Sunday, November 29, 2020

Shayar Ali Sardar Jafri

 बुझते नहीं चिराग हवाओं के जोर से

हमेशा राह दिखाती रहेगी अली सरदार जाफरी की लेखनी
अरुण कुमार कैहरबा
Dainik Vir Arjun

तरक्कीपसंद शायरी की परंपरा ने साहित्य को आम लोगों के जीवन के साथ जोड़ते हुए संघर्ष की राह दिखाई। सृजन और सुंदरता के नए मायने गढ़े। इस परंपरा में अनेक शायर हुए जिन्होंने इन्साफ और बराबरी के लिए बड़ी-बड़ी ताकतों से लड़ाई लड़ी। जब देश अंग्रेजों का गुलाम था तो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लोहा लिया और आजादी के बाद भी इंकलाब के लिए जूझते रहे। उनमें ही अली सरदार जाफरी साहब का भी शुमार होता है। उन्होंने ‘परवाज़’, ‘जम्हूर’, ‘नई दुनिया को सलाम’, ‘अमन का सितारा’, ‘एशिया जाग उठा’ जैसे मशहूर दीवान लिखे। ‘लखनऊ की पांच रातें’ जैसी लोकप्रिय किताब लिखने वाले जाफऱी का नाम ‘मेरा सफऱ’ के लिए खास तौर पर लिया जाता है। उन्होंने दबे-कुचले मजलूम लोगों के हको-हुकूक और इन्साफ के लिए आवाज बुलंद की।

