जीवन और मानवता को बचाता रक्तदाता
अरुण कुमार कैहरबा
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DAINIK SAVERA 14-6-2018
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अक्सर बातचीत करते हुए लोग खून के रिश्तों की बात करते हैं। लोगों की बातचीत में अपना खून और पराया खून की भी बातें आपने खूब सुनाई देती हैं। शायद यहीं से नस्लीय एवं जातीय श्रेष्ठता का मिथ्या बोध जन्म लेता है। अहंकार में अंधा होकर मनुष्य दूसरों की जाति को हीन मानने लगता है। इस श्रेष्ठता ग्रंथि का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। फिर भी इसके कारण विश्व के इतिहास में अनेक युद्ध हुए हैं। हिटलर जैसे कट्टर लोगों ने फासीवाद जैसे क्रूर विचार को जन्म दिया। इसी श्रेष्ठता का दिखावा करते हुए उन्होंने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया। साम्प्रदायिक व जातीय दंगों के पीछे भी यही नस्लीय रक्त की सर्वोच्चता का मनोविकार काम करता है। एक तरफ यह दूसरों का खून करने और खून बहाने की भावना है। वहीं दूसरी तरफ रक्तदान का संदेश है, जिसमें दुनिया को बांटने-तोडऩे की बजाय जोडऩे का संदेश दिया जाता है। रक्तदान के संदेश में यह निहित है कि रक्त नालियों या सडक़ों पर बहने की बजाय मनुष्य की नाडिय़ों में बहे। जब किसी परिजन के लिए बीमारी या दुर्घटना में हमें खून की ज़रूरत पड़ती है, तब रक्तदान की महत्ता का पता चलता है। तब रक्तदान के रूप में हमें मानवता रूपी धर्म के मर्म का भी अहसास होता है।
रक्तदान को बढ़ावा देने और रक्तदाताओं का सम्मान करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2004 में हर वर्ष 14जून को रक्तदाता दिवस मनाने का निर्णय लिया था। सवाल यह है कि आखिर रक्तदाता दिवस के लिए यही दिन क्यों चुना गया। दरअसल यह दिन प्रसिद्ध जीव विज्ञानी एवं भौतिकीविद कार्ल लैण्डस्टाइनर का जन्मदिन (14जून, 1868) है। लैण्डस्टाइनर ने रक्त का ए, बी, एबी और ओ अलग-अलग रक्त समूहों में वर्गीकरण कर चिकित्सा विज्ञान में अहम योगदान दिया था। शरीर विज्ञान में उनके योगदान के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उनके जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए यह दिन रक्तदाता दिवस के रूप में चुना गया। मकसद यही था कि रक्त का व्यापार ना हो। ज़रूरत पडऩे पर रक्त पैसे देकर ना खरीदना पड़े। इसके साथ ही स्वास्थ्य संगठन ने शत-प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान नीति की नींव डाली। लेकिन अब तक लगभग 49 देशों ने ही इस पर अमल किया है। तंजानिया जैसे देश में 80 प्रतिशत रक्तदाता पैसे नहीं लेते। भारत सहित कईं देशों में बहुत से लोग पेशेवर रक्तदाता हैं, जोकि पैसे के बदले रक्त देते हैं। ब्राजील में तो यह क़ानून है कि आप रक्तदान के पश्चात किसी भी प्रकार की सहायता नहीं ले सकते।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार ही भारत में प्रतिवर्ष 1करोड़ यूनिट रक्त की ज़रूरत होती है। लेकिन उपलब्ध 75 लाख यूनिट ही हो पाता है। करीब 25 लाख यूनिट रक्त के अभाव में हर साल कितने ही मरीज दम तोड़ देते हैं। आंकड़ों के मुताबिक राजधानी दिल्ली में हर साल 3लाख 50 हजार रक्त यूनिट की आवश्यकता रहती है, लेकिन स्वैच्छिक रक्तदाताओं से इसका महज 30 फीसदी ही जुट पाता है। जो हाल दिल्ली का है वही शेष भारत का है। यह अकारण नहीं कि भारत की आबादी भले ही सवा अरब के पार पहुंच गयी हो। रक्तदाताओं का आंकड़ा कुल आबादी का एक प्रतिशत भी नहीं पहुंच पाया है। विशेषज्ञों के अनुसार भारत में कुल रक्तदान का केवल 59 फीसदी रक्तदान स्वैच्छिक होता है। वहीं तीसरी दुनिया के कई देश हैं जो इस मामले में भारत को काफ़ी पीछे छोड़ देते हैं।
