Sunday, December 20, 2020

अन्तर्राष्ट्रीय मानव एकता दिवस पर विशेष

मुश्किलों से भरा, मंजिल तक ले जाने वाला मानव एकता व समानता का मार्ग

अरुण कुमार कैहरबा

DAILY NEWS ACTIVIST 20-12-2020

मानव एकता सर्व स्वीकृत मूल्य है। गुरुओं, पीर-पैगंबरों ने एकता व भाईचारे पर बल दिया है। संभवत: इतनी अधिक व शिद्दत के साथ कही जाने वाली बात इतनी सरल नहीं होती। उसे लागू करना तो सबसे ज्यादा चुनौतिपूर्ण होता है। यदि मानव-मानव के बीच कोई दूरी ही नहीं होती और मार्ग में कोई बाधा ही नहीं होती तो इस पर बात करने की भी इतनी जरूरत ना होती। मानव एकता ऐसा विषय है, जिस पर कहने-सुनने को अच्छी-अच्छी बातें मिलती हैं। लेकिन व्यवहार में इसके दर्शन होने दुर्लभ हो जाते हैं।

मानव एकता के मार्ग में अनेक प्रकार की जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, क्षेत्र, बोली-भाषा की संकीर्णताएं खड़ी हैं। इन कारकों को विभिन्नता के संदर्भ में लिया जाना चाहिए। पूरी दुनिया विविधताओं से भरी हुई है। लोगों के रहन-सहन, खान-पान, तीज-त्योहारों, रीति-रिवाजों, बोलियों, भाषाओं, रंग-रूप, जातियों-प्रजातियों में असमानताएं और विविधताएं बिखरी पड़ी हैं। विविधता भौगोलिक क्षेत्र, मौसम और विकास क्रम से जुड़ी हुई है। एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले लोग अपने परिवेश में विकसित हुई भाषा बोलने लगते हैं, रीति-रिवाजों को मानने लगते हैं। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि विविधता सुंदरता का एक अहम कारक है। विविधता प्राकृतिक है। जिस तरह से पैदा होने वाले हर बच्चे की शक्लो-सूरत अलग होती है। हर व्यक्ति का स्वभाव अलग होता है। यदि सभी शक्लो-सूरत, रूचियों, अभिरूचियों, आदतों में एक जैसे होंगे तो हम समझ सकते हैं कि यह दुनिया कैसे होगी। व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक भिन्नताओं का सम्मान होना चाहिए। लेकिन संकीर्णताओं का नहीं, जिसमें लोग दूसरे की जाति-सम्प्रदाय को छोटा मानते हैं। अपने को श्रेष्ठ समझते हैं और दूसरे को दोयम दर्जा प्रदान करते हैं। इससे भी आगे विविधताओं के तत्व लोगों के आपसी वैर-वैमनस्य और लड़ाई-झगड़ों के कारण बन जाते हैं। जाति-धर्म के नाम पर राजनीति और लोगों को संगठित करके भडक़ाना इसका भयावह रूप है। भारत तो साम्प्रदायिकता से बहुत अधिक त्रस्त रहा है। देश की आजादी के साथ ही देश में साम्प्रदायिक दंगे और देश का विभाजन हुआ। धर्म के नाम पर पाकिस्तान नाम के देश का जन्म हुआ। आज भी भारत में धर्म-सम्प्रदाय की राजनीति अपने उफान पर है। जाति-सम्प्रदाय के नाम पर लोगों को प्रताडि़त किया जाता है। राजनैतिक दल इन्हीं संकीर्णताओं को आधार बनाकर अपने प्रत्याशी घोषित करते हैं और लोगों को इसी आधार पर वोट डालने के लिए प्रचार करके उकसाया जाता है। ऐसे में मानव एकता की गंभीर चर्चा करते हुए ऐसे भयानक वातावरण को तो संज्ञान में लाएगी ही। जाति-सम्प्रदाय के नाम पर बनने वाले संगठनों और उनका राजनैतिक एजेंडा मानव एकता के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।
भारत में लैंगिक असमानता भी मानव एकता और समानता के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। समाज ने महिला और पुरूष के लिए अगल-अलग पैमाने बना रखे हैं। लडक़े के जन्म पर फूला नहीं समाने और खुशियां मनाने वाला समाज लडक़ी के जन्म पर गमगीन हो जाता है। 1986 में अल्ट्रासाउंड मशीन के आगमन से अब तक देश में करोड़ों लड़कियों को गर्भ में मार दिया गया है। इस पर धर्मी-कर्मी होने का दंभ कम नहीं हो रहा है। लड़कियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण के मामले में भेदभाव होता है। छेड़छाड़, बलात्कार और यौन-उत्पीडऩ की घटनाएं लड़कियों व महिलाओं के लिए आगे बढऩे के रास्ते ही रोक देती हैं। इन घटनाओं से बचने के लिए समाज में सुधार की बात होने की बजाय बाल विवाह होते हैं। बिना दहेज की शादियां तो अब अपवाद को छोड़ दें तो बीते जमाने की बात हो गई हैं। जितना ज्यादा पढ़े-लिखा और सम्पन्न परिवार है, वहां पर दहेज का दिखावा और विवशता भी ज्यादा है। अन्तर्जातीय व प्रेम विवाहों से परिवार व समाज की इज्जत-आबरू पर बट्टा लगता है। यदि लडक़ा-लडक़ी अलग-अलग धर्म से हैं तो बहुत से संगठन अनुशासन के नाम पर उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में कहां है-मानव एकता।
