हिन्दी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी
साम्प्रदायिक दंगा रोकने के लिए हुए थे शहीद
अरुण कुमार कैहरबा
आज जब चारों ओर पत्रकारिता के मूल्यों के क्षरण की चर्चाएं हो रही हैं। पीत-पत्रकारिता, पेड-न्यूज, फेक न्यूज, टीआरपी केन्द्रित पत्रकारिता और टीआरपी बढ़ाने का गोरखधंधा, हर खबर को सनसनी की तरह पेश करना, आम जन के मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए नए मुद्दे खड़े करके पेश करना सहित अनेक प्रकार की समस्याएं मौजूदा पत्रकारिता के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। ऐसे में हमें पत्रकारिता की उस शख्सियत की रह-रह कर याद आती है, जिसने देश को साम्प्रदायिकता के मुंह में जाने से रोकने के लिए ना केवल कलम चलाई, बल्कि दंगों के बीच में जाकर दंगे रोकने की कोशिश की और शहादत दे दी। जी हां हम गणेश शंकर विद्यार्थी की ही बात कर रहे हैं। विद्यार्थी पत्रकार और संपादक होने के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में आजादी की लड़ाई के सिपाही थे। उन्होंने ‘प्रताप’ अखबार की शुरूआत की थी, जिसने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की प्रतिभा को मंच प्रदान किया।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्तूबर, 1890 को इलाहाबाद के अतरसुईया मोहल्ले में हुआ था। माता का नाम गोमती देवी था। पिता जय नारायण ग्वालियर रियासत में मुंगावली स्थित ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। यहीं विद्यार्थी की प्रारंभिक शिक्षा हुई। 1907 में प्राईवेट विद्यार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेस पास करके इलाहाबाद के एक कॉलेज में दाखिला लिया। इसी दौरान वे साप्ताहिक कर्मयोगी में पंडित सुंदरलाल के साथ संपादन सहयोग करने लगे। उन्हीं की प्रेरणा से गणेश शंकर ने अपने नाम के साथ विद्यार्थी जोड़ दिया, जो आजीवन जुड़ा रहा। 1911 में विद्यार्थी जी 25 रूपये मासिक वेतन पर साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के सहायक नियुक्त हुए। अपनी लगन, मेहनत व प्रतिभा से विद्यार्थी ने द्विवेदी जी को मुग्ध कर लिया। सरस्वती पत्रिका साहित्यिक थी और विद्यार्थी जी की दिलचस्पी राजनैतिक विषयों में अधिक थी। इसलिए करीब एक वर्ष यहां काम करने के बाद वे 29 दिसंबर, 1912 को मदनमोहन मालवीय के अखबार ‘अभ्युदय’ में चले गए। विद्यार्थी ने निरंतर घाटे में चल रहे अभ्युदय में जान फूंक दी और इसकी पाठक संख्या भी बढऩे लगी। यहां काम करते हुए अभी एक साल भी नहीं बीता था कि अचानक विद्यार्थी जी का स्वास्थ्य खराब हो गया और उन्हें कानपुर जाना पड़ा। कानपुर में माहाशय काशीनाथ अरोड़ा और शिवनारायण मिश्र के साथ उनका बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर विद्यार्थी जी अभ्युदय में इलाहाबाद वापिस नहीं गए। उन्होंने बिना अधिक तैयारी के कानपुर से ही साप्ताहिक अखबार ‘प्रताप’ का संपादन शुरू कर दिया। साप्ताहिक के बाद सात वर्ष बाद 1920 में उसे दैनिक कर दिया। उन्होंने प्रभा नाम की साहित्यिक और राजनैतिक मासिक पत्रिका भी निकाली।
प्रताप निर्भीक व निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए जाना जाने लगा। इसने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई। भगत सिंह ने बलवंत सिंह के नाम से करीब ढ़ाई साल तक पत्रकारिता की। प्रताप क्रांतिकारियों की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण मंच था। यहां पर बहुत से क्रांतिकारियों ने शरण भी हासिल की। विद्यार्थी जी ने भगत सिंह की चंद्रशेखर आजाद के साथ मुलाकात करवाई। इसके बाद शिव वर्मा सहित अनेक क्रांतिकारी जुड़ते चले गए। विद्यार्थी जी ने रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा को जेल से प्राप्त किया और उसे प्रताप के माध्यम से उजागर किया। विद्यार्थी ने बिस्मिल की मां की मदद की। रोशन सिंह की बहन का कन्यादान किया। प्रताप के माध्यम से विद्यार्थी जी ने महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह सहित विभिन्न आंदोलनों को कवर किया। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी व प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी रचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया। विद्यार्थी जी ने प्रताप के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत को तो कटघरे में खड़ा करने के साथ-साथ भारतीय सामंतों, जागीरदारों और राजाओं के अत्याचारों पर भी जमकर लिखा। समझौताविहीन लेखनी की वजह से उन्हें पांच बार जेल यात्राएं करनी पड़ी।
विद्यार्थी जी धर्म और राजनीति के मेल के खिलाफ थे। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, अंधराष्ट्रवाद और धर्म-जाति के आधार पर लोगों को आपस में बांटने की तीखी आलोचना की। 27 अक्तूबर, 1924 को विद्यार्थी जी ने प्रताप में धर्म की आड़ नाम से लेख लिखा। इसमें उन्होंने आम लोगों की धर्म की आस्था और स्वार्थी लोगों द्वारा धार्मिक भावनाएं भडक़ा कर अपना उल्लू सीधा करने की सच्चाई को बहुत तार्किक ढ़ंग से समझाया है। उन्होंने लिखा-‘देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं। लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं।..धर्म और ईमान के नाम पर किए जाने वाले इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग होना चाहिए।..अजां देने, शंख बजाने, नाक दाबने और नमाज पढऩे का नाम धर्म नहीं है।’ जब कानपुर में दंगे भडक़े तो विद्यार्थी जी केवल अखबार में लिखकर ही संतुष्ट नहीं हो गए। दंगों को रोकने के लिए वे दंगाईयों के बीच आ गए। उन्होंने लोगों को समझाया और दंगा रोकने की कोशिश की। लेकिन एक स्थान पर वे खुद दंगे की चपेट में आ गए। भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की शहादत के तीसरे ही दिन 25 मार्च, 1931 को वे शहीद हो गए। गणेश शंकर विद्यार्थी ने कलम और कर्तव्य के लिए शहादत की मिसाल कायम की। आज के कलमकारों के लिए विद्यार्थी जी ही आदर्श होने चाहिएं। ऐसे लोग नहीं जो अपने जरा से स्वार्थ के लिए कलम को गिरवी रख देते हों। आज के अंधराष्ट्रवाद, धर्मांधता और साम्प्रदायिकता के दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी, उनकी लेखनी व कार्य और ज्यादा प्रासंगिक हैं।
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