जयंती एवं शिक्षा दिवस विशेष
आधुनिक शिक्षा के कुशल शिल्पकार: अबुल कलाम आजादअरुण कुमार कैहरबा
मौलाना अबुल कलाम आजाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मुख्य नेता थे जिन्होंने जनतंत्र, विवेकवाद, सद्भाव, स्वतंत्रता और समानता के उच्च मूल्यों केे लिए आजीवन काम किया। वे उन मुख्य मुस्लिम नेताओं में से एक थे जिन्होंने हिन्दु-मुस्लिम एकता की पुरजोर पक्षधरता की और साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन का विरोध किया। देश की आजादी के बाद वे देश के पहले शिक्षा मंत्री बने। भारतीय शिक्षा को आधारशिला प्रदान करने में उनके अतुलनीय योगदान को याद करने के लिए उनके जन्मदिवस को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
अबुल कलाम का जन्म 11 नवंबर, 1888 में मक्का में हुआ। उनका शुरूआती नाम अबुल कलाम गुलाम मोहियुद्दीन था लेकिन बाद में वे मौलाना अबुल कलाम आजाद के रूप में जाने गए। उनके पिता मौलाना खैरूद्दीन अपने समय के बड़े विद्वान थे। अबुल कलाम की बचपन से ही पढऩे में रूचि पैदा हो गई थी। 12 वर्ष की उम्र ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। शुरूआत में उनका रूझान शेरो-शायरी की तरफ था। मौलवी अब्दुल वाहिद ने उनका तखल्लुस आजाद रखा। 1912 में उन्होंने अल-हिलाल नाम की साप्ताहिक पत्रिका निकालनी शुरू की। मौलाना अबुल कलाम ने क्रांतिकारी संपादक और पत्रकार के तौर पर काम करते हुए अंग्रेजी सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध किया। अल-हिलाल के क्रांतिकारी तेवरों से अंग्रेज परेशान हो गए। उन्होंने 1914 में प्रैस एक्ट के तहत इस पर पाबंदी लगा दी। इसके बाद मौलाना ने अल-बलाग साप्ताहिक निकाला। इसके भी अल-हिलाल से तेवर थे। 1916 में ब्रिटिश सरकार ने मौलाना आजाद को कलकत्ता छोडऩे को विवश कर दिया। वे कलकत्ता से रांची आ गए। यहां आने के बाद उन्हें तीन साल तक नज़रबंद कर लिया गया। रांची की कैद ने उन्हें राष्ट्रीय नेता बना दिया था।
वे 1920 के आस-पास महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए और गांधी जी के अहिंसा और सविनय अवज्ञा के विचार के उत्साही समर्थक बन गए। उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लिया। आजाद ने गांधी जी के स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा देने और भारत के स्वराज के लिए समर्पित होकर कार्य किया। वे 1923 में कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष बन गए। बाद में वे 1940 से 1946 तक भी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। इसी दौरान भारत छोड़ो आंदोलन चला और वे भी कांग्रेस के सारे नेतृत्व के साथ तीन वर्ष तक जेल में रहे। उन्होंने अलग मुस्लिम राज्य की स्थापना का जोरदार विरोध किया और जब देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में धू-धू कर जल रहा था, उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता का प्रचार किया। वे भारत के बंटवारे को किसी भी सूरत में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाईचारा उनके लिए सबसे प्राथमिक सरोकार था। यहां तक कि भाईचारा की शर्त पर यदि स्वराज दिया जाए तो इसके लिए भी वे तैयार नहीं थे। भाईचारा व एकता को सबसे बड़ा इन्सानी सरोकार मानते थे, जिसके साथ किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता था। आखिर जब बंटवार हुआ और धर्म के नाम पर पंजाब और बंगाल में दंगे हुए तो उसके कारण मौलाना आजाद काफी परेशान रहे। आजादी की लड़ाई में वे देश के अग्रणी नेताओं में शुमार थे। उन्होंने अनेक बार जेल की सजाएं काटी।
![]() |
JAGAT KRANTI 11-11-2021 |
मौलाना आजाद ने विरासत में मिली साम्राज्यवादी अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को स्वतंत्रता आंदोलन में विकसित किए गए उच्च मूल्यों और आजाद भारत की आकांक्षाओं के अनुकूल नया रूप दिया। उनके योगदान के कारण ही उन्हें आधुनिक भारतीय शिक्षा व्यवस्था का कुशल शिल्पकार कहा जाता है। उन्होंने मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की मजबूती के साथ पक्षधरता की। लिंग और जाति-धर्म के भेदभाव के बिना उन्होंने सभी की शिक्षा की आवाज बुलंद की। उन्होंने लड़कियों व समाज के कमजोर तबकों के बच्चों की शिक्षा पर खास जोर दिया। शिक्षा मंत्री के रूप में आधुनिक उच्चतर शिक्षा संस्थानों की स्थापना की। देश में उच्चतर शिक्षा के विकास और पर्यवेक्षण के लिए 1951 में पहले राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान, विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग और 1956 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग स्थापना का श्रेय उन्हें जाता है। माध्यमिक शिक्षा के विकास में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन भी उनकी दूरदर्शिता का सूचक है।
मौलाना आजाद देश की सांझी संस्कृति के प्रति पूरी तरह से सजग थे। इसलिए उन्होंने सामाजिक-धार्मिक व सांस्कृतिक दूरियां पाटने और भारतीय संस्कृति और विरासत को समृद्ध करने के लिए राष्ट्रीय महत्व की विभिन्न संस्थाएं स्थापित की। उन्होंने 1950 में सांस्कृतिक सम्बन्धों के लिए राष्ट्रीय परिषद की स्थापना के साथ-साथ देश की तीन अहम अकादमियां- संगीत नाटक अकादमी 1953, साहित्य अकादमी और ललित कला अकादमी 1954 की स्थापना की। उनका कहना था कि ‘हमें एक क्षण के लिए भी नहीं भुलाना चाहिए कि कम से कम बुनियादी शिक्षा हासिल करना हर एक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है जिसके बिना नागरिक के रूप में वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर सकता।’ उन्होंने प्राथमिक शिक्षा पर बल देते हुए अन्य स्थान पर कहा कि ‘देश की पूंजी उसके बैंकों में नहीं बल्कि प्राथमिक स्कूलों में है।’ उन्होंने सामान्य विद्यालय व्यवस्था और पड़ोस के स्कूल की अवधारणा की शुरूआत की। 22 फरवरी 1958 को उनका देहांत हो गया। वे अंतिम क्षणों तक देश के शिक्षा मंत्री रहे। उनके अतुलनीय योगदान का सम्मान करते हुए 1992 में उन्हें मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। मौलाना अबुल कलाम आजाद को सम्मान प्रदान करने के लिए उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
अरुण कुमार कैहरबाहिन्दी प्राध्यापक, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जि़ला-करनाल (हरियाणा)
मो.नं.-09466220145
No comments:
Post a Comment