Saturday, February 27, 2021

CHANDER SHEKHAR AZAAD A REVOLUTIONARY

 शहीदी दिवस विशेष

चन्द्रशेखर आजाद: स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सेनानी


अरुण कुमार कैहरबा

गुलाम देश में भी जीता था, जो बन आज़ादी का परवाज़।
नहीं हुआ है, कभी ना होगा चन्द्रशेखर सा आज़ाद।
आजादी की लड़ाई में चन्द्रशेखर आजाद ने अपने साहस, त्याग और बलिदान की बदौलत एक खास पहचान बनाई थी। आजादी के प्रति उनकी दिवानगी बेमिसाल है। अपने नाम के अनुकूल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उन्हीं के लिए कहा जाता है कि वह हमेशा आजाद रहा, आजादी के लिए लड़ा और आजादी से पुलिस के हाथ आने से पहले मौत को वरण कर लिया। अपनी योजना के अनुरूप काम करने के लिए उन्हें अंग्रेजों की पुलिस को धोखा देने के लिए कईं बार भेष बदलने पड़े और पुलिस को गच्चा देकर वे पुलिसकर्मियों से बात करते हुए खिसक लिये।
चन्द्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्यप्रदेश के अलीराजपुर रियासत के भावरा गाँव में हुआ था। उनके पिता सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन अपने गांव के ही आदिवासी लोगों के बीच में बीता। बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष-बाण चलाये। इससे वे निशानेबाजी में माहिर हो गए। शिव वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘संस्मृतियाँ’ में लिखा है कि ‘बचपन से ही पढऩे-लिखने की बजाय तीर-कमान या बंदूक चलाने में आजाद की रूचि अधिक थी। वे प्राय: स्कूल का बहाना लेकर घर से निकल जाते और रास्ते में अपने दोस्तों के साथ थानेदार-डाकू का खेल खेलते रहते।..आजाद की इन सब बातों से परेशान होकर माता-पिता ने उन्हें नौकरी में लगा देने की सोची। तहसील में नौकरी मिल भी गई। लेकिन आजाद भला उस सबमें कहां बंधने वाला था। अवसर मिलते ही एक मोती बेचने वाले के साथ बंबई चले गए।’ बंबई में उन्होंने मजदूर के रूप में काम किया। मजदूरों के साथ ही कोठरी में लेटने भर की जगह भी मिल गई। वहां पर उन्हें बेहद घुटन भरे वातारण में रहना पड़ा। बताते हैं कि वहां पर आजाद सप्ताह में एक बार नहाते थे। उन्हें ऐसे बोझिल जीवन से घृणा होने लगी। वे सोचने लगे कि यदि ऐसे ही मजदूरी करनी थी तो अच्छी भली नौकरी तो उन्हें मिल ही गई थी। यहां से वे बनारस आए और संस्कृत विद्यालय में प्रवेश ले लिया। बंबई प्रवास के दौरान उन्हें मजदूरों के जीवन का ठोस अनुभव हुआ।
1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के युवा वर्ग को उद्वेलित कर दिया था। बनारस में पढ़ते हुए वे गांधीजी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। अपने स्कूली छात्रों के जत्थे के साथ आन्दोलन में भाग लेने पर उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया और 15 बेंतों की सजा मिली। इस घटना का उल्लेख देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोडऩे वाले एक छोटे से लडक़े की कहानी के रूप में किया है-
‘ऐसे ही कायदे-कानून तोडऩे के लिये एक छोटे से लडक़े को, जिसकी उम्र 15 या 16 साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह भारत माता की जय चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लडक़ा तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लडक़ा उत्तर भारत के क्रांतिकारी दल का एक बड़ा नेता बना।’


फरवरी, 1922 में हुई चौरा-चौरी की घटना के बाद गाँधीजी द्वारा अचानक आन्दोलन वापिस ले लिए जाने से आजाद का कांग्रेस से मोह भंग हो गया। राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल व योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ का गठन किया। चन्द्रशेखर आजाद भी इस दल में शामिल हो गये। दल ने जब धन जुटाने के लिए डकैतियाँ डालीं। विभिन्न प्रसंगों में यह देखने में आया कि आजाद ने उसूलों के ऊपर हिंसा को हावी नहीं होने दिया। डकैती में यह कोशिश की गई कि बेकसूर की जान ना ली जाए। क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन में यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। क्रांतिकारी दल द्वारा 9अगस्त, 1925 को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया। जब शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाडऩे पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज चन्द्रशेखर आजाद को तो पकड़ नहीं सके पर राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी को 17 दिसंबर, 1927 तथा राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ व ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी गई। चार क्रान्तिकारियों को फाँसी और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने उत्तर भारत के सभी क्रान्तिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर,1928 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। सभा में विचार-विमर्श के बाद एकमत से समाजवाद का उद्देश्य घोषित किया गया और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया। चन्द्रशेखर आजाद को कमाण्डर-इन-चीफ का दायित्व दिया गया।
चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आजाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। सांडर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश की। आजाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को 28 मई 1930 को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था। इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दंड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने नेहरू से आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की। वे इसी सिलसिले में 27 फरवरी, 1931 को अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी खुफिया महकमे का एसएसपी नॉट बाबर भारी पुलिस बल के साथ वहां आया। आजाद के पास भी पिस्तौल थी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी हुई। अंग्रेजों के हाथ आने से पहले ही उन्होंने आखिरी गोली खुद को मार कर आजादी के लिए प्राण दे दिए। आजाद ने साबित कर दिया-दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे।
पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद के बलिदान की खबर जनता को लगी इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में लोगों का हुजूम उमड़ पडा। जवाहर लाल नेहरू ने आजाद के बारे में कहा था-‘चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आन्दोलन का नये रूप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा।’
मूंछों पर ताव देते चन्द्रशेखर आजाद का फोटो जिन युवाओं को आकर्षित करता है, उन्हें उनके बलिदान और विचारों पर जरूर ध्यान देना चाहिए। आजाद ने कहा था- ‘मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो समानता और भाईचारा सिखाता है।’ आज धर्म के नाम पर एक तरफ कट्टरता का बोलबाला है, दूसरी तरफ धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाए जा रहे हैं। राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल करने वालों ने कोरोना को देखने के लिए भी धर्म के चश्मे बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में चन्द्रशेखर आजाद के विचार हमें राह दिखाते हैं। आजाद ने कहा था- ‘मातृभूमि की इस वर्तमान दुर्दशा को देखकर अभी तक यदि आपका रक्त क्रोध से नहीं भर उठता है, तो यह आपकी रगों में बहता खून नहीं है, पानी है।’ पढऩे-लिखने के मामले में तो आजाद की सीमाएं थी। लेकिन किताबें पढऩे की उनके मन में गहरी लालसा रहती थी। वे अपने साथियों को पढऩे के लिए प्रेरित करते थे। अंग्रेजी की किताबों के अनुवाद करवाकर सुनते थे और साथियों से उन पर चर्चा करते थे। दल के विभिन्न सैद्धांतिक प्रश्रों पर साथियों के साथ बहस में हिस्सा लेते थे। वे भी भगत सिंह व अन्य साथियों के साथ ही समाजवादी कहलाने में गौरव महसूस करते थे।

अरुण कुमार कैहरबा,
प्राध्यापक, लेखक, स्तंभकार
घर का पता-
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
मो.नं.-9466220145

GURU RAVIDAS JAYANTI ARTICLE #BEGAMPURA KE SARJAK KAVI

 बराबरी और न्याय पर आधारित बेगमपुरा के सर्जक संत कवि रैदास

‘ऐसा चाहूं राज’ से गुरु रविदास ने प्रखर राजनैतिक चेतना का परिचय दिया

समाज सुधारक व विचारक के रूप में जात-पात व कुरीतियों का किया विरोध

अरुण कुमार कैहरबा

‘ऐसा चाहूं राज मैं, मिलै सबन को अन्न।
छोट-बड़े सब सम बसैं रैदास रहै प्रसन्न।।’
संत कवि गुरु रविदास का यह दोहा उनके राजनैतिक-सामाजिक दर्शन की झलक पेश करता है। संत रैदास के नाम से जाने जाने वाले गुरु रविदास मध्यकाल के ऐसे संत समाजसुधारक व विचारक हैं, जिन्होंने अपने क्रांतिकारी काव्य में सामाजिक बुराईयों का जोरदार विरोध किया और बेगमपुरा व समतामूलक सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था की की परिकल्पना प्रस्तुत की। संभवत: बराबरी पर आधारित राज की इस तरह से मांग उठाने वाले वे पहले कार्यकर्ता हैं। स्वयं अछूत जाति में जन्मने के कारण उनमें इसको लेकर कोई कुंठा देखने को नहीं मिलती। राजसी परिवार की मीरा रविदास को अपना गुरु स्वीकार करके उनके ऊर्जावान, विचारवान व गतिवान व्यक्तित्व को स्वीकार करती है।
गुरु रविदास के जीवन की बहुत सी प्रामाणिक जानकारियां नहीं मिल पाती हैं। लेकिन बहुत सी जानकारियों के बारे में विद्वानों में ज्यादा मतभेद नहीं है। काशी नगरी में जीटी रोड की पूर्वी दिशा में कुछ दूरी पर गोवर्धनपुर और सीरपुर गांव के आसपास कहीं चमड़े से जूतियाँ तैयार करने वाले प्रसिद्ध कारीगर रघु और कर्मा के घर में चौदहवीं सदी के उत्तराद्र्ध में रविदास का जन्म हुआ। रघु अपने गांव व आस-पास में अपनी जाति के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। कर्मा सिलाई, कढ़ाई व कशीदाकारी के काम में दक्ष थी। परिवार में कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो 11 साल से परिवार ने संतान का सुख नहीं देखा था। एक दिन जूतियां बेच कर जाते हुए रघु सारनाथ जा पहुंचे। मा. चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु के अनुसार संत भिक्खु रैवत प्रज्ञ के साथ उनकी भेंट हुई। उन्होंने रघु व कर्मा के सेवाभाव से प्रभावित होकर उन्हें दवाई की पुडिय़ा दी। उनके आशीर्वाद से उन्हीं के नाम पर बच्चे का नाम रैवतदास रखा गया। बाद में यह नाम रैविदास, रविदास और रैदास हो गया। कुछ विद्वानों का यह मत भी है कि बच्चे का जन्म रविवार को हुआ था, इसलिए रविदास नाम रखा गया। कहा जाता है कि काशीपुरी में नाथ पंथ के साधुओं की एक पाठशाला थी, जहां पर रविदास को पढऩे का मौका मिला। रघु जी ने बालक को जूतियां बनाने का काम सिखाया। थोड़े ही समय में वे अच्छे कारीगर बन गए और सुंदर जूतियां बनाने लगे।
DAINIK PURVODAY 27-02-2021