अली सरदार जाफरी 29 नवंबर, 1913 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में पैदा हुए। उनकी शुरूआती तालीम घर पर ही हुई। मैट्रिक की पढ़ाई अपने ही कस्बे से करने के बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की तरफ रूख किया। यहां पर उन्हें मजाज़, जां निसार अख्तर और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीबों की संगत मिली। आजादी की लड़ाई चल रही थी। जाफरी ने अंग्रेजी वायसराय की परिषद के सदस्यों के खिलाफ हड़ताल की तो उन्हें विश्वविद्यालय से बेदखल कर दिया। उन्होंने पढ़ाई नहीं रूकने दी। दिल्ली से एंगलो-अरेबिक कॉलेज दिल्ली से बीए पास की और अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। आजादी के आंदोलन में वे हिस्सा लेते रहे। सियासी सरगर्मियों के कारण उन्हें एमए दूसरे साल की परीक्षा में बैठने की इजाजत नहीं मिली और गिरफ्तार करके जेल भेज दिए गए। जेल में उनकी मुलाकात प्रगतिशील साहित्यकार सज्जाद जहीर जैसे लोगों से हुई। उनसे प्रेरित होकर उन्हें लेनिन व माक्र्स का साहित्य पढऩे का मौका मिला। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े होने के कारण उनका प्रेमचंद, फै़ज़, मुल्कराज आनंद व रवीन्द्रनाथ टैगोर से संपर्क हुआ। जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी और फिराक गोरखुरी के साहित्य का उन पर गहरा असर हुआ। उनकी मित्र मंडली में फैज़, आईके गुजराल, राजिंदर सिंह बेदी, मुल्कराज आनंद, कैफ़ी आज़मी, दिलीप कुमार, रामानंद सागर, जाँ निसार अख़्तर, साहिर लुधियानवी, ख्वाजा अहमद अब्बास, इस्मत चुगताई, कुर्तुल ऐन हैदर सहित अनेक अदबी शख्सियतें शामिल थीं। कृश्र चन्दर के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी। 
एमए की पढ़ाई के दौरान राजनीति विज्ञान में एमए कर रही सुल्ताना से उनकी मुलाकात हुई, जिनसे बाद में उनकी शादी हुई। 30 जनवरी 1948 को सरदार और सुल्ताना की शादी के रजिस्टे्रशन में कृशन चंदर, अब्बास और इस्मत चुगताई ने गवाह की भूमिका निभाई। शादी की पार्टी के रूप में इस्मत ने उन्हें आईसक्रीम खिलाई। शादी के बाद ये जोड़ा अंधेरी कम्यून में रहने चला गया, जहाँ कैफ़ी और शौकत आज़मी पहले से रहते थे। शादी के करीब साल भर बाद 20 जनवरी 1949 को प्रगतिशील उर्दू लेखक सभा का आयोजन करने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल के दौरान ही पत्नी सुल्ताना के नाम भावपूर्ण खत लिखे।
सरदार जाफरी बहुमुखी प्रतिभासंपन्न शख्सियत हैं। छोटी उम्र में ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। घर के मजहबी माहौल में पढ़े जाने वाले मर्सियों ने उन्हें मर्सिये लिखने के लिए प्रेरित किया। बाद में जब उन्होंने कलम संभाली तो सबसे पहले कहानियां लिखी। 1938 में उनका कहानी-संग्रह मंजि़ल प्रकाशित हुआ। 1936 में तरक्कीपसंद लेखक आंदोलन की पहली सभा के अध्यक्ष बनाए गए। 1939 में आंदोलन की अदबी पत्रिका-नया अदब के सह-संपादक भी बनाए गए, जो 1949 तक छपता रहा। 1944 में उनकी गज़़लों का पहला संग्रह ‘परवाज़’ शाया हुआ। वे इप्टा के संस्थापक सदस्यों से एक थे। इप्टा के लिए उन्होंने दो नाटक लिखे और एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म- ‘कबीर, इकबाल और आजादी’ लिखी। लखनऊ की पांच रातें नाम से यात्रा वृत्तांत खूब चर्चित हुआ है। कबीर, मीर, ग़ालिब और मीरा की रचनाओं का प्रमाणिक चयन तैयार किया जोकि हिन्दी में प्रकाशित हुआ। 
जाफऱी साहब की कविताएं रूसी, उज्बेकी, फारसी, अंग्रेजी, फ्रेंच, अरबी सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। उर्दू और अंग्रेजी में साहित्य समाज और राजनीति संबंधी विषयों पर भी उन्होंने बड़ी तादाद में टिप्पणियां, आलेख और स्तंभ लिखे। लाल किला, साबरमती आश्रम और तीन मूर्ति निवास पर आधारित दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम के लिए उनकी लिखी पटकथा काबिले तारीफ रही। उन्होंने अमरीका, कनाड़ा, रूस, फ्रांस, तुर्की आदि देशों का भ्रमण किया तथा इस दौरान वहाँ के क्रांतिकारी कवियों से भी मुलाकात की। इन कवियों में तुर्की के नाजि़म हिकमत, फ्रांस के लुई अरागाँ, एल्या एहरान, रूस के शालोखोव ख़ास हैं। पाब्लो नेरुदा से उनकी मुलाक़ात नेरुदा के 1951 में भारत आने पर हुई थी। नाजि़म हिकमत से वे खासे प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने एक बेटे का नाम नाजि़म और दूसरे का हिकमत रखा।
सरदार साहब ने ‘कहकशां’ और ‘महफिले यारां’ नाम के दो टेलीविजन कार्यक्रम तैयार किए। 18 एपिसोड में बने ‘कहकशां’ नाम के टीवी प्रोग्राम के जरिए उन्होंने उर्दू के सात प्रसिद्ध शायरों-फ़ैज़, फिऱाक, जोश, मजाज़, हसरत मोहानी, मखदूम और जिगर मुरादाबादी के जीवन और साहित्य को एक नए अंदाज में साहित्य प्रेमियों के सामने रखा। महफि़ल-ए-यारां में अलग-अलग हस्तियों से लिए इंटरव्यू भी सराहनीय रहे। उन्होंने कुछ फिल्मों के संवाद और पटकथा भी लिखी। वे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ पकिस्तान गए थे, तब उनके काव्य-संग्रह-सरहद पर एक ऑडियो एल्बम भी बनाया गया। एल्बम का निर्माण अनिल सहगल ने किया था और बुलबुल-ए-कश्मीर सीमा सहगल ने आवाज दी थी। सरहद एल्बम तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को 20-21 फरवरी 1999 को लाहौर सम्मेलन में भेंट किया था। उस दौरान उनकी ये पंक्तियां खूब गूंजी-
गुफ़्तुगू बंद न हो 
बात से बात चले 
सुब्ह तक शाम-ए-मुलाक़ात चले 
हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले
उन्हें अनेक प्रकार के सम्मानों और पुरस्कारों से नवाजा गया। 1965 में सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड, 1967 में पद्मश्री, 1978 में पाकिस्तान सरकार द्वारा इक़बाल गोल्ड मैडल सम्मान, 1979 में उत्तरप्रदेश उर्दू अकादमी अवार्ड, 1983 में एशिया जाग उठा के लिए कुमारन आसन अवार्ड, 1986 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी द्वारा डी.लिट, 1997 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा संत ध्यानेश्वर अवार्ड, 1997 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मौलाना मज़हरी अवार्ड, 1997 में ज्ञानपीठ अवार्ड, 1999 में हॉवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति पुरस्कार आदि सम्मानों से सम्मानित किया गया। साहित्य के क्षेत्र में ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले वे उर्दू के तीसरे कवि हैं। 1अगस्त, 2000 को उनका देहांत हो गया। आज भले ही वे दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनका साहित्य लोगों को राह दिखा रहा है। डॉ. शेहाब जफर के शब्दों में कहें तो- ‘अली सरदार जाफरी एक ऐसा शख्स जो रईस घराने में पैदा हुआ, मगर गरीबों और मजलूमों से हमदर्दी रखने वाले जाफरी साहब ऐशो आराम की जिन्दगी त्याग कर तहरीके आजादी से जुड़ गए। स्व. जाफरी न सिर्फ एक बेलौस वतन परस्त इंसान थे, बल्कि उर्दू अदब का एक ऐसा रौशन सितारा जो दुनिया-ए-अदब के आसमान पर अपनी आबो ताब के साथ आज भी चमक रहा है।’ जाफरी साहब के शब्दों में ही कहें तो-‘कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफि़ल में। बहुत अहले-सुखन उ_े बहुत अहले-कलाम आये।।’
उनकी कविताओं में प्रगतिशील चेतना बार-बार मुखर होती है। उनकी नज़्म-निवाला की पंक्तियां काबिले गौर हैं-‘ये जो नन्हा है भोला-भाला है, सिर्फ़ सरमाए का निवाला है, पूछती है ये उस की ख़ामोशी, कोई मुझ को बचाने वाला है।’ अपनी एक अन्य नज़्म में किस तरह से उसे इंकलाब के लिए उठ खड़े होने का आह्वान करते हैं- ‘उठो हिन्द के बाग़बानो उठो, उठो इंकलाबी जवानो उठो, किसानों उठो कामगारो उठो, नई जिंदगी के शरारो उठो, उठो खेलते अपनी ज़ंजीर से, उठो ख़ाक-ए-बंगाल-ओ-कश्मीर से, उठो वादी ओ दश्त ओ कोहसार से, उठो सिंध ओ पंजाब ओ मल्बार से, उठो मालवे और मेवात से, महाराष्ट्र और गुजरात से, अवध के चमन से चहकते उठो, गुलों की तरह से महकते उठो, उठो खुल गया परचम-ए-इंक़लाब, निकलता है जिस तरह से आफ़्ताब, उठो जैसे दरिया में उठती है मौज, उठो जैसे आँधी की बढ़ती है फ़ौज, गुलामी की ज़ंजीर को तोड़ दो, ज़माने की रफ़्तार को मोड़ दो।’


