Friday, November 20, 2020

इंकलाब के बेमिसाल शायर फै़ज़ अहमद फैज़

JANSANDESH TIMES 20-11-2020

 उम्मीद और इंकलाब के बेमिसाल शायर फै़ज़ अहमद फैज़

अरुण कुमार कैहरबा

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

तरक्कीपसंद शायर फ़ैज अहमद फ़ैज आम जनता के बेमिसाल शायर हैं, जो तमाम प्रकार की तानाशाहियों से जूझते हुए जम्हूरियत की जोरदार ढंग़ से पैरवी करते हैं। क्योंकि सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही आम आदमी के दुख-दर्द अभिव्यक्ति पा सकते हैं। $फैज़ की शायरी में एक तरफ नाउम्मीद हो चुके लोगों का दर्द और संत्रास है। वहीं न्याय के पक्ष में खड़े होने का जज़्बा, जीत का जुनून और यकीन भी है। फै़ज़ की जिन्दगी का बेहतरीन दौर या तो सलाख़ों में बीता या निर्वासन में, पर हज़ारों नाउम्मीदी भरे आलम के बावजूद उनकी कविता में उम्मीद का दीया कभी बुझा नहीं है। अन्याय के बीच वे बोलते रहे-
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है।
JAMMU PARIVARTAN
फैज़ की पैदाईश अविभाजित हिन्दोस्तान के पंजाब राज्य के जिला सियालकोट के कस्बा काला कादिर में 13फरवरी, 1911 को हुई। इनके पिता सुल्तान अहमद एक मशहूर वकील थे। साहित्यिक रूचि के कारण उनकी मित्रमंडली में अल्लामा इक़बाल जैसे महान शायर व कई साहित्यिक हस्तियाँ थीं। उन्होंने खुद भी शाही अफगानिस्तान के अमीर सामंत अब्दुर्रहमान की जीवनी लिखी थी, जिसकी उस समय खूब चर्चा हुई। वैसे तो फैज़ की बुनियादी तालीम एक मदरसे से शुरू हुयी। लेकिन जल्दी ही उनके पिता ने उनका नाम मिशनरी स्कूल में दजऱ् करा दिया। वहाँ उन्होंने उच्चतर माध्यमिक स्तर तक अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई की। आगे की पढ़ाई के लिए फ़ैज ने लाहौर की ओर रुख़ किया। उन्होंने अंग्रेजी(1933) तथा अरबी (1934) में एम.ए. किया।
कॉलेज के दिनों में ही उन्हें पढऩे का चस्का लग गया। लाहौर में अध्ययन के दौरान वे किराये पर किताबें लेकर पढ़ते थे। इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी भावनाओं को शब्दबद्ध करना शुरू किया। शायरी से उनका प्रेम एक बार हुआ तो उम्र भर कायम रहा। 1935 में फ़ैज ‘मोहम्मद एंग्लो ओरियण्टल’ कॉलेज अमृतसर में अध्यापन कार्य में लग गये। 1936 में उन्होंने लेखकों के संगठन प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)के निर्माण में बढक़र हिस्सेदारी की। प्रलेस की स्थापना में अन्य उर्दू लेखक सज्ज़ाद ज़हीर, कृश्नचन्दर, रशीद जहाँ बेग़म के साथ अग्रिम  पंक्ति में थे। फैज़ के पहले काव्य-संग्रह ‘नक्श-ए-फरियादी’ का प्रकाशन 1941 में हुआ। इसमें संकलित कविताएँ उर्दू काव्य परम्पराओं की तिलांजलि दिये बगैऱ नया तेवर लेकर आती हैं जिसकी एक नज़्म-‘और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, मुझ से पहली-सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग’ जो कि फ़ैज की बेहद चर्चित नज़्मों में से एक है। द्वितीय विश्व युद्ध में जब फासीवादी व नाजीवादी ताकतें हावी होने लगी तो फैज़ ने ब्रिटिश सेना में शामिल होकर युद्ध में कूद पड़े। 1947 तक सेना में कर्नल के पद तक पहुंचे और बाद में सेना को विदायी दे दी। इसके बाद वे लाहौर जाकर कलम के मोर्चे पर सक्रिय हो गए। वहाँ  दैनिक ‘पाकिस्तान टाइम्स’ का सम्पादन शुरू किया। इन दिनों देश भर में हाय-तौबा मची थी। कत्लोगारत का माहौल चल रहा था। अंग्रेजों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति अपना असली रूप दिखा रही थी।