रविदास को साधु-संतों व पीरों-फकीरों की सोहबत और ज्ञान-चर्चा द्वारा सीखने का चस्का लग गया था। जिस कारण अपने काम पर वे कम बैठते थे और यदि बैठते भी थे तो ज्ञान चर्चा में लगे रहते। बेबाक ढ़ंग से सच का साथ, सामाजिक विषमताओं व जाति व्यवस्था के भेदभाव पर चोट करने के कारण उनसे परेशान लोग पिता को शिकायत करते। पिता ने शिकायतों से तंग आकर 14वर्ष की आयु में रविदास का लोना नाम की कन्या के साथ विवाह कर दिया। 16 वर्ष की अवस्था में उसका गवना करा दिया। इसके छह महीने बाद ही दोनों को खुद कमाने-खाने का संदेश देते हुए घर से निकाल दिया। जब वे ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ कहते हैं तो वे तीर्थ स्नानाआदि के स्थान पर अपने औजारों और काम की वस्तुओं को ही श्रेष्ठ बताते हैं।
DESHBANDHU 26-02-2021


खाली हाथ निकले रविदास और लोना ने घर से बहुत दूर गंगा किनारे झोंपड़ी बनाई और जूतियों के हुनर से मेहनत करके कमाने-खाने लगे। पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा भीख मांगे। रविदास जी ने आजीवन भीख नहीं मांगी। परिश्रम की कमाई खाना और परमार्थ साधन करना उनके जीवन का महत्वपूर्ण काम था। उन्होंने अपनी मेहनत से लोगों पर अमिट छाप छोड़ी। उनकी जूतियों के पूरे क्षेत्र में चर्चे होने लगे। जो उनसे एक बार जूतियां खरीदता वह सदा के लिए उनका ग्राहक बन जाता। साथ ही सत्संग सुनने के लिए भी बड़े-बड़े लोग उनके पास आने लगे। रविदास व लोना की श्रमशीलता, सत्यनिष्ठा और सदाचार के कारण घास-फूस की झोंपड़ी थोड़े समय में ही मिट्टी के कच्चे मकान में बदल गई। हर प्रकार के लोभ लालच से वे दूर थे। मेहनत की कमाई तथा गरीबी के बावजूद दूसरों की मदद करके प्रसन्न रहते थे। अपने काव्य में भी रविदास ने श्रम की प्रतिष्ठा को स्थापित किया और मुफ्तखोरी का विरोध किया।
रविदास संत कबीर व गरु नानक के समकालीन थे। कबीर और रैदास तो काशी के आसपास रहते थे, जिससे दोनों में विचार-विमर्श होता था। दोनों के विचारों में भी काफी हद तक समानता देखने को मिलती है। गुरु नानक जी ने पंजाब के अतिरिक्त प्राचीन भारत की चारों दिशाओं में भ्रमण किया। बताते हैं कि काशी में अपनी यात्रा के दौरान वे रविदास से मिले और दोनों ने दलित अछूतों की दयनीय दशा पर चर्चा की।
कवि व संत रविदास के सपनों के समाज पर चर्चा करना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे अपनी कविता में ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जोकि छोटे-बड़े के भेदभाव से मुक्त हो। अंधविश्वास, रूढि़वादिता, पाखंड समाप्त हो। न्याय व समानता का राज हो। जहां पर किसी को कोई दुख ना हो। सरकारें मानव कल्याण के कार्य करें। परलोक व अगले जन्म में स्वर्ग के ख्यालों से निकल कर समाज के वंचित वर्ग इसी जन्म और जीवन को ठीक करने में लगे। ज्ञान, सत्ता एवं सम्पत्ति पर केवल कुछ लोगों का ही आधिपत्य ना हो। एक बेहतर जीवन के लिए इन तीनों चीजों पर सबका अधिकार हो।
सच्चाई की पहचान और न्याय की लड़ाई रविदास जी के विचारों का सार है। लोगों को सच से दूर करने के लिए झूठ को सच कह-कह कर प्रचार किया जाता है। रैदास ने इसी जन्म और जीवन की बात की। जात-पात के आधार पर होने वाले भेदभाव को नंगा करते हुए उन्होंने कहा- ‘जात पात के  फेर में उलझ गए सब लोग। मानवता को खात है रैदास जात का रोग।।’ जाति की जटिल सरंचनाओं को उद्घाटित करते हुए उन्होंने कहा- ‘जात-जात मैं जात है ज्यों केलन में पात। रैदास ना मानुष जुड़ सकै ज्यौं लग जात ना जात।।’ रैदास के काव्य में मानवता को टुकड़ों में बांटने वाले लोगों के प्रति आक्रोश है और वे इसे तार्किक ढ़ंग से लोगों को समझाते हैं-‘एक माटी के सब भांडै एकही सबका सिरजनहारा। रैदास व्यापै भीतर एक घट एक ही कुम्हारा।। रविदास उपजे एक बूंद तै का बामन का सूद। मूरख जन ना जानई सबमैं राम मौजूद।। रविदास जन्म के कारने होत न कोऊ नीच। नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।’ उन्होंने जाति की बजाय अच्छे गुणों से मनुष्य की पहचान करने का संदेश देते हुए कहा- ‘रविदास बामण मत पूजिये, जो होवे गुन हीन। पूजिऐ चरन चंडाल के, जऊ होवे गुन परवीन।’
रविदास  ने भगवान का नाम लेकर भी लोगों को बांटने और एकता को समाप्त करने की साजिशों का पर्दाफाश किया और अलग-अलग नाम से एक ही भगवान होने का संदेश देते हुए हिन्दू-मुसलमान को एक होने की बात कही। उन्होंने कहा- ‘ रविदास हमारो साईयां राघव राम रहीम। सबही राम को रूप है ऐसो कृष्ण करीम।। रविदास हमारे राम जोई सोई है रहमान। काबा कासी जानिये दोऊ एक समान।। रविदास देखिया सोधकर सब ही एक समान। हिन्दु मस्लिम दोऊ का सृष्टा एक भगवान।। मुसलमान सो दोस्ती हिन्दुअन से कर प्रीत। रैदास सबमैं जोति राम की सब हैं अपने मीत।।’
गुरु रैदास संत, समाज सुधारक व विचारक होने के साथ-साथ राजनैतिक चेतना से सम्पन्न थे। वे जानते थे कि दलित-वंचित लोगों के सशक्तिकरण के लिए शिक्षा के जरिये सत्ता के दरवाजे खुल सकते हैं। उन्होंने लोगों को शिक्षित होने की अपील की और साथ ही ऐसी राजनैतिक व्यवस्था की परिकल्पना पेश की, जिसमें सबको बराबर के मौके मिलेंगे। वे कहते हैं-‘बेगमपुरा शहर को नांव, दुख अंदोह नहीं तिस ठांव। न तसवीस खिराज न माल, खौफ खता न तरस जवाल।..जहां सैर करो जहां जी भावै, महरम महल न कोय अटकावै।’ बेगमपुरा का उनका विचार एक बेहद क्रांतिकारी विचार था। रैदास की प्रसिद्धि से परेशान कुछ लोगों ने दिल्ली के राजा सिकंदर लोदी से उनकी शिकायत की। लोदी ने रैदास जी को गिरफ्तार करवा कर दिल्ली दरबार में बुला लिया। बताते हैं कि वहां लोदी के साथ रैदास जी की बातचीत हुई। रैदास ने बड़ी बेबाकी से अपने राजनैतिक, सामाजिक विचार उनके सामने रखे। उनके विचारों से लोदी प्रभावित हुआ और उन्हें रिहा कर दिया।
संत रविदास जैसे क्रांतिकारी कवि व समाज सुधारकों के जीवन व विचारों को विकृत करने के लिए अनेक प्रकार की किवंदतियां गढ़ी गई हैं। उनके विचारों के विपरीत उनके साथ ऐसे चमत्कार जोड़ दिए गए हैं, जिनका उन्होंने आजीवन विरोध किया। गुरु रविदास के ऐसे चित्र प्रचारित किए गए, जिसमें उनके हाथ में माला है और माथे पर टीका है। उनके नाम पर मंदिर बनाए जा रहे हैं, वह तो ठीक है, लेकिन मंदिर में कर्मकांडों व पाखंडों का बोलबाला है। ये सब चीजें उनके जीवन व विचारों के साथ मेल नहीं खाती हैं। आज हमें रविदास के साथ जोड़ दिए गए चमत्कारों से नहीं उनके विचारों के माध्यम से उन्हें जानने की जरूरत है।  

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
DAILY NEWS ACTIVIST 27-02-2021