ऐतिहासिक किसान आंदोलन

सरकार किसानों से बात करे और निकाले समाधान

अरुण कुमार कैहरबा

हर तरफ आक्रोश का मंजर है। मजदूर-किसान व कर्मचारी सडक़ों पर हैं। दिल्ली जाने वाले रास्तों पर किसानों का रेला है। जाम ही जाम है, जैसे लगा कोई मेला है। आक्रोशित लोगों द्वारा लगाए गए जाम को खुलवाने के लिए पुलिस दौड़ी फिरती थी। अब पुलिस सडक़ों पर जाम लगा रही है और दिल्ली कूच को निकले आक्रोशित किसान जाम खोल रहे हैं। हैरत तो इस बात की है कि पुलिस ने किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए सडक़ों पर छोटे-बड़े हर तरह के बैरिकेड लगाने के साथ-साथ ओवरलोडिड ट्रक-ट्राले खड़े किए। यही कम नहीं था कि जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल करके बड़ी-बड़ी खाईयां खोदी। पुलिस व सुरक्षा बलों को किसानों को रोकने के लिए इस तरह झोंक दिया गया है जैसे किसी दुश्मन देश के आक्रमण को रोकने के लिए प्रबंध किए गए हों। संविधान दिवस पर जनता के संवैधानिक अधिकारों को रोकने के लिए कोरोना का बहाना बनाया गया। यह सही है कि कोरोना एक भयानक बिमारी है, जोकि लोगों के इक_ा होने से भयानक हो सकती है। लेकिन इसका नाम लेकर लोगों के अभिव्यक्ति के अधिकार को तो नहीं दबाया जा सकता। उनके ऊपर उनकी इच्छा के विरूद्ध कानूनों को तो नहीं थोंपा जा सकता। लोकतंत्र के मायने जनता के लिए जनता द्वारा शासन है। 
किसानों को रोकने के लिए अब तक की गई सारी कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। हरियाणा-पंजाब बॉर्डरों पर पुलिस ने पंजाब के किसानों को रोकने के लिए आंसू गैस, तेजधार पानी की बौछारें, लाठीचार्ज सहित सब कुछ किया लेकिन किसानों के तूफान को रोकने के सारे प्रयास असफल हुए। अंबाला, कुरुक्षेत्र, करनाल, पानीपत में पुलिस के सारे इंतजामात धरे के धरे रह गए। ठंड के मौसम में ठंडे पानी की बौछारें किसानों की गर्माहट के आगे फीकी साबित हुईं। दिल्ली बॉर्डर पर हरियाणा-दिल्ली की पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा किसी भी सूरत में किसानों को दिल्ली तक नहीं जाने देने के दावे किए जा रहे थे। हरियाणा सरकार ने किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए क्यों इतना जोर लगाया, यह भी समझ से परे है। लेख लिखे जाने तक किसान दिल्ली पहुंच चुके हैं। कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर की तरफ किसानों को 3 दिसंबर को बातचीत का न्योता दिया गया है। 
कृषि सुधार के नाम से लाए गए तीन केन्द्रीय कृषि कानूनों को लेकर लंबे समय से किसान रोष जता रहे हैं। कोरोना महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन के बीच में तीन अध्यादेशों के जरिये इन्हें लागू किया गया था। इन अध्यादेशों और बाद में कानून से पहले किसानों के प्रतिनिधियों से इन पर कोई बात नहीं की गई। ना ही किसानों ने इनकी मांग की थी। किसानों का आरोप है कि ये कृषि कानून पंूजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए लाए गए हैं। इन कानूनों से मंडी व्यवस्था और न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। किसानों का कहना है कि यदि सरकार इन कानूनों पर इतनी ही अडिग है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी कानूनी आधार प्रदान किया जाए। हर हाल में किसानों की फसल को समर्थन मूल्य पर खरीदा जाना सुनिश्चित किया जाए। यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि किसानों को आज भी यह समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता है। कितनी ही फसलें तो ऐसी हैं कि जब ये फसलें किसानों के खेतों से बाजार में आती हैं तो उन्हें औने-पौने दामों पर खरीदा जाता है। व्यापारी के हाथ में पहुंच कर इन फसलों की कीमतें अचानक आसमान छूने लगती हैं। किसानों की आमदनी बढ़ाने के सरकारी दावों के बावजूद कृषि घाटे का सौदा बन गई है। युवा कृषि को तौबा करते जा रहे हैं।
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए लंबे समय से किसान मांग कर रहे हैं। चुनावों में सभी राजनैतिक दल किसानों को आश्वासन देते हैं। लेकिन चुनाव जीतने के बाद अपने ही वादों को भूल कर अलग ही राग अलापने लगते हैं। यही अब हो रहा है। पिछले तीन महीनों से किसान केन्द्र सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों के विरूद्ध आंदोलन कर रहे हैं। किसानों की भावनाओं को समझने बिना सरकार द्वारा इन कानूनों के पक्ष में जबरदस्त प्रचार किया जा रहा है। किसानों के साथ सरकार ने बात तो की लेकिन किसानों का कहना है कि बातचीत में सरकार अडिय़ल रूख अपना रही है। बहुत पहले ही 26-27 नवंबर को दिल्ली कूच करने का फैसला किया था। किसानों के रोष को समझने की बजाय सरकार ने दो दिन पहले ही किसान नेताओं की गिरफ्तारी करने का काम शुरू कर दिया। उससे बात नहीं बनी तो दिल्ली जाने वाले रास्तों पर पुलिस तैनात कर दी। बहुत ही हास्यास्पद ढ़ंग से बड़ी-बड़ी गाडिय़ां रास्ता रोकने के लिए रास्तों पर खड़ी कर दी। पानी की बौछारों, आंसू गैस जैसे प्रबंधों के साथ-साथ सडक़ों पर खाई खोदने के कार्य भी किए गए। सारी अड़चनों को धता बताते हुए किसान दिल्ली पहुंच गए हैं। अब सरकार की तरफ से किसानों को बुराड़ी मैदान में रूकने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन किसान बॉर्डरों पर ही रूक गए हैं। बेहतर है सरकार अडिय़ल रूख छोड़ कर किसानों से बात करे। किसानों की भावनाओं के अनुरूप ही कानूनों को रूप दिया जाए। कृषि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और किसान उसका कर्णधार और अन्नदाता है। यदि कृषि और किसान के हितों को नुकसान होगा तो देश को नुकसान होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होनी चाहिए। 




