पुस्तक समीक्षा
आम जन के संघर्षों के साथ खड़ी ‘उजाले हर तरफ होंगे’ की गज़लें
उम्मीद जगाता मनजीत भोला का पहला गज़ल-संग्रह
समीक्षक: अरुण कुमार कैहरबा
पुस्तक: उजाले हर तरफ होंगे
शायर: मनजीत भोला
प्रकाशक: सत्यशोधक फाउंडेशन, कुरुक्षेत्र
पृष्ठ: 64
मूल्य: रु. 80.
आशिक, माशूक, हुस्न, इश्क, साकी और शराब जैसे विषयों तक महदूद रहने वाली गज़ल आज सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को प्रकट करके वंचित और शोषित वर्ग के संघर्षों के साथ खड़ी हो रही है। गज़ल की प्रगतिशील पंरपरा की कड़ी में ही सत्यशोधक फाउंडेशन, कुरुक्षेत्र द्वारा मनजीत भोला का पहला गज़ल संग्रह- ‘उजाले हर तरफ होंगे’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह ने गज़ल में नई संभावनाओं की उम्मीद जगाई है और गज़ल प्रेमियों को सुखद अहसास से भर दिया है। भोला के संग्रह में 50 से अधिक गज़लें हैं। ये गज़लें किसान, मजदूर, दलित, वंचित व शोषित वर्गों के जीवन-संघर्षों और आकांक्षाओं को बड़ी संजीदगी के साथ आवाज प्रदान करती हैं। इनमें संवेदनशून्य व क्रूर शासन सत्ताओं से टकराने का साहस मुखर होकर सामने आया है। अहंकार के नशे में चूर सत्ताओं की चालबाजी और खून में रंगे हाथों को भोला साफ-साफ देखते हैं। वे कहते हैं-
नशा उतरे हकूमत का तभी हाकिम कोई समझे
जहाँ तामीर कुरसी है पराई वो इमारत है।
रंगे हैं हाथ जिसके खून से खैरात वो बांटे
कयामत है कयामत है कयामत है कयामत है।
झूठी सरकारी घोषणाओं को भोला आड़े हाथ लेते हैं। वे जिंदगी के लिए रोटी के सवाल को सबसे अहम मानते हैं। यदि लोगों को दो वक्त का मान-सम्मान के साथ भोजन ही नहीं मिला तो फिर सरकारी घोषणाओं से कोई फायदा होने वाला नहीं है-
ये दिया है वो दिया है रोटियां पर हैं कहाँ
घोषणा सरकार की हमको करे बदनाम है।
गज़लकार मानवता के लिए संघर्षरत शक्तियों के पक्ष में पूरी मजबूती से खड़ा होता है। वह श्रम की अहमियत को शिद्दत से पहचानता है और विकास में श्रम और श्रमिकों की योगदान की प्रशंसा करता है। उनकी पक्षधरता में कोई कन्फ्यूजन नहीं है। यह शेर देखिए-
मेरे महबूब यारों से कभी तुमको मिलाऊँगा
कोई रिक्शा चलाता है कोई फसलें उगाता है।
साथ ही भोला की गज़लें मजदूर-किसानों की कड़ी मेहनत के बावजूद उनके यहां पसरी गरीबी के प्रति भी संजीदा हैं-
मुफलिसों की बस्तियों में ये नजारा आम है
धूप को दिन खा गया है बेचरागां शाम है।
तप रहा था गात फिर भी जा चुकी है काम पर
कह रही थी चाँदनी कुछ आज तो आराम है।
भोला की गज़लों में गरीबी और बेबसी की मार झेल रहे ग्रामीण अंचल के बच्चे यदा-कदा दिखाई देते हैं। उनके पोषण, स्कूलों से दूरी और उनकी जीवन स्थितियों पर वे पूरी संवेदनशीलता के साथ नजर दौड़ाते हैं-
गेट के भीतर नहीं जो जा सके इस्कूल के
आपकी हर योजना उनके लिए बेकाम है।
मजबूरियों और बाल मन को इस शेर में बहुत करीबी से पकड़ा गया है-
खेलने की सिन है जिनकी बोझ ढो सकते नहीं
हाय रे मजबूरियां हल्के गुबारे बेचते।
सरकारी स्तर पर शिक्षा का मजाक बनाए जाने की चिंताजनक स्थितियों को भोला ने इस तरह भी बयां किया है-
महकमा तालीम का उसको मिला सरकार में
पास दसवीं कर न पाया शख्स जो छह बार में।