Friday, February 19, 2021

रानाडे के शिष्य और गांधी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले

 विरोधियों को हराने में नहीं, उन्हें जीतने में यकीन रखते थे गोखले

रानाडे के शिष्य और गांधी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले

स्वतंत्रता सेनानी, सुधारक व विचारक के रूप में निभाई बड़ी भूमिका

अरुण कुमार कैहरबा

आजादी की लड़ाई के दौरान ऐसी अनेक शख्सियतें सामने आई, जिनमें पर्याप्त वैचारिक मतभेद थे। लेकिन अपनी विद्वता, देशभक्ति, देश हित, वैचारिक प्रखरता, सत्य पर अडिगता और देश की आजादी के लिए उनके योगदान के लिए हमेशा याद रहेंगे। उन्हीं में से एक कांग्रेस की नरमपंथी धारा के अग्रणी राजनेता गोपाल कृष्ण गोखले भी हैं। राजनेता के साथ ही वे देश के इतिहास में समाजसेवी, सुधारक, विचारक, शिक्षाविद और चिंतक के रूप में भी याद किए जाएंगे। वे महाराष्ट्र के सुकरात कहे जाने वाले महादेव गोविंद रानाड़े के प्रिय शिष्य थे और महात्मा गांधी उन्हें अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। यही नहीं मोहम्मद अली जिन्ना के लिए भी वे प्रेरणास्रोत थे। ब्रिटिश भारत में गोखले उच्च संसदीय परंपराओं के विकास के लिए भी जाने जाते हैं।


गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिला के कोटलुक ग्राम में 9 मई, 1866 को हुआ। उनके पिता कृष्णराव श्रीधर गोखले की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी। लेकिन शिक्षा की अहमियत वे महसूस करते थे। इसलिए उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले को अच्छी शिक्षा दी। बचपन में ही गोखले उच्च मूल्यों को आत्मसात किया। बताते हैं कि कोटलुक के प्राथमिक स्कूल में पढ़ते हुए अध्यापक ने बच्चों से पूछा- तुम्हें रास्ते में एक हीरा मिल जाए तो तुम उसका क्या करोगे? बालकों ने ऐसे किसी मिले हीरे से कल्पना के किले खड़े कर दिए। अधिकतर बालक हीरा मिलने से अमीरी के नशे में मस्त हो गए। कोई बोला मैं इससे गाड़ी खरीदूंगा, कोई बोला-विदेश यात्रा पर जाऊंगा। गोखले ने कहा-‘मैं उस हीरे के मालिक का पता लगा कर लौटा दूंगा।’ चकित भाव से अध्यापक ने आगे कहा- ‘मानो खूब पता लगाने पर भी उसका मालिक न मिला तो?’ गोखले बोले- ‘तब मैं हीरे को बेचूंगा और इससे मिले पैसे को देश की सेवा में लगा दूंगा।’ बालक गोपाल गोखले की इस ईमानदारी से शिक्षक बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें सच्चा देशभक्त बनने की खूब दुआएं दी।
गोपाल कृष्ण गोखले में अपनी गलती को स्वीकार करने का साहस था। इससे जुड़ा उनका एक और प्रेरक प्रसंग प्रसिद्ध है। बताते हैं कि गणित के अध्यापक को परीक्षा लेनी थी। अध्यापक ने सवालों के सही हल करने वाले को पुरस्कार की घोषणा कर दी थी। सवाल थोड़े कठिन थे। इसलिए पुरस्कार को लेकर तो विद्यार्थियों में उत्साह था, लेकिन सवाल हल नहीं हो पाने के कारण वे डरे हुए थे। काफी देर विद्यार्थी सवालों को हल करने की कोशिश करते रहे। आखिर में एक विद्यार्थी उठा और अध्यापक को अपनी उत्तर पुस्तिका दिखाई। सवाल सही ढ़ंग से हल किए गए थे और उत्तर भी सही थे। अध्यापक ने उसकी पीठ थपथपाई और पुरस्कार देकर सम्मानित किया। अन्य विद्यार्थी कमजोर माने जाने वाले इस विद्यार्थी द्वारा सबसे पहले उठने और सवाल हल कर दिखाने से हैरान थे। अगले दिन जैसे ही अध्यापक कक्षा में आए पुरस्कार विजेता विद्यार्थी उनके पैरों से लिपट गया और फूट-फूट कर रोने लगा। अध्यापक ने पूछा- ‘तुम क्यों रो रहे हो। तुमने तो पुरस्कार जीत कर अच्छे विद्यार्थी होने का परिचय दिया है। तुम्हें तो खुश होना चाहिए।’ विद्यार्थी ने कहा- ‘आपके द्वारा दिए गए पुरस्कार का मैं अधिकारी नहीं हूँ। मैंने किताब से नकल करके सवालों का हल किया था। मुझे मेरी गलती के लिए क्षमा कर दें। भविष्य में ऐसी गलती नहीं होगी।’ अध्यापक ने कहा- ‘तुम्हें सवालों का सही हल नहीं आता। लेकिन तुम्हें किसी को धोखा देना भी नहीं आता। गलत ढ़ंग से कोई काम करने पर तुम्हारी आत्मा तुम्हें कचोटती रही। तुमने आत्मा की आवाज सुनकर अपनी गलती स्वीकार कर ली। अपनी गलती मान लेने वाले बड़े होकर बड़ा काम और ऊंचा नाम करते हैं।’ अध्यापक ने उसे गले से लगा लिया। अपनी गलती स्वीकार करके शिक्षक का स्नेह प्राप्त करने वाले वे बालक गोपाल कृष्ण गोखले ही थे।
JAGAT KRANTI 19-2-2021


स्नातक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद गोपाल कृष्ण गोखले कुछ समय तक एक स्कूल में अध्यापक रहे। बाद में पूना के प्रसिद्ध फग्र्यूसन कॉलेज में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में कार्य किया। रानाडे के संपर्क में आने के बाद गोखले सार्वजनिक कार्यों में रूचि लेने लगे। कांग्रेस की स्थापना के कुछ समय बाद वे उससे जुड़ गए। 1905 में बनारस अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। उस समय कांग्रेस में नरम दल व गरम दल में तीखे मतभेद देखने को मिले। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक व विपिन चंद्र पाल की लाल-बाल-पाल की तिकड़ी ने कांग्रेस की शांतिपूर्ण ढ़ंग से कार्य करने और ज्ञापन देने की नीति का विरोध किया और देश को आजाद करवाने के लिए जोरदार आंदोलन की पक्षधरता की। गोखले क्रांति की बजाय सुधारों में विश्वास करते थे और शांतिपूर्ण तरीके से देश को स्वशासन की तरफ ले जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने शिक्षा को महत्वपूर्ण माना। देश की गरीब जनता तक शिक्षा पहुंचाने के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण सुझाव दिए। 1902 में उन्हें इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल का सदस्य चुना गया। उन्होंने इस भूमिका में छह से 10वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे की अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव रखा। जोकि आजाद भारत में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार की नींव और प्रेरणास्रोत बना। गोखले का मानना था कि शिक्षा की सारी जिम्मेदारी सरकार को उठानी चाहिए। लेकिन अंग्रेजी सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी। उस समय अंग्रेजी सरकार शिक्षा के फैलाव को अपने लिए खतरे की तरह देखती थी। गोखले वित्तीय मामलों पर बोलने वाले प्रखर वक्ता थे। काउंसिल के सदस्य के रूप में उन्होंने संसदीय परंपराओं के मामले में आगामी नेताओं का मार्गदर्शन किया। वे राजनैतिक मतभेदों को स्वीकार करने वाले और अपने विचारों को स्पष्ट ढ़ंग से रखने वाले नेता थे। बताते हैं कि किसानों के मुद्दों पर ब्रिटिश शासन के दौरान विधान परिषद के सदस्य के रूप में पहली बार वाक आउट किया था।
गोपाल कृष्ण गोखले ने आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के प्रेरक व गुरु की भूमिका निभाई। गांधी के निमंत्रण पर गोखले दक्षिण अफ्रीका गए और अंग्रेजों द्वारा किए जाने वाले रंगभेद की निंदा की। रंगभेद के विरूद्ध गांधी जी के आंदोलन की प्रेरणा-शक्ति गोखले ही थे। दक्षिण अफ्रीका से भारत में पहुंचने के बाद गांधी जी ने गोखले के संदेश के अनुसार देश को आजाद करवाने के लिए देश को जानने के लिए यात्राएं की। उनके दिशानिर्देश से ही गांधी जी आजीवन आम लोगों के घरों-बस्तियों में जाते रहे। किसी भी नीति व कार्यक्रम की सफलता का आधार अंतिम जन को मिलने लाभ से आंकते रहे। गोपाल कृष्ण गोखले का हिन्दु-मुस्लिम एकता व साम्प्रदायिक सदभाव में विश्वास था। गांधी की तरह ही वे मोहम्मद अली जिन्ना के भी राजनीतिक गुरू थे। जिन्ना की प्रतिभा से गोखले प्रभावित हुए और उन्हें भारतीय राजनीति में आगे लाने में अहम भूमिका निभाई। हालांकि बाद में वे गोखले के दिखाए मार्ग पर नहीं चल पाए और देश के बंटवारे के लिए धर्म के आधार पर खून-खराबे को सही ठहराते रहे।
19 फरवरी, 1915 में गोखले का मुंबई में निधन हो गया। उनके धुर विरोधी रहे बाल गंगाधर तिलक ने उनके सम्मान में कहा था- ‘ये भारत का रत्न सो रहा है। देशवासियों को जीवन में इनका अनुकऱण करना चाहिए।’ गांधी ने अपने गुरु को याद करते हुए कहा- ‘गोखले क्रिस्टल की तरफ साफ थे। एक मेमने की तरह दयालु थे। एक शेर की तरह साहसी थे। और इन राजनीतिक हालात में आदर्श पुरुष थे।’ कईं बार आम लोग गोखले को एक कमजोर नेता के रूप में देखने लगते हैं, जबकि यह सच नहीं है। पट्टाभि सितारामैय्या के शब्दों में कहें तो, ‘गोखले विरोधियों को हराने में यकीन नहीं रखते थे, वे विरोधियों को जीतने में विश्वास करते थे।’
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार, लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145






