कॉलेज की स्थापना की। उन्होंने आज के दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर दयाल सिंह लाईब्रेरी की पुनस्र्थापना भी की। और द ट्रिब्यून अखबार अंबाला आदि शहरों में घूमने के बाद पंजाब (आजकल हरियाणा भी) की नवनिर्मित राजधानी चंडीगढ़ में पहुंच कर स्थाई रूप से यहीं का हो गया। वह सेक्टर-29सी के अपने शानदार कार्यालय में छपकर रोज सुबह हमारे हाथों में पहुंचता है। मुख्य कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों के लिए साथ ही ट्रिब्यून कॉलोनी भी आबाद है।
पहले केवल अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होने वाले अखबार के 15 अगस्त, 1978 से हिन्दी और पंजाबी भाषा के संस्करण भी शुरू किए गए। प्रतिदिन चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में लाखों लोगों के हाथों में चाय की प्याली के साथ ट्रिब्यून अखबार भी होता है। हजारों युवा करनाल, दिल्ली, लाहौर में दयाल सिंह कॉलेज में पढऩे जाते हैं। सैंकड़ों लोग दिल्ली और लाहौर में दयाल सिंह पब्लिक लाईबे्रेरी में नई-नई किताबों और दुनिया भर के अखबारों पत्रिकाओं से ज्ञान प्राप्त करते हैं। वीबी अबरोल का कहना है कि नि:संतान पर दूरदृष्टा दयाल सिंह आज से 150 साल पहले ही समझ गए थे कि आने वाले समय में ज्ञान ही सबसे बड़ी शक्ति होगा। इसीलिए उन्होंने जो तीन ट्रस्ट: अखबार, लाईब्रेरी व कॉलेज बनाए, वह सभी ज्ञान प्राप्ति से जुड़े हैं। इस तरह नि:संतान दयाल सिंह की वंश परंपरा उनकी मृत्यु के 125 साल बाद और भी विस्तृत और सुदृढ़ होती जा रही है।
दयाल सिंह ने यह भी समझ लिया था कि आगे बढऩे के लिए अपने को वैचारिक संकीर्णता से मुक्त करना होगा। उन्होंने उस समय के सबसे उदारवादी और प्रगतिशील चिंतन ब्रह्म समाज को अपना लिया था। अपनी वसीयत में कॉलेज ट्रस्ट की व्यवस्था करते हुए दयाल सिंह ने स्पष्ट कर दिया था कि कॉलेज पूरी तरह से नॉन डिनोमिनेशनल (जहां किसी विशेष धार्मिक मान्यता का प्रचार-प्रसार ना हो) होगा। अपनी वैचारिक उदारता के कारण दयाल सिंह आज भी उत्तरी भारत सहित अपनी कर्मभूमि लाहौर व लहंदा पंजाब में लोकप्रिय हैं। मियां नवाज शरीफ के प्रथम प्रधानमंत्रीत्व काल में कर्नल प्रताप सिंह के नेतृत्व में पंजाब के कुछ प्रमुख लोगों का प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान यात्रा पर गया। द ट्रिब्यून के चंडीगढ़ में उस समय विशेष संवाददाता प्रभजोत सिंह इस प्रतिनिधिमंडल के सदस्य थे। जब मियां नवाज शरीफ को प्रतिनिधिमंडल के पाकिस्तान में होने की जानकारी मिली तो उन्होंने सभी सदस्यों को अपने फार्महाउस पर दावत दी। बातचीत के दौरान प्रभजोत सिंह ने कहा कि लाहौर में ट्रिब्यून के पुराने कार्यालय के बाहर दयाल सिंह की मूर्ति लगी है। यदि मियां साहब इजाजत दें तो वह बुत को चंडीगढ़ ले जाकर अखबार के वर्तमान कार्यालय में प्रमुख स्थान पर लगाना चाहेेंगे। इस पर मियां साहब ने जवाब दिया कि आप और कुछ भी मांग लें पर सरदार की इस निशानी को वह लाहौर से नहीं जाने देंगे।
वीबी अबरोल ने बताया कि अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में आयोजित एक समारोह में करनाल के दयाल सिंह कॉलेज ने लाहौर के गर्वमेंट दयाल सिंह कॉलेज के प्रिंसिपल को भी न्योता भेजा। आने में असमर्थता जाहिर करते हुए प्रिंसिपल साहब ने लिखा कि जब जर्नल जिया पाकिस्तान के सदर थे तो वह किसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर कॉलेज में गए थे। उन्होंने देखा कि कमेस्ट्री विभाग की प्रयोगशालाओं की हालत काफी खस्ता थी तो प्रयोगशालाओं को आधुनिक बनाने के लिए सदर ने मौके पर ही 25 लाख के विशेष अनुदान की घोषणा की थी।
लाहौर में 1909 में चालू हुए कॉलेज ने अब 115 साल पूरे कर लिए हैं और करनाल का दयाल सिंह कॉलेज अपनी ही एक जयंती मनाने की तैयारी कर रहा है। इन 115 सालों में न जाने कितने युवाओं ने दयाल सिंह कॉलेज से शिक्षा प्राप्त कर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ऊंचे पद पाए हैं। दयाल सिंह लाईब्रेरी से प्राप्त किताबें पढक़र अपनी सोच को बदला है। उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। पुण्यतिथि पर दूरदृष्टा उदार चिंतक को सादर नमन।
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JAGMARG 9-9-2024 |
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