विश्व पुस्तक दिवस पर विशेष
पुस्तकें, पुस्तकालय, अध्ययन संस्कृति व बाजार
कोरोना के दौर में अकेलेपन से निकलने में सहायक हैं किताबें
अरुण कुमार कैहरबा![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8i0dqDN7V4-pJWkTgzGrD9siaZsumuD5nRWKUGuO7s1QC4osdg356DxjKgsohtMsotWV9gV-dD4pv0q6G_vLKW2LzV8Gi3GmV-kZACTYeujmvGJZEDij9oSxFJMN3S9ZHxb-VW49pSCyt/s16000/JANSATTA+23-4-2021.jpg)
JANSATTA 23-4-2021
आज जब पूरी दुनिया में कोरोना महामारी फिर से अंधकार फैला रही है। महामारी के कारण अधिकतर स्कूल बंद कर दिए गए हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में बोर्ड की परीक्षाएं रद्द करनी पड़ी हैं या फिर स्थगित कर दिया गया है। महामारी का भय, अकेलापन और घर पर रहने की मजबूरी में जो हमारा सबसे सच्चा साथी बन कर ज्ञान के प्रकाश द्वारा अंधेरे को दूर कर सकता है, वे किताबें ही हैं। किताबों के द्वारा हम घर बैठे दुनिया भर की सैर कर सकते हैं। किताबों के अध्ययन के द्वारा हम विचारों व कल्पनाओं के विकास से अपना दायरा व्यापक बना सकते हैं। ‘अंधकार में सूरज बन कर सबको दे उजियारा पुस्तक, जब भी भटकें सही दिशा से बने भोर का तारा पुस्तक।’ किसी कवि की ये पंक्तियां हमारे जीवन में किताबों की अहमियत को बयां करती हैं। किताबें केवल समय काटने का साधन ही नहीं हैं, बल्कि एक बेहतर सहयोगी, सद्भावनापूर्ण, तर्कशील, विचारशील व ज्ञान आधारित नागरिक समाज के निर्माण में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बढ़ती मारधाड़ व आपाधापी का इलाज अध्ययन संस्कृति के जरिये हो सकता है। क्योंकि किताबें मनुष्य की पाशविकता को सोखकर संवेदनशील बनाती हैं। शिक्षा भी यही काम करती है। शिक्षा किताबों के संसार से हमारा परिचय कराती है। किताबें हमारी जिज्ञासाओं को शांत करती हैं। हमारी मानसिक व बौद्धिक जरूरतें पूरी करने में इनकी अहम भूमिका है। ये हमें सपना देखना सिखाती हैं। इन सपनों को साकार करने का रास्ता भी दिखाती हैं। किताबें हमें प्रश्र पूछना सिखाती हैं। ये हमें आत्मविश्वास देती हैं। इनके जरिये ही बच्चे व युवा जीवन की ऊंचाईयां हासिल करते हैं।![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8i0dqDN7V4-pJWkTgzGrD9siaZsumuD5nRWKUGuO7s1QC4osdg356DxjKgsohtMsotWV9gV-dD4pv0q6G_vLKW2LzV8Gi3GmV-kZACTYeujmvGJZEDij9oSxFJMN3S9ZHxb-VW49pSCyt/s16000/JANSATTA+23-4-2021.jpg)
शैक्षिक संस्थानों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे विद्यार्थियों को बेहतर किताबें उपलब्ध करवाएंगी। पढऩे-पढ़ाने की संस्कृति का विकास करेंगी। लेकिन बदकिस्मती है कि ऐसा हो नहीं रहा। बेहतर नागरिक बनने-बनाने की बजाय यहां पर किताबें पढऩे-पढ़ाने का मकसद परीक्षा की वैतरणी को पार करना हो गया है। उद्देश्य की यह संकीर्णता यहीं तक सीमित नहीं रहती, आगे बढ़ते हुए यह संकीर्णता कुंजियों के अध्ययन-अध्यापन और रट्टापद्धति में सिमट गई है। अध्यापकों और सुविधाओं की कमी के चलते भी उद्देश्य व्यापक होने की बजाय संकीर्ण होते गए हैं और शिक्षा विद्यार्थियों की सृजनशीलता को पल्लवित-पुष्पित करने की बजाय उसे कुंद करने पर तुल गई है।