Thursday, February 18, 2021

Free TB test & treatment in government hospitals: Dr. Goldy Sayal

क्षय रोग जागरूकता पेंटिंग प्रतियोगिता में प्रतिभा रही प्रथम

मधु दूसरे और खुशी की पेंटिंग ने पाया तीसरा स्थान

सरकारी अस्पतालों में होती टीबी की मुफ्त जांच व उपचार :  डॉ. गोल्डी सयाल

गांव करेड़ा खुर्द स्थित राजकीय उच्च विद्यालय में स्वास्थ्य विभाग की तरफ से क्षय रोग जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम के तहत क्षय रोग जागरूकता से संबंधित पेंटिंग प्रतियोगिता में स्कूल के विद्यार्थियों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रुप में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नाहरपुर की मेडिकल ऑफिसर डॉ. गोल्डी सयाल ने शिरकत की और अध्यक्षता हिंदी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा ने की।
पेंटिंग प्रतियोगिता में नौवीं कक्षा की छात्रा प्रतिभा ले पहला स्थान पाया। मधु दूसरे और खुशी की पेंटिंग तीसरे स्थान पर रही। प्रतियोगिता में महक, सिमरन, प्रिया, मुस्कान, भावना, मीनाक्षी, अनु, सलोनी और तृप्ति की पेंटिंग भी सराही गई। डॉ. गोल्डी सयाल,  सीनियर ट्रीटमेंट सुपरवाइजर (क्षय रोग) रवीन्द्र कुमार और  एलएचवी मीना ने स्वास्थ्य विभाग की तरफ से सभी विद्यार्थियों को पुरस्कार देकर सम्मानित किया। 

डॉक्टर गोल्डी सयाल ने विद्यार्थियों को क्षय रोग के लक्षण एवं उपचार के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए कहा कि  क्षय रोग या टीबी को आमतौर पर फेफड़ों की बीमारी माना जाता है लेकिन यह है शरीर के सभी अंगों पर बुरा प्रभाव डालती है। सभी सरकारी अस्पतालों में टीबी की जांच और उपचार मुफ्त किया जाता है। साथ ही सभी टीबी मरीजों को निक्षय पोषण योजना के तहत ₹500 की सहायता भी प्रदान की जाती है। भारत सरकार ने 2025 तक टीबी को पूर्णतया समाप्त करने का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य तभी पूरा होगा जब लोगों में जागरूकता होगी।
फास्ट फूड बन रहा बिमारियों का कारण: अरुण

हिंदी प्राध्यापक अरुण कैहरबा ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि टीबी सहित सभी बीमारियों को हराकर हम अपने देश को विजयी बना सकते हैं। इसके लिए विद्यार्थियों को अच्छा एवं पौष्टिक भोजन लेना चाहिए। उन्होंने पोषण रोहित फास्ट फूड के बढ़ते प्रचलन पर चिंता जताते हुए कहा कि अधिकतर फास्ट फूड में फूड वैल्यू कुछ भी नहीं होती। अस्वच्छ वातावरण में बनाई जा रही चटपटी चीजों का अत्यधिक इस्तेमाल हमें गंभीर बीमारियों की चपेट में ला सकता है। इस मौके पर सीनियर ट्रीटमेंट सुपरवाइजर (क्षय रोग) रवीन्द्र कुमार और  एलएचवी मीना, प्राध्यापक संदीप कुमार, ईएचएम विष्णु दत्त, विज्ञान अध्यापक ओमप्रकाश कंबोज, अध्यापिका सुखिंदर कौर, रजनी शास्त्री, वंदना शर्मा, वीरेंद्र कुमार, किशोरी लाल, लिपिक मंजू, डिंपल, रवि, राजेन्द्र  उपस्थित रहे।


Monday, February 8, 2021

KALPANA DUTT A GREAT REVOLUTIONARY OF CHATTGRAM VIDROH

 पुण्यतिथि विशेष

स्वतंत्रता आंदोलन की बहादुर क्रांतिकारी: कल्पना दत्त फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ ने इतिहास के अनछुए पहलुओं पर की कलात्मक अभिव्यक्ति
DAILY NEWS ACTIVIST 8-02-2021

अरुण कुमार कैहरबा
आजादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों को भगाने व देश को आजाद करवाने के लिए लोगों की एकता देखते ही बनती थी। देश के कोने-कोने में आजादी के लिए विभिन्न प्रकार की कार्रवाईयां की गई। आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों की देशभक्ति, साहस व बलिदान के अनेक किस्से हैं, जो आज भी देशवासियों के मन में जोश पैदा कर देते हैं। अंग्रेजों के अन्याय व अत्याचार के खिलाफ बंगाल में भी क्रांतिकारी आंदोलन अपने उफान पर था। बंगाल से संबंध रखने वाले रास बिहारी बोस व सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन करके अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ी। इस फौज में महिलाएं भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही थी। लेकिन इससे भी पहले मास्टर सूर्यसेन की अगुवाई में भारतीय गणतंत्र सेना का गठन किया था। गणतंत्र सेना में कल्पना दत्त व प्रीतिलता जैसी वीरांगनाओं ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। युवाओं के प्रशिक्षण, बम बनाने और सेना के लिए हथियारों की चोरी-छिपे सप्लाई करने जैसे कार्य किए। उनकी सक्रिय भागीदारी ने बताया कि बहादुरी केवल केवल क्रांतिकारी युवकों तक ही सीमित नहीं थी, उसमें महिलाओं का हैरान कर देने वाला योगदान था। आशुतोष गोवरिकर के निर्देशन में 2010 में आई फिल्म- ‘खेलें हम जी जान से’ ने मास्टर दा सूर्यसेन के नेतृत्व में चट्टोग्राम की अंग्रेजों से आजादी की क्रांतिकारी मुहिम को सामने लाने का काम किया। मानिनी चटर्जी के उपन्यास ‘डू एंड डाई: चटग्राम विद्रोह’ पर आधारित यह उपन्यास बहुत रोचक व यथार्थपरक ढ़ंग से चटग्राम विद्रोह के क्रांतिकारी शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। इस विद्रोह की नायिका कल्पना दत्त ने आजादी के बाद गुमनामी में जिंदगी गुजारी। 8 फरवरी, 1995 को उन्होंने दुनिया से अलविदा कहा। उनकी पुण्यतिथि पर आज का यह लेख उन्हीं को समर्पित कर रहा हूँ।
VIR ARJUN 8-2-2021


कल्पना दत्त का जन्म 27जुलाई, 1913 को अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन संयुक्त भारत के बंगाल प्रदेश के चट्टोग्राम या चटग्राम जिला में पडऩे वाले श्रीपुर गांव में हुआ था। चटग्राम से उन्होंने 1929 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। उसके बाद उसने विज्ञान स्नातक करने के लिए कलकत्ता के बेथ्यून महिला कॉलेज में प्रवेश किया। यहां पर कल्पना छात्र संघ से जुड़ गई। उस समय प्रीतिलता व बीना दास भी छात्र संघ की सदस्य थी। प्रीतिलता के साथ कल्पना की गहरी मित्रता हो गई। अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे शोषण को देखकर और क्रांतिकारियों की जीवनियां पढक़र उनके मन में भी आजादी की ललक बढ़ती जा रही थी। कांग्रेस के शांतिपूर्ण आंदोलन से भी लोग निराश हो रहे थे। गणतंत्र सेना से जुडऩे के लिए कल्पना ने प्रीतिलता से बात की। दोनों मास्टर सूर्यसेन से मिलने के लिए पहुंची और उन्हें क्रांति दल का हिस्सा बनाने का अनुरोध किया।
एक बार तो सूर्यसेन ने क्रांति का रास्ते की मुश्किलात को बताते हुए उनसे ना जुडऩे की बात की। लेकिन कल्पना के इरादे को देखकर दल में शामिल कर लिया गया। बच्चों, किशोरों व युवाओं में भी अंग्रेजी शासन के प्रति आक्रोश बढ़ता जाता है। सूर्यसेन की अगुवाई में उनके सैनिक प्रशिक्षण, बंदूक-पिस्तौल चलाने का अभ्यास, हथियार बनाने के लिए सामग्री को लाने व बम बनाने की कार्रवाई में भी कल्पना दत्त व प्रीतिलता की सक्रिय भूमिका निभाती हैं।
18 अप्रैल, 1930 को चटग्राम विद्रोह की योजना में दोनों सक्रिय हिस्सा लेती हैं। यह ऐतिहासिक विद्रोह था, जिसमें योजनाबद्ध ढ़ंग से अंग्रेजी शासन, संचार, सेना के अड्डों को ध्वस्त किया गया और शस्त्रों को लूट लिया गया। लेकिन पूरी तरह से यह विद्रोह सफल नहीं होता। सितंबर, 1931 में चटग्राम के यूरोपियन क्लब पर हमले की जिम्मेदारी प्रीतिलता व कल्पना दत्त को दी गई। लेकिन हमले के एक सप्ताह पूर्व कल्पना दत्त को गिरफ्तार कर लिया गया। कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलने के कारण जमानत पर रिहा भी कर दिया गया और उस पर नजर रखी जाने लगी।
इसके बावजूद कल्पना दत्त पुलिस को चकमा देकर क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी करती रही। 17 फरवरी, 1933 को पुलिस कल्पना दत्त, सूर्यसेन व अन्य के छिपने के स्थान का घेरा डाल देती है। इसमें कल्पना भागने में कामयाब होती है और सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया जाता है। अदालत में सूर्यसेन व तारकेश्वर दस्तीकार को फांसी और 21वर्षीय कल्पना दत्त को आजीवन कारावास की सजा मिलती है। इससे पहले प्रीतिलता ने पुलिस से घिरने पर पुलिस के हाथ नहीं आने के लिए खुद ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी। अनेक क्रांतिकारी पुलिस व सेना की कार्रवाई में शहीद हो चुके थे।
महात्मा गांधी व कांग्रेस के प्रयासों से जेलों में बंद अनेक क्रांतिकारी रिहा हुए। 1939 में कल्पना दत्त भी रिहा हुई। उसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता पीसी जोशी के साथ उनका विवाह हुआ। 1943 में आए अकाल के वक्त उन्होंने अकाल पीडि़तों की मदद की। उन्होंने बांगला में अपनी आत्मकथा लिखी। जिसका अंग्रेजी में अरुण बोस व निखिल चक्रवती ने अंग्रेजी में ‘चटग्राम आर्मरी रेडर्स: रेमिनिसेस’ शीर्षक से अनुवाद किया है। बाद में वे भारतीय सांख्यिकी संस्थान से जुड़ी रही।
कल्पना जोशी के बेटे चांद जोशी की पत्नी मानिनी चटर्जी की किताब पर आशुतोष गोवरिकर ने फिल्म बनाकर इतिहास के पन्नों को कलात्मक अभिव्यक्ति दी है। यह फिल्म युवाओं को इतिहास में झांकने, स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों से परिचय करवाने की सफल कोशिश है। फिल्म में सूर्य सेन की भूमिका अभिषेक बच्चन और कल्पना दत्त की भूमिका दीपिका पादुकोण ने निभाई है। इसके अलावा विशाखा सिंह ने प्रीतिलता वाद्देदार, सिकंदर सिंह - निर्मल सेन, महिंदर सिंह - अनंता सिंह की भूमिका में दिखे हैं। इतिहास के उन पन्नों को जानने के लिए फिल्म को देखा जाना चाहिए।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड  नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
JAGAT KRANTI 8-2-2021