1947 में भारत औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त तो हुआ, लेकिन विभाजन ने जनता की आकांक्षाओं पर तुषारापात कर दिया। धर्म के नाम पर व्यापक दंगे और उजाड़ देखकर  जन-जन कराह उठा। ऐसी आधी-अधूरी, कटी-छँटी आज़ादी पर फैज़ अपनी नज़्म में सवाल उठाते हैं-
ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
आजादी के बाद $फैज़ पाकिस्तान की तरफ रहे, लेकिन उन्होंने विभाजन को मन से स्वीकार नहीं किया। वे सत्ताधारी लोगों की साजिशों पर कलम चला रहे थे और मेहनतकश के एकजुट होकर क्रांति की पक्षधरता कर रहे थे। फ़ैज़ को 9मार्च 1951 को राज्य के खिलाफ विद्रोह करने की साजिश रचने के आरोप में कुछ दूसरे फौजी अफसरों के साथ गिफ्तार कर लिया गया। उन पर ‘रावलपिण्डी षडयंत्र’ का आरोप मढ़ा गया। उनके सिर पर मौत का ख़तरा मण्डराने लगा। अन्तत: उन्हें चार साल के लिए जेल की सलाख़ों के पीछे धकेल दिया गया। जेल में उन्होंने दोबारा कविता का दामन पकड़ा जो कि पिछले दिनों (1940 से) कुछ छूट-सा गया था। उनका दूसरा कविता संकलन ‘दस्त-ए-सबा’ तब छपकर आया, जब वे जेल में थे। तीसरा संकलन ‘जिंदाँनामा’ की लगभग सारी कविताएँ जेल के दौरान ही लिखी गयीं।
जेल से रिहा होने तक देश-दुनिया में काफी कुछ बदल चुका था। मुल्क में विरोध की हर आवाज़ पर पहरा था। ऐसे दमघोंटू माहौल में फैज़ के लिए कुछ भी कर पाने की गुंजाइश नहीं के बराबर थी। लेकिन फैज़ चुप बैठने वालों में से नहीं थे। शीतयुद्ध के दौरान वे अपने सवालों को अन्तरराष्ट्रीय जगत तक ले गये। 1956 में वे दिल्ली में आयोजित एशियन राईटर्स सम्मेलन में शामिल हुए। 1958 में एशिया-अफ्रीका लेखक सम्मेलन ताशकन्द में होने वाला था। अभी सम्मेलन चल ही रहा था कि पाकिस्तान में पहला सैनिक तख्तापलट हुआ। मुल्क में सैनिक तानाशाही लागू कर दी गयी। फैज़ मुल्क वापस आते ही गिरफ्तार कर लिए गये, कुछ ही समय के लिए सही। रिहा होते ही वे फिर अपने रचनात्मक कामों में लग गए।
1962 में उन्हें रूस के सर्वोच्च पुरस्कार लेनिन शान्ति पुरस्कार से नवाजा गया। पुरस्कार लेने हेतु जब उन्हें रूस जाने की अनुमति मिली तो वे तत्काल वापस न आकर दो साल के लिए आत्मनिर्वासन पर ब्रिटेन चले गये। 1964 में वे पाकिस्तान वापस लौटे। इस दौरान उन्होंने  अध्ययन-अध्यापन का काम किया और कला-संस्कृति के क्षेत्र में कई एक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। 1984 में उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया।
जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार के सत्तासीन होने के बाद मुल्क का मौसम कुछ राहत भरा लगा। पाकिस्तान में कभी भी फौजी तानाशाही स्थापित होने की आशंका और भुट्टो द्वारा किए जा रहे भूमि सुधार और मानवाधिकारों के सम्मान के वादों के कारण फ़ैज नये शासकों की नीतियों से कुछ सहमत-से नजऱ आते हैं। भुट्टो ने फैज़ को शिक्षा मंत्रालय के तहत सांस्कृतिक सलाहकार के पद पर नियुक्त किया। चार सालों तक वे इस्लामाबाद में सांस्कृतिक प्रशासक के तौर पर काम करते रहे। पर राहत के इन पलों की उम्र काफी छोटी निकली। 1977 में पुन: पाकिस्तान में सैनिक तख्तापलट हुआ। फै़ज़ अपने ओहदे से ही बेदखल नहीं हुए बल्कि उन्हें मुल्क से भी बेदख़ल होना पड़ा। लेकिन उनका संकल्प मजबूत था-
हम परवरिशे-लौहो-क़लम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजऱती है रक़म करते रहेंगे
1978 से 1982 तक का दौर फ़ैज़ ने निर्वासन में गुजारा। उन्होंने एशिया-अफ्रीका में फैले तमाम लेखक मित्रों से मुलाकात की। इन्हीं मित्रों की बदौलत उन्हें अफ्रीकी-एशियाई जरनल ‘लोटस’ के सम्पादन का काम मिला जो कि बेरूत से प्रकाशित होता था। बेरूत में बीते इन तीन सालों में उन्होंने फिलिस्तीनी अवाम के दुख को, मुक्ति की चाहत को बेहद करीबी से देखा। ‘फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन’ के नेता यासिर अराफात से दोस्ती हुई जिन्हें फैज़ ने अपना अन्तिम संकलन ‘मेरे दिल: मेरे मुसाफिर’ समर्पित किया। जब बेरूत पर इजऱायल ने कब्ज़ा कर लिया तब उन्हें वहाँ से निकलना पड़ा। वे वहाँ से मुल्क-दर-मुल्क भटकते हुए आखिर 1982 में अपने देश पहुंचे। स्वास्थ्य काफी बिगड़ चुका था। 20 नवम्बर, 1984 को लाहौर में हृदय गति रुक जाने से फ़ैज का इंतकाल हो गया और दमनकारी हुकूमत से बेख़ौफ रहने वाला यह शायर हमसे बिछड़ गया। मेहनतकश वर्ग के हक में लिखे उनके गीत संघर्षशील लोगों में उन्हें अमर रखेंगे-
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक खेत नहीं, इक बाग नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
फैज़ की रचनाएं पूरी दुनिया में चर्चित हैं। भारत में तो उनकी रचनाओं को खूब गाया जाता है। उनकी एक रचना-हम देखेंगे.. उस समय चर्चा में आ गई, जब उसकी गलत व्याख्या करते हुए, उसे कुछ लोगों ने हिन्दू विरोधी तक बता दिया। उनके जीते-जी पाकिस्तान में कट्टरपंथी उन्हें मुसलमान विरोधी बताते रहे। जिस देश में वे रहते थे, उस देश की सत्ताओं ने उन्हें या तो जेल में रखा या फिर निर्वासन के लिए मजबूर किया। दरअसल फैज़ अहमद फैज़ किसी एक देश का नहीं विश्व नागरिक है, जिसने लोकतंत्र के लिए आवाज उठाई। शोषित मेहनतकशों के हको-हुकूक की पक्षधरता की। प्रो. सुभाष चन्द्र कहते हैं- फैज़ की शायरी और कविताएं अपने पाठकों और श्रोताओं से संवाद रचाती हैं। वे एक तरफा बयान नहीं बनती, बल्कि उनकी सुप्त संवेदनाओं को जगाते हुए उनकी चेतना का हिस्सा हो जाती हैं और उनकी तरफ से बोलने लगती हैं। उनकी रचनाओं का पाठक या श्रोता पेसिव नहीं हो सकता। वह अपने पाठकों और श्रोताओं में जोश पैदा करती है। उनकी इंसानी गरिमा को उभारती है, उनको जगा जाती है, अहसासों को ताजा करती है। फैज की रचनाएं अपने पाठकों की जिंदगी में नया अर्थ भरती हैं। फैज की शायरी में पाठक को पकडक़र रखने की ताकत है। वह अपने पाठक से दोस्ती कायम कर लेती है।

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