Friday, February 5, 2021

KHAN ABDUL GAFFAR KHAN SARHADI GANDHI

 अहिंसा व सत्याग्रह के जरिये देश को आजाद करवाने वाले थे सरहदी गांधी
UTTAM HINDU 06-02-2021


अरुण कुमार कैहरबा

भारत के इतिहास में आजादी की लड़ाई एक ऐसा समय है, जब अंग्रेजी शासन के विरोध में देश भर में आपसी भाईचारे व एकता का संचार हुआ। अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी प्रतिभा व त्याग की भाावना से देश की जनता को प्रभावित किया। संघर्षों से उपजे उनके विचारों ने लोगों को एकता के सूत्र में बांध कर सांझी लड़ाई लडऩे के लिए तैयार किया। ऐसी संघर्षशील शख्सियतों में भारत के उत्तर-पश्चिम प्रांत में आजादी की लड़ाई के अगुवा बने $खान अब्दुल गफ़्$फार $खान एक चमकते सितारे हैं। सरहदी गांधी, सीमांत गांधी, बच्चा खान व बादशाह खान के नामों से प्रसिद्ध हुए गफ्फ़ार ख़ान ने आजादी की लड़ाई में कईं बार जेलें काटी। देश के विभिन्न स्थानों पर घूम कर लोगों के साथ संवाद किया। बादशाह खान ने आजादी के साथ ही अंग्रेजों द्वारा साजिशन देश को टुकड़ों में बांटने का पुरजोर विरोध किया। आजादी के बाद वे नए बने देश पाकिस्तान में रहे, लेकिन उनमें हमेशा हिंदुस्तानी दिल धडक़ता रहा। साम्प्रदायिक सद्भाव, भाईचारे व धर्मनिरपेक्षता के प्रबल समर्थक रहे बादशाह खान को भारत सरकार ने 1987 में देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देकर सम्मानित किया। वे देश के पहले कागजों में गैर-भारतीय और दिल से भारतीय थे, जिन्हें यह सम्मान प्रदान किया गया।
JANSANDESH 6-02-2021