Saturday, February 6, 2021

SARTHAK KI KAHANI.........PATANG

 बाल कहानी-  पतंग

सार्थक
INDORE SAMACHAR

सात साल के सौरभ को पतंगें बहुत अच्छी लगती हैं। वह अपनी छत पर चला जाता और घंटों बच्चों को पतंग उड़ाते देखता। उसके मन में पतंग उड़ाने की इच्छाएं पैदा होती हैं। लेकिन उसके पास अपनी पतंग नहीं थी। पतंग होती भी तो उसे पतंग उड़ानी ही नहीं आती थी। उसने एक बार सोचा कि वह किसी से पतंग उड़ाना सीख ले। फिर उसने देखा कि उसकी बगल वाली छत पर एक लडक़ा पतंग उड़ा रहा है। छत को फांद करके वह उसके पास गया।
सौरभ ने उससे पूछा- तुम्हारा नाम क्या है?
लडक़े ने बताया- रवि।
सौरभ ने पूछा- क्या मुझसे दोस्ती करोगे?
रवि- हां, क्यों नहीं।
सौरभ- क्या तुम मुझे पतंग उड़ाना सिखा सकते हो?
रवि- पहले तुम डोर और पतंग लाओ। फिर मैं सिखा दूंगा।
सौरभ- हां, मैं अपने पापा से बात करता हूँ। उनसे पैसे लेकर हम दोनों एक बढिय़ा पतंग ले आएंगे।
सौरभ अपने पापा के पास गया। उसने पापा से कहा- मैं पतंग व डोर खरीदना चाहता हूँ। मुझे पैसे दे दो।
पापा-क्या तुम्हें पतंग उड़ानी आती है?
सौरभ- नहीं, मेरा एक नया दोस्त बना है। वह बहुत अच्छी पतंग उड़ाता है। वह मुझे पतंग उड़ाना सिखाएगा।
पापा- पहले तुम उसकी पतंग से सीख लो। फिर तुम्हें भी पतंग दिला देंगे।
पापा का जवाब सुनकर सौरभ मायूस हो गया। वह अपनी छत पर गया। उसने देखा कि रवि अपनी छत पर नहीं है। वह उसके घर गया। उसने डोर बैल बजाई। रवि की मम्मी दरवाजे पर आई। उसने सौरभ से पूछा-तुम कौन हो और क्यों आए हो?
सौरभ ने कहा-मैं रवि का दोस्त हूँ। मुझे उससे पतंग उड़ानी सीखनी है।
रवि की मम्मी- उसका ट्यूशन का टाइम हो रहा है। वह ट्यूशन पर जाएगा। पांच बजे वह ट्यूशन पढ़ कर आएगा। फिर तुम आकर उससे मिल लेना।
सौरभ रवि के ट्यूशन से लौट आने का इंतजार करता रहा। पूरे पांच बजे उसने फिर से रवि का दरवाजा खटखटाया। दरवाजे पर आई रवि की मम्मी ने उसे बताया कि रवि अभी घर नहीं पहुंचा है। जल्दी ही शायद वह आ जाएगा।
सौरभ फिर से पांच बजकर दस मिनट पर रवि के घर पहुंचा। रवि की मम्मी ने कहा- रवि अभी खाना खा रहा है। थोड़ी देर बाद आना।
सौरभ दस मिनट बाद आया। तब वह पार्क में खेलने गया था। जब वह रवि क ो बुलाने जाता तो वह कभी कोई काम होता तो कभी कोई काम होता। ऐसे ही कईं दिन बीत गए। एक दिन आखिर उसे रवि से मिलने का मौका मिल ही गया।
सौरभ रवि से-पापा ने कहा है पहले वह अपने दोस्त से पतंग उड़ाना सीख जाए, तब पापा मुझे पतंग दिला देंगे।
रवि मान गया। उसने सबसे पहले सौरभ को पतंग में डोर बांधना सिखाया। डोर टूटने पर उसे बांधना सिखाया। फिर उसे पतंग उड़ाना सिखाया। फिर डोर को झटके लगाकर पतंग को ऊंचा उड़ाना सिखाया। उड़ती पतंग के साथ-साथ जैसे सौरभ खुद आसमान में उड़ता महसूस करता। उसके बाद सौरभ ने डोर को ढ़ील देने के बारे में बताया ताकि पतंग और अधिक ऊपर जा सके। रवि ने सौरभ को अलग-अलग प्रकार की डोर दिखाई और उनका अभ्यास भी करवाया। उसने उसे डोर को लपेटना सिखाया। विभिन्न प्रकार के पतंगों की विशेषताएं समझाई।
रवि ने बताया कि कौन सी पतंग ज्यादा अच्छी होती है और कौन सी पतंग ज्यादा अच्छी उड़ान नहीं भरती। सौरभ को हवा की दिशाओं के बारे में समझते भी देर ना लगी। वह 10 दिनों में पतंग उड़ाना सीख गया। उसने पतंग भी खरीद ली। जल्दी ही बसंत पंचमी आ गई। फिर सौरभ ने बसंत पंचमी पर खूब पतंग उड़ायी। उसकी पतंग की उड़ान देखकर आस-पास के बच्चे भी दंग थे।

-सार्थक
कक्षा-पांचवीं, आयु-दस वर्ष
शहीद उधम सिंह वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, मटक माजरी, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

MANMATH NATH GUPTA WAS A GREAT REVOLUTIONARY & WRITER

 मन्मथनाथ गुप्त ने आजादी की लड़ाई में निभायी क्रांतिकारी भूमिका

स्वतंत्रता आंदोल, इतिहास व साहित्य की बेमिसाल प्रतिभा
JAGAT KRANTI 7-2-2021

अरुण कुमार कैहरबा

आजादी की लड़ाई में भगत सिंह की अगुवाई में युवाओं की क्रांतिकारी धारा का अहम योगदान रहा। क्रांतिकारियों के जीवन-संघर्षों, क्रांतिकारी धारा के इतिहास व विचारों पर प्रामाणिक लेखन करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के गिने-चुने नामों में मन्मथनाथ गुप्त का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। मन्मथ गुप्त किशोरावस्था में ही आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने लगे थे। स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय हिस्सेदारी करने और क्रांतिकारी विचारों का लेखन करने के लिए उन्हें काफी लंबे समय तक जेल की यातनाएं सहनी पड़ी। जेल में रहते हुए भी वे लिखते रहे। आजादी के बाद उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी व बांगला साहित्य, इतिहास, संस्मरण लिखने, पत्रिकाओं के संपादन में अपना समय बिताया।
मन्मथनाथ गुप्त का जन्म 7 फरवरी, 1908 को वाराणसी में हुआ। गुप्त के पिता वीरेश्वर स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। उनका स्कूल नेपाल के विराटनगर में था। जिस कारण गुप्त की दो साल की शिक्षा वहीं पर हुई। बाद में वे वाराणसी में आ गए। 13 साल की उम्र में वे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। 1921 में ब्रिटेन के युवराज के बहिष्कार के लिए लोगों में पर्चे बांटते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। तब पहली बार उन्हें तीन महीने की जेल हुई। जेल से छूटने पर वे काशी विद्यापीठ में दाखिल हुए। यहां से विशारद की पढ़ाई करते हुए वे क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गए। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गए। बताते हैं कि चन्द्रशेखर आजाद को भी मन्मथ नाथ गुप्त ने ही एसोसिएशन के साथ जोड़ा था। 17 साल की उम्र में एसोसिएशन द्वारा काकोरी में ट्रेन से सरकारी खजाना लूटने की कार्रवाई में मन्मथ नाथ गुप्त ने हिस्सा लिया। 9अगस्त, 1925 को हुई इस कार्रवाई को इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जाना जाता है। इस कांड में हिस्सा लेने के अपराध स्वरूप में अंग्रेज सरकार ने रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी व ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी। मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल के कारावास की सजा हुई। 1937 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। 1939 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और आजीवन कारवास की सजा मिली। उन्होंने कुछ समय अंडमान की जेल में भी बिताया। जेल में गुप्त जी का अध्ययन एवं लेखन निरंतर जारी रहा।
आजादी से एक साल पहले 1946 में उन्हें जेल से रिहा किया गया। 15अगस्त, 1947 को देश आजाद होने के बाद उन्होंने क्रांतिकारियों द्वारा की गई शहादतों और उनके विचारों पर अपनी कलम चलाई। उन्होंने अपनी लेखनी में क्रांतिकारियों के सपनों के अनुकूल आजाद भारत के निर्माण की जरूरत को हमेशा रेखांकित किया। उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी व बांग्ला में करीब 120 किताबें लिखी। ये किताबें जहां स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास व संस्मरण से संबंधित हैं, वहीं साहित्य और साहित्यिक आलोचना से भी जुड़ी हुई हैं।
उनकी किताब ‘क्रांतियुग के संस्मरण’ 1937 में प्रकाशित हुई। ‘भारत में सशस्त्र क्रांतिकारी चेष्टा का इतिहास’ 1939 में आई। क्रांतिकारी चरित्रों पर आधारित 1955 में प्रकाशित उनका उपन्यास-‘बहता पानी’ काफी चर्चित रहा। समीक्षात्मक किताबों में ‘कथाकार प्रेमचंद’, ‘प्रगतिवाद की रूपरेखा’ तथा ‘साहित्य, कला, समीक्षा’ की अधिक ख्याति हुई। उन्होंने बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में महत्वपूर्ण दायित्व संभाला। मंत्रालय के योजना सहित अनेक प्रकाशनों का संपादन किया। वे बाल पत्रिका-बाल भारती व साहित्यिक पत्रिका ‘आजकल’ के संपादक रहे। 26अक्तूबर, 2000 को उनका निधन हो गया। उनकी लिखी किताबें हिन्दी साहित्य व इतिहास की कीमती धरोहर हैं, जो हमेशा हमें राह दिखाती रहेंगी।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
मो.नं.-09466220145

KAVI PRADEEP कवि प्रदीप ने फैलाई राष्ट्रीय चेतना

 जयंती विशेष

ऐ मेरे वतन के लोगों, जऱा आँख में भर लो पानी....

