Tuesday, December 22, 2020

MOHAMMAD RAFI WAS GREAT PLAYBACK SINGER

 जयंती विशेष

तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे.. ..

शहंशाहे तरन्नुम मोहम्मद रफी ने पाश्र्व गायन को दिए नए आयाम

अरुण कुमार कैहरबा
dainik purvodya 24-12-2020

‘तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे।’

मोहम्मद रफी  द्वारा गाया गया यह गीत सदा सच रहेगा। संगीत की दुनिया में उन्हें कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। उनकी आवाज़ का जादू संगीत प्रेमियों के अहसास में रचा-बसा है। मोहम्मद रफी द्वारा गाए गए हज़ारों गाने आज भी उसी शिद्दत से बजाए और गाए जाते हैं, जैसे वर्षों पहले गाए-बजाए जाते थे और आने वाले वर्षों में भी उन्हें इसी तरह पसंद किया जाता रहेगा। र$फी ने हिन्दी फिल्मों में रोमांटिक गीतों के  अलावा ग़ज़ल, भजन, देशभक्ति गीत, कव्वाली सहित अनेक विधाओं में गीत गाए हैं। इन गीतों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि विभिन्न अभिनेताओं पर फिल्माए गए गीतों के मिजाज़ और आवाज़ में भी अभिनेताओं के स्वभाव व अभिनय की खूबियों के अनुसार ही अंतर पैदा किया गया है। हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम पाश्र्व गायक को संगीत प्रेमियों ने शहंशाह-ए-तरन्नुम के सम्मान से नवाजा है।

अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसम्बर, 1924 को हुआ। इनके परिवार का संगीत से कोई विशेष जुड़ाव नहीं था। उनके वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब दीनी-इन्सान थे। वे गाने-बजाने को अच्छा नहीं मानते थे। रफी ने कम उम्र में ही गाना गुनगुनाना शुरू कर दिया था। रफी के बड़े भाई मोहम्मद दीन की नाई की दुकान थी। दुकान के पास से ही गाता हुआ एक फकीर गुजरता था। र$फी को फकीर की आवाज पसंद आई और वह फकीर की आवाज सुनने के लिए उनका पीछा करने लगे। उसी फकीर की नकल करते हुए र$फी ने गाना शुरू किया। र$फी गाते तो दुकान पर आए लोग उनकी तारीफ करते। लेकिन यह सब वे अपने अब्बू जी से छिप-छिप कर ही करते थे। 

11 साल की उम्र में रफी का परिवार लाहौर चला गया। वहां पर बड़े भाई मोहम्मद दीन के दोस्त हमीद ने र$फी की प्रतिभा की पहचान की और उसे प्रोत्साहन दिया। वे रफी को अपने समय के कुछ उस्तादों के पास ले गए। र$फी को 13साल की उम्र में उस वक्त सार्वजनिक मंच पर गाने का अवसर मिला, जब ऑल इंडिया रेडियो लाहौर द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रसिद्ध गायक-अभिनेता कुंदन लाल सहगल गाने के लिए आए थे। मोहम्मद र$फी वहीद के साथ उन्हें सुनने के लिए गए थे। ऐन मौके पर बिलजी गुल हो गई। बिजली नहीं होने के कारण बिना माइक के सहगल साहब का गाना संभव नहीं था। ऐसे में हमीद ने आयोजकों से र$फी को गाने का मौका देने का अनुरोध किया, जिसे मान लिया गया। वहीं पर मौजूद प्रसिद्ध संगीतकार श्याम सुंदर ने उन्हें गाने का न्यौता दिया। इस प्रकार 1941 में उन्हीं के निर्देशन में बन रही पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’ में र$फी को अपना पहला गीत गाने का मौका मिला।  फिल्म में जीनत बेगम के साथ गाया गया युगल गीत- सोनिए हीरीए उनका पहला गीत था। 

र$फी 1944 में अपने सरपरस्त हमीद साहब के साथ बम्बई में आ गए। बंबई के भिंडी बाजार में छोटे से कमरे में उभरते हुए गायक रफी रहे। श्याम सुंदर भी बंबई में आ गए थे। पुराने परिचय के कारण वे ही पहली बार उनके काम आए। उन्होंने फिल्म गांव की गोरी में रफी साहब से बंबई का पहला गाना गवाया। हालांकि इसी साल संगीतकार नौशाद ने भी उन्हें गाने का मौका दिया। 1947 में दिलीप कुमार व नूरजहाँ अभिनीत फिल्म जुगनू में गीत-यहां बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है ने रफी साहब को स्टार सिंगर बना दिया। फिल्म बैजू बावरा के गीतों से भी र$फी को ख्याति मिली। 1947 में देश के बंटवारे के दौरान रफी साहब ने बंबई में ही रहने का फैसला किया और लाहौर में रह रहे अपने परिवार को भी यहीं बुला लिया। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद राजेन्द्र कृष्ण द्वारा लिखे गए गीत- ‘सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी’ रफी साहब ने समारोह में गाया। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गीत सुना तो उन्होंने रफी को अपने घर होने वाली श्रद्धांजलि सभा में गीत गाने के अनुरोध के साथ बुलाया। आजादी का एक साल पूरा होने पर समारोह में नेहरू ने रफी को मेडल से सम्मानित किया।

राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार शंकर-जयकिशन की जोड़ी मुकेश की आवाज पर भरोसा करती थी। बाद में उन्हें भी र$फी की आवाज पसंद आई। इसके बाद सचिन देव बर्मन, ओ.पी. नैय्यर, रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव व सलिल चौधरी सहित अनेक संगीतकारों के साथ र$फी ने काम किया। हजारों गीत गाएं। रफी की गायिकी की जितनी तारीफ की जाए कम है। वे भजन, $गज़ल, कव्वाली,  देश भक्ति गीत, रोमांटिक गीत, मनचला गीत, क्लब का गीत, उदास गीत जो भी गाएं, वहीं आवाज का जादू बिखेर देते हैं। वे फिल्म निर्देशक, संगीतकार, अभिनेता सभी के रंगों में रंग जाते हैं। इससे पहले फिल्म में गायकों को ही अभिनेता के रूप में लिया जाता था। सहगल, सुरैया, नूरजहाँ आदि ने गायक और अभिनेता दोनों की जिम्मेदारी निभाई। मोहम्मद रफी ने पाश्र्व गायन को नया रंग और नए आयाम दिए।

