निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
अरुण कुमार कैहरबा
भाषा हमारे जीवन का पर्याय है। भाषा केवल विचार-अभिव्यक्ति का ही साधन नहीं है, बल्कि सोचने का भी माध्यम है। भाषा के बिना हम समाज-संस्कृति व साहित्य की कल्पना नहीं कर सकते। मनुष्य के साथ-साथ भाषा का और भाषा के साथ-साथ मनुष्य का विकास हुआ।
भारत की भाषायी विविधता दुनिया भर के लिए आश्चर्य का विषय है। जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में 19500 मातृभाषाएं हैं। 121 भाषाओं को 10 हजार से अधिक लोग बोलते हैं। संविधान की 8वीं अनुसूची में ही 22 भाषाएं हैं। शायद ही दुनिया के किसी देश में इतनी अधिक भाषाएं और बोलियां हों और उनमें ज्ञान का इतना विपुल भंडार हो। लेकिन साथ ही ऐसा भी शायद ही कोई देश होगा, जहां पर इतनी समृद्ध भाषाएं होने के बावजूद शासन व लोगों में अन्य किसी भाषा के प्रति इतनी दीवानगी हो। औपनिवेशिक गुलाम मानसिकता की प्रतीक अंग्रेजी भाषा सीखने-सिखाने का धंधा यहां चरम पर है। यहां पर गांव-गांव में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलते ही जा रहे हैं। हिन्दी या मातृभाषाओं के गलती से भी शब्द बोले जाने की स्थिति में आर्थिक-शारीरिक दंड दिया जाता है। सरकारी स्तर पर अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा देने को ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के रूप में प्रचारित करने का काम हमारे राजनैतिक दलों व नेताओं द्वारा किया जा रहा है। हिन्दी को प्रचारित करने के लिए हिन्दी दिवस, हिन्दी साप्ताह और हिन्दी पखवाड़ा मनाए जाते हैं, जिनमें हिन्दी बुलवाने के लिए ईनाम दिए जाते हैं। यह बेहद विडंबनादायी स्थिति है। सवाल यह है कि क्या दिवस, सप्ताह व पखवाड़े मनाकर ही किसी भाषा को बचाया जा सकता है?
लोकतंत्र की सफलता में भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन हमारे यहां भाषा के नाम पर देश को बांटने का काम हो रहा है। सत्ताधीशों ने जन भाषाओं को कभी स्वीकार्यता नहीं दी। संविधान में भाषा का दर्जा तो दिया गया। लेकिन आम जन की भाषा को राजकाज के काम में लेने में हमेशा गुरेज किया जाता रहा। हिन्दी की ही बात करें तो संविधान में हिन्दी को पूरे तौर पर राजभाषा के रूप में विकसित करने के लिए 15वर्ष तक का समय दिया गया था। इतने तक अंग्रेजी को राजभाषा के रूप में इस्तेमाल करने की छूट थी। लेकिन मानसिक गुलामी का शिकार शासन व नौकरशाही में बैठा देश का आभिजात्य वर्ग संविधान की मूलभावना को पूरा करने में असफल रहा। संभवत: यह आम लोगों को सत्ता से दूर रखने का ही एक प्रयास था। क्योंकि हिन्दी व भारतीय भाषाओं को राजभाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाता तो इससे अंतत: देश की आम जनता ही सशक्त होती और लोकतंत्र मजबूत होता। आज शिक्षा, प्रशासन हो या न्यायपालिका हर क्षेत्र में अंग्रेजी का ही वर्चस्व है। न्यायालयों की कार्रवाई और निर्णयों का उन लोगों को पता तक नहीं होता, जिनके वर्षों न्यायालयों के चक्कर काटते गुजर जाते हैं। हरियाणा के एक जिला न्यायालय में किसान अपने मामले की खुद पैरवी कर रहा था। वह अपनी बात कहने लगा तो जज ने कहा- मुझे आपकी बात समझ में नहीं आ रही। आप वकील कर लीजिए। किसान ने तुरंत जवाब दिया- आपको मेरी भाषा समझ नहीं आती तो आप करो वकील।
किसी भाषा को आगे बढ़ाने में उसके पढ़े-लिखे वर्ग की जिम्मेदारी होती है। लेकिन भारत विशेष तौर पर हिन्दी भाषी क्षेत्र के पढ़े-लिखे वर्ग ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। वह औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी का पिछलग्गू बना रहा या अपने ही हित साधता रहा। जिन हिन्दी विद्वानों को हिन्दी की क्षमता को बढ़ाते हुए लोगों की अभिव्यक्ति सामथ्र्य को समृद्ध करना था, उन्होंने हिन्दी को संस्कृतनिष्ठता के चंगुल में उलझाने की ही कोशिश की। जिससे हिन्दी और अधिक क्लिष्ट और जटिल होती चली गई। हिन्दी फिल्मों ने इस पर व्यंग्यात्मक अंदाज में कड़ी प्रतिक्रिया की। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को उपहास का पात्र दिखाया गया, लेकिन हिन्दी विद्वान इसे उलझाते ही गए। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र सहित कितने ही गैर-हिन्दी राज्यों के स्वतंत्रता सेनानियों व समाज सुधारकों तक ने हिन्दी की पक्षधरता की। महात्मा गांधी ने स्पष्ट कहा था- राष्ट्रभाषा का स्थान हिन्दी ही ले सकती है, कोई दूसरी भाषा नहीं। राजाराम मोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सहित कितनी ही शख्सियतों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की पक्षधरता की। आजादी के बाद जितने भी शिक्षा आयोग व शिक्षा नीतियां बनीं, सभी ने हिन्दी व मातृभाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने की बात की। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भी प्राथमिक शिक्षा मातृभाषाओं में देने की बात कर रही है। इसके बावजूद बाजार के हितों की रक्षा करने के लिए हिन्दी व भारतीय भाषाओं की उपेक्षा की जा रही है। यदि लोगों को यह लगता है कि हिन्दी व मातृभाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया गया तो देश पिछड़ जाएगा, तो हमें जापान, चीन, जर्मनी, फ्रांस सहित मातृभाषाओं को शिक्षा व राजकाज का माध्यम बनाने वाले देशों से सीखना चाहिए। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा भी है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय का सूल।।
प्रचलित करो जहान में निज भाषा करि जत्न।
राज काज दरबार में फैलावहु यह रत्न।।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145
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