Dainik Vir Arjun






Sunday, November 22, 2020

Do not increase your risk by losing patience, Corona is not a fantasy

 धैर्य खोकर खतरा ना बढ़ाएं, कोरोना सच्चाई है कल्पना नहीं


अरुण कुमार कैहरबा

विशेषज्ञों ने सर्दी की आहट और त्योहारों के सीजन के साथ ही कोरोना वायरस के ज्यादा प्रभावी होने की आशंका व्यक्त की थी। जैसा डरा था, वही होता हुआ दिखाई दे रहा है। लॉकडाउन से उकताए हुए लोगों ने अनलॉक होते हुए नियमों की परवाह करनी छोड़ दी। त्योहारों में बाजारों के दृश्य इतने भयावह दिखाई दिए कि दो गज की दूरी की तो किसी को चिंता ही नहीं है। जहां देखो बस दिखाई देती है-भीड़, भीड़ और बस भीड़। मास्क बहुत कम चेहरों पर दिखाई देते हैं। किसी ने मास्क कानों पर टांग भी रखा है तो वह निरर्थक हो गया है। बार-बार हाथ धोने में भी कोताही देखने को मिल रही है। ठंड के बढ़ते जाने के कारण बाहर से आए लोगों के लिए नहाना भी संभव नहीं रहा है।
यही वजह है कि कोरोना वायरस का संक्रमण एक बार फिर से सर उठा रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में स्थिति चिंताजनक हो रही है। केवल 18 दिनों में 1.10 लाख कोरोना संक्रमण के नए मामले सामने आए हैं। 1381 लोगों की मौत हो गई है। अनलॉक के नियमों को वापिस लेने की जरूरत महसूस हो रही है। दिल्ली में शादी व समारोहों में दो सौ लोगों के इक_े होने की छूट को कम करके 50 कर दिया गया है। मास्क नहीं पहनने पर जुर्माना चार गुणा बढ़ा दिया गया है। जुर्माना 500 सौ रूपये से दो हजार कर दिया गया है। दिल्ली के अलावा हरियाणा, महाराष्ट्र, केरल, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश व उत्तर प्रदेश में कोरोना संक्रमण के मामले में तेजी से वृद्धि हो रही है। देश में आज तक कुल 89.74 लाख मामले हो चुके हैं। अकेले दिल्ली में कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा पांच लाख के पार पहुंच गया है। देश भर में 1.31 लाख लोगों की मौत हो चुकी है।
इस भयानक सच्चाई के बावजूद कोरोना पर बेपरवाही से हंसने वालों की कमी नहीं है। उदासीनता और बेपरवाही का यह वातावरण ही संभवत: देश को कोरोना महामारी के दूसरे चरण की तरफ ले जा रहा है। यह बड़ी चिंता और चुनौती का विषय है। यदि आज भी लोगों ने स्थितियों की विकरालता के बारे में सोचना शुरू नहीं किया तो आने वाला समय और भयानक होने की आशंकाएं सच होकर हमारे सामने खड़ी हो सकती हैं। यह सही है कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने देश की अर्थव्यवस्था को गर्त में धकेल दिया है। इसे उबारने के लिए अब आर्थिक गतिविधियों का दौबारा शुरू होना जरूरी है। लेकिन बाजार में इस तरह से भीड़ करना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। इन स्थितियों में यदि फिर से नए लॉकडाउन की नौबत आन पड़ी तो वह ज्यादा खतरनाक होगा। इसलिए जरूरी है कि सभी नियमों की पालना करें। घर से निकलते हुए धैर्य रखें। आपको यदि अपनी जान का कोई खतरा नहीं है तो दूसरे लोगों की चिंता जरूर करें। जल्दबाजी के कारण ही हरियाणा में स्कूल नौवीं से 12वीं कक्षाओं के लिए खोल दिए गए। इससे विभिन्न जिलों में 400 से अधिक बच्चे और 70 से अधिक अध्यापक कोरोना से संक्रमित पाए गए हैं। क्या पढ़ाई के नाम पर बच्चों को इस तरह कोरोना के मुंह में झोंका जा सकता है। हरियाणा सरकार ने फिर से स्कूल 30 नवंबर तक बंद कर दिए हैं। महाराष्ट्र ने 31 दिसंबर तक स्कूल बंद रखने का फैसला किया है। गुजरात में 23नवंबर से स्कूल खुलने का फैसला टाल दिया गया है।