हर अभिनेता के व्यक्तित्व व स्वभाव के हिसाब से मोहम्मद रफी ने गायिकी को अलग अंदाज दिया। नैन लड़ जहिएं तो मनवा मा खटक होईबे करी, चाहे कोई मुझे जंगली कहे, एहसान तेरा होगा मुझ पर, ये चांद सा रोशन चेहरा, दीवाना हुआ बादल, परदेसियों से ना अखियां मिलाना.., सुख के सब साथी..., जो वादा किया वो..., दिन ढ़ल जाए हाए.., इस रंग बदलती दुनिया में, तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नजर ना लगे, याद ना जाए बीते दिनों की, सुहानी रात ढ़ल चुकी, तेरे-मेरे सपने.., हर फिक्र को धुएं मेंं उड़ता चला गया और लिखे जो ख़त तुझे...सहित कितने ही गीत र$फी की मखमली आवाज के साथ आज भी लोगों की जुबान पर हैं। मन तड़पत हरी दर्शन को आज, मधुबन में राधिका नाचे रे, ओ दुनिया के रखवाले सहित कितने ही गाने उनके उत्कृष्ट गायन के उदाहरण हैं। गंभीर, रोमानी, देशभक्ति और भक्ति के गीतों के साथ ही बहुत से गीतों में उनकी बच्चों सी चंचलता व नटखटपन भी मुखर हो जाती है। इनमें ‘रे माम्मा रे माम्मा रे, रे माम्मा रे, सुन लो सुनाता हूँ तुमको कहानी, रूठो ना हमसे ओ गुडिय़ों की रानी’ एक मिसाल है। रफी साहब को छह बार फिल्मफेयर अवार्ड मिला। 1960 में फि़ल्म ‘चौदहवीं का चांद’ के शीर्षक गीत के लिए रफ़ी को अपना पहला फि़ल्म फेयर पुरस्कार मिला। 1961 में रफ़ी को अपना दूसरा फि़ल्मफेयर आवार्ड फि़ल्म ‘ससुराल’ के गीत ‘तेरी प्यारी प्यारी सूरत को’ के लिए मिला। 1965 में ही लक्ष्मी-प्यारे के संगीत निर्देशन में फि़ल्म ‘दोस्ती’ के लिए गाए गीत- ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिए रफ़ी को तीसरा फि़ल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा। 1966 में फि़ल्म ‘सूरज’ के गीत बहारों फूल बरसाओ बहुत प्रसिद्ध हुआ और इसके लिए उन्हें चौथा फि़ल्मफेयर अवार्ड मिला। इसका संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था। 1968 में शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फि़ल्म ‘ब्रह्मचारी’ के गीत दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर के लिए उन्हें पाचवां फि़ल्मफेयर अवार्ड मिला। 1967 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा। आवाज के साथ दुनिया को सुंदर गानों की सौगात देने वाले र$फी साहब 31जुलाई, 1980 को दुनिया से तो चल बसे। लेकिन उनकी आवाज का जादू ना कभी कम हुआ और ना होगा। दिल का सूना साज़ तराना ढूंढेगा, तीर निगाहे नाज़ निशाना ढूंढेगा, मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा।

अरुण कुमार कैहरबा,

हिन्दी प्राध्यापक, संस्कृतिकर्मी, स्तंभकार, लेखक

वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री

जिला-करनाल, हरियाणा

मो.नं.-94662-20145

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Sunday, December 20, 2020

अन्तर्राष्ट्रीय मानव एकता दिवस पर विशेष

मुश्किलों से भरा, मंजिल तक ले जाने वाला मानव एकता व समानता का मार्ग

अरुण कुमार कैहरबा

DAILY NEWS ACTIVIST 20-12-2020

मानव एकता सर्व स्वीकृत मूल्य है। गुरुओं, पीर-पैगंबरों ने एकता व भाईचारे पर बल दिया है। संभवत: इतनी अधिक व शिद्दत के साथ कही जाने वाली बात इतनी सरल नहीं होती। उसे लागू करना तो सबसे ज्यादा चुनौतिपूर्ण होता है। यदि मानव-मानव के बीच कोई दूरी ही नहीं होती और मार्ग में कोई बाधा ही नहीं होती तो इस पर बात करने की भी इतनी जरूरत ना होती। मानव एकता ऐसा विषय है, जिस पर कहने-सुनने को अच्छी-अच्छी बातें मिलती हैं। लेकिन व्यवहार में इसके दर्शन होने दुर्लभ हो जाते हैं।

