Sunday, November 29, 2020

ऐतिहासिक किसान आंदोलन

सरकार किसानों से बात करे और निकाले समाधान

अरुण कुमार कैहरबा

हर तरफ आक्रोश का मंजर है। मजदूर-किसान व कर्मचारी सडक़ों पर हैं। दिल्ली जाने वाले रास्तों पर किसानों का रेला है। जाम ही जाम है, जैसे लगा कोई मेला है। आक्रोशित लोगों द्वारा लगाए गए जाम को खुलवाने के लिए पुलिस दौड़ी फिरती थी। अब पुलिस सडक़ों पर जाम लगा रही है और दिल्ली कूच को निकले आक्रोशित किसान जाम खोल रहे हैं। हैरत तो इस बात की है कि पुलिस ने किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए सडक़ों पर छोटे-बड़े हर तरह के बैरिकेड लगाने के साथ-साथ ओवरलोडिड ट्रक-ट्राले खड़े किए। यही कम नहीं था कि जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल करके बड़ी-बड़ी खाईयां खोदी। पुलिस व सुरक्षा बलों को किसानों को रोकने के लिए इस तरह झोंक दिया गया है जैसे किसी दुश्मन देश के आक्रमण को रोकने के लिए प्रबंध किए गए हों। संविधान दिवस पर जनता के संवैधानिक अधिकारों को रोकने के लिए कोरोना का बहाना बनाया गया। यह सही है कि कोरोना एक भयानक बिमारी है, जोकि लोगों के इक_ा होने से भयानक हो सकती है। लेकिन इसका नाम लेकर लोगों के अभिव्यक्ति के अधिकार को तो नहीं दबाया जा सकता। उनके ऊपर उनकी इच्छा के विरूद्ध कानूनों को तो नहीं थोंपा जा सकता। लोकतंत्र के मायने जनता के लिए जनता द्वारा शासन है। 
किसानों को रोकने के लिए अब तक की गई सारी कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। हरियाणा-पंजाब बॉर्डरों पर पुलिस ने पंजाब के किसानों को रोकने के लिए आंसू गैस, तेजधार पानी की बौछारें, लाठीचार्ज सहित सब कुछ किया लेकिन किसानों के तूफान को रोकने के सारे प्रयास असफल हुए। अंबाला, कुरुक्षेत्र, करनाल, पानीपत में पुलिस के सारे इंतजामात धरे के धरे रह गए। ठंड के मौसम में ठंडे पानी की बौछारें किसानों की गर्माहट के आगे फीकी साबित हुईं। दिल्ली बॉर्डर पर हरियाणा-दिल्ली की पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा किसी भी सूरत में किसानों को दिल्ली तक नहीं जाने देने के दावे किए जा रहे थे। हरियाणा सरकार ने किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए क्यों इतना जोर लगाया, यह भी समझ से परे है। लेख लिखे जाने तक किसान दिल्ली पहुंच चुके हैं। कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर की तरफ किसानों को 3 दिसंबर को बातचीत का न्योता दिया गया है। 
कृषि सुधार के नाम से लाए गए तीन केन्द्रीय कृषि कानूनों को लेकर लंबे समय से किसान रोष जता रहे हैं। कोरोना महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन के बीच में तीन अध्यादेशों के जरिये इन्हें लागू किया गया था। इन अध्यादेशों और बाद में कानून से पहले किसानों के प्रतिनिधियों से इन पर कोई बात नहीं की गई। ना ही किसानों ने इनकी मांग की थी। किसानों का आरोप है कि ये कृषि कानून पंूजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए लाए गए हैं। इन कानूनों से मंडी व्यवस्था और न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। किसानों का कहना है कि यदि सरकार इन कानूनों पर इतनी ही अडिग है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी कानूनी आधार प्रदान किया जाए। हर हाल में किसानों की फसल को समर्थन मूल्य पर खरीदा जाना सुनिश्चित किया जाए। यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि किसानों को आज भी यह समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता है। कितनी ही फसलें तो ऐसी हैं कि जब ये फसलें किसानों के खेतों से बाजार में आती हैं तो उन्हें औने-पौने दामों पर खरीदा जाता है। व्यापारी के हाथ में पहुंच कर इन फसलों की कीमतें अचानक आसमान छूने लगती हैं। किसानों की आमदनी बढ़ाने के सरकारी दावों के बावजूद कृषि घाटे का सौदा बन गई है। युवा कृषि को तौबा करते जा रहे हैं।
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए लंबे समय से किसान मांग कर रहे हैं। चुनावों में सभी राजनैतिक दल किसानों को आश्वासन देते हैं। लेकिन चुनाव जीतने के बाद अपने ही वादों को भूल कर अलग ही राग अलापने लगते हैं। यही अब हो रहा है। पिछले तीन महीनों से किसान केन्द्र सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों के विरूद्ध आंदोलन कर रहे हैं। किसानों की भावनाओं को समझने बिना सरकार द्वारा इन कानूनों के पक्ष में जबरदस्त प्रचार किया जा रहा है। किसानों के साथ सरकार ने बात तो की लेकिन किसानों का कहना है कि बातचीत में सरकार अडिय़ल रूख अपना रही है। बहुत पहले ही 26-27 नवंबर को दिल्ली कूच करने का फैसला किया था। किसानों के रोष को समझने की बजाय सरकार ने दो दिन पहले ही किसान नेताओं की गिरफ्तारी करने का काम शुरू कर दिया। उससे बात नहीं बनी तो दिल्ली जाने वाले रास्तों पर पुलिस तैनात कर दी। बहुत ही हास्यास्पद ढ़ंग से बड़ी-बड़ी गाडिय़ां रास्ता रोकने के लिए रास्तों पर खड़ी कर दी। पानी की बौछारों, आंसू गैस जैसे प्रबंधों के साथ-साथ सडक़ों पर खाई खोदने के कार्य भी किए गए। सारी अड़चनों को धता बताते हुए किसान दिल्ली पहुंच गए हैं। अब सरकार की तरफ से किसानों को बुराड़ी मैदान में रूकने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन किसान बॉर्डरों पर ही रूक गए हैं। बेहतर है सरकार अडिय़ल रूख छोड़ कर किसानों से बात करे। किसानों की भावनाओं के अनुरूप ही कानूनों को रूप दिया जाए। कृषि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और किसान उसका कर्णधार और अन्नदाता है। यदि कृषि और किसान के हितों को नुकसान होगा तो देश को नुकसान होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होनी चाहिए। 




Dainik Vir Arjun






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