सिनेमा को जरिया बनाकर कवि प्रदीप ने फैलाई राष्ट्रीय चेतना

अरुण कुमार कैहरबा
HARI BHOOMI 6-2-2021

ऐ मेरे वतन के लोगों, जऱा आँख में भर लो पानी....
जो शहीद हुए हैं उनकी, जऱा याद करो कुर्बानी।
ये वो बोल हैं जिन्हें सुनकर शहीदों की कुर्बानी का अहसास हृदय की गहराई में उतर जाता है और बरबस आँखों से आंसू बहने लगते हैं। हिन्दी फिल्मों के निराले एवं देशभक्ति के अमर गीतकार कवि प्रदीप की कलम की कशिश और आकर्षण कुछ ऐसा ही है। आम जन ही नहीं बल्कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी इस गीत को सुनकर भाव-विभोर हो गए थे और अपने आँसू नहीं रोक पाए थे। कवि प्रदीप ने प्रेम के हर रूप और हर रस को अपने गीतों में पिरोया है, लेकिन देशप्रेम की भावना के गीतों के लिए उन्हें विशेष रूप से याद किया जाता है।
मध्यप्रदेश के बडऩगर में 6फरवरी, 1915 को जन्मे प्रदीप का नाम रामचंद्र द्विवेदी रखा गया। प्राथमिक शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई। स्नातक की डिग्री लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त करने के बाद अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में प्रवेश किया। विद्यार्थी जीवन में ही काव्य ने उन्हें आकर्षित किया और वे काव्य-रचना व वाचन में विशेष दिलचस्पी लेने लगे। कवि सम्मेलनों में कविताएं सुनाते हुए उन्हें श्रोताओं की खूब दाद मिलती थी। रामचंद्र द्विवेदी की कविता केवल समय बिताने का साधन नहीं थी, वह उनकी सांस-सांस में बसी थी और जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। इसीलिए अध्यापन छोडक़र वे कविता रचना में जुट गए। कवि सम्मेलनों में उन्होंने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसी विभूतियों को भी प्रभावित किया। उन्हीं के आशीर्वाद से रामचंद्र ‘प्रदीप’ कहलाने लगे। बाद में वे मायानगरी मुंबई चले गए। उस जमाने में अभिनेता प्रदीप कुमार बहुत लोकप्रिय थे और अक्सर आम लोग प्रदीप कहे जाने वाले रामचंद्र द्विवेदी की जगह प्रदीप कुमार के बारे में सोचने-समझने लगते थे। ऐसी स्थिति से बचने के लिए रामचंद्र ने अपना उपनाम ‘कवि प्रदीप’ रख लिया, ताकि अभिनेता प्रदीप कुमार और गीतकार प्रदीप में अंतर हो सके। कवि प्रदीप अपनी रचनाएं गाकर ही सुनाते थे। उनकी शैली से प्रभावित हुए बाम्बे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने उनको कंगन फिल्म के लिए अनुबंधित किया। कवि प्रदीप ने इस फिल्म के लिए चार गाने लिखे।  उनमें से तीन गाने स्वयं गाये और सभी गाने अत्यंत लोकप्रिय हुए। परंतु गायक के रूप में उनकी लोकप्रियता का माध्यम बना ‘जागृति’ फिल्म का गीत, जिसके बोल हैं-
आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की,
इस मिट्टी को तिलक करो, ये धरती है बलिदान की। वंदे मातरम, वंदे मातरम।
संगीत निर्देशक हेमंत कुमार, सी. रामचंद्र, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि ने समय-समय पर कवि प्रदीप के लिखे कुछ गीतों को उन्हीं की आवाज में रिकॉर्ड किया। ‘पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय’, ‘टूट गई है माला मोती बिखर गए’, ‘कोई लाख करे चतुराई करम का लेख मिटे न रे भाई’ जैसे भाव प्रधान गीतों को बहुत आकर्षक अंदाज में गाकर कवि प्रदीप ने फिल्म जगत के गायकों में अपना सिक्का जमा दिया। किस्मत फिल्म का एक गीत यद्यपि कवि प्रदीप ने स्वयं गाया नहीं था, लेकिन उनकी लिखी इस रचना ने ब्रिटिश शासकों को हिला कर रख दिया था, जिसके बोल हैं- ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है।’ बताते हैं कि ब्रिटिश अधिकारियों ने वारंट जारी करके कवि प्रदीप की तलाश शुरू कर दी। जब उनके कुछ मित्रों को पता चला कि ब्रिटिश शासक कवि प्रदीप को पकडक़र कड़ी सजा देना चाहते हैं। मित्रों और शुभचिंतकों के अनुरोध पर कवि प्रदीप भूमिगत हो गए।  लेकिन यह गाना वतन के मतवालों में नई ऊर्जा का संचार कर गया। लोगों ने भी इस गीत की खूब सराहना की। गीत को सुनकर दर्शकों में उत्साह जागृत होता। वे इस गीत को दौबारा चलाने की फरमाइश करते। सिनेमाघरों में फिल्म की रील को रिवाइंड किया जाता और गाना फिर से दिखाया व सुनाया जाता।
कवि प्रदीप ने 71 फिल्मों के लिए सैंकड़ों गीत लिखे। उनके लिखे कुल गीतों की संख्या 17सौ के करीब है। चल चल रे नौजवान, कितना बदल गया इन्सान (नास्तिक), पिंजरे के पंछी रे (नागमणि), इन्सान का इन्सान से हो भाईचारा (पैगाम), चल अकेला, चल अकेला (संबंध) व चना जोर गरम बाबू (बंधन) सहित उनके अनेक गीत आज भी लोगों की जुबान पर थिरकते हैं। देशक्तिपूर्ण गीतों के कारण उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। आजादी से पहले पराधीनता के जूए को सिर से उतार फेंकने में लगे वतन के परवानों को कवि प्रदीप ने अपने गीत रूपी हथियार दिए और आजादी के बाद भी लोगों में देशभक्ति का जज़्बा पैदा किया। उनकी बेटी मितुल प्रदीप के अनुसार-देश प्रेम के गीत लिखने का जज़्बा प्रदीप जी में उन्हीं दिनों से था जब वे बतौर छात्र इलाहाबाद में पढ़ते थे।
आज़ादी के बाद 1954 में उन्होंने फि़ल्म जागृति में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को बहुत ही शानदार ढंग़ से अपने गीतों में उतारा। इसे लेखनी का ही कमाल कहेंगे कि जब पाकिस्तान में फि़ल्म जागृति की रीमेक बेदारी बनाई गई तो बस देश की जगह मुल्क कर दिया गया और पाकिस्तानी गीत बन गया....हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, इस मुल्क़ को रखना मेरे बच्चों संभाल के..। कुछ इसी तरह ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खडग़ बिना ढ़ाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ की जगह पाकिस्तानी गाना बन गया..... यूँ दी हमें आज़ादी कि दुनिया हुई हैरान, ऐ क़ायदे आज़म तेरा एहसान है एहसान। ऐसे ही था बेदारी का ये पाकिस्तानी गाना....आओ बच्चो सैर कराएँ तुमको पाकिस्तान की, जिसकी खातिर हमने दी क़ुर्बानी लाखों जान की। ये गाना असल में था-आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की...
निदा फ़ाज़ली  के अनुसार ‘प्रदीप जी ने बहुत ही अच्छे राष्ट्रीय गीत लिखे हैं। यूँ समझिए कि उन्होंने सिनेमा को ज़रिया बनाकर आम लोगों के लिए लिखा।’ वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश चौकसे भी कवि प्रदीप के सादे व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हैं। उनके अनुसार, ‘उन्होंने बहुत ज़्यादा साहित्य का अध्ययन नहीं किया था, वो जन्मजात कवि थे। उन्हें मैं देशी ठाठ का स्थानीय कवि कहूंगा। यही उनका असली परिचय है। सादगी भरा जीवन जीते थे। कवि प्रदीप ने किसी राजनीतिक विचारधारा को स्वीकार नहीं किया। बौद्धिकता का जामा उनकी लेखनी पर नहीं था। जो सोचते थे वही लिखते थे, सरल थे, यही उनकी ख़ासियत थी।’ फि़ल्मों में उनके अमूल्य योगदान के लिए उन्हें 1998 में दादा साहब फ़ाल्के सम्मान भी दिया गया। उनका हर फि़ल्मी-ग़ैर फि़ल्मी गीत अर्थपूर्ण होता था और जीवन का कोई न कोई दर्शन समझा जाता था। 11 दिसंबर, 1998 को कवि प्रदीप का देहांत हो गया, लेेकिन अपने गीतों के ज़रिये वे हमें जीवन का संदेश देते रहेंगे।
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
मो.नं.-09466220145