इस हालात में सबसे ज्यादा अनुशासनहीन व्यवहार उनका मिला है, जिन्हें समाज का नेतृत्व करना चाहिए। जी हां, हमने नेता इसलिए नहीं बनाए हैं कि वे केवल भाषणबाजी करके समाज को राह दिखाने का दिखावा करें और व्यवहार में वे ही सबसे अधिक अनुशासनहीनता बरतें। बिहार विधानसभा चुनाव सहित विभिन्न राज्यों में हुए उपचुनावों के दौरान हुई जनसभाओं में दो गज की दूरी के नियम तार-तार कर दिए गए। जब तक वैक्सीन नहीं आती है। तब तक मास्क ही वैस्सीन है। यह बात केवल कहने के लिए नहीं है, मौजूदा दौर में यह पालना के आवश्यक मूल्य है।

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Friday, November 20, 2020

ARTICLE ON WORLD TELEVISION DAY

 विश्व दूरदर्शन दिवस पर विशेष

टेलीविजन ने सूचना और संचार क्रांति को आगे बढ़ाया

टीवी देखते हुए सजगता जरूरी

अरुण कुमार कैहरबा

टेलीविजन विज्ञान की अनुपम देन है। वैश्विक परिदृश्य में टेलीविजन के आने के बाद सूचना और संचार क्रांति की राह खुल गई। आज तकनीक ने संचार और सूचना को इतना अधिक विकसित कर दिया है कि आश्चर्य होता है। जब टेलीविजन गांवों में आया था तो हम छोटे-छोटे हुए करते थे। टेलीविजन देखने का चाव इतना था कि जब गांव के दूसरे छोर पर किसी के घर में टेलीविजन आया तो मन में उत्सुकता का सागर हिलोरें मारने लगा। जो भी उसे देखकर आता, वह दूसरों को भी ऐसे किस्से सुनाता था कि वह कोई आलादीन का चिराग देख आया हो। और किस्से कहानियों के आलादीन के चिराग से टेलीविजन कम भी कहां था। एक डिब्बे में जीवंत तस्वीरें जो दिख रही थी। ज्यों-ज्यों टेलीविजन देखने की बातें फैल रही थी, तो लोग भी जा-जाकर टेलीविजन देख रहे थे। हम भी पहुंचे तो खुले आंगन में टेलीविजन लगाया हुआ था और बड़ी संख्या में लोग धरती पर बैठे हुए मुंह बाए हुए टेलीविजन देख रहे थे। टेलीविजन में चलती तस्वीरों और कलाकारों के हाव-भाव के साथ उनके चेहरों पर हाव-भाव आते थे। खुशी का ऐसा माहौल होता था कि कमाल था। टेलीविजन के बहाने पूरा गांव एक स्थान पर आया हुआ था और जात-पात का कोई भेदभाव दिखाई नहीं देता था। टेलीविजन से जुड़े हुए अनेक किस्से कहानियां हैं। जब किसी के घर में टेलीविजन आया तो टेलीविजन चलाने के लिए छत के ऊपर एंटीना लगाया जाता था। छत के ऊपर एंटीना लगाया जा रहा था। एक व्यक्ति को पता चला तो वह भी देखने आया। एंटीना लगाया जाता देखकर वह ठिठक गया। उसने सोचा कि उसी एंटीना में ही तस्वीरें आएंगी। एंटीना लगने के बाद भी जब ऊपर तस्वीरें नहीं आई तो वह आते-जाते लोगों को कहने लगा कि ऐसे ही बहका रखा है। उसे लोगों ने बताया कि यह तो एंटीना है। टेलीविजन तो घर में चल रहा है। वह घर पहुंचा और टेलीविजन देखकर हैरान हुआ।
DAINIK PRAKHAR VIKAS