मानव एकता के मार्ग में अनेक प्रकार की जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, क्षेत्र, बोली-भाषा की संकीर्णताएं खड़ी हैं। इन कारकों को विभिन्नता के संदर्भ में लिया जाना चाहिए। पूरी दुनिया विविधताओं से भरी हुई है। लोगों के रहन-सहन, खान-पान, तीज-त्योहारों, रीति-रिवाजों, बोलियों, भाषाओं, रंग-रूप, जातियों-प्रजातियों में असमानताएं और विविधताएं बिखरी पड़ी हैं। विविधता भौगोलिक क्षेत्र, मौसम और विकास क्रम से जुड़ी हुई है। एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले लोग अपने परिवेश में विकसित हुई भाषा बोलने लगते हैं, रीति-रिवाजों को मानने लगते हैं। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि विविधता सुंदरता का एक अहम कारक है। विविधता प्राकृतिक है। जिस तरह से पैदा होने वाले हर बच्चे की शक्लो-सूरत अलग होती है। हर व्यक्ति का स्वभाव अलग होता है। यदि सभी शक्लो-सूरत, रूचियों, अभिरूचियों, आदतों में एक जैसे होंगे तो हम समझ सकते हैं कि यह दुनिया कैसे होगी। व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक भिन्नताओं का सम्मान होना चाहिए। लेकिन संकीर्णताओं का नहीं, जिसमें लोग दूसरे की जाति-सम्प्रदाय को छोटा मानते हैं। अपने को श्रेष्ठ समझते हैं और दूसरे को दोयम दर्जा प्रदान करते हैं। इससे भी आगे विविधताओं के तत्व लोगों के आपसी वैर-वैमनस्य और लड़ाई-झगड़ों के कारण बन जाते हैं। जाति-धर्म के नाम पर राजनीति और लोगों को संगठित करके भडक़ाना इसका भयावह रूप है। भारत तो साम्प्रदायिकता से बहुत अधिक त्रस्त रहा है। देश की आजादी के साथ ही देश में साम्प्रदायिक दंगे और देश का विभाजन हुआ। धर्म के नाम पर पाकिस्तान नाम के देश का जन्म हुआ। आज भी भारत में धर्म-सम्प्रदाय की राजनीति अपने उफान पर है। जाति-सम्प्रदाय के नाम पर लोगों को प्रताडि़त किया जाता है। राजनैतिक दल इन्हीं संकीर्णताओं को आधार बनाकर अपने प्रत्याशी घोषित करते हैं और लोगों को इसी आधार पर वोट डालने के लिए प्रचार करके उकसाया जाता है। ऐसे में मानव एकता की गंभीर चर्चा करते हुए ऐसे भयानक वातावरण को तो संज्ञान में लाएगी ही। जाति-सम्प्रदाय के नाम पर बनने वाले संगठनों और उनका राजनैतिक एजेंडा मानव एकता के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।
भारत में लैंगिक असमानता भी मानव एकता और समानता के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। समाज ने महिला और पुरूष के लिए अगल-अलग पैमाने बना रखे हैं। लडक़े के जन्म पर फूला नहीं समाने और खुशियां मनाने वाला समाज लडक़ी के जन्म पर गमगीन हो जाता है। 1986 में अल्ट्रासाउंड मशीन के आगमन से अब तक देश में करोड़ों लड़कियों को गर्भ में मार दिया गया है। इस पर धर्मी-कर्मी होने का दंभ कम नहीं हो रहा है। लड़कियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण के मामले में भेदभाव होता है। छेड़छाड़, बलात्कार और यौन-उत्पीडऩ की घटनाएं लड़कियों व महिलाओं के लिए आगे बढऩे के रास्ते ही रोक देती हैं। इन घटनाओं से बचने के लिए समाज में सुधार की बात होने की बजाय बाल विवाह होते हैं। बिना दहेज की शादियां तो अब अपवाद को छोड़ दें तो बीते जमाने की बात हो गई हैं। जितना ज्यादा पढ़े-लिखा और सम्पन्न परिवार है, वहां पर दहेज का दिखावा और विवशता भी ज्यादा है। अन्तर्जातीय व प्रेम विवाहों से परिवार व समाज की इज्जत-आबरू पर बट्टा लगता है। यदि लडक़ा-लडक़ी अलग-अलग धर्म से हैं तो बहुत से संगठन अनुशासन के नाम पर उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में कहां है-मानव एकता।
अन्य बड़ी बाधा लगातार बढ़ती गैर-बराबरी है। एक वर्ग को कड़ी मेहनत करने के बावजूद भरपेट भोजन नहीं मिलता। कुछ लोगों की आमदनी में बिना मेहनत किए ही इजाफा हो रहा है। अकूत धन-दौलत के भंडार भरे हुए हैं। उन्हीं कारपारेट घरानों के लिए सरकारें पलक-पांवड़े बिछाए हुए हैं। उन्हें ऋण दिए जाते हैं और ऋण को माफ करने की योजनाएं बनाई जाती हैं। ऋण ना चुकाने पर उन्हें भागने के मौके मुहैया करवाए जाते हैं। वहीं एक किसान बैल और ट्रैक्टर का ऋण लेता है और समय पर ऋण नहीं चुका पाने के कारण पूरे गांव व क्षेत्र में शर्मसार कर दिया जाता है। हर वर्ष मेहनतकश लोगों द्वारा आत्महत्याओं के आंकड़े आते हैं। भारत में 2014 में 62 करोड़ 80 लाख लोगों को दो वक्त की रोटी नहीं मिलती थी। 2019 में यह संख्या 68 करोड़ 80 लाख पहुंच गई। 2030 तक भुखमरी की शिकार आबादी की संख्या 90 करोड़ पहुंच जाने का अनुमान है। अभी आई मानव विकास रिपोर्ट-2020 में 189 देशों की सूची में भारत 131वें स्थान पर आ गया है। पिछले साल भारत का स्थान 129वां था। ऐसे में मानव एकता की कल्पना को कैसे साकार किया जा सकता है? सरकारी नीतियों की तरफ देखें तो निराशा होती है। खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, सेहत व पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश को बढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं। लोककल्याणकारी लोकतंत्र की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ा जा रहा है। बुनियादी सेवाओं के क्षेत्र को कारपोरेट के मुनाफे के लिए किसी भी सूरत में नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
महामारियां सबसे ज्यादा गरीब को परेशान करती हैं। कोरोना महामारी की ही बात करें तो यह बिमारी फैलाई तो उन लोगों ने जिनके पास देशों की सीमाएं पार करने की आर्थिक हैसियत थी। लेकिन शिकार सबसे अधिक गरीब लोग हुए। भारत में कोरोना से प्रताडि़त वे हुए जिन्हें अपने ही देश में प्रवासी मजदूर की संज्ञा दी जाती है। उनका रोजगार छिन गया और वे बड़े बेआबरू होकर अपने उन्हीं गांवों को जाने को मजबूर हो गए, जिनको छोड़ते हुए उन्होंने बड़े-बड़े सपने देखे थे।
आज मानव समाज के सामने एकता और समानता की बड़ी चुनौती है। सरकारों को गरीबी समाप्त करने के लिए कार्य करना होगा, ना कि गरीब को समाप्त करने के लिए। निजीकरण और कथित उदारीकरण का मार्ग गरीब विरोधी है। इसकी आड़ में सरकारें कारपोरेट घरानों व अपने लोगों को लाभ पहुंचाने का खेल खेल रही हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में जनता और अधिक सजग होकर आगे आना होगा। वोट डाल देने मात्र से जिम्मेदारी पूरी होने वाली नहीं है। यदि अधिकतर नागरिक वोट डालने की उदासीनता से भरी जिम्मेदारी निभाते रहे तो जाति-सम्प्रदाय की खतरनाक राजनीति और अधिक भयानक रूप लेकर बची-खुची मानवीयता व संवेदनशीलता को भी नष्ट कर डालेगी। एकता, समानता और न्याय का मार्ग मुश्किल तो जरूर है, लेकिन इसी मार्ग पर चल कर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। शैलेन्द्र के शब्दों में कहें तो-‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर।’


अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145   
JAGAT KRANTI 20-12-2020