बच्चों को तो छोड़ ही दें, अध्यापकों में भी पढऩे की संस्कृति का अभाव है। अधिकतर अध्यापक प्राय: पढ़ाए जाने वाली विषय-वस्तु का कामचलाऊ ज्ञान रखते हैं और लिपिकीय कार्य की भांति ही अपने शिक्षण कार्य को भी अंजाम देते हैं। यही कारण है कि स्कूलों में पुस्तकालयों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। अधिकतर सरकारी स्कूलों में पुस्तकालयों का प्रावधान होता है। प्राथमिक पाठशालाओं में भी पुस्तकालय के नाम पर किताबें तो होती ही हैं। लेकिन अध्यापक उन्हें अक्सर संदूक या पेटी में भरे रखते हैं। खुद ही किताबों को पढऩे में रूचि नहीं रखने के कारण उन्हें किताबों को संदूकची की कैद से मुक्त करवाने में भी दिलचस्पी नहीं रहती है। किताबें खुद ही जब कैद हो जाएंगी तो वे मुक्ति का माध्यम कैसे बनेंगी? उच्च एवं वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालयों में पुस्तकालय को विद्यार्थियों की जरूरतों के अनुसार सम्पन्न बनाने के लिए हर वर्ष अनुदान दिया जाता है। लेकिन जरूरतों की बजाय पुस्तकालयों में लुगदी साहित्य का ढ़ेर लगता जाता है। जैसे हर स्थान पर बाजार ने घुसपैठ की है, उसी प्रकार किताबों का भी एक भरापूरा बाजार है। लुगदी साहित्य मतलब जिसकी उपयोगिता शिक्षा कर्म में लोगों को ना हो, बल्कि बाजार के लाभ के लिए हो। ऐसे साहित्य का बाजार स्कूलों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देता है और अपना वर्चस्व बनाए रखता है। मुनाफे के लालच में कुंजीनुमा किताबों के प्रकाशक स्कूलों में पहुंचते हैं। स्कूलों को कमीशन देते हैं और अपनी किताबें डाल कर चलते बनते हैं। ऐसे में बच्चों के सर्वांगीण विकास और अध्ययन संस्कृति के विकास के प्रति तो उदासीनता स्पष्ट हो जाती है। स्कूलों में पुस्तकालय सबसे कम महत्व का स्थान है। निजी स्कूलों की स्थिति इससे भी अधिक चिंताजनक है। अधिकतर स्कूलों में तो पुस्तकालय देखने को भी नहीं मिलता। कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में भी पुस्तकालयों और किताबें पढऩे की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। खुद किताबें तलाशने और पढऩे की प्रति कम ही विद्यार्थियों का रूझान होता है। कम ही अध्यापक विद्यार्थियों को खुद पढऩे के लिए प्रेरित कर पाते हैं।
सरकारों द्वारा स्मार्ट सिटी और स्मार्ट विलेज की अवधारणाओं को जमकर उछाला जा रहा है। आदर्श गांव-शहर के विविध आयामों पर चर्चा भी होती है। इन्हें नेताओं द्वारा भी अपने भाषणों में मुद्दा बनाया जाता है। लेकिन पुस्तकालय व किताबें पढऩे की संस्कृति उनके भाषणों से नदारद रहती है। देश भर में विकास के नाम पर तरह-तरह के उपाय किए जा रहे हैं। सडक़ों का निर्माण, ग्राम सचिवालय, वाई-फाई की सुविधा, बड़े-बड़े भवन आदि बन रहे हैं। पैसा खर्च करने के लिए एक से एक योजनाएं अमल में लाई जाती हैं। हरियाणा व कुछ राज्यों में एक समय ऐसा आया, जब पंचायतों, पंचायती राज संस्थाओं के पास रूपये खर्च करने का कोई जरिया नहीं रहा तो वे श्मशान पक्के करवाने और श्मशान के रास्ते पक्के करवाने के लिए सरकार से अनुदान मांगने लगी। आजकल गांव-शहर के हर वार्ड में नेताओं के चित्र वाले बड़े-बड़े प्रवेश द्वार बनाने का चलन चला है। लाखों रूपये के प्रवेश द्वार कस्बों के हर पार्षद