रक्त की महिमा किसी से छुपी नहीं है। रक्त से हमारी जिन्दगी तो चलती ही है, इससे दुर्घटना या बीमारी के कारण खतरे में पड़े जीवन को भी बचाया जा सकता है। रक्त कारखाने में नहीं बनता और ना ही इसे बनाने का कोई कृत्रिम तरीका है। वहीं मनुष्य के शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। चिकित्सा विज्ञान कहता है, कोई भी 18 से 60वर्ष उम्र और 45कि.ग्रा. वजन का कोई भी स्वस्थ्य व्यक्ति रक्तदान कर सकता है। बशर्ते वह एचआईवी व हैपीटाईटिस-बी व सी से पीडि़त ना हो। एक बार में सिर्फ 350 मिलीग्राम रक्त दिया जाता है। दिए गए रक्त की पूर्ति शरीर में चौबीस घण्टे के अन्दर हो जाती है और गुणवत्ता की पूर्ति 21 दिनों के भीतर हो जाती है। नियमित रक्तदान करने वालों को हृदय सम्बन्धी बीमारियां कम परेशान करती हैं। जानने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे रक्त की संरचना ऐसी है कि उसमें समाहित लाल रक्त कणिकाएँ तीन माह में स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं। प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति तीन माह में एक बार रक्तदान कर सकता है। जानकारों के मुताबिक आधा लीटर रक्त तीन लोगों की जान बचा सकता है। लेकिन एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि रक्त का लम्बे समय तक भण्डारण नहीं किया जा सकता। भारत में अनेक शख्सियतें हैं, जोकि रक्तदान की अलख जगा रही हैं। भारतीय सेना में सूबेदार मेजर सुरेश सैनी 120 बार रक्तदान कर चुके हैं। उन्होंने अपनी बेटी के विवाह में कन्यादान करने से पहले रक्तदान की रस्म अदा की। इसी प्रकार करनाल रैड क्रॉस सोसायटी में प्रशिक्षण अधिकारी के रूप में तैनात एम.सी. धीमान 59 बार रक्तदान कर चुके हैं। जब भी किसी को रक्त की जरूरत होती है, वे रक्तदाताओं से संपर्क करके जरूरत पूरी करने में मदद करते हैं।
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DAINIK HARIBHOOMI 14-6-2018 |
सारे वैज्ञानिक तथ्यों और शख्सियतों के बावजूद समाज में रक्तदान के प्रति अनेक भ्रांतियाँ व्याप्त हैं। मिथ्या धारणा है कि रक्तदान से शरीर कमजोर हो जाता है और उस रक्त की भरपाई होने में महीनों लग जाते हैं। यह ग़लतफहमी भी बनी हुई है कि नियमित रक्त देने से रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होती है और उसे बीमारियां जल्दी जकड़ लेती हैं। ये भ्रांतियाँ इतनी गहरे तक व्याप्त हैं कि लोग रक्तदान का नाम सुनकर ही सिहर उठते हैं। इन भ्रम-भ्रांतियों के होते हुए रक्तदान जैसे मानवता के काम को कैसे बढ़ावा दिया जा सकता है। भ्रांतियों को दूर करते हुए स्वैच्छिक रक्तदान का माहौल बनाने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान की ज़रूरत है। इसके लिए लोगों के साथ संवाद स्थापित करना होगा। रक्तदान मानवता को दिया गया महत्वपूर्ण योगदान है। रक्तदान की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने से भी हम विश्व शांति, सद्भाव और भाईचारे की तरफ बढ़ेंगे।
-अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, कैंप, यमुनानगर।
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
मो.नं.09466220145
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