NAVSATTA 20-12-2020

VIR ARJUN 20-12-2020

Friday, December 18, 2020

SHAHEED RAM PRASAD BISMIL, ASHFAK ULLA KHAN, ROSHAN SINGH

 बिस्मिल, अशफाक व रोशन सिंह की शहीदी दिवस विशेष

क्रांतिकारियों की शहादतें लोगों को देती रहेंगी प्रेरणा
JAGAT KRANTI 19-12-2020

अरुण कुमार कैहरबा

आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों का जोश, जज्बा और विचारशीलता शहादतों की ऐसी अमर कहानियां दे गई, जोकि सदियों तक देश में सुनी-सुनाई जाती रही रहेंगी और देश की जनता को आजादी की लड़ाई की याद दिलाकर आजादी व लोकतंत्र को बनाए रखने का संदेश देती रहेंगी। स्वतंत्रता आंदोलन में शहीद भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को जिस तरह से एक ही दिन 23 मार्च, 1931 को शहादत दी गई थी। उनसे भी पहले अशफाक उल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल और रोशन सिंह को 19 दिसंबर, 1927 को शहादत दी गई। ये सभी शहादतें एक ही लक्ष्य देश की आजादी और समतापूर्ण व न्यायसंगत समाज के लिए दी गई और एक ही शृंखला की कडिय़ां हैं।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11जून, 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में माता मूलारानी और पिता मुरलीधर के घर पर पहुआथा। बिस्मिल बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। क्रांतिकारी के साथ वे एक संवेदनशील कवि, शायर और अनुवादक भी थे। बिस्मिल के अलावा राम और अज्ञात उनके तखल्लुस थे। 30 साल के जीवनकाल में उनकी 11 पुस्तकें प्रकाशित हुई। अंग्रेजी सरकार ने उनकी किताबों को जब्त कर लिया। बचपन से ही उन पर देश की आजादी का जुनून सवार हो गया था। मैनपुरी कांड के दोषियों पर कार्रवाई के कारण इन्हें दो साल भूमिगत होकर रहना पड़ा। पुलिस से बचने के लिए अनेक साहसी कारनामे किए। बाद में भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे वीरों के संपर्क में आए और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ जुड़ गए। एसोसिएशन के एक ऑपरेशन में 9 अगस्त, 1925 को काकोरी में ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूटा तो 26 सितंबर, 1925 को पकड़ लिए गए और जेल में भेज दिए गए। मुकद्दमे में अशफाक उल्ला खां, राजिन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह के साथ उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई। गोरखपुर जेल में जब उन्हें फांसी पर चढ़ाया गया तो उन्होंने मशहूर शायर ‘बिस्मिल अजीमाबादी’ की गजल का शेर- ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है’ पूरे जोशोखरोश के साथ बोला। 
कभी तो कामयाबी पर मेरा हिन्दोस्तां होगा, रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियां होगा जैसी पंक्तियों के शायर अशफाक उल्ला खां का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर जिले के जलालनगर में माता मजहूर उन निसा और पिता मोहम्मद शफीक उल्ला खान के घर हुआ था। अशफाक परिवार में सबसे छोटे थे और उनके तीन बड़े भाई थे। परिवार में सब उन्हें प्यार से अच्छू कह कर पुकारते थे। अशफाक बचपन से ही शायरी के शौकीन थे और ‘वारसी’ व ‘हसरत’ उपनाम से शायरी करते थे। 1922 में असहयोग आंदोलन के दौरान शाहजहांपुर में बिस्मिल ने एक बैठक का आयोजन किया। बैठक में बिस्मिल ने कविता पढ़ी और अशफाक ने आमीन करके कविता की तारीफ की। दोनों का परिचय हुआ। अशफाक ने अपना परिचय रियासत खान के छोटे भाई और शायर के रूप में करवाया। दोनों की दोस्ती हो गई। बिस्मिल के संगठन मातृवेदी के साथ भी अशफाक का जुड़ाव हो गया। अशफाक पर महात्मा गांधी का खासा प्रभाव था। लेकिन असहयोग आंदोलन वापिस लिए जाने के बाद अन्य युवाओं के साथ अशफाक भी निराश हुए। काकोरी कांड में दोषी के रूप में उन्हें फैजाबाद की जेल में फांसी दी गई। आजादी की लड़ाई में बिस्मिल और अशफाक की दोस्ती बेमिसाल है।
ठाकुर रोशन सिंह का जन्म उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर के गांव नबादा में 22 जनवरी 1892 को हुआ था। उनकी माता का नाम कौशल्या देवी और पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। परिवार आर्य समाज से जुड़ा था। रोशन सिंह पांच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। असहयोग आंदोलन में शाहजहांपुर व बरेली में रोशन सिंह ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। बरेली में हुए गोली कांड में पुलिसवाले से रायफल छीन कर जबरदस्त फायरिंग की। बाद में मुकद्दमा चला और रोशन सिंह को दो साल की बामशक्कत कैद की सजा हुई। काकोरी कांड में रोशन सिंह शामिल नहीं हुए थे। उन्हीं की उम्र में केशव चक्रवर्ती काकोरी खजाना लूटने में शामिल थे। लेकिन शक्ल मिलने के कारण सजा रोशन सिंह को हुई। इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल में उन्हें फांसी दी गई। दोस्त को लिखे पत्र में उन्होंने यह शेर लिखा था-‘जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन! वरना कितने ही यहाँ रोज फना होते हैं।’ काकोरी कांड में चौथे प्रमुख आरोपी राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को बिस्मिल, अशफाक और रोशन सिंह से दो दिन पहले 17 दिसंबर, 1927 को फांसी दी गई। वंदे मातरम की हुंकार भरते हुए लाहिड़ी ने हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया। उन्होंने कहा था- ‘मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतन्त्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।’
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार, लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा, पिन-132041
मो.नं.-94662-20145
NAVSATTA 19-12-2020

VIR ARJUN 19-12-2020


JAGMARG 



Wednesday, December 16, 2020

Teacher work for outcome, not for Income- Ranjisinh Disale Global Teacher Award Winner

 प्रेरणास्रोत

‘इंकम के लिए नहीं आउटकम के लिए काम करता है शिक्षक’

ग्लोबल टीचर पुरस्कार पाकर सुर्खियों में आए प्राथमिक शिक्षक रणजीत डिसले के नवाचार

अरुण कुमार कैहरबा

भारत के एक प्राथमिक शिक्षक की उल्लेखनीय उपलब्धियों की चर्चा आजकल अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर हो रही है। महाराष्ट्र के सोलापुर जिला के पारितवाडी गांव के जिला परिषद प्राथमिक स्कूल के 31वर्षीय शिक्षक रणजीत सिंह डिसले ने शिक्षा के नॉबेल पुरस्कार के रूप में प्रसिद्ध ग्लोबल टीचर पुरस्कार-2020 प्राप्त किया है। पुरस्कार के रूप में उन्हें सात करोड़ रूपये का राशि मिली है। पुरस्कार के साथ-साथ वे इसलिए भी चर्चाओं में हैं कि इतनी बड़ी राशि का आधा हिस्सा उन्होंने अपने साथ शामिल हुए नौ अन्य उपविजेताओं में बांटने का फैसला किया है। प्रतियोगिता में दुनिया के 140 देशों के 12 हजार से अधिक अध्यापकों ने हिस्सा लिया था। वर्की फाउंडेशन व यूनेस्को द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार की घोषणा लंदन में प्रसिद्ध अभिनेता स्टीफन फ्राई द्वारा की गई तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। यह सम्मान प्राप्त करने वाले वे पहले भारतीय हैं।
PRAKHAR VIKAS 15-12-2020