PRKHAR VIKAS

AAJ SAMAJ 6-2-2021


Friday, February 5, 2021

KHAN ABDUL GAFFAR KHAN SARHADI GANDHI

 अहिंसा व सत्याग्रह के जरिये देश को आजाद करवाने वाले थे सरहदी गांधी
UTTAM HINDU 06-02-2021


अरुण कुमार कैहरबा

भारत के इतिहास में आजादी की लड़ाई एक ऐसा समय है, जब अंग्रेजी शासन के विरोध में देश भर में आपसी भाईचारे व एकता का संचार हुआ। अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी प्रतिभा व त्याग की भाावना से देश की जनता को प्रभावित किया। संघर्षों से उपजे उनके विचारों ने लोगों को एकता के सूत्र में बांध कर सांझी लड़ाई लडऩे के लिए तैयार किया। ऐसी संघर्षशील शख्सियतों में भारत के उत्तर-पश्चिम प्रांत में आजादी की लड़ाई के अगुवा बने $खान अब्दुल गफ़्$फार $खान एक चमकते सितारे हैं। सरहदी गांधी, सीमांत गांधी, बच्चा खान व बादशाह खान के नामों से प्रसिद्ध हुए गफ्फ़ार ख़ान ने आजादी की लड़ाई में कईं बार जेलें काटी। देश के विभिन्न स्थानों पर घूम कर लोगों के साथ संवाद किया। बादशाह खान ने आजादी के साथ ही अंग्रेजों द्वारा साजिशन देश को टुकड़ों में बांटने का पुरजोर विरोध किया। आजादी के बाद वे नए बने देश पाकिस्तान में रहे, लेकिन उनमें हमेशा हिंदुस्तानी दिल धडक़ता रहा। साम्प्रदायिक सद्भाव, भाईचारे व धर्मनिरपेक्षता के प्रबल समर्थक रहे बादशाह खान को भारत सरकार ने 1987 में देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देकर सम्मानित किया। वे देश के पहले कागजों में गैर-भारतीय और दिल से भारतीय थे, जिन्हें यह सम्मान प्रदान किया गया।
JANSANDESH 6-02-2021

$खान अब्दुल गफ़्$फार $खान का जन्म 6 फरवरी, 1890 को पेशावरी घाटी में पडऩे वाले उत्मानजई, खैबर पख़्तूनख्वा में अपनी बहादुरी व लड़ाकी प्रवृत्ति के लिए मशहूर पठान समुदाय में हुआ। शांत स्वभाव के पिता बैरम खां अपने बेटे $गफ़्$फार ख़ान को अच्छी शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने उसे मिशनरी स्कूल में दाखिल करवाया तो अपने ही पठानी समाज में विरोध का सामना करना पड़ा। शुरू में $गफ़्$फार खान को वर्दी में सजे फौजी की बहादुरी ने खूब आकर्षित किया। नौवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने फौज में भर्ती की अर्जी लगाना शुरू कर दिया। ऊंची कद-काठी के $गफ़्$फार खान फौज में भर्ती हो गए। लेकिन फौज में भारतीय सिपाहियों के साथ अंग्रेज अधिकारियों के भेदभाव व दोयम दर्जे से आहत होकर उन्होंने अंग्रेजी फौज से इस्तीफा दे दिया और घर आ गए। इसके साथ ही उनमें देश को आजाद करवाने की प्रबल इच्छा भी पैदा हुई।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की। इसके बाद आगामी पढ़ाई के लिए वे लंदन जाना चाहते थे। पिता ने अनुमति भी दे दी थी। लेकिन मां उन्हें विदेश में भेजने देना नहीं चाहती थी। अगले कदम से पहले $गफ़्$फार खान ने अपने पिता की जमीन में खेती शुरू कर दी। $गफ़्$फार खान अपने इलाके में अनपढ़ता, पिछड़ेपन व अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने 1910 में अपने ही कस्बे उत्मानजई में स्कूल शुरू किया। इसी बीच उन्होंने तुरंगजई के स्वतंत्रता सेनानी व समाज सुधारक हाजी साहब के साथ आजादी की लड़ाई व समाज सुधार के कार्यों में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इसकी सजा के रूप में अंग्रेजों ने 1915 में उनके स्कूल को बंद कर दिया। 1915 से 18 तक उन्होंने खैबर पख़्तूनख्वा के करीब 500 गांवों की यात्राएं की और लोगों से सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर चर्चाएं की। उनके योगदान के लिए इस दौरान वे बादशाह खान के नाम मशहूर हो गए।
1919 में अंग्रेजी सरकार का रोल्ट एक्ट आया। 1920 में अंग्रेजी शासन द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की में किए गए अन्याय के खिलाफ खिलाफत आंदोलन शुरू हो गया था। उत्तरी पश्चिमी प्रांत में रोल्ट एक्ट के विरूद्ध आंदोलन की अगुवाई $गफ़्$फार खान ने की। नतीजतन उन्हें जेल की सख़्त सजा काटनी पड़ी।
मई 1928 में $गफ़्$फार खान ने पश्तो भाषा में मासिक राजनीतिक  पत्रिका-‘पश्तून’ शुरू की। नवंबर, 1929 में उन्होंने खुदाई खिदमतगार नाम से सामाजिक संगठन बनाया। शीघ्र ही यह सामाजिक संगठन देश की आजादी के लिए अहिंसात्मक आंदोलन का मुख्य मंच बन गया। इसे लाल कुर्ती दल के नाम से जाना जाता था। एक संयुक्त, आजाद व धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए खुदाई खिदमतगार ने संघर्ष किया। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में चल रही आजादी की लड़ाई में इस संगठन ने उत्तर-पश्चिमी प्रांत में लोगों को संगठित करने का काम किया। खुदाई खिदमतगार से जुड़े कार्यकर्ता मौत से डरते नहीं थे। 1930 में शांतिपूर्ण आंदोलन के बावजूद $खान अब्दुल $गफ़्$फार खान को फिर से जेल में डाल दिया गया। लेकिन पठानों ने आंदोलन को जारी रखा। जेल में उन्हें गुजरात (पंजाब) जेल में रहने का मौका मिला। जहां पर वे पंजाब के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए। जेल में रहते हुए उन्होंने कुरान के साथ-साथ गुरु ग्रंथ साहिब व हिन्दू धर्म के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी किया। उन्होंने हिन्दु-मुस्लिम-सिख एकता व जनता के आपसी भाईचारे पर बल दिया। 1934 में जेल से रिहा होने के बाद वे वर्धा में रहे। गांधी जी के साथ उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। 1942 में उन्हें फिर से जेल की यात्रा करनी पड़ी।
$खान अब्दुल $गफ़्$फार $खान गांधी जी के गहरे मित्र थे। दोनों के विचार एक दूसरे से मिलते थे। गांधी जी के साथ $खान ने अनेक स्थानों पर आजादी की लड़ाई के दौरान लोगों को संबोधित किया। गांधी जी का कोई भी आंदोलन हो, उसमें उन्हें $गफ्फ़ार ख़ान का पूरा सहयोग मिला। वे कईं वर्षों तक कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य रहे। 1931 में उनके सामने पार्टी अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव भी रखा गया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस में जब नेताओं की गांधी के विचारों से असहमति बन जाती थी, तो भी बादशाह खान ने उनके विचारों का समर्थन किया। 1938 में जब गांधी उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत के दौरे पर गए तो उनके अहिंसा के संदेश के विरूद्ध प्रचार किया गया। यह प्रचार भी किया गया कि गांधी जी पठानों को बुजदिल बनाना चाहते हैं। अपने दौरे से वापिस लौटने पर महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में ‘खुदाई खिदमतगार और बादशाह खान’ शीर्षक से एक लेख लिखा। इसमें गांधी ने लिखा-
‘ख़ुदाई ख़िदमतगार चाहे जैसे हों और अंतत: जैसे साबित हों, लेकिन उनके नेता के बारे में, जिन्हें वे उल्लास से बादशाह ख़ान कहते हैं, किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं है। वे निस्संदेह खुदा के बंदे हैं....अपने काम में उन्होंने अपनी संपूर्ण आत्मा उड़ेल दी है। परिणाम क्या होगा इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं। बस इतना उन्होंने समझ लिया है कि अहिंसा को पूर्ण रूप से स्वीकार किए बिना पठानों की मुक्ति नहीं है। और इतना समझ लेना ही उनके लिए काफी है। पठान बड़े अच्छे योद्धा हैं, इस बात का बादशाह ख़ान को कोई गर्व नहीं है। वे उनकी बहादुरी की कद्र करते हैं, लेकिन मानते हैं कि अत्यधिक प्रशंसा करके लोगों ने उन्हें बिगाड़ दिया है। वे यह नहीं चाहते कि उनके पठान भाई समाज के गुंडे माने जाएं। उनके विचार से पठानों को गलत राह पर लगाकर लोगों ने उनसे अपनी स्वार्थसिद्धि की है और उन्हें अज्ञान के अंधकार में रखा है। वे चाहते हैं कि पठान जितने बहादुर हैं उससे अधिक बहादुर बनें और अपनी बहादुरी में ज्ञान का समावेश करें। उनका विचार है कि यह काम केवल अहिंसा के सहारे ही किया जा सकता है।’ गांधी जी के ये विचार $खान अब्दुल $गफ़्$फार $खान व्यक्तित्व, विचारों व योगदान को दर्शाने वाले हैं।
बादशाह खान ने आजादी के लड़ाई के दौरान जिन्ना व मुस्लिम लीग द्वारा देश के बंटवारे व मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना का विरोध किया। जब उन्हें लगा कि अंग्रेज देश का बंटवारा करेंगे ही तो उन्होंने पश्तून बहुल पाकिस्तान व अफगानिस्तान के क्षेत्र को मिलाकर नए देश पख्तूनिस्तान की मांग उठाई। आजादी के बाद वे पाकिस्तान में रहे। 8 मई, 1948 को उन्होंने पाकिस्तान की पहली विपक्षी पार्टी आजाद पाकिस्तान पार्टी का गठन किया। अंग्रेजी शासन में तो वे कईं बार जेल में गए ही, लेकिन पाकिस्तान सरकार ने भी उन्हें अधिकतर समय घर में नजरबंद या जेल में रखा। 1970 व 1985 में उन्होंने भारत की यात्रा की। उनका संस्मरण ग्रंथ- माई लाइफ एंड स्ट्रगल 1969 में प्रकाशित हुआ। 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हुई। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया। आजादी की लड़ाई और आजीवन शांति के लिए लडऩे वाले योद्धा के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
NAVSATTA 6-2-2021


