विश्व खाद्य दिवस पर विशेष
भूख-गरीबी के विरूद्ध सब खड़े हों
सबको मिले खाद्य सुरक्षा का अधिकार
अरुण कुमार कैहरबा
भोजन जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकता है। भरपेट पौष्टिक भोजन और इसकी सुरक्षा हर मनुष्य का बुनियादी अधिकार है। लेकिन आज तक ना तो गरीबी खत्म हुई है और ना ही भुखमरी। कोरोना महामारी ने इस समस्या को विकराल बना दिया है। रोजगार छिन जाने के कारण लाखों प्रवासी मजदूरों के परिवारों को संकट ने आन घेरा है। यही नहीं विभिन्न प्रकार की कंपनियों और उद्यमों में बहुत से नियमित नौकरी कर रहे लोग भी बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार लॉकडाउन के बाद सिर्फ अप्रैल में ही 12 करोड़ 10 लाख लोगों ने रोजगार से हाथ धोया। लॉकडाउन खत्म होने के बाद इनमें से कुछ लोग रोजगार में वापिस आए। भारत की विकास दर में 23.9प्रतिशत की गिरावट आई है। इसके बावजूद पूंजीपतियों के एक हिस्से की आमदनी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। करोड़ों लोगों की बदहाली के दौर में मुकेश अंबानी की सम्पत्ति अप्रैल से अब तक 35 फीसदी बढ़ गई है। अडानी हवाई अड्डे खरीदने में लगे हुए हैं।
इस सारे परिदृश्य में भारत के भुखमरी और गरीबी सूचकांक के आंकड़ों की बात ना भी करें तो गरीबी और भुखमरी को समझा जा सकता है। किसी भी देश विशेष रूप से लोकतंत्र में सरकारों की जिम्मेदारी लोक कल्याण है। इसके बावजूद यदि लोग भूख और गरीबी की मार झेल रहे हैं तो सरकारों की नीतियों व नियत पर सवाल उठने तो लाजिम हैं। गरीबी और भुखमरी से निपटने के लिए भारत में अनेक प्रकार की योजनाएं बनाई गई हैं। आंगनवाडिय़ों में नन्हें बच्चों और गर्भवती महिलाओं के पोषण के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करने की योजना है। स्कूलों में पहली से आठवीं तक पढ़ रहे बच्चों के लिए मिड-डे-मील योजना चलाई गई है। कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन के ऐसे में समय में जब लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे थे, ऐसे में अध्यापकों व आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने बच्चों के घरों में जाकर खाद्य सामग्री व दूध के पैकेट और कोरोना योद्धा की भूमिका का निर्वहन किया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत लोगों को अनाज, दालें व अन्य खाद्य सामग्री प्रदान की जाती है। लेकिन यह भी सच है कि लॉकडाउन में रोजगार छिन जाने और खाद्य सामग्री खत्म हो जाने के बाद अपने ही देश में प्रवासी बने कितने ही लोगों को दरबदर होना पड़ा। आज तक भी बहुत से परिवारों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। वितरण प्रणाली के तहत यदि ऐसे लाखों लोगों को भोजन सुरक्षा प्रदान की गई होती तो तस्वीर इतनी भयावह नहीं होती। हां, उन स्वयंसेवी संस्थाओं की तारीफ की जानी चाहिए, जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान उजड़े लोगों को भोजन व आश्रय मुहैया करवाने में अग्रणी भूमिका निभाई। कईं स्थानों पर प्रशासन के हाथ-पांव फूले हुए थे। प्रशासन ने सारी जिम्मेदारी इन धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं को सौंप कर राहत की सांस ली। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ने बहुत से लोगों को रोजगार दिया है। कितने ही पढ़े-लिखे लोग जोकि बेरोजगार हो गए थे, उन्हें मनरेगा के तहत शारीरिक श्रम करते हुए देखा जा रहा है। शहरों से गांवों में आए लोग भी मनरेगा के तहत काम करके अपना घर चला रहे हैं। इस योजना को और अधिक विस्तार दिया जाना चाहिए।
तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद देश में बहुत सी आबादी ऐसी है, जिन्हें राशन-कार्ड, मतदाता पहचान-पत्र व आधार कार्ड जैसे प्रमाण-पत्र नहीं होने के कारण किसी सुविधा का लाभ नहीं मिल पाता है। इनमें किसी एक स्थान पर टिक कर नहीं रहने वाली घुमंतु आबादी आबादी है। गांव व शहर की मलिन बस्तियों में वर्षों से रह रहे कितने ही लोगों को आज तक बहुत-सी सरकारी योजनाओं को लाभ नहीं मिल पाता है। बहुत से बच्चे भी किसी आंगनवाड़ी व स्कूल में नहीं जा पाते हैं। रोजी-रोटी का जुगाड़ करने के लिए कितने ही बच्चों को स्कूल छोड़ देना पड़ता है। महामारी के दौरान ऐसे लोगों के लिए वितरण प्रणाली के तहत भोजन सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए थी। आज भी ऐसे लोगों के लिए बेरोक-टोक खाद्य-सामग्री लेने की सुविधा होनी चाहिए।
किसानों-मजदूरों की कड़ी मेहनत से उगाई गई फसलों के कारण अनाज से देश के भंडार भरे हुए हैं। ऐसी प्रचूरता के बीच में अभाव और ज्यादा परेशान करने वाला है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 85 करोड़ 30 लाख लोग भुखमरी का शिकार हैं। अकेले भारत में भूखे लोगों की तादाद लगभग 20 करोड़ से ज्यादा है। जबकि संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट बताती है कि रोजाना भारतीय 244 करोड़ रुपए यानी पूरे साल में करीब 89060 करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद कर देते हैं। इतनी राशि से 20 करोड़ से कहीं ज्यादा पेट भरे जा सकते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा हर दिन भूखा सोने मजबूर है, जिससे हर वर्ष लाखों जान चली जाती हैं। ऐसे में समाज के प्रबुद्ध लोगों और सरकार को मिलकर भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए और जरूरतमंदों तक भोजन पहुंचाने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। लैंगिक व जातीय भेदभाव भी भूख का बड़ा कारण है। सम्पन्न परिवारों की महिलाएं भी खून की कमी की शिकार देखी जाती हैं। लड़कियों को दूध पीने से इसलिए मना किया जाता है, क्योंकि वे लड़कियां हैं। चाहे जो भी हर हाथ को काम और हर व्यक्ति को पर्याप्त पौष्टिक भोजन अवश्य मिलना चाहिए। केन्द्र व राज्य सरकारों को इस दिशा में खाद्य सुरक्षा के अधिकार का कानून बनाकर प्रबंध करने चाहिएं।
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