Saturday, February 6, 2021

MANMATH NATH GUPTA WAS A GREAT REVOLUTIONARY & WRITER

 मन्मथनाथ गुप्त ने आजादी की लड़ाई में निभायी क्रांतिकारी भूमिका

स्वतंत्रता आंदोल, इतिहास व साहित्य की बेमिसाल प्रतिभा
JAGAT KRANTI 7-2-2021

अरुण कुमार कैहरबा

आजादी की लड़ाई में भगत सिंह की अगुवाई में युवाओं की क्रांतिकारी धारा का अहम योगदान रहा। क्रांतिकारियों के जीवन-संघर्षों, क्रांतिकारी धारा के इतिहास व विचारों पर प्रामाणिक लेखन करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के गिने-चुने नामों में मन्मथनाथ गुप्त का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। मन्मथ गुप्त किशोरावस्था में ही आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने लगे थे। स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय हिस्सेदारी करने और क्रांतिकारी विचारों का लेखन करने के लिए उन्हें काफी लंबे समय तक जेल की यातनाएं सहनी पड़ी। जेल में रहते हुए भी वे लिखते रहे। आजादी के बाद उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी व बांगला साहित्य, इतिहास, संस्मरण लिखने, पत्रिकाओं के संपादन में अपना समय बिताया।
मन्मथनाथ गुप्त का जन्म 7 फरवरी, 1908 को वाराणसी में हुआ। गुप्त के पिता वीरेश्वर स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। उनका स्कूल नेपाल के विराटनगर में था। जिस कारण गुप्त की दो साल की शिक्षा वहीं पर हुई। बाद में वे वाराणसी में आ गए। 13 साल की उम्र में वे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। 1921 में ब्रिटेन के युवराज के बहिष्कार के लिए लोगों में पर्चे बांटते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। तब पहली बार उन्हें तीन महीने की जेल हुई। जेल से छूटने पर वे काशी विद्यापीठ में दाखिल हुए। यहां से विशारद की पढ़ाई करते हुए वे क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गए। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गए। बताते हैं कि चन्द्रशेखर आजाद को भी मन्मथ नाथ गुप्त ने ही एसोसिएशन के साथ जोड़ा था। 17 साल की उम्र में एसोसिएशन द्वारा काकोरी में ट्रेन से सरकारी खजाना लूटने की कार्रवाई में मन्मथ नाथ गुप्त ने हिस्सा लिया। 9अगस्त, 1925 को हुई इस कार्रवाई को इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जाना जाता है। इस कांड में हिस्सा लेने के अपराध स्वरूप में अंग्रेज सरकार ने रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी व ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी। मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल के कारावास की सजा हुई। 1937 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। 1939 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और आजीवन कारवास की सजा मिली। उन्होंने कुछ समय अंडमान की जेल में भी बिताया। जेल में गुप्त जी का अध्ययन एवं लेखन निरंतर जारी रहा।
आजादी से एक साल पहले 1946 में उन्हें जेल से रिहा किया गया। 15अगस्त, 1947 को देश आजाद होने के बाद उन्होंने क्रांतिकारियों द्वारा की गई शहादतों और उनके विचारों पर अपनी कलम चलाई। उन्होंने अपनी लेखनी में क्रांतिकारियों के सपनों के अनुकूल आजाद भारत के निर्माण की जरूरत को हमेशा रेखांकित किया। उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी व बांग्ला में करीब 120 किताबें लिखी। ये किताबें जहां स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास व संस्मरण से संबंधित हैं, वहीं साहित्य और साहित्यिक आलोचना से भी जुड़ी हुई हैं।
उनकी किताब ‘क्रांतियुग के संस्मरण’ 1937 में प्रकाशित हुई। ‘भारत में सशस्त्र क्रांतिकारी चेष्टा का इतिहास’ 1939 में आई। क्रांतिकारी चरित्रों पर आधारित 1955 में प्रकाशित उनका उपन्यास-‘बहता पानी’ काफी चर्चित रहा। समीक्षात्मक किताबों में ‘कथाकार प्रेमचंद’, ‘प्रगतिवाद की रूपरेखा’ तथा ‘साहित्य, कला, समीक्षा’ की अधिक ख्याति हुई। उन्होंने बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में महत्वपूर्ण दायित्व संभाला। मंत्रालय के योजना सहित अनेक प्रकाशनों का संपादन किया। वे बाल पत्रिका-बाल भारती व साहित्यिक पत्रिका ‘आजकल’ के संपादक रहे। 26अक्तूबर, 2000 को उनका निधन हो गया। उनकी लिखी किताबें हिन्दी साहित्य व इतिहास की कीमती धरोहर हैं, जो हमेशा हमें राह दिखाती रहेंगी।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
मो.नं.-09466220145

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