आधुनिक काल में संचार के सबसे पहले छपाई वाले माध्यम आए। समाचार-पत्र व पत्रिकाओं से लोगों को सूचनाएं मिलती थी। लेकिन बहुत कम लोगों तक ही उसकी पहुंच होती थी। उसके बाद रेडियो नाम का श्रव्य माध्यम आया तो छोटे से डिब्बे से जीवंत आवाज और सूचनाएं सुनने को मिली। देश की आजादी की सूचना बहुत लोगों को सबसे पहले रेडियो से सुनने को मिली। कुछ लोगों को पता चला तो वह सूचना फैल गई। लोगों में खुशी का माहौल देखने को मिला। मुख्य इलेक्ट्रोनिक साधन रेडियो के बाद टेलीविजन के आविष्कार ने दृश्य-श्रव्य तकनीक में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया। टीवी का सबसे पहले लंदन में आविष्कार 1925 में जॉन लॉगी बेयर्ड ने किया। उनके अलावा भी अनेक लोगों ने टीवी की तकनीक के विकास में योगदान दिया। भारत में टीवी का पहला प्रसारण 15 सितंबर, 1959 को दिल्ली से हुआ था। इसे एक प्रयोगात्मक प्रसारण के रूप में कम क्षमता वाले ट्रांसमीटर से दिल्ली के ही 21 कम्युनिटी टीवी सेट पर प्रसारित किया जाता था। उस समय ऑल इंडिया रेडियो की निगरानी में हर सप्ताह एक-एक घंटे के दो कार्यक्रम दिखाये जाते थे। हर दिन 1 घंटे की समाचार-बुलेटिन की शुरूआत 1965 में की गई।     1976 में दूरदर्शन को ऑल इंडिया रेडियो से अलग कर एक स्वतंत्र प्रसारण संस्था का रूप दे दिया गया। 1982 में दूरदर्शन ने पहली बार 9वें एशियन गेम्स का सीधा प्रसारण किया, जोकि एक बड़ी उपलब्धि थी। धीरे-धीरे टेलीविजन पूरे देश में फैल गया। ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन, रिमोट से चलने वाला, एलसीडी और एलईडी सहित अनेक उन्नत रूप दिखाई दिए। दूरदर्शन के बाद मेट्रो और आज अनेक चैनल चल रहे हैं। टेलीविजन अधिकतर घरों का अभिन्न हिस्सा है। शुरूआत में टेलीविजन के आगमन से गांव व मोहल्ले के लोग एक घर की छत के नीचे इक_े हुए। बाद में घर के हर कमरे में टीवी रखे जाने से अपने ही कमरे तक लोग महदूद हो गए। घरों में रिमोट पर कब्जा जमाने और अपनी पसंद का कार्यक्रम देखने के लिए बहस होना भी आम बात है। कुल मिलाकर टेलीविजन ने लोगों को सूचना सम्पन्न बनाया और ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग को आसान बनाया। आज विद्यार्थियों के लिए अनेक प्रकार के कार्यक्रम टेलीविजन पर दिखाए जाते हैं।
जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं। उसी तरह से टेलीविजन के भी दोनों पहलू हैं। टेलीविजन पर जहां ज्ञानवर्धक कार्यक्रम आते हैं, वहीं नशा, हिंसा और अपराध का पैकेज भी परोसा जाता है। टीवी पर अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों की बाढ़ आई हुई है। सादा जीवन और उच्च विचार के जीवन मूल्य को आघात पहुंचाते हुए टीवी पर ऐसे कार्यक्रम दिखाए जाते हैं, जिससे विवाहों पर फिजूलखर्ची और दहेज जैसी सामाजिक बुराई को महिमामंडित किया जाता है। अश£ीलता के जरिये महिलाओं को उपभोग की वस्तु की तरह पेश किया जाता है। ऐसे में टेलीविजन को देखने के लिए सजगता की जरूरत है। आज तो टेलीविजन से आगे बढक़र इंटरनेट और मोबाइल का प्रयोग हो रहा है। कोरोना काल में जब लोग घरों तक महदूद होकर रह गए तो ऑनलाइन शिक्षा ही एकमात्र उपाय था। ऐसे में तकनीक व तकनीकी उपकरणों का प्रयोग एक अनिवार्यता है। लेकिन इसको लेकर जागरूकता की बहुत जरूरत है। आओ हम सब मिलकर वैज्ञानिक तरक्की का उत्सव मनाएं, लेकिन साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण को उपेक्षित ना करें। टेलीविजन देखें, लेकिन टेलीविजन के माध्यम से बाजार के हितों को बढ़ावा देने के मंसूबों को भी समझें और समझबूझ के साथ इसका प्रयोग करें। गलत कार्यक्रमों की आलोचना भी करें।
VIR ARJUN 21-11-2020

JAGMARG
JAGAT KRANTI

TARUN MITR 21-11-2020

AAO LAGAEN YAR PHOOL


 

