जयंती विशेष
महात्मा ज्योतिबा फुले: सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के अगुवा
स्कूलों के जरिये लड़कियों व दलितों की शिक्षा की खोली राह
अरुण कुमार कैहरबा![]() |
NAVSATTA |
महात्मा ज्योतिबा फुले 19वीं सदी के ऐसे चमकदार व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने शिक्षा, समाज सुधार, साहित्य, शोषितों की मुक्ति के क्षेत्र में अपने विचारों व कार्यों के जरिये जो रोशनी फैलाई, उससे तत्कालीन समाज तो प्रभावित हुआ ही उसके बाद के समय से आज तक उनका प्रभाव लगातार बढ़ता गया है। महाराष्ट्र के पुणे में जन्मने और सत्यशोधक समाज के जरिये महाराष्ट्र व आस-पास में उनके द्वारा किए गए कार्यों से उनके विचारों की रोशनी आज पूरे देश में फैल रही है। उनकी जयंती व पुण्यतिथि पर देश भर में संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। वे भारत में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के अगुवा हैं। उन्होंने दलित-वंचित समाज को वर्ण-व्यवस्था के भेदभावकारी व शोषणकारी चंगुल से आजादी के लिए निर्णायक संघर्ष का नेतृत्व किया। इसके साथ ही उन्होंने देश की पहली महिला शिक्षिका व अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर महिलाओं की मुक्ति के लिए भी अथक आंदोलन चलाया। देश के समाज सुधार आंदोलन पर उनके प्रभाव को इस बात से समझा जा सकता है कि संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर महात्मा फुले को अपना गुरु मानते थे।
ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पूना में चिमणाबाई व गोविंदराव फुले के घर पर हुआ। राजाराम फुले ज्योतिबा के बड़े भाई थे। अभी ज्योतिबा एक वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी माता का देहांत हो गया। लेकिन गोविंदराव ने अपने बेटों के लिए दूसरा विवाह नहीं किया। गोविंदराव की मौसेरी बहन सगुणाबाई भरी जवानी में विधवा हो गई थी। सगुणाबाई के ना तो माता-पिता थे और ना ही कोई भाई-बहन। आखिर मौसेरे भाई गोविंदराव ने अपने घर में जगह दी। सगुणाबाई बहुत अच्छे स्वभाव की महिला थी। बूआ होने के बावजूद उसने जोतिबा को मां से भी बढक़र लाड-प्यार व शिक्षा दी। उस समय पूना में अंग्रेजों द्वारा संचालित गिने-चुने स्कूल थे। स्कूलों में ऊंची जाति के बालक शिक्षा ग्रहण करते थे। बड़ा भाई राजाराम खेत में कड़ी मेहनत करते थे। गोविंदराव ने ज्योतिबा को पढ़ाने की ठानी और स्कूल में दाखिल करवा दिया। जाति-व्यवस्था में सवर्ण जातियों का शिक्षा पर वर्चस्व था। ऐसे में शूद्र माली जाति के लडक़े का शिक्षा ग्रहण करना बहुत से लोगों की आंखों में खटकने लगा। जातिवादी लोगों की तरह-तरह की बातों का असर यह हुआ कि जोतिबा का स्कूल छुड़वा दिया गया। स्कूल छूटने पर भी जोतिबा ने पढऩा नहीं छोड़ा। तीन साल लगातार स्कूल से दूर रहने के बाद पड़ोस के गफ्फार बेग मुंशी व फादर लेजिट के समझाने पर गोविंदराव ने जोतिबा को दौबारा स्कूल भेजना शुरू किया।
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JAGAT KRANTI 11-4-2021 |
13 साल की उम्र में ज्योतिबा का विवाह नायगांव के खंडू पटेल की सात वर्षीय बेटी सावित्री बाई से हुआ। विवाह के बाद भी ज्योतिबा पिता के काम में हाथ बंटाने के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करते रहे। प्राथमिक शिक्षा के बाद माध्यमिक शिक्षा के दौरान जोतिबा को अंग्रेजी भी पढ़ाई जाने लगी। इसी बीच उनके साथ एक दिल दहला देने वाली घटना घटी। ब्राह्मण मित्र की बारात में उन्हें माली जाति का होने के कारण अपमान झेलना पड़ा। इससे जात-पात के आधार पर ऊंच-नीच को लेकर उनके मन में विचारों का तूफान उठ खड़ा हुआ और उन्होंने जाति के जिन्न को दफना देने का संकल्प किया। जब उन्होंने दसवीं पास की तो यह अछूत