को बनाने के लिए दिए गए हैं। उतने ही रूपयों से पुस्तकालय बनाए जा सकते हैं। लेकिन कितने ही कस्बों और शहरों में पुस्तकालय बनाने की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। कईं बार तो ऐसा भी लगता है जैसे किताबों और किताबों से होने वाले सशक्तिकरण से हमारे राजनेता भय खाते हैं। इसीलिए तो बने-बनाए पुस्तकालयों को विकास की भेंट चढ़ा कर खत्म तक कर दिया जाता है। हरियाणा के करनाल में पाश पुस्तकालय को मेडिकल कॉलेज के नाम पर ध्वस्त कर दिया जाना इसी प्रकार का उदाहरण है। जबकि वह पुस्तकालय मेडिकल कॉलेज में भी रखा जा सकता था।
गांवों में तो पुस्तकालय खोलने के बारे में सोचा भी नहीं जाता। हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में कईं पंचायतें बहुत ही सम्पन्न हैं, जिनकी सालाना आमदनी करोड़ों-अरबों में है। वहां पर बड़े-बड़े बारात घर बन रहे हैं। पंचायतों और लोगों द्वारा बहुत ही महंगे आयोजन होते हैं। लेकिन पंचायतें गांव में एक अदद पुस्तकालय खोलने के बारे में नहीं सोचती हैं। लोग भी ना जाने कैसी चीजों में उलझ गए हैं कि मिलकर एक पुस्तकालय खोलने के बारे में नहीं सोचते। जहां से बच्चे व युवा ज्ञान व आनंद के लिए पढऩे का हुनर सीखें। मूल्यहीनता की स्थिति में इस सारे विकास को हम बेकार होते हुए देख रहे हैं, लेकिन मूल्यों व बेहतर संस्कारों के लिए स्थायी उपाय की तरफ नहीं सोच पा रहे हैं। आज स्मार्ट गांव व शहर बनाने के लिए अध्ययन संस्कृति के विकास और पुस्तकालय की अनिवार्यता के विचार को जोर-शोर से उठाए जाने की जरूरत है। समाज में किताबों की अहमियत को लेकर विचार-विमर्श का माहौल बनाया जाना चाहिए। अध्ययन संस्कृति और विचार-विमर्श की संस्कृति का गहरा संबंध है। किताबें हमारे बीच आएंगी। उन्हें पढ़ा जाएगा तो संवादहीनता और मुद्दाविहीन समाज में मुद्दे केन्द्र में आएंगे और उन पर चर्चा भी हो पाएगी। 21वीं सदी में विकास के दावों और अंधविश्वास, जात-पात, साम्प्रदायिकता व भेदभाव की उपस्थिति की सबसे बड़ी वजह किताबों की अनुपस्थिति है। इसी कारण से हम बहुत से संतों-महापुरूषों के नाम लेते हैं। उनकी पूजा भी करते हैं, लेकिन उनके विचारों को जानते तक नहीं। मोबाइल और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचलन ने भी किताबें पढऩे का काफी समय ले लिया है। बहुत से बच्चों व युवाओं को इसकी लत भी लग रही है। कोरोना के समय में खासतौर से उनमें चिड़चिड़ापन और अवसाद बढ़ रहा है। अनेक प्रकार की मानसिक समस्याओं के मकडज़ाल में उलझते बच्चों व युवाओं को इससे निकालने के लिए भी किताबें बेहतर विकल्प हैं। आईये हर गांव में पुस्तकालय और हर विद्यार्थी के हाथ में किताब, उसके अध्ययन और विचार-विमर्श को मुद्दा बनाएं। रंगकर्मी स$फदर हाश्मी के शब्दों में कहें तो- ‘किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।’
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक, स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जि़ला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145
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JANSANDESH TIMES 21-4-2021 |
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