इंकलाब के बेमिसाल शायर फै़ज़ अहमद फैज़

JANSANDESH TIMES 20-11-2020

 उम्मीद और इंकलाब के बेमिसाल शायर फै़ज़ अहमद फैज़

अरुण कुमार कैहरबा

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

तरक्कीपसंद शायर फ़ैज अहमद फ़ैज आम जनता के बेमिसाल शायर हैं, जो तमाम प्रकार की तानाशाहियों से जूझते हुए जम्हूरियत की जोरदार ढंग़ से पैरवी करते हैं। क्योंकि सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही आम आदमी के दुख-दर्द अभिव्यक्ति पा सकते हैं। $फैज़ की शायरी में एक तरफ नाउम्मीद हो चुके लोगों का दर्द और संत्रास है। वहीं न्याय के पक्ष में खड़े होने का जज़्बा, जीत का जुनून और यकीन भी है। फै़ज़ की जिन्दगी का बेहतरीन दौर या तो सलाख़ों में बीता या निर्वासन में, पर हज़ारों नाउम्मीदी भरे आलम के बावजूद उनकी कविता में उम्मीद का दीया कभी बुझा नहीं है। अन्याय के बीच वे बोलते रहे-
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है।
JAMMU PARIVARTAN
फैज़ की पैदाईश अविभाजित हिन्दोस्तान के पंजाब राज्य के जिला सियालकोट के कस्बा काला कादिर में 13फरवरी, 1911 को हुई। इनके पिता सुल्तान अहमद एक मशहूर वकील थे। साहित्यिक रूचि के कारण उनकी मित्रमंडली में अल्लामा इक़बाल जैसे महान शायर व कई साहित्यिक हस्तियाँ थीं। उन्होंने खुद भी शाही अफगानिस्तान के अमीर सामंत अब्दुर्रहमान की जीवनी लिखी थी, जिसकी उस समय खूब चर्चा हुई। वैसे तो फैज़ की बुनियादी तालीम एक मदरसे से शुरू हुयी। लेकिन जल्दी ही उनके पिता ने उनका नाम मिशनरी स्कूल में दजऱ् करा दिया। वहाँ उन्होंने उच्चतर माध्यमिक स्तर तक अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई की। आगे की पढ़ाई के लिए फ़ैज ने लाहौर की ओर रुख़ किया। उन्होंने अंग्रेजी(1933) तथा अरबी (1934) में एम.ए. किया।
कॉलेज के दिनों में ही उन्हें पढऩे का चस्का लग गया। लाहौर में अध्ययन के दौरान वे किराये पर किताबें लेकर पढ़ते थे। इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी भावनाओं को शब्दबद्ध करना शुरू किया। शायरी से उनका प्रेम एक बार हुआ तो उम्र भर कायम रहा। 1935 में फ़ैज ‘मोहम्मद एंग्लो ओरियण्टल’ कॉलेज अमृतसर में अध्यापन कार्य में लग गये। 1936 में उन्होंने लेखकों के संगठन प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)के निर्माण में बढक़र हिस्सेदारी की। प्रलेस की स्थापना में अन्य उर्दू लेखक सज्ज़ाद ज़हीर, कृश्नचन्दर, रशीद जहाँ बेग़म के साथ अग्रिम  पंक्ति में थे। फैज़ के पहले काव्य-संग्रह ‘नक्श-ए-फरियादी’ का प्रकाशन 1941 में हुआ। इसमें संकलित कविताएँ उर्दू काव्य परम्पराओं की तिलांजलि दिये बगैऱ नया तेवर लेकर आती हैं जिसकी एक नज़्म-‘और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, मुझ से पहली-सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग’ जो कि फ़ैज की बेहद चर्चित नज़्मों में से एक है। द्वितीय विश्व युद्ध में जब फासीवादी व नाजीवादी ताकतें हावी होने लगी तो फैज़ ने ब्रिटिश सेना में शामिल होकर युद्ध में कूद पड़े। 1947 तक सेना में कर्नल के पद तक पहुंचे और बाद में सेना को विदायी दे दी। इसके बाद वे लाहौर जाकर कलम के मोर्चे पर सक्रिय हो गए। वहाँ  दैनिक ‘पाकिस्तान टाइम्स’ का सम्पादन शुरू किया। इन दिनों देश भर में हाय-तौबा मची थी। कत्लोगारत का माहौल चल रहा था। अंग्रेजों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति अपना असली रूप दिखा रही थी।
1947 में भारत औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त तो हुआ, लेकिन विभाजन ने जनता की आकांक्षाओं पर तुषारापात कर दिया। धर्म के नाम पर व्यापक दंगे और उजाड़ देखकर  जन-जन कराह उठा। ऐसी आधी-अधूरी, कटी-छँटी आज़ादी पर फैज़ अपनी नज़्म में सवाल उठाते हैं-
ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