अवार्ड से अधिक रणजीत डिसले के कार्य हैं, जोकि शिक्षा जगत को गौरवान्वित होने का अवसर देते हैं। उन्हें यह नामचीन अवार्ड लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए दिया गया है। पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य इतना सरल नहीं होता है, जितना इसे कहा जाता है। ऐसा ही उस गांव में भी था, जिसमें डिसले को शिक्षण कार्य का जिम्मा मिला था। वहां पर लड़कियों की कम उम्र में शादी कर दी जाती थी। बाल विवाह के कारण लड़कियों पर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ आन पड़ता था और पढ़ाई छूट जाती थी। नन्हीं उम्र में ही शादी कर दिए जाने के कारण स्कूल में आने वाली लड़कियों की भी पढ़ाई में रूचि नहीं बन पाती थी। रणजीत सिंह डिसले ने समाज की सोच और बाल विवाह की कुरीति पर समाज में व्यापक अलख जगाई। लोगों को कुरीति के दुष्प्रभावों के बारे में समझाया। यह कार्य भी इतना आसान नहीं रहा होगा। कोई समाज जिन मूल्य-मान्यताओं में वर्षों से यकीन करता है, उन्हें आसानी से छोड़ता नहीं है। यदि उसके विपरीत कोई बोलता है तो उसके बारे में भी नकारात्मक धारणाएं बना लेता है। डिसले बताते हैं कि 11 साल बाद अपने काम को देखता हूँ तो संतोष होता है। बाल विवाह पूरी तरह से खत्म हो गए हैं। लड़कियों की स्कूल में शत-प्रतिशत उपस्थिति रहती है। हालांकि उपस्थिति ही शिक्षा नहीं होती। लड़कियां अपने समाज में सुरक्षित महसूस करने लगी हैं। उनमें हौंसला और आत्मविश्वास आया है। शिक्षा सभी सामुदायिक व सामाजिक समस्याओं का हल है। चुनौतिपूर्ण क्षेत्रों में असर ही शिक्षा की कसौटी भी है।
शिक्षा के कार्य को सरल बनाने के लिए डिसले ने तकनीक का सहारा लिया। उन्हें क्विक रिस्पोंस कोड पर आधारित किताबों की क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है। उनके द्वारा इजाद की गई तकनीक को एनसीईआरटी ने भी स्वीकार किया। इस तकनीक के तहत उन्होंने उन्होंने विद्यार्थियों के लिए उपयोगी किताबों के हर अध्याय के अंत में क्यूआर कोड प्रकाशित किया। किताब की पाठ्य सामग्री पर उन्होंने दृश्य-श्रव्य सामग्री तैयार की। जिससे विद्यार्थियों का स्कैनिंग के जरिये डिजीटल सामग्री तक पहुंचना सरल हो गया। बच्चों को कम्प्यूटर-लैपटॉप आदि की मदद से पढ़ाया जाने लगा। शिक्षा को मनोरंजन और मनोरंजन को शिक्षा में बदलना डिसले के शिक्षण की खूबी है। वे खुद के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा को एजूटेनमैंट कहते हैं। बच्चा पढ़ाई का मजा लेता है। वह उसके लिए बोझ नहीं रहती है। डिजीटल सामग्री की मदद से बच्चे दूसरों से स्पर्धा करने की बजाय अपनी गति से सीखते हैं।

