Monday, October 26, 2020

FREEDOM FIGHTER SHAHEED JATINDERNATH DAS

 स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सिपाही यतीन्द्रनाथ दास की जयंती पर विशेष
जतिन दास ने 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद दी शहादत

अरुण कुमार कैहरबा

भारत की आजादी की लड़ाई कितने ही वीरों की शहादतों से भरी हुई है। उन्होंने देश को आजाद करवाने और बेहतर समाज के निर्माण के लिए हंसते-हंसते मौत को गले लगा लिया। उनका जोश, जज़्बा, विचार, सपने और कार्य आज भी लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। क्रांतिकारी युवाओं में तो एक-दूसरे से आगे बढ़ कर कुर्बानी देने का जज्बा था। यतीन्द्रनाथ दास भी ऐसे ही युवा थे, जिन्होंने जेल में 63 दिनों की लंबी भूख हड़ताल करते हुए शहादत दी। उनका कहना था कि गोली खाकर या फांसी पर झूल कर मरना तो आसान है। जब अनशन करके आदमी धीरे-धीरे मरता है तो उसके मनोबल का पता चलता है। ऐसे में अगर वह मन से कमजोर है तो उससे यह नहीं हो पाएगा। अपने साथियों में जतिन दा के नाम से मशहूर यतीन्द्रनाथ दास बेहद असहनीय तरीके से भूख हड़ताल करते हुए और यातनाएं सहते हुए शहीद हुए।
जतिन दास की पैदाईश कलकत्ता में 27 अक्तूबर, 1904 में हुई। जतिन अभी नौ ही साल के थे कि उनकी माता सुहासिनी देवी का देहांत हो गया। उनके पिता बंकिम बिहारी दास एक शिक्षित और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गांधी जी द्वारा 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो जतिन भी उसमें कूद पड़े। वे जब विदेशी सामान की दुकान के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें छह महीने की जेल हुई। चौरा-चौरी की घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। इससे जतीन्द्रनाथ को बहुत निराशा हुई। जेल से वापिस आने के बाद उन्होंने पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वे क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के संपर्क में आए और हिन्दुस्तान सोशल रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के सदस्य बन गए। एचआरए सशस्त्र क्रांति द्वारा देश को आजाद करवाने और शोषण मुक्त व्यवस्था स्थापित करने के लिए प्रयासरत थी। इसी बीच जतिन दास ने बम बनाना सीख लिया था। 1925 में उन्हें दक्षिणेश्वर बम कांड व काकोरी कांड के मामले में गिरफ्तार किया गया। लेकिन प्रमाण  नहीं मिल पाने के कारण वे नज़रबंद कर लिए गए। जेल में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने 21 दिन की भूख हड़ताल की। इसका यह असर हुआ कि अंग्रेजों को उन्हें रिहा करना पड़ा।
जतीन्द्रनाथ दास की 1928 में एक मुलाकात में भगत सिंह ने उन्हें हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए बम बनाने के लिए राजी कर लिया। 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय एसेंबली में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने जतिन दा द्वारा बनाए गए बमों का इस्तेमाल किया। जतिन दा सहित कईं क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर लाहौर षडय़ंत्र केस चलाया गया। लाहौर जेल में क्रांतिकारियों के साथ दुव्र्यवहार हुआ। उन्हें चोर-डकैती आदि के आरोप में बंद किए गए अपराधियों के साथ रखा गया। भगत सिंह व क्रांतिकारियों ने इसे अपमान माना और राजनैतिक बंदियों जैसा सलूक करने की मांग उठाई। भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने जेल में हो रहे सलूक व अत्याचारों के विरूद्ध भूख हड़ताल शरू कर दी। शुरू में जतिन दा ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि भूख हड़ताल में कड़ा संघर्ष होता है और बिना जान दिए सफलता मिलने की संभावना नहीं है। लेकिन बाद में वे 13 जुलाई, 1929 को वे भी हड़ताल में कूद गए। इस भूख हड़ताल की पूरे देश में चर्चा हुई और क्रांतिकारियों को जनता का व्यापक समर्थन मिला।
कुछ दिन के बाद ही पुलिस जबरदस्ती पर उतर आई और क्रांतिकारियों के नाक में रबड़ की नाली डाल कर खाना दिया जाने लगा। जतिन दा को इसका पहले से अनुभव था। उन्होंने हाथापाई करते हुए नाली के माध्यम से दूध दिए जाने के सारे प्रयास असफल कर दिए। इस पर काफी सारे पुलिस के लोगों ने उसे दबोच लिया और जबरदस्ती नाली के माध्यम से उसके पेट में दूध डाला गया। दूध पेट में जाने की बजाय फेफड़ों में जाने लगा। इससे जतिन दा की तबियत खराब हो गई। उन्हें निमोनिया हो गया। डॉक्टरों ने उन्हें दवाई देने की कोशिश की तो उन्होंने दवाई भी नहीं ली। दिन-प्रतिदिन जतिन दा, शिव वर्मा व अन्य क्रांतिकारियों की बिगड़ती तबियत एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया था और क्रांतिकारियों को राजनैतिक बंदी मान कर बंदियों के अधिकारों की मांग उठने लगी। लोगों की जोरदार मांग व कांग्रेसियों के आह्वान पर जतिन दा को सशर्त रिहाई के प्रस्ताव को जतिन दा ने सिरे से खारिज कर दिया। 13सितंबर, 1929 को जतिन दास की भूख हड़ताल के 63 दिन हो गए थे। उन्होंने अपने साथियों से एकला चलो रे गाने का अनुरोध किया। विजय सिन्हा व किरन ने आंखों में आंसू लिए गाना गाया। इसी बीच वीर योद्धा जतिन दा ने आखिरी सांस ली। महान शहीद के सम्मान में पंजाब व बंगाल में बड़े प्रदर्शन हुए। उनके पार्थिव शरीर को ट्रेन के माध्यम से कलकत्ता लेकर गए। लाखों लोगों ने उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी। जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में जतीन्द्रनाथ दास की शहादत का जिक्र किया है। कांग्रेस सेवा दल में अपने सहायक रहे जतिन दास को सुभाषचन्द्र बोस ने याद किया। ऐसे वीरों की शहादत की बदौलत ही आज हम आजादी का आनंद ले रहे हैं। लेकिन हम उन वीरों को कितना याद करते हैं। आजादी के लिए उनके योगदान को हम कितना अपने जेहन में रखते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों द्वारा देखे गए शोषण व अन्याय मुक्त समतपूर्ण व न्यायसंगत समाज बनाने का सपना हम कितना साकार कर पाए हैं। ये बड़े सवाल हैं। आजादी प्राप्त करने के बाद ऐसा नहीं है कि उन उद्देश्यों के लिए संघर्ष कम हो गया है। उन कुर्बानियों को याद करते हुए संघर्ष को आगे बढ़ाना ही आज का मुख्य काम है।
DAINIK VEER ARJUN

DAINIK PRAKHAR VIKAS 27-10-2020

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