INDORE SAMACHAR 6-2-2021

Monday, February 1, 2021

MAHATMA GANDHI- GREAT THIKER & FREEDOM FIGHTER

 आजादी के आंदोलन के अगुवा, विचारक व चिंतक महात्मा गांधी

जन संवाद, सत्याग्रह, अहिंसा व असहयोग को बनाया औजार

गांधी को प्रतीकों में ढूंढऩे वालों को निराशा ही होगी

मजबूरी का नहीं, मजबूती का नाम है गांधी

अरुण कुमार कैहरबा


PRAKHAR VIKAS 1-02-2021



30जनवरी, 1948 का दिन भारत ही नहीं दुनिया के इतिहास में एक ऐसा दिन है, जो कभी भुलाए से नहीं भूलेगा। एक तरफ सत्य, प्रेम व अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी। दूसरी तरफ डर और नफरत से अंधा एक शख्स नाथूराम गोडसे। हिंसा, नफरत व बंटवारे की ताकतें सत्य और प्रेम को खत्म कर देना चाहती हैं। गोडसे ने गोलियां चलाकर गांधी को मारने की कोशिश की। कहने को तो उसने उनका कत्ल कर दिया। लेकिन क्या गांधी को मारा जा सकता है? बिल्कुल नहीं। महात्मा गांधी अपने नश्वर शरीर से तो जुदा हो गए, लेकिन अपने विचारों के रूप में वे इस देश की रगों में दौड़ते हैं। उनके विचार ही उन्हें दुनिया भर में महात्मा और देश की जनता के प्रिय बापू और राष्ट्रपिता बनाते हैं। उनके विचारों से मतभेद रखने वाले भी स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका को बेहद अहम मानते रहे हैं। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हें दुनिया के दूसरे देशों में रेडियो के माध्यम से बोलते हुए राष्ट्रपिता (फादर ऑफ द नेशन) कह कर संबोधित किया। हालांकि नेता जी उनके तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते थे।  
गांधी के विचारों की बात करें तो उनका खुद का लिखा हुआ ही बहुत व्यापक साहित्य है। उनके जीवन काल में और उनके जाने के बाद में उनके कार्यों व विचारों पर बहुत विचार-मंथन हुआ है। उनके जीवन पर नाटक खेले गए। फिल्में बनाई गईं। पेंटिंग सहित विभिन्न कलाओं के जरिये भी गांधी को देखा-परखा गया और यह क्रम लगातार जारी है। यह महात्मा गांधी के विचारों के और अधिक प्रासंगिक होते जाने को भी दर्शा रहा है। एक तरफ पूरी दुनिया में गांधी के विचारों का आभामंडल बढ़ रहा है, दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जो गांधी के विचारों से आज भी दहशतजदा हैं। नफरत से भरे वे गांधी जयंती व पुण्यतिथि पर उनकी मूर्ति पर पिस्तौल तान कर गोलियां चलाकर उन्हें दौबारा मारने के नाटक कर रहे हैं। ऐसा करके उन्हें मिलता क्या है? यह सोचने वाली बात है। हां, इससे उनकी घृणा व नफरत का प्रदर्शन जरूर होता है। जिस जातिवाद, साम्प्रदायिकता व नफरत के जहर को गांधी समाप्त करने के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे। वह जहर बार-बार फन फैलाता है। जहरीली हवाओं व बंटवारे की आग को फैलाने वाले वायरस के लिए एंटी वायरस ढूंढऩे के लिए गांधी के लिखे-कहे का बार-बार मंथन करना चाहिए।
आम लोगों को हम मजबूरी का नाम गांधी कहते हुए सुनते हैं। लेकिन वास्तव में मजबूरी का नहीं मजबूती का नाम गांधी है। हां, उनकी मजबूती, निर्भयता, आत्मबल के स्रोत की बात करें, तो वह आता है-जनसंवाद से। ब्रिटेन में बैरिस्टरी करके लौटे गांधी को दक्षिण अफ्रीका के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से सिर्फ इसलिए निकाल कर फेंक दिया जाता है, क्योंकि वे काले भारतीय हैं। फिरंगियों को अपने श्रेष्ठता का झूठा गुमान था। वे लोगों के बीच में जाते हैं और अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध आंदोलन शुरू कर देते हैं। अफ्रीका में ही प्रसिद्ध हो गए गांधी जब भारत में पहुंचते हैं तो भारत को समझने के लिए गुरु नानक जी की तरह भारत-भ्रमण करते हैं। वे जहां कांग्रेस के सफेदपोश नेताओं से संवाद करते हैं, वहीं देश के किसानों, मजदूरों, महिलाओं और गरीब-मजलूम जनता के बातचीत करते हैं। यह संवाद हमारे आज के नेताओं की तरह दलित-किसान के घर जाकर खाना खाने का दिखावा करने जैसा नहीं था। यह संवाद उनके बीच में रहकर समझने-देखने व अध्ययन करने जैसा था। इसके बाद गांधी चुप नहीं बैठते थे। बल्कि आजादी की लड़ाई में नए प्रयोग करते थे।
गांधी कांग्रेस के विचारों, रणनीति व कार्रवाईयों पर निर्णायक असर डालते हैं। उनसे पहले कांग्रेस कुछ पढ़े-लिखे मध्यमवर्ग के लोगों की सुविधाओं के लिए वार्षिक अधिवेशन व मांगपत्र रखने का कार्य करती थी। गांधी कांग्रेस नेताओं के बीच आम जन के दुख-दर्द और उनके जीवन के सवालों को उठाते हैं। वे आजादी की लड़ाई को आंदोलन की शक्ल देते हैं। गांधी असहमतियों से घिरे हुए थे। कांग्रेस के अंदर भी वैचारिक मतभेदों की कमी नहीं थी। मोहम्मद अली जिन्ना, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह सहित कितने ही नेताओं के साथ गांधी का प्रत्यक्ष व परोक्ष संवाद होता है। इसको लेकर कुछ लोग गांधी के खंडन या मंडन की तरफ आगे बढ़ते हैं। लेकिन गांधी वैचारिक विमर्श व संवाद के पक्षधर थे। वे निर्भय होकर अपने विचार व्यक्त करते थे। वे जहां आजीवन अध्ययन से जुड़े रहे। वहीं अपने विचारों को आत्मकथा, संस्मरणों, चि_ियों, पत्र-पत्रिकाओं व किताबों के जरिये अभिव्यक्त करते थे। उन्होंने जीवन भर सत्य के प्रयोग किए। अपने ही प्रयोगों को बार-बार परखा। अहिंसक, शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन में चोरा-चोरी की हिंसक घटना होते ही वे आंदोलन को वापिस लेने में भी देर नहीं लगाते। उन्होंने गांधीवाद नाम के किसी दर्शन को सिरे से खारिज कर दिया था। उनका जीवन व कार्य ही उनका दर्शन है। उनसे पहले कहा जाता था- ईश्वर ही सत्य है। गांधी ने ईश्वर की परिभाषा को बदलते हुए कहा कि सत्य ही ईश्वर है। ईश्वर को पाने के इच्छुक लोगों को सत्य को प्राप्त करना चाहिए। आज सत्य की तलाश करना और भी मुश्किल हो गया है। झूठ को सच के रूप में पेश किया जा रहा है। ऐसे में इन्सान होने के नाते सत्याग्रह हमारा दायित्व है। सत्याग्रह मतलब सत्य के लिए आग्रह करना, सत्य के लिए अड़ जाना, डट जाना। गांधी ने भारतीय परंपरा में महावीर जैन से अहिंसा, महात्मा बुद्ध से करुणा प्राप्त करते हैं। नरसी भगत का गीत- ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीर पराई जाने रे’ उन्हें प्रेरणा देता है। जो पीर पराई को नहीं जानता, वह इन्सान नहीं हो सकता। गांधी ने विकास की दौड़ में पीछे छूट गए आखिरी व्यक्ति को सोच-विचार व  नीतियों के  केन्द्र में लाने की बात कही। आजादी की लड़ाई को भी उन्होंने अंतिम जन को न्याय व अधिकार के साथ जोड़ा।
आज उनकी जयंती व पुण्यतिथि को स्वच्छता अभियान चलाकर मनाए जाने की रिवायत चल पड़ी है। गांधी जी के विचारक-चिंतक व आजादी के आंदोलन के अगुवा की छवि के विपरीत उन्हें ऐसा दिखाया जाता है, जैसे वे सफाई निरीक्षक हों। सभी अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार उनकी छवि देखते और बनाते हैं। काई उनके चरखे का प्रचार करता है, कोई खादी का और कोई चश्मे व लाठी का। अपने-अपने हिसाब से कोई उनके किसी विशेष संदर्भ को उठाता है और काई फुटनोट को। सब अपना-अपना गांधी लिए घूमते हैं और गांधी उन सबके बीच में होते हुए भी हमेशा उस सबसे आगे बढ़ जाते हैं। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. सुभाष चन्द्र कहते हैं ‘गांधी की कोई चेलागिरी नहीं है। गांधी किसी चोले में नहीं होते। गांधी हमेशा इन सबके बीच में होते हैं। गांधी प्रतीकों में नहीं होते।’

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
JAGAT KRANTI 30-01-2021