$गज़लकार केवल विभिन्न प्रकार के नामों वाली योजनाएं घोषित करने का प्रचार करने और उनके क्रियान्वयन के प्रति बेरूखी के कारण सरकार को ही कटघरे में नहीं खड़ा करता, बल्कि अच्छी शिक्षा के प्रति ध्यान नहीं देने वाले अभिभावकों पर भी सवाल उठाता है, जोकि अंबेडकर का नाम तो लेते हैं और बच्चों को शिक्षा के लिए बुनियादी सुविधाएं तक नहीं दे सकते-
इक कलम औ कुछ किताबें दे नहीं सकते अगर
झोंपड़ी पे क्यों लिखा है अंबेडकर का नाम है।
बच्चे आज यांत्रिकता और दिखावे की जिंदगी की तरफ तेजी से अग्रसर हो रहे हैं। शहरों में अच्छी शिक्षा के लिए दौड़-धूप कर रहे बच्चों को और सुविधाएं भले मिल रही हों, लेकिन प्राकृतिक परिवेश और उसके अनुभव उनके हाथ से छिटक गए हैं। इसको भोला ने देखिए किस तरह बयां किया है-
बारिशें अब ना रही वो, ना रही वो कश्तियां
सब खिलौने बालकों के हाथ से खोने लगे।
शेर में शिक्षा और सौहाद्र्र का यह नजारा पेश कर गज़लकार पाठकों व श्रोताओं की वाहवाही लूट ले जाता है-
नाज़ ने तख्ती गढ़ी बस्ता बनाया नूर ने
इस तरह भोला मिरा इस्कूल में जाना हुआ।
हर बड़ी जंग कलम से लड़ी जा सकती है। कलम को हथियार बनाकर जंग जीतने का जज़्बा हमें उत्साह से भर देता है-
अब कलम से ही लडूंगा जंग मैं
हो गई है म्यान से शमसीर गुम।
इन $गज़लों में आनंद और उल्लास के पल भी हैं और विपदाओं से बोझिल पलों को भी बहुत सुंदर ढ़ंग से प्रकट किया गया है।
शिक्षा के निजीकरण की तरफ बढ़ती जा रही सरकारी नीतियों के कारण शिक्षा आम आदमी के बच्चों के हाथ से छिटकने का खतरा मंडरा रहा है। आने वाले समय में क्या स्थितियां बनेंगी, चेतावनी देते हुए गज़लकार ने भविष्यवाणी कुछ यूं की है-
मकतब के दर खुले हुए थे सबके वास्ते
थी फीस भी मुआफ अभी कल की बात है।
भोला की गज़लों में जहां एक तरफ मजदूरों और उनके बच्चों की दशा को दर्शाया गया है, वहीं किसानों के हको-हुकूक के लिए भी आवाज बुलंद की गई है। किसानों की दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत से उपजाई हुई फसलों का मोल उसे नहीं मिलता है। उसकी मेहनत की कमाई को कईं ताकतें हड़प कर जाती हैं। जो मिट्टी के साथ मिट्टी होकर फसल पैदा करता है, उसकी बजाय बिचौलियों को ज्यादा लाभ मिलता है। यही नहीं, उसकी जमीन पर पूंजीवादी ताकतें और कारपोरेट कंपनियां उसकी जमीन पर गिद्ध दृष्टि लगाए हुए हैं। इन स्थितियों को व्यक्त करते संग्रह की गज़लों के कुछ शेर देखिए-
सूख ना पाए पसीना होट नम होते नहीं
रोटियां उगती हैं कैसे हलधरों से पूछिये।
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बचा है क्या मियाँ हलकू तुम्हारे खेत में बाकी
उगाए थे चने तुमने मगर भुनवा चुका हूँ मैं।
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आज गर न जागे तो बारहा कहोगे कल
खेत ये हमारे थे क्यारियाँ हमारी थी।
मीडिया के द्वारा सच को उजागर करने की बजाय जब महिमागान ही होता है। तो आम आदमी का जी उससे उकता जाता है। शायर पत्रकारों द्वारा अपनी कलम को गिरवी रखने से खासा आक्रोशित है। हमने पत्रकारों को बड़े-बड़े सियासतदानों से सवाल करते हुए देखा है। लेकिन जब पत्रकार अपनी कलम की जिम्मेदारी से बेपरवाह हो जाएं तो शायर किस तरह से पत्रकारों से सवाल पूछता है। इसकी बानगी देखिए-
है कहाँ गिरवी कलम, कुछ ऐ सहाफी तुम कहो
खुदकुशी लिखते कत्ल को क्या गजब अंदाज है।