मजेदार शिक्षा का असर यह हुआ कि स्कूल से बाहर रहने वाले विद्यार्थी स्कूल में खिंचे चले आने लगे। स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ी। विद्यार्थियों का सीखना समझ से जुड़ा। जब डिसले ने 2009 में स्कूल में कार्य करना शुरू किया था, तब स्कूल की दशा बेहद खराब थी। स्कूल भवन टूटा था। स्कूल के एक तरफ पशु बांधे जाते थे, दूसरी तरफ गोदाम था। उन्होंने स्कूल की दशा बदलने के लिए अथक मेहतन की।
डिसले के प्रयासों का असर यह हुआ कि 2016 में उनके स्कूल को जिले के सर्वश्रेष्ठ स्कूल का दर्जा मिला। उनकी इस कामयाबी का जिक्र माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला ने अपनी पुस्तक ‘हिट रिफ्रेश’ में भी किया। 2016 में ही केन्द्र सरकार ने उन्हें इनोवेटिव रिसर्चर ऑफ द ईयर पुरस्कार से सम्मानित किया। 2018 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन द्वारा उन्हें इनोवेटर ऑफ दा ईयर का पुरस्कार दिया।
डिसले 83 देशों में ऑनलाइन विज्ञान पढ़ाते हैं। वे एक अन्तर्राष्ट्रीय परियोजना चलाते हैं, जिसमें युद्ध सहित अनेक संघर्षशील क्षेत्रों के विद्यार्थी शांति की शिक्षा ग्रहण करते हैं। रणजीत सिंह डिसले के स्कूल के विद्यार्थी अन्य देशों के विद्यार्थियों के साथ अंग्रेजी में बेझिझक बातचीत करते हैं। इसके लिए उन्होंने मातृभाषा के महत्व को समझा और विद्यार्थियों को मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाया। उन्होंने किताबों का अनुवाद बच्चों की मातृभाषा में किया। फिर उन पर डिजीटल सामग्री तैयार की। मातृभाषा का मजबूत आधार मिलने के बाद अंग्रेजी भाषा सीखना भी आसान हो गया।
हमारे समाज में सरकारी स्कूलों को  नकारात्मक ढ़ंग से लिया जाता है। जबकि सरकारी स्कूल किसी से कम नहीं हैं। सरकारी स्कूलों के अध्यापक अपने स्कूलों को चमकाने और विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य के लिए कईं दिशाओं में मेहनत कर रहे हैं। डिसले की उपलब्धि इसका उदाहरण है। उन्होंने स्कूल को मनोरंजन का स्थान बना दिया। एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते हुए विद्यार्थी आनंदित महसूस करते हैं। लैपटॉप, कम्प्यूटर, टीवी, फिल्में, गानें, कहानियां, कविताएं, खेल खेलते हुए बच्चों को बोझ का कोई अहसास ही नहीं होता। शिक्षा को आनंद से जोडऩा ही आज की सबसे बड़ी जरूरत है। यदि शिक्षा बोझ बन जाएगी तो शिक्षा ही निरर्थक हो जाएगी।
यह भी हैरानी पैदा करने वाला है कि शिक्षण डिसले की पहली पसंद नहीं थी। वे इंजीनियर बनना चाहते थे। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की, लेकिन पूरा नहीं कर पाए। पिता जी की सलाह पर उन्होंने शिक्षण महाविद्यालय में दाखिला लिया। जिस शिक्षण महाविद्यालय में डिसले ने दाखिला लिया, उस महाविद्यालय के अध्यापक प्रशिक्षकों ने उसे पूरी तरह बदल दिया। वहां पर उन्होंने महसूस किया कि किस तरह अध्यापक परिवर्तनकर्ता है। वहां के अध्यापकों ने उनमें शिक्षण का जुनून भरा, उसी ऊर्जा का परिणाम है कि वे अपने स्कूल में बदलाव के लिए जुट गए।
वे चाहते हैं कि हर दिन उनके बच्चे उन्हें हंसते-खेलते दिखें। जब भी वे कक्षा में जाते हैं तो उनसे ऊर्जा ग्रहण करते हैं। बच्चों की खुशी उन्हें नया-नया करने के लिए प्रेरित करती है। डिसले ने कहा, ‘टीचर बदलाव लाने वाले लोगों में से होते हैं, जो चॉक और चुनौतियों को मिलाकर अपने स्टूडेंट की जिंदगी बदलते हैं, इसलिए मैं यह कहते हुए खुश हूँ कि मैं अवार्ड की राशि का आधा हिस्सा अपने साथी प्रतिभागियों को दूँगा। मेरा मानना है कि साथ मिलकर हम दुनिया बदल सकते हैं क्योंकि साझा करने वाली चीज ही बढ़ती है।.. शिक्षक इंकम के लिए काम नहीं करता आउटकम के लिए काम करता है।’ उन्होंने बताया कि पुरस्कार राशि के एक हिस्से से वे टीचर इनोवेशन फंड विकसित करेंगे ताकि अध्यापकों के कक्षा कक्षा में नवाचारों को महत्व व मदद दी जा सके।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

ADHUNIK RAJASTHAN 16-12-2020



रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.. ..

भारत की सांझी-संस्कृति के अग्रणी कवि रहीम



अरुण कुमार कैहरबा

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून।। पानी की अहमियत बताने वाले इस दोहे के रचयिता अब्दुर्रहीम खानखाना हिन्दी साहित्य में रहीम के नाम से जाने जाते हैं। अपने दोहों में वे खुद को रहिमन के नाम से पुकारते हैं। रहीम भारतीय इतिहास में बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न शख्सियत हैं। मुगल शासन के प्रसिद्ध शासक अकबर के नवरत्मों में से एक थे। अकबर और जहांगी के दरबार में उन्होंने मंत्री व सेनानायक की भूमिका निभाई। युद्ध के मैदानों में युद्ध कौशल, सेना के नेतृत्व, योजनाकार, कूटनीति के जौहर दिखाए। दरबार में अपनी प्रतिभा और बुद्धि का लोहा मनवाया। वहीं वे सिद्धहस्त कवि, अनुवादक, रचनाकारों को संरक्षण देने वाले, गुणियों की पहचान करने वाले और दिल खोलकर दान करने वाले व्यक्तित्व थे। मुसलमान होने के बावजूद वे हिन्दु देवी-देवताओं का वंदन करते हैं। उनका कृष्ण संबंधी साहित्य पढऩे पर तो ऐसा लगता है, जैसे वे कृष्ण भक्त कवि हों। दरअसल रहीम भारत की सांझी संस्कृति को समृद्ध करने वाले रचनाकारों में अहम स्थान रखते हैं।


