शिक्षक दिवस विशेष
शिक्षक: सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का केन्द्रीय किरदार
सामाजिक बदलाव का वाहक है शिक्षक
अरुण कुमार कैहरबा
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शिक्षक एक अहम और केन्द्रीय किरदार है। शिक्षक की भूमिका पर चर्चा करते हुए कईं बार लोग अतिश्योक्तिपूर्ण और आध्यात्मिकता से ओतप्रोत काव्य-पंक्तियां कह कर शिक्षक को परमसत्ता का दर्जा तक दे देते हैं। शिक्षा एक लौकिक और सामाजिक कार्य है। इसलिए शिक्षक को आध्यात्मिकता के दायरे से बाहर निकाल कर मौजूदा शैक्षिक परिदृश्य के संदर्भ में चर्चा की जानी चाहिए। अलौकिक सत्ता मानने पर शिक्षक ना घर का रहेगा, ना घाट का।
हां, यह सत्य है कि माता-पिता व अन्य परिजनों के बाद बच्चे के सामाजिक, भाषिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक, बौद्धिक, शारीरिक व अन्य कईं पक्षों विकास में शिक्षक की अहम भूमिका है। बच्चा जब नर्सरी में दाखिल होता है तो उसकी रूचियों-अभिरूचियों को परिष्कृत करते हुए अध्यापक उसके सीखने का रास्ता तैयार करता है। उसकी उंगली पकड़ कर उसे आगे बढ़ाता है। एक के बाद एक कक्षाओं को उत्तीर्ण करते हुए नन्हा शिशु बच्चे व किशोर से युवा होता है और अपने अनुभवों का विस्तार करता है। एक तरह से प्राथमिक शिक्षक बच्चे की नींव तैयार करता है। इसीलिए प्राथमिक शिक्षक का कार्य माध्यमिक, वरिष्ठ माध्यमिक शिक्षक व कॉलेज, विश्वविद्यालयों के शिक्षक से भी ज्यादा अहमियत रखता है। यदि बच्चा प्राथमिक शिक्षा के दौरान लिखने-पढऩे व सामान्य गणित के कौशल भी अर्जित ना कर पाए तो ऊपरी दर्जे पर आने वाले अध्यापक अपना कार्य करने में अपने आप को असमर्थ पाते हैं। प्राथमिक शिक्षा के दौरान बच्चा जितनी अधिक कुशलताएं प्राप्त करके आता है, उतना ही उसका आगे बढऩा व बढ़ाना आसान होता है। सवाल यह है कि प्राथमिक शिक्षा व प्राथमिक शिक्षकों को हमारी व्यवस्था कितनी तरजीह देती है? प्राथमिक शिक्षक अपने कार्य को किस तरह से देखते हैं?
विचार-विमर्श और आत्मचिंतन के बिना शिक्षा का कर्म सारहीन होने के खतरे बने रहते हैं। परीक्षाओं के दबाव में कईं बार शिक्षक भी अपने आप को परीक्षा पास करवाने वाले एजेंट के रूप में देखना शुरू कर देते हैं। व्यवस्था के अनुसार शिक्षक बोर्ड व नॉन-बोर्ड, आन्तरिक व बाहरी, दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, छमाही, मध्यकालीन व वार्षिक तरह-तरह की परीक्षाएं आयोजित करता है। कईं बार तो विभिन्न प्रकार की लिखित परीक्षाओं की भरमार हो जाती है। इन परीक्षाओं से बोझिल शिक्षक का दिमाग मान लेता है कि यही परीक्षाएं महत्वपूर्ण हैं। इन्हीं परीक्षाओं की तैयारी शिक्षक का मूल दायित्व है। लेकिन ये परीक्षाएं किस लिए हैं, यह बात ओझल हो जाती है। बच्चे के मन-मस्तिष्क पर अत्यधिक परीक्षाओं का क्या असर होता है? क्या इन परीक्षाओं से बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं या फिर इनका उलटा असन तो नहीं हो रहा? इन बातों का संज्ञान लेना शिक्षक का ही काम है। सीखने की राह खोलना शिक्षक का काम है, सीखने की राह बंद करना नहीं। लिखित परीक्षाओं के अलावा स्कूल में की रूचियों-अभिरूचियों को मंच प्रदान करने के लिए बहुविध गतिविधियों का आयोजन करना जरूरी है। इन गतिविधियों में हिस्सेदारी करना भी विद्यार्थियों को सीखने के मौके देता है। खेल, नृत्य, संगीत, रंगमंच, रचनात्मक लेखन आदि गतिविधियों के जरिये संतुलन बनाने का काम भी शिक्षक का ही है।
शिक्षा, शिक्षक व समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती शिक्षा के निजीकरण की तरफ बढ़ते सरकारी कदमों की आन खड़ी हुई है। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी किल्लत है। शिक्षकों की कमी पूरी करके स्कूल चलाने की बजाय स्कूलों को बंद किया जा रहा है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम भी भौथरा कर दिया गया है। शिक्षकों की कमी के कारण लोगों को भारी कीमत चुका कर निजी स्कूलों में बच्चों को भजने की मजबूरी बढ़ रही है। शिक्षकों पर गैर-शैक्षणिक कार्यों का बोझ लाद दिया गया है। मिड-डे-मील योजना के संचालन में लगे अध्यापकों को हर रोज नून, तेल, मिर्च-मसाले, सब्जी, गैस-सिलेंडर सहित अन्य सामान खरीदना पड़ता है। इसके अलावा प्रति बच्चा के हिसाब से खर्च का हिसाब रखने में अपने जान खपानी पड़ती है। प्रशासन द्वारा अध्यापकों को बीएलओ (बूथ लेवल अफसर) का जिम्मा दिया गया है। नई वोटें बनाने के लिए सर्वेक्षण करना आदि बीएलओ का नियमित कार्य है। परिवार पहचान पत्र में परिवारों की आमदनी दर्ज करने का कार्य अध्यापकों को सौंप दिया गया है। कईं बार अध्यापकों को निश्चित समय तक कार्य पूरा करने का हुकम सुना दिया जाता है, जिससे उसका कक्षा में जाना भी दूभर हो जाता है। अन्य अनेक प्रकार की दिक्कतों के कारण स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाने का सुख व संतुष्टि नहीं मिल रही। ऐसी स्थितियों से यह पता चलता है कि व्यवस्था के सर्वेसर्वा बने लोग शिक्षा की बजाय अन्य कार्यों को तरजीह देते हैं। क्या अन्य सेवाओं के लिए और लोगों को कार्य पर नहीं लगाया जा सकता?
जिस अध्यापक को सामाजिक बदलाव का वाहक बनना है, आज अनावश्यक कार्यों के बोझ से लदा वह ही अपने आप को लाचार पा रहा है। शिक्षक शिक्षण व विद्यार्थियों के विकास की गतिविधियों पर केन्द्रित हो सके, इसके लिए जरूरी है कि शिक्षक समाज से जुड़ कर शिक्षा में सुधार की आवाज को बुलंद करें। यह तय कि शिक्षक जागेगा तो देश जागेगा। शिक्षक जगाएगा तभी समाज जागेगा।
हिन्दी प्राध्यापक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145Dainik Jansandesh Times 5-9-2022
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