मानी जाने वाली जातियों में यह ऐतिहासिक था। उससे भी अधिक जोतिबा के मन में समाज की दशा, महिलाओं-दलितों की दुर्दशा को लेकर चल रहा विचार मंथन था। उन्होंने सरकारी नौकरी नहीं करने के साथ-साथ अछूत मानी जाने वाली जातियों के लडक़े-लड़कियों को शिक्षित बनाने की ठान ली थी। खुद के पढऩे के साथ वे अपनी जीवनसाथी सावित्रीबाई को पढ़ा रहे थे, जोकि शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली देश की पहली महिला शिक्षिका बनी। दोनों ने महिलाओं के लिए साक्षरता की कक्षाएं शुरू की। महिलाओं के पास रात को ही खाली समय होता था, जिससे वे कक्षाएं रात को ही लगती थी।
अगस्त 1848 में उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर लड़कियों का पहला स्कूल खोला। बता दें कि उस वक्त यह काम इतना आसान नहीं था, जितना आज हो सकता है। घर का प्रांगण बड़ा होने के बावजूद वे वहां पर स्कूल नहीं चला सकते थे। स्कूल के लिए उन्हें कोई जगह भी किराए पर नहीं मिल रही थी। जब लड़कियों की शिक्षा को गुनाह व धर्म विरूद्ध प्रचारित किया जा रहा था, ऐसे में फातिमा शेख के घर पर आठ लड़कियों के साथ पहला स्कूल शुरू किया गया। इसके लिए जोतिबा व सावित्रीबाई ने लोगों में शिक्षा की अलख जगाने के लिए काफी मेहनत की। कईं लोग उन पर तरह-तरह के लांछन लगा रहे थे। सावित्रीबाई पर कुछ लोगों द्वारा गोबर व गंदगी तक फेंकी गई। कुछ लोगों ने पिता गोविंदराव के कान भर दिए कि ये दोनों धर्म विरूद्ध कार्य कर रहे हैं। इस पर पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया। लेकिन उन्होंने शिक्षा के जरिये समाज को सही राह दिखाने के काम से हार नहीं मानी। घर से निकाले जाने के बाद अपने विचारों को क्रियान्वित करने के लिए उनके लिए काम-धंधा करना जरूरी हो गया। उन्होंने ठेकेदारी की और सडक़ें व घर बनाए। आर्थिक दशा सुधरते ही उन्होंने नए स्कूल शुरू किए। एक स्कूल में जोतिबा की बूआ सगुणाबाई, दूसरे में फातिमा शेख शिक्षिका के रूप में सेवाएं देने लगी। सावित्रीबाई को प्रथम शिक्षिका माना जाता है तो फातिमा शेख को पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका का दर्जा मिला। उन्होंने अछूत कहे जाने वाले लडक़ों के साथ स्कूल में होने वाले भेदभाव से मुक्ति के लिए लडक़ों के लिए भी स्कूल खोला। जोतिबा के शैक्षिक व समाज सुधार के कार्यों का चर्चा दूर-दूर तक फैला। 16 नवंबर, 1852 को मुंबई के गवर्नर ने पूना में समारोह करके उनका सार्वजनिक सत्कार-सम्मान किया। अंग्रेजों के द्वारा मिलने वाले सम्मान से सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि उनके स्कूलों को कुछ आर्थिक मदद मिलने लगी।
सरकारी सम्मान से उनके प्रति ईष्र्या रखने वाले लोग और परेशान हो गए। उन्होंने रोडे रामोशी व घोंडिबा कुम्हार नाम के दो व्यक्तियों को फिरौती देकर जोतिबा को मारने के लिए उनके घर भेज दिया। ज्योतिबा के व्यवहार व बातचीत से दोनों हत्यारों ने क्षमा याचना की और दोनों फुले के शिष्य बन गए। विचार और आचरण के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए महात्मा फुले ने 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। फुले स्वयं इसके अध्यक्ष बने। सावित्रीबाई ने उसकी महिला शाखा की अध्यक्षता संभाली। दोनों ने विधवा पुनर्विवाह का अभियान छेड़ा। पति के गुजर जाने पर विधवा हुई महिलाओं का मुंडन कर दिया जाता था। इस अपमानजनक प्रथा के खिलाफ उन्होंने नाईयों को प्रेरित किया। एक ऐसे आश्रम की स्थापना की, जिसमें सभी जातियों की तिरस्कृत विधवाएं सम्मान के साथ रह सकें। उन नवजात शिशु कन्याओं के लिए भी एक घर बनाया, जो अवैध संबंधों से पैदा हुई थीं और जिनका सडक़ या घूरे पर फेंक दिया जाना निश्चित था।
उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और जाति व्यवस्था की निंदा की। सत्य शोधक समाज ने तर्कसंगत सोच पर बल देते हुए शैक्षिक और धार्मिक नेताओं के रूप में ब्राह्मणों एवं पुरोहितों की जरूरत को खारिज कर दिया। उनका दृढ़ विश्वास था कि अगर आप स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे, मानवीय गरिमा, आर्थिक न्याय जैसे मूल्यों पर आधारित नई सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं तो सड़ी-गली, पुरानी, असमान व शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था और मूल्यों को उखाड़ फेंकना होगा। यह अच्छी तरह से जानने के बाद उन्होंने धार्मिक पुस्तकों और भगवान के नाम पर परोसे जाने वाले अंधविश्वास पर हमला किया। उन्होंने महिलाओं और शूद्रों के मन में बैठी मिथ्या धारणाओं की चीर-फाड़ की।
फुले ने महिलाओं, शूद्रों व समाज के अगड़े तबकों में अंधविश्वास को जन्म देने वाली आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को हटाने के लिए अभियान चलाए। उन्होंने कथित धार्मिक लोगों के व्यवहार का विश£ेषण करते हुए पाया कि वह राजनीति से प्रेरित था। उन्होंने धार्मिक शिक्षाओं का तार्किक विश्लेषण नहीं करने के विचार का खंडन किया। उन्होंने कहा कि सभी समस्याओं की जड़ अंधविश्वास है, जोकि पूजनीय माने जाने वाले धार्मिक ग्रंथों की गलत व्याख्या द्वारा निर्मित है। इसलिए फुले अंधविश्वास को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने सवाल उठाया कि अगर केवल एक ही परमेश्वर है, जिसने पूरी मानव जाति बनाई है तो उसने पूरी मानव जाति के कल्याण की चिंता के बावजूद वेद संस्कृत भाषा में ही क्यों लिखे? ऐसे में संस्कृत भाषा नहीं जानने वाले लोगों के कल्याण का क्या होगा? फुले इस बात से सहमत नहीं थे कि धार्मिक ग्रंथ भगवान ने लिखे हैं। ऐसा विश्वास करना अज्ञानता और पूर्वाग्रह है। सभी धर्म और उनके धार्मिक ग्रंथ मानव निर्मित हैं और अपने हितों को पूरा करने के लिए कुछ लोग इनका निर्माण करते हैं। फुले ही अपने समय के ऐसे समाजशास्त्री और मानवतावादी थे जिन्होंने ऐसे साहसिक विचार प्रस्तुत किए। फुले ऐसी सामाजिक व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन के पक्षधर थे, जिसमें शोषण करने के लिए कुछ लोगों को जानबूझकर दूसरों पर निर्भर, अनपढ़, अज्ञानी और गरीब बना दिया जाता है। उनके अनुसार व्यापक सामाजिक -आर्थिक परिवर्तन के लिए अंधविश्वास उन्मूलन एक हिस्सा है। परामर्श, शिक्षा और रहने के वैकल्पिक तरीकों के साथ-साथ शोषण के आर्थिक ढांचे को समाप्त करना भी बेहद जरूरी है।
महात्मा फुले ने जागरूकता के लिए सत्यशोधक, दीनबंधु नाम के समाचार-पत्र निकाले। उन्होंने कईं किताबें लिखी। जिनमें तृतीय रत्न (नाटक), छत्रपति शिवाजी भोंसले का पोवाडा (1869), गुलामगिरी (1873), किसान का कोड़ा (1883), चेतावनी व अछूतों की कैफियत (1885), सार्वजनिक सत्य धर्म (1889) आदि प्रमुख हैं। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आदि घटनाओं पर अपनी राय रखी। भारत आए ब्रिटेन की महारानी के पुत्र डयूक ऑफ कैनाट के सामने भारत की दशा के बारे में बेबाकी से अपनी बात कही। 28नवंबर, 1890 को उनका देहांत हो गया तो सावित्रीबाई फुले ने सत्यशोधक समाज की बागडोर संभाली। आज जब सामाजिक रूढिय़ों की जकड़बंदी बढ़ती जा रही है। शादी-समारोहों में दहेज, दिखावा और ब्राह्मणवादी तौर-तरीकों का अनुसरण करने की होड़ लगी हुई है। बेहतर है कि पूरा समाज ज्योतिबा फुले को पथ-प्रदर्शक मान कर उनके बताए रास्ते का अनुसरण करते हुए सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाए।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार, लेखक
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145
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