रहीम मुगल शासक हुमायूं के अनन्य मित्र, दूरदर्शी मंत्री और अद्वितीय योद्धा बैरम खां के बेटे थे। मेव कन्या सुल्ताना बेगम के गर्भ से संयुक्त पंजाब की राजधानी लाहौर में 17 दिसंबर, 1556 को उनका जन्म हुआ। जब हुमायूं की मृत्यू हुई उस समय अकबर की उम्र केवल 13 साल थी। अकबर को मुगल सम्राट बनाकर बैरम खां ने उनके संरक्षक की जिम्मेदारी निभाई। इस तरह से अकबर के युवा होने तक बैरम खां ही असली बादशाह थे। उन्हें खानखाना की उपाधि दी गई थी। खानखाना का अर्थ होता है-राजाओं का राजा। यही उपाधि बाद में रहीम के साथ भी जुड़ गई। अभी रहीम करीब चार साल के थे, जब बैरम खां की हत्या कर दी गई। अकबर ने रहीम का पालन-पोषण अपने धर्म पुत्र की तरह ही किया। उन्हें युद्ध कला, छंद रचना, कविता, गणित, तर्कशास्त्र तथा फारसी व्याकरण की शिक्षा दी गई। शिक्षा समाप्त होने के बाद बादशाह अकबर ने रहीम की शादी 16 साल की उम्र में मिर्जा अजीज कोका की बहन माहबानों से करवा दी। उन्हें मिर्जा खां व वकील सहित अनेक उपाधियां दी गई। रहीम ने अनेक युद्धों का नेतृत्व किया। 
रहीम अनेक भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने तुर्की, अरबी, फारसी, संस्कृत व हिन्दी भाषाओं लेखन किया। हिन्दी के भी ब्रज, अवधि व खड़ी बोली को उन्होंने अपनी लेखनी का माध्यम बनाया। बाबर ने अपनी आत्मकथा-तुजुके बाबरी की रचना तुर्की में की थी। रहीम ने इस रचना का अनुवाद फारसी में किया। फारसी में लिखी गई रहीम की गजलों को शेख सादी की रचनाओं के समान सम्मान प्राप्त हुआ। शेरुल अजम, हफ्त अक्लीम, तज्किरे-पुरजोश, मआसिरे रहीमी आदि उनकी फारसी में लिखे गए गज़लों के संग्रह हैं। अकबर ने अपने शासनकाल के मुस्लिम साहित्यकारों को संस्कृत का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया था। रहीम ने संस्कृत का अध्ययन ही नहीं किया, बल्कि उसमें साहित्य रचना भी की। खेट कौतुकम नाम से रहीम द्वारा लिखा गया संस्कृत ग्रंथ उपलब्ध होता है, जिसमें उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति की है।
आचार्य रामस्वरुप चतुर्वेदी के अनुसार- ‘भक्ति काल का वैविध्य कई दृष्टियों से रहीम के कृतित्व से पूरा होता है। मुसलमान और उस पर भी तत्कालीन शासन के अंग होकर वे हिन्दू देवी-देवताओं का स्तुति गान करते हैं। शाही दरबार के मान्य सदस्य होते हुए सूफी-संतों-भक्तों की कोटी से अपने को जोड़ते हैं।’ ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ शीर्षक पुस्तक में एक अन्य स्थान पर चतुर्वेदी जी ने लिखा है- ‘हिन्दू-मुसलमानों के समरस होते जातीय जीवन के वे प्रतिनिधि कवि हैं।’ रामधारी सिंह दिनकर ‘भारतीय संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं-‘अकबर ने दीन-ए-इलाही में हिन्दुत्व को जो स्थान दिया है, रहीम ने कविताओं में उसे उससे भी बड़ा स्थान दिया। प्रत्युत यह समझना अधिक उपयुक्त है कि रहीम ऐसे मुसलमान हुये हैं, जो धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्ध भारतीय थे।’ वे भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के संवाहक हैं।
हिन्दी साहित्य में कबीर, तुलसी व सूर के समान ही भक्तिकाल के महत्वपूर्ण कवियों में रहीम की गणना होती है। तुलसीदास के साथ तो रहीम की दोस्ती थी। तुलसी ने जब रामचरितमानस की रचना की तो रहीम ने इस ग्रंथ को हिन्दुओं के लिए वेद और मुसलमानों के कुरान कह कर पुकारा। रहीम की रचना-बरवै का नायिका भेद संबंधी रचनाओं में अग्रणी स्थान है। अवधि में रचित रहीम के बरवों से ही तुलसी को बरवै रामायण लिखने की प्रेरणा मिली। उन्होंने अपने व्यस्त और उलझन भरे जीवन में गहरे अनुभवों पर आधारित रचनाओं का सृजन किया। रहीम के ग्रंथो में रहीम दोहावली या सतसई, बरवै, राग पंचाध्यायी, नगर शोभा, नायिका भेद, शृंगार, सोरठा, फुटकर बरवै, फुटकर छंद तथा पद, फुटकर कवित्त, सवैये प्रसिद्ध हैं। उनके काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और शृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है। उन्होंने अपनी कविताओं व दोहों में पूर्वी अवधी, ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली का प्रयोग किया है। वे मानवीय प्रेम के प्रतीक हैं। उन्होंने अपने दोहों की गागर में सागर भरने का काम किया है। उनके दोहों में संस्कृत की सूक्ति परंपरा की छाप है। उनके दोहों के हिन्दी समाज में उदाहरण देकर बात स्पष्ट की जाती है। उनसे प्रेरणा ली जाती है। उन्होंने अपने एक दोहे में कहा- रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गांठ पड़ जाय।। सूफियाना अंदाज में वे कहते हैं- रूठे सजन मनाइए, जो रूठे सौ बार। रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार। वे मनुष्य में ऐसे गुणों पर जोर देते हैं, जो कुसंगति की विवशता के बावजूद समाप्त ना हों-जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग। रहीम के दोहे उनकी दयाशीलता, दानशीलता और उच्च मानवीय गुणों की ओर संकेत करते हैं- तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान। कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान।। रहिमन विपदा हु भली, जो थोरे दिन होय। हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।। रहीम आम लोगों व छोटी चीजों के महत्व को मानते हैं-रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि। जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवार।। 
दैनिक प्रखर विकास


रहीम हिन्दी के अनेक कवियों से घिरे रहते थे और उनको इनाम व आर्थिक प्रोत्साहन दिया करते थे। इनकी दानशीलता और उदारता मिथक और लोकाख्यान बन गई थी। हिन्दी के अधिकांश कवि उनके द्वारा पुरस्कृत हुए। इनमें हिन्दी के कवि गंग को एक छन्द पर सर्वाधिक राशि 36 लाख रूपए प्राप्त हुई। हिन्दी-फारसी के कवियों-केशव दास, गंग, मंडन, हरनाथ, अलाकुली खां, ताराकवि, मुकुन्द कवि, मुल्लामुहम्मद रजा नबी, मीर मुगीस माहवी हमदानी, युलकलि बेग, उरफी नजीरी, हयाते जिलानी आदि ने उनकी प्रशंसा की। रहीम दान देते समय आंख उठाकर ऊपर नहीं देखते थे। याचक के रूप में आए लोगों को बिना देखे वे दान देते थे। गंग कवि और रहीम के बीच इस सम्बन्ध में हुआ संवाद प्रसिद्घ है। गंग कवि ने रहीम से पूछा -सीखे कहां नवाबजू, ऐसी दैनी देन। ज्यों-ज्यों कर ऊंचा करो त्यों-त्यों नीचे नैन।। रहीम ने गंग कवि को बड़ी विनम्रता के साथ कुछ यूं जवाब दिया-देनदार कोऊ और है, भेजत सो दिन रैन। लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन।। वर्ष 1627 में उनकी मृत्यु हो गई।
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-09466220145
दैनिक नवसत्ता

दैनिक पूर्वोदय



JAGAT KRANTI 17-12-2020
VIR ARJUN 17-12-2020




Sunday, December 6, 2020

KAVITA- KISAN ANDOLAN

 तीन कानून करो रद्द सरकार


तीन कानून करो रद्द सरकार
मत पिटवाओ भद सरकार।

अड़ियलपन को छोड़ भी दो
अच्छा नहीं है मद सरकार।

पुलिस लगा कर रस्ते खोदे 
तुमने कर दी हद सरकार।

जनमत ही सबसे ऊपर है
भली ना तुमरी जिद सरकार।

ठंड में सड़क पे कृषक बैठा
हो रही है गदगद सरकार।

सबसे ऊंचा है अन्नदाता
छोटा ना करो कद सरकार।
-अरुण कुमार कैहरबा
कवि एवं हिन्दी प्राध्यापक