अन्य बड़ी बाधा लगातार बढ़ती गैर-बराबरी है। एक वर्ग को कड़ी मेहनत करने के बावजूद भरपेट भोजन नहीं मिलता। कुछ लोगों की आमदनी में बिना मेहनत किए ही इजाफा हो रहा है। अकूत धन-दौलत के भंडार भरे हुए हैं। उन्हीं कारपारेट घरानों के लिए सरकारें पलक-पांवड़े बिछाए हुए हैं। उन्हें ऋण दिए जाते हैं और ऋण को माफ करने की योजनाएं बनाई जाती हैं। ऋण ना चुकाने पर उन्हें भागने के मौके मुहैया करवाए जाते हैं। वहीं एक किसान बैल और ट्रैक्टर का ऋण लेता है और समय पर ऋण नहीं चुका पाने के कारण पूरे गांव व क्षेत्र में शर्मसार कर दिया जाता है। हर वर्ष मेहनतकश लोगों द्वारा आत्महत्याओं के आंकड़े आते हैं। भारत में 2014 में 62 करोड़ 80 लाख लोगों को दो वक्त की रोटी नहीं मिलती थी। 2019 में यह संख्या 68 करोड़ 80 लाख पहुंच गई। 2030 तक भुखमरी की शिकार आबादी की संख्या 90 करोड़ पहुंच जाने का अनुमान है। अभी आई मानव विकास रिपोर्ट-2020 में 189 देशों की सूची में भारत 131वें स्थान पर आ गया है। पिछले साल भारत का स्थान 129वां था। ऐसे में मानव एकता की कल्पना को कैसे साकार किया जा सकता है? सरकारी नीतियों की तरफ देखें तो निराशा होती है। खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, सेहत व पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश को बढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं। लोककल्याणकारी लोकतंत्र की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ा जा रहा है। बुनियादी सेवाओं के क्षेत्र को कारपोरेट के मुनाफे के लिए किसी भी सूरत में नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
महामारियां सबसे ज्यादा गरीब को परेशान करती हैं। कोरोना महामारी की ही बात करें तो यह बिमारी फैलाई तो उन लोगों ने जिनके पास देशों की सीमाएं पार करने की आर्थिक हैसियत थी। लेकिन शिकार सबसे अधिक गरीब लोग हुए। भारत में कोरोना से प्रताडि़त वे हुए जिन्हें अपने ही देश में प्रवासी मजदूर की संज्ञा दी जाती है। उनका रोजगार छिन गया और वे बड़े बेआबरू होकर अपने उन्हीं गांवों को जाने को मजबूर हो गए, जिनको छोड़ते हुए उन्होंने बड़े-बड़े सपने देखे थे।
आज मानव समाज के सामने एकता और समानता की बड़ी चुनौती है। सरकारों को गरीबी समाप्त करने के लिए कार्य करना होगा, ना कि गरीब को समाप्त करने के लिए। निजीकरण और कथित उदारीकरण का मार्ग गरीब विरोधी है। इसकी आड़ में सरकारें कारपोरेट घरानों व अपने लोगों को लाभ पहुंचाने का खेल खेल रही हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में जनता और अधिक सजग होकर आगे आना होगा। वोट डाल देने मात्र से जिम्मेदारी पूरी होने वाली नहीं है। यदि अधिकतर नागरिक वोट डालने की उदासीनता से भरी जिम्मेदारी निभाते रहे तो जाति-सम्प्रदाय की खतरनाक राजनीति और अधिक भयानक रूप लेकर बची-खुची मानवीयता व संवेदनशीलता को भी नष्ट कर डालेगी। एकता, समानता और न्याय का मार्ग मुश्किल तो जरूर है, लेकिन इसी मार्ग पर चल कर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। शैलेन्द्र के शब्दों में कहें तो-‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।’


अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145   
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