सच से मुंह मोड़ चुके अखबारों के प्रति आम आदमी के मन में क्या भाव पैदा होता है, यह शेर दिखा रहा है-
और कुछ तो पेश अपनी चल नहीं सकती यहाँ
चाहता है जी लगादूँ आग मैं अखबार में।
मौजूदा दौर के मुख्य धारा के मीडिया से अब उम्मीदें नहीं रखी जा सकती। ऐसे समय में जब घर-घर में चैनल कहर बरपा रहे हैं। ऐसे में शायर की कल्पना पर गौर फरमाईये-
कम-अज-कम वो आदमी तो चैन से होगा यहाँ
जो किसी चैनल किसी अखबार से वाकिफ नहीं।
भोला के गज़ल संग्रह में अनेक स्थानों पर नाजुकता और संवेदनशीलता की प्रतीक तितलियों व चिडिय़ों का जिक्र आता है। लेकिन आज के हिंसक दौर में उनके साथ सलूक कैसा होता है। कौन उन्हें कुचलने पर उतारु है। मौजूदा परिवेश की क्रूरताओं को पेश करते कुछ शेर देखिए-
बागबां को डूबकर अब मर ही जाना चाहिए
एक भी तितली नहीं महफूज इस गुलजार में।
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कौन चिडिय़ा गुनगुनाए गीत प्यारे बाग में
हर शजर पे आजकल बैठा हुआ इक बाज है।
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तानपूरे ढ़ोल, तबले बाँसुरी खामोश है
गोलियों की धुन सुनो बंदूक ही अब साज है।
खुद शायर क्या चाहता है, इस शेर से स्पष्ट है-
तितलियाँ बेखौफ जिसमें उड़ सकें
इस तरह आबाद ये गुलजार हो।
संग्रह के कुछ शेर तो ऐतिहासिक बन पड़े हैं, जिनमें एक पूरा फलसफा छिपा हुआ है। इन शेरों को समझने और उनका आनंद उठाने के लिए पाठक को पूरी पृष्ठभूमि से परिचित होना जरूरी है।
बनारस के नसीबों में लिखी फिरदौस की महफिल
मगर जश्र-ए-कज़ा मुर्शिद मेरा मगहर मनाता है।
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आजकल हिन्दोस्तां का रूप है बदला हुआ
मर गया गांधी बेचारा, गोडसे जिंदा हुआ।
मेहनतकश को उसका हक ना मिलना सबसे अधिक चिंताजनक है। मेहनत कोई करता है। मेहनत कर-करके मर जाता है। लेकिन उसका श्रेय चालाक लोग लूट ले जाते हैं-
गटर में मर गया रमलू मगर हैरत हुई सुनके
सुना तमगा सफाई का सचिन के नाम होता है।
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पानियों के दाम बेशक बढ़ गए हैं देश में
आदमी का खून लेकिन और भी सस्ता हुआ।
संग्रह का शीर्षक एक गज़ल के जिस शेर से लिया गया है, पहले उसे देखिए-
किया वादा वफा उसने उजाले हर तरफ होंगे
हवा को दे दिया ठेका चरागों की हिफाजत का।
यह शेर हमारी राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था के रहनुमाओं की चालबाजी का पटाक्षेप करता है। वे जो वादा करते हैं, व्यवहार उसके बिल्कुल उलट करते हैं। उनके वादों में हमें अच्छे दिनों और खुशहालियों के सपने दिखाए जाते हैं। और हकीकत कुछ और होती है। हालांकि यह प्रतिनिधि शेर व्यवस्था पर सवाल उठा रहा है। लेकिन यदि पूरे संग्रह के मूलभाव को समझने की चेष्टा की जाए तो भी संग्रह का शीर्षक पूरी तरह से उपयुक्त एवं सटीक है। शीर्षक पूरे संग्रह की गज़लों का प्रतिनिधित्व करता है, जोकि अंधेरे दौर में उजालों की उम्मीदों को अभिव्यक्त करता है। कटु यथार्थ को बयां करते हुए वे हर वंचित-शोषित तक ज्ञान व अधिकारों के उजाले की उम्मीदों से लबरेज हैं। अपनी ग़ज़लों के जरिये वे एक बेहतर समाज का सपना रचते हैं। वे चाहते हैं- ‘मंदिरी की बात हो ना मस्जिदी की बात हो, मजहबों को भूलकर अब आदमी की बात हो। मुन्सिफों मजलूम की अब एक ही फरियाद है, की गई सदियों तलक उस ज्यादती की बात हो।’ शीर्षक और विषय-वस्तु के अनुकूल ही युवा कलाकार कीर्ति सैनी द्वारा तैयार किया गया आवरण है। आवरण में मशालें हाथ में लिए किसी बस्ती के महिला-पुरूष और बच्चे दिखाए गए हैं। यह आवरण इतना आकर्षक है कि किसी को भी गज़लें पढऩे के लिए आमंत्रण देता है।