KISAN ANDOLAN

 अधिकारों के लिए जन अभिव्यक्ति है किसान आंदोलन

आरोप लगाने की बजाय किसानों की बातों पर ध्यान दिया जाए

अरुण कुमार कैहरबा

लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों की अभिव्यक्ति बहुत मायने रखती है। किसी मुद्दे पर जितनी अधिक जन भागदीरी होगी और जितनी अधिक लोगों की राय सामने आएगी। लोकतंत्र के लिए यह खुराक से कम नहीं है। सरकार के द्वारा भी उठाए जाने वाले कदमों, बनाई जाने वाली  नीतियों व कानूनों पर लोगों की प्रतिक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। पिछले कईं दिनों से चल रहे किसान आंदोलन को इसी संदर्भ में सकारात्मक ढ़ंग से देखा जाना चाहिए।
कोरोना महामारी व लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा जून महीने में कृषि से संबंधित तीन अध्यादेश लाए गए। सितंबर महीने में संसद के सत्र के दौरान इन अध्यादेशों को कानूनी शक्ल दे दी गई। किसानों का आरोप है कि अध्यादेश व कानून बनाते हुए उनकी राय ली ही नहीं गई। राय नहीं ली गई, तो कोई बात नहीं। लेकिन कानून बना दिए गए अध्यादेशों पर किसान तभी से अपना रोष जता रहे हैं, जब से इन्हें लागू किया गया। इस जनाक्रोश को या तो नजरंदाज किया जा रहा है या फिर किसानों के आंदोलन पर तरह-तरह के लांछन सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा लगाए जा रहे हैं, जोकि काफी चिंता की बात है।
कभी कहा जाता है कि किसानों का आंदोलन कांग्रेस या विपक्षियों द्वारा करवाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि विपक्ष ने किसान को भ्रमित कर दिया है। कभी केवल पंजाब के किसानों का आंदोलन बताया गया। कभी इसे खालिस्तानियों की काली करतूत की तरह से पेश किया गया। लोगों की अभिव्यक्ति को तरह-तरह कमतर ठहराने या उसे गलत ठहराने के लिए हो रहे ये सारे प्रयास भी राजनीति का हिस्सा हैं। किसानों की अभिव्यक्ति और आंदोलन को लांछित करने की इस राजनीति की जितनी निंदा की जाए कम है।
कोरोना महामारी में अप्रत्याशित तौर पर जब से कृषि से संबंधित तीन अध्यादेश लाए गए तभी से इनका विरोध हो रहा है। इस विरोध को नजरंदाज करने के लिए इन अध्यादेशों को क्रांतिकारी बताया गया। बाद में बना दिए गए कानूनों को तो यहां तक कह दिया गया कि 70 साल के बाद किसान आजाद हुआ है। सत्ताधारी दल के नेताओं की धूंआधार प्रचारात्मक बयानबाजी ऐसे समय में भी चल रही है, जब दस दिन से लाखों किसान दिल्ली को बॉर्डरों पर बैठे हुए कानूनों को किसान व कृषि विरोधी काला कानून बता रहे हैं।


हद तो तब हो गई जब संविधान में दिए गए अधिकारों को धता बताते हुए हरियाणा सरकार ने 26 नवंबर को दिल्ली कूच करने वाले किसानों को रोकने के लिए दो दिन पहले ही किसान नेताओं की गिरफ्तारी शुरू कर दी। इसके बावजूद दिल्ली जा रहे किसानों को रोकने के लिए कडक़ड़ाती ठंड में किसानों पर पानी की बौछारें की गई। आंसू गैस के गोले छोड़े गए। पुलिस व सुरक्षा बलों की तैनाती की गई। मार्गों पर बैरीकेड लगा दिए गए। बड़े वाहनों को आड़ा-तिरछा कर खड़ा कर दिया गया। सडक़ों पर खाईयां बना दी गई। इस तरह की बाधाओं को पार करने के बाद दिल्ली के बॉर्डरों पर पहुंचे किसान दस दिन से आंदोलन कर रहे हैं। किसानों की मुख्य मांग तीनों कानूनों को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी हक बनाने की है।
किसी भी सूरत में दिल्ली नहीं आने देने के लिए पसीना बहा चुकी सरकार आखिर किसानों के साथ बातचीत को राजी हुई। किसान प्रतिनिधियों के साथ दो दौर की बात कर चुकी है। किसानों ने कानूनों के सभी प्रावधानों के किसान व कृषि विरोधी पहलुओं पर अपनी प्रस्तुति दे दी है। अब सरकार संशोधन की बात कर रही है। किसान कानूनों को रद्द करवाने पर अड़ा हुआ है। कडक़ड़ाती ठंड के बावजूद आंदोलनरत किसानों का जोश व जज्बा देखने लायक है। अपनी मांगों के लिए किसानों का इस तरह का पड़ाव ऐतिहासिक है। हालांकि सडक़ पर पड़े किसानों को अनेक प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। आंदोलनरत किसानों की मौतें भी दिल दहलाने वाली हैं। इसके बावजूद किसानों का अनुशासन भी देखने लायक है। बातचीत के दौरान किसानों ने सरकारी खाने को ठुकरा कर जता दिया है कि किसान अपनी मांगों के लिए कितना प्रतिबद्ध हैं। विज्ञान भवन में केन्द्रीय मंत्रियों के साथ बातचीत कर रहे किसान नेताओं को आंदोलन के दौरान लंगर का भोजन नीचे बैठकर खाते देखकर आंदोलनरत किसानों को संतोष हुआ होगा।
आंदोलन की सबसे बड़ी बात यह है कि आंदोलन किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं चला जा रहा है। यह आम किसानों का आंदोलन है। जो पुलिस किसानों पर लाठीचार्ज कर रही थी, आंसू गैस के गोले चला रही थी। उसी पुलिस के जवानों को पानी पिलाते लंगर खिलाते किसान जीवन का संदेश दे रहे हैं। मिट्टी के साथ मिट्टी होकर सभी के लिए भोजन पैदा करने वाले किसान आंदोलन की नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं। जिस तरह से खेत में महिलाएं किसान की भूमिका निभाती हैं, उसी तरह से आंदोलन में भी महिला किसानों की नेतृत्वकारी भूमिका लोकतंत्र के प्रति आश्वस्त करती है। आंदोलन में बुजुर्गों व युवाओं को हिस्सा लेते हुए देखना अपने आप में ही कमाल का दृश्य है। सरकार जितना जल्दी उनकी मांगों को माने, उतना बेहतर है।
DAINIK HALK 7-12-2020


अरुण कुमार कैहरबा
स्तंभकार, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145