आजादी के बाद $फैज़ पाकिस्तान की तरफ रहे, लेकिन उन्होंने विभाजन को मन से स्वीकार नहीं किया। वे सत्ताधारी लोगों की साजिशों पर कलम चला रहे थे और मेहनतकश के एकजुट होकर क्रांति की पक्षधरता कर रहे थे। फ़ैज़ को 9मार्च 1951 को राज्य के खिलाफ विद्रोह करने की साजिश रचने के आरोप में कुछ दूसरे फौजी अफसरों के साथ गिफ्तार कर लिया गया। उन पर ‘रावलपिण्डी षडयंत्र’ का आरोप मढ़ा गया। उनके सिर पर मौत का ख़तरा मण्डराने लगा। अन्तत: उन्हें चार साल के लिए जेल की सलाख़ों के पीछे धकेल दिया गया। जेल में उन्होंने दोबारा कविता का दामन पकड़ा जो कि पिछले दिनों (1940 से) कुछ छूट-सा गया था। उनका दूसरा कविता संकलन ‘दस्त-ए-सबा’ तब छपकर आया, जब वे जेल में थे। तीसरा संकलन ‘जिंदाँनामा’ की लगभग सारी कविताएँ जेल के दौरान ही लिखी गयीं।
जेल से रिहा होने तक देश-दुनिया में काफी कुछ बदल चुका था। मुल्क में विरोध की हर आवाज़ पर पहरा था। ऐसे दमघोंटू माहौल में फैज़ के लिए कुछ भी कर पाने की गुंजाइश नहीं के बराबर थी। लेकिन फैज़ चुप बैठने वालों में से नहीं थे। शीतयुद्ध के दौरान वे अपने सवालों को अन्तरराष्ट्रीय जगत तक ले गये। 1956 में वे दिल्ली में आयोजित एशियन राईटर्स सम्मेलन में शामिल हुए। 1958 में एशिया-अफ्रीका लेखक सम्मेलन ताशकन्द में होने वाला था। अभी सम्मेलन चल ही रहा था कि पाकिस्तान में पहला सैनिक तख्तापलट हुआ। मुल्क में सैनिक तानाशाही लागू कर दी गयी। फैज़ मुल्क वापस आते ही गिरफ्तार कर लिए गये, कुछ ही समय के लिए सही। रिहा होते ही वे फिर अपने रचनात्मक कामों में लग गए।
1962 में उन्हें रूस के सर्वोच्च पुरस्कार लेनिन शान्ति पुरस्कार से नवाजा गया। पुरस्कार लेने हेतु जब उन्हें रूस जाने की अनुमति मिली तो वे तत्काल वापस न आकर दो साल के लिए आत्मनिर्वासन पर ब्रिटेन चले गये। 1964 में वे पाकिस्तान वापस लौटे। इस दौरान उन्होंने  अध्ययन-अध्यापन का काम किया और कला-संस्कृति के क्षेत्र में कई एक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। 1984 में उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया।
जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार के सत्तासीन होने के बाद मुल्क का मौसम कुछ राहत भरा लगा। पाकिस्तान में कभी भी फौजी तानाशाही स्थापित होने की आशंका और भुट्टो द्वारा किए जा रहे भूमि सुधार और मानवाधिकारों के सम्मान के वादों के कारण फ़ैज नये शासकों की नीतियों से कुछ सहमत-से नजऱ आते हैं। भुट्टो ने फैज़ को शिक्षा मंत्रालय के तहत सांस्कृतिक सलाहकार के पद पर नियुक्त किया। चार सालों तक वे इस्लामाबाद में सांस्कृतिक प्रशासक के तौर पर काम करते रहे। पर राहत के इन पलों की उम्र काफी छोटी निकली। 1977 में पुन: पाकिस्तान में सैनिक तख्तापलट हुआ। फै़ज़ अपने ओहदे से ही बेदखल नहीं हुए बल्कि उन्हें मुल्क से भी बेदख़ल होना पड़ा। लेकिन उनका संकल्प मजबूत था-
हम परवरिशे-लौहो-क़लम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजऱती है रक़म करते रहेंगे
1978 से 1982 तक का दौर फ़ैज़ ने निर्वासन में गुजारा। उन्होंने एशिया-अफ्रीका में फैले तमाम लेखक मित्रों से मुलाकात की। इन्हीं मित्रों की बदौलत उन्हें अफ्रीकी-एशियाई जरनल ‘लोटस’ के सम्पादन का काम मिला जो कि बेरूत से प्रकाशित होता था। बेरूत में बीते इन तीन सालों में उन्होंने फिलिस्तीनी अवाम के दुख को, मुक्ति की चाहत को बेहद करीबी से देखा। ‘फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन’ के नेता यासिर अराफात से दोस्ती हुई जिन्हें फैज़ ने अपना अन्तिम संकलन ‘मेरे दिल: मेरे मुसाफिर’ समर्पित किया। जब बेरूत पर इजऱायल ने कब्ज़ा कर लिया तब उन्हें वहाँ से निकलना पड़ा। वे वहाँ से मुल्क-दर-मुल्क भटकते हुए आखिर 1982 में अपने देश पहुंचे। स्वास्थ्य काफी बिगड़ चुका था। 20 नवम्बर, 1984 को लाहौर में हृदय गति रुक जाने से फ़ैज का इंतकाल हो गया और दमनकारी हुकूमत से बेख़ौफ रहने वाला यह शायर हमसे बिछड़ गया। मेहनतकश वर्ग के हक में लिखे उनके गीत संघर्षशील लोगों में उन्हें अमर रखेंगे-
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक खेत नहीं, इक बाग नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
फैज़ की रचनाएं पूरी दुनिया में चर्चित हैं। भारत में तो उनकी रचनाओं को खूब गाया जाता है। उनकी एक रचना-हम देखेंगे.. उस समय चर्चा में आ गई, जब उसकी गलत व्याख्या करते हुए, उसे कुछ लोगों ने हिन