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, मीर तकी मीर, मोमिन, जौक, गालिब, फैज़, हाली पानीपती सहित कितने ही शायरों ने गज़ल के लिए जरिये ना केवल अपने भावों और अपने समय को अभिव्यक्त किया बल्कि गज़ल के बारे में चले आ रहे विचारों में भी बदलाव किया। हिन्दी की बात करें तो अमीर खुसरो की कुछ रचनाओं में गज़ल की संभावनाएं दिखाई देने लगी थी। संत कबीर ने भी गज़ल में हाथ आजमाया। भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने गज़ल में भावाभिव्यक्ति की। हिन्दी गज़ल को एक स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय दुष्यंत कुमार को जाता है। शमशेर बहादुर सिंह ने गज़ल का नया सौंदर्यशास्त्र गढऩे में योगदान किया। अदम गोंडवी ने समाज और राजनीति की सच्चाईयों को मुखरता के साथ गज़ल के माध्यम से आवाज दी। गज़ल की प्रगतिशील परंपरा के प्रति मनजीत भोला पूरी तरह से सजग हैं और अपने पहले ही संग्रह में वे इस परंपरा में अपना नाम दर्ज करवा चुके हैं। वे अदम गोंडवी की यथार्थपरक दृष्टि और बेबाक बयानी से खासे प्रभावित हैं। उनके कईं शेरों में हमें गोंडवी साहब झांकते हुए मिलेंगे। कुछ शेरों को पढक़र हमें अदम गोंडवी के शेर बरबस ही याद आ जाते हैं-
फाइलों में हुआ है उजाला बहुत
एक लट्टू भी बाहर जला ही नहीं।
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चमारों की ये बस्ती है यहाँ हर प्यास प्यासी है
यहाँ तो भूक भी भूकी ही रहकर है पली यारो।
इसके बावजूद भोला ने मौलिकता बरकरार रखी है। उनकी गज़लों में जज़्बात की गहराई और समाज-राजनीति की कटु सच्चाई मुखर होकर व्यक्त होती है। वे अपनी गज़लों में कवियों और शायरों को याद करते हुए चलते हैं-
कबीरा हूँ गौतम हूँ रसखान हूँ
नहीं कोई झूटी इबारत हूँ मैं
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है गजब की शय यहां भोला ग़ज़ल
अब तलक गालिब हुए ना मीर गुम।
शायर मनजीत भोला ने उर्दू को सीखने और गज़ल के व्याकरण पर पकड़ बनाने के लिए कड़ी मेहनत की है। यह जानकारी हमें संग्रह की शुरूआत में उनके लिखे से मिलती है। लेकिन उनकी गज़लों को पढक़र ऐसा लगता नहीं है। गज़लों में उनकी सशक्त भाषा-शैली के दर्शन होते हैं। हमें लगता है कि उर्दू और हिन्दी पर उनकी पूरी पकड़ है। उनकी भाषा का पैनापन और नफासत गज़लों से झांकती ही नहीं बल्कि टपकती है। निश्चय की शायर ने इसके लिए अथक मेहनत की है। कविता और गज़ल के चाहवानों को यह संग्रह जरूर पढऩा चाहिए। आने वाले समय में भोला की गज़लें और ज्यादा सशक्त होकर हमारे सामने आएंगी। ऐसी हमें उम्मीद है। उनके लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
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HARYANA PRADEEP 09-11-2011 |
हिन्दी प्राध्यापक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
मेल आईडी- arunkaharba@gmail.com
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