$खान अब्दुल गफ़्$फार $खान का जन्म 6 फरवरी, 1890 को पेशावरी घाटी में पडऩे वाले उत्मानजई, खैबर पख़्तूनख्वा में अपनी बहादुरी व लड़ाकी प्रवृत्ति के लिए मशहूर पठान समुदाय में हुआ। शांत स्वभाव के पिता बैरम खां अपने बेटे $गफ़्$फार ख़ान को अच्छी शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने उसे मिशनरी स्कूल में दाखिल करवाया तो अपने ही पठानी समाज में विरोध का सामना करना पड़ा। शुरू में $गफ़्$फार खान को वर्दी में सजे फौजी की बहादुरी ने खूब आकर्षित किया। नौवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने फौज में भर्ती की अर्जी लगाना शुरू कर दिया। ऊंची कद-काठी के $गफ़्$फार खान फौज में भर्ती हो गए। लेकिन फौज में भारतीय सिपाहियों के साथ अंग्रेज अधिकारियों के भेदभाव व दोयम दर्जे से आहत होकर उन्होंने अंग्रेजी फौज से इस्तीफा दे दिया और घर आ गए। इसके साथ ही उनमें देश को आजाद करवाने की प्रबल इच्छा भी पैदा हुई।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की। इसके बाद आगामी पढ़ाई के लिए वे लंदन जाना चाहते थे। पिता ने अनुमति भी दे दी थी। लेकिन मां उन्हें विदेश में भेजने देना नहीं चाहती थी। अगले कदम से पहले $गफ़्$फार खान ने अपने पिता की जमीन में खेती शुरू कर दी। $गफ़्$फार खान अपने इलाके में अनपढ़ता, पिछड़ेपन व अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने 1910 में अपने ही कस्बे उत्मानजई में स्कूल शुरू किया। इसी बीच उन्होंने तुरंगजई के स्वतंत्रता सेनानी व समाज सुधारक हाजी साहब के साथ आजादी की लड़ाई व समाज सुधार के कार्यों में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इसकी सजा के रूप में अंग्रेजों ने 1915 में उनके स्कूल को बंद कर दिया। 1915 से 18 तक उन्होंने खैबर पख़्तूनख्वा के करीब 500 गांवों की यात्राएं की और लोगों से सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर चर्चाएं की। उनके योगदान के लिए इस दौरान वे बादशाह खान के नाम मशहूर हो गए।
1919 में अंग्रेजी सरकार का रोल्ट एक्ट आया। 1920 में अंग्रेजी शासन द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की में किए गए अन्याय के खिलाफ खिलाफत आंदोलन शुरू हो गया था। उत्तरी पश्चिमी प्रांत में रोल्ट एक्ट के विरूद्ध आंदोलन की अगुवाई $गफ़्$फार खान ने की। नतीजतन उन्हें जेल की सख़्त सजा काटनी पड़ी।
मई 1928 में $गफ़्$फार खान ने पश्तो भाषा में मासिक राजनीतिक  पत्रिका-‘पश्तून’ शुरू की। नवंबर, 1929 में उन्होंने खुदाई खिदमतगार नाम से सामाजिक संगठन बनाया। शीघ्र ही यह सामाजिक संगठन देश की आजादी के लिए अहिंसात्मक आंदोलन का मुख्य मंच बन गया। इसे लाल कुर्ती दल के नाम से जाना जाता था। एक संयुक्त, आजाद व धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए खुदाई खिदमतगार ने संघर्ष किया। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में चल रही आजादी की लड़ाई में इस संगठन ने उत्तर-पश्चिमी प्रांत में लोगों को संगठित करने का काम किया। खुदाई खिदमतगार से जुड़े कार्यकर्ता मौत से डरते नहीं थे। 1930 में शांतिपूर्ण आंदोलन के बावजूद $खान अब्दुल $गफ़्$फार खान को फिर से जेल में डाल दिया गया। लेकिन पठानों ने आंदोलन को जारी रखा। जेल में उन्हें गुजरात (पंजाब) जेल में रहने का मौका मिला। जहां पर वे पंजाब के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए। जेल में रहते हुए उन्होंने कुरान के साथ-साथ गुरु ग्रंथ साहिब व हिन्दू धर्म के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी किया। उन्होंने हिन्दु-मुस्लिम-सिख एकता व जनता के आपसी भाईचारे पर बल दिया। 1934 में जेल से रिहा होने के बाद वे वर्धा में रहे। गांधी जी के साथ उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। 1942 में उन्हें फिर से जेल की यात्रा करनी पड़ी।
$खान अब्दुल $गफ़्$फार $खान गांधी जी के गहरे मित्र थे। दोनों के विचार एक दूसरे से मिलते थे। गांधी जी के साथ $खान ने अनेक स्थानों पर आजादी की लड़ाई के दौरान लोगों को संबोधित किया। गांधी जी का कोई भी आंदोलन हो, उसमें उन्हें $गफ्फ़ार ख़ान का पूरा सहयोग मिला। वे कईं वर्षों तक कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य रहे। 1931 में उनके सामने पार्टी अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव भी रखा गया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस में जब नेताओं की गांधी के विचारों से असहमति बन जाती थी, तो भी बादशाह खान ने उनके विचारों का समर्थन किया। 1938 में जब गांधी उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत के दौरे पर गए तो उनके अहिंसा के संदेश के विरूद्ध प्रचार किया गया। यह प्रचार भी किया गया कि गांधी जी पठानों को बुजदिल बनाना चाहते हैं। अपने दौरे से वापिस लौटने पर महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में ‘खुदाई खिदमतगार और बादशाह खान’ शीर्षक से एक लेख लिखा। इसमें गांधी ने लिखा-
‘ख़ुदाई ख़िदमतगार चाहे जैसे हों और अंतत: जैसे साबित हों, लेकिन उनके नेता के बारे में, जिन्हें वे उल्लास से बादशाह ख़ान कहते हैं, किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं है। वे निस्संदेह खुदा के बंदे हैं....अपने काम में उन्होंने अपनी संपूर्ण आत्मा उड़ेल दी है। परिणाम क्या होगा इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं। बस इतना उन्होंने समझ लिया है कि अहिंसा को पूर्ण रूप से स्वीकार किए बिना पठानों की मुक्ति नहीं है। और इतना समझ लेना ही उनके लिए काफी है। पठान बड़े अच्छे योद्धा हैं, इस बात का बादशाह ख़ान को कोई गर्व नहीं है। वे उनकी बहादुरी की कद्र करते हैं, लेकिन मानते हैं कि अत्यधिक प्रशंसा करके लोगों ने उन्हें बिगाड़ दिया है। वे यह नहीं चाहते कि उनके पठान भाई समाज के गुंडे माने जाएं। उनके विचार से पठानों को गलत राह पर लगाकर लोगों ने उनसे अपनी स्वार्थसिद्धि की है और उन्हें अज्ञान के अंधकार में रखा है। वे चाहते हैं कि पठान जितने बहादुर हैं उससे अधिक बहादुर बनें और अपनी बहादुरी में ज्ञान का समावेश करें। उनका विचार है कि यह काम केवल अहिंसा के सहारे ही किया जा सकता है।’ गांधी जी के ये विचार $खान अब्दुल $गफ़्$फार $खान व्यक्तित्व, विचारों व योगदान को दर्शाने वाले हैं।
बादशाह खान ने आजादी के लड़ाई के दौरान जिन्ना व मुस्लिम लीग द्वारा देश के बंटवारे व मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना का विरोध किया। जब उन्हें लगा कि अंग्रेज देश का बंटवारा करेंगे ही तो उन्होंने पश्तून बहुल पाकिस्तान व अफगानिस्तान के क्षेत्र को मिलाकर नए देश पख्तूनिस्तान की मांग उठाई। आजादी के बाद वे पाकिस्तान में रहे। 8 मई, 1948 को उन्होंने पाकिस्तान की पहली विपक्षी पार्टी आजाद पाकिस्तान पार्टी का गठन किया। अंग्रेजी शासन में तो वे कईं बार जेल में गए ही, लेकिन पाकिस्तान सरकार ने भी उन्हें अधिकतर समय घर में नजरबंद या जेल में रखा। 1970 व 1985 में उन्होंने भारत की यात्रा की। उनका संस्मरण ग्रंथ- माई लाइफ एंड स्ट्रगल 1969 में प्रकाशित हुआ। 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हुई। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया। आजादी की लड़ाई और आजीवन शांति के लिए लडऩे वाले योद्धा के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
NAVSATTA 6-2-2021


INDORE SAMACHAR 6-2-2021

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