बुझते नहीं चिराग हवाओं के जोर से
हमेशा राह दिखाती रहेगी अली सरदार जाफरी की लेखनीअरुण कुमार कैहरबा
Dainik Vir Arjun |
तरक्कीपसंद शायरी की परंपरा ने साहित्य को आम लोगों के जीवन के साथ जोड़ते हुए संघर्ष की राह दिखाई। सृजन और सुंदरता के नए मायने गढ़े। इस परंपरा में अनेक शायर हुए जिन्होंने इन्साफ और बराबरी के लिए बड़ी-बड़ी ताकतों से लड़ाई लड़ी। जब देश अंग्रेजों का गुलाम था तो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लोहा लिया और आजादी के बाद भी इंकलाब के लिए जूझते रहे। उनमें ही अली सरदार जाफरी साहब का भी शुमार होता है। उन्होंने ‘परवाज़’, ‘जम्हूर’, ‘नई दुनिया को सलाम’, ‘अमन का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’ जैसे मशहूर दीवान लिखे। ‘लखनऊ की पांच रातें’ जैसी लोकप्रिय किताब लिखने वाले जाफऱी का नाम ‘मेरा सफऱ’ के लिए खास तौर पर लिया जाता है। उन्होंने दबे-कुचले मजलूम लोगों के हको-हुकूक और इन्साफ के लिए आवाज बुलंद की।
अली सरदार जाफरी 29 नवंबर, 1913 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में पैदा हुए। उनकी शुरूआती तालीम घर पर ही हुई। मैट्रिक की पढ़ाई अपने ही कस्बे से करने के बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की तरफ रूख किया। यहां पर उन्हें मजाज़, जां निसार अख्तर और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीबों की संगत मिली। आजादी की लड़ाई चल रही थी। जाफरी ने अंग्रेजी वायसराय की परिषद के सदस्यों के खिलाफ हड़ताल की तो उन्हें विश्वविद्यालय से बेदखल कर दिया। उन्होंने पढ़ाई नहीं रूकने दी। दिल्ली से एंगलो-अरेबिक कॉलेज दिल्ली से बीए पास की और अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। आजादी के आंदोलन में वे हिस्सा लेते रहे। सियासी सरगर्मियों के कारण उन्हें एमए दूसरे साल की परीक्षा में बैठने की इजाजत नहीं मिली और गिरफ्तार करके जेल भेज दिए गए। जेल में उनकी मुलाकात प्रगतिशील साहित्यकार सज्जाद जहीर जैसे लोगों से हुई। उनसे प्रेरित होकर उन्हें लेनिन व माक्र्स का साहित्य पढऩे का मौका मिला। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े होने के कारण उनका प्रेमचंद, फै़ज़, मुल्कराज आनंद व रवीन्द्रनाथ टैगोर से संपर्क हुआ। जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी और फिराक गोरखुरी के साहित्य का उन पर गहरा असर हुआ। उनकी मित्र मंडली में फैज़, आईके गुजराल, राजिंदर सिंह बेदी, मुल्कराज आनंद, कैफ़ी आज़मी, दिलीप कुमार, रामानंद सागर, जाँ निसार अख़्तर, साहिर लुधियानवी, ख्वाजा अहमद अब्बास, इस्मत चुगताई, कुर्तुल ऐन हैदर सहित अनेक अदबी शख्सियतें शामिल थीं। कृश्र चन्दर के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी।
एमए की पढ़ाई के दौरान राजनीति विज्ञान में एमए कर रही सुल्ताना से उनकी मुलाकात हुई, जिनसे बाद में उनकी शादी हुई। 30 जनवरी 1948 को सरदार और सुल्ताना की शादी के रजिस्टे्रशन में कृशन चंदर, अब्बास और इस्मत चुगताई ने गवाह की भूमिका निभाई। शादी की पार्टी के रूप में इस्मत ने उन्हें आईसक्रीम खिलाई। शादी के बाद ये जोड़ा अंधेरी कम्यून में रहने चला गया, जहाँ कैफ़ी और शौकत आज़मी पहले से रहते थे। शादी के करीब साल भर बाद 20 जनवरी 1949 को प्रगतिशील उर्दू लेखक सभा का आयोजन करने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल के दौरान ही पत्नी सुल्ताना के नाम भावपूर्ण खत लिखे।
सरदार जाफरी बहुमुखी प्रतिभासंपन्न शख्सियत हैं। छोटी उम्र में ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। घर के मजहबी माहौल में पढ़े जाने वाले मर्सियों ने उन्हें मर्सिये लिखने के लिए प्रेरित किया। बाद में जब उन्होंने कलम संभाली तो सबसे पहले कहानियां लिखी। 1938 में उनका कहानी-संग्रह मंजि़ल प्रकाशित हुआ। 1936 में तरक्कीपसंद लेखक आंदोलन की पहली सभा के अध्यक्ष बनाए गए। 1939 में आंदोलन की अदबी पत्रिका-नया अदब के सह-संपादक भी बनाए गए, जो 1949 तक छपता रहा। 1944 में उनकी गज़़लों का पहला संग्रह ‘परवाज़’ शाया हुआ। वे इप्टा के संस्थापक सदस्यों से एक थे। इप्टा के लिए उन्होंने दो नाटक लिखे और एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म- ‘कबीर, इकबाल और आजादी’ लिखी। लखनऊ की पांच रातें नाम से यात्रा वृत्तांत खूब चर्चित हुआ है। कबीर, मीर, ग़ालिब और मीरा की रचनाओं का प्रमाणिक चयन तैयार किया जोकि हिन्दी में प्रकाशित हुआ।
जाफऱी साहब की कविताएं रूसी, उज्बेकी, फारसी, अंग्रेजी, फ्रेंच, अरबी सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। उर्दू और अंग्रेजी में साहित्य समाज और राजनीति संबंधी विषयों पर भी उन्होंने बड़ी तादाद में टिप्पणियां, आलेख और स्तंभ लिखे। लाल किला, साबरमती आश्रम और तीन मूर्ति निवास पर आधारित दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम के लिए उनकी लिखी पटकथा काबिले तारीफ रही। उन्होंने अमरीका, कनाड़ा, रूस, फ्रांस, तुर्की आदि देशों का भ्रमण किया तथा इस दौरान वहाँ के क्रांतिकारी कवियों से भी मुलाकात की। इन कवियों में तुर्की के नाजि़म हिकमत, फ्रांस के लुई अरागाँ, एल्या एहरान, रूस के शालोखोव ख़ास हैं। पाब्लो नेरुदा से उनकी मुलाक़ात नेरुदा के 1951 में भारत आने पर हुई थी। नाजि़म हिकमत से वे खासे प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने एक बेटे का नाम नाजि़म और दूसरे का हिकमत रखा।
सरदार साहब ने ‘कहकशां’ और ‘महफिले यारां’ नाम के दो टेलीविजन कार्यक्रम तैयार किए। 18 एपिसोड में बने ‘कहकशां’ नाम के टीवी प्रोग्राम के जरिए उन्होंने उर्दू के सात प्रसिद्ध शायरों-फ़ैज़, फिऱाक, जोश, मजाज़, हसरत मोहानी, मखदूम और जिगर मुरादाबादी के जीवन और साहित्य को एक नए अंदाज में साहित्य प्रेमियों के सामने रखा। महफि़ल-ए-यारां में अलग-अलग हस्तियों से लिए इंटरव्यू भी सराहनीय रहे। उन्होंने कुछ फिल्मों के संवाद और पटकथा भी लिखी। वे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ पकिस्तान गए थे, तब उनके काव्य-संग्रह-सरहद पर एक ऑडियो एल्बम भी बनाया गया। एल्बम का निर्माण अनिल सहगल ने किया था और बुलबुल-ए-कश्मीर सीमा सहगल ने आवाज दी थी। सरहद एल्बम तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को 20-21 फरवरी 1999 को लाहौर सम्मेलन में भेंट किया था। उस दौरान उनकी ये पंक्तियां खूब गूंजी-
गुफ़्तुगू बंद न हो
बात से बात चले
सुब्ह तक शाम-ए-मुलाक़ात चले
हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले
उन्हें अनेक प्रकार के सम्मानों और पुरस्कारों से नवाजा गया। 1965 में सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड, 1967 में पद्मश्री, 1978 में पाकिस्तान सरकार द्वारा इक़बाल गोल्ड मैडल सम्मान, 1979 में उत्तरप्रदेश उर्दू अकादमी अवार्ड, 1983 में एशिया जाग उठा के लिए कुमारन आसन अवार्ड, 1986 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी द्वारा डी.लिट, 1997 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा संत ध्यानेश्वर अवार्ड, 1997 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मौलाना मज़हरी अवार्ड, 1997 में ज्ञानपीठ अवार्ड, 1999 में हॉवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति पुरस्कार आदि सम्मानों से सम्मानित किया गया। साहित्य के क्षेत्र में ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले वे उर्दू के तीसरे कवि हैं। 1अगस्त, 2000 को उनका देहांत हो गया। आज भले ही वे दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनका साहित्य लोगों को राह दिखा रहा है। डॉ. शेहाब जफर के शब्दों में कहें तो- ‘अली सरदार जाफरी एक ऐसा शख्स जो रईस घराने में पैदा हुआ, मगर गरीबों और मजलूमों से हमदर्दी रखने वाले जाफरी साहब ऐशो आराम की जिन्दगी त्याग कर तहरीके आजादी से जुड़ गए। स्व. जाफरी न सिर्फ एक बेलौस वतन परस्त इंसान थे, बल्कि उर्दू अदब का एक ऐसा रौशन सितारा जो दुनिया-ए-अदब के आसमान पर अपनी आबो ताब के साथ आज भी चमक रहा है।’ जाफरी साहब के शब्दों में ही कहें तो-‘कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफि़ल में। बहुत अहले-सुखन उ_े बहुत अहले-कलाम आये।।’
उनकी कविताओं में प्रगतिशील चेतना बार-बार मुखर होती है। उनकी नज़्म-निवाला की पंक्तियां काबिले गौर हैं-‘ये जो नन्हा है भोला-भाला है, सिर्फ़ सरमाए का निवाला है, पूछती है ये उस की ख़ामोशी, कोई मुझ को बचाने वाला है।’ अपनी एक अन्य नज़्म में किस तरह से उसे इंकलाब के लिए उठ खड़े होने का आह्वान करते हैं- ‘उठो हिन्द के बाग़बानो उठो, उठो इंकलाबी जवानो उठो, किसानों उठो कामगारो उठो, नई जिंदगी के शरारो उठो, उठो खेलते अपनी ज़ंजीर से, उठो ख़ाक-ए-बंगाल-ओ-कश्मीर से, उठो वादी ओ दश्त ओ कोहसार से, उठो सिंध ओ पंजाब ओ मल्बार से, उठो मालवे और मेवात से, महाराष्ट्र और गुजरात से, अवध के चमन से चहकते उठो, गुलों की तरह से महकते उठो, उठो खुल गया परचम-ए-इंक़लाब, निकलता है जिस तरह से आफ़्ताब, उठो जैसे दरिया में उठती है मौज, उठो जैसे आँधी की बढ़ती है फ़ौज, गुलामी की ज़ंजीर को तोड़ दो, ज़माने की रफ़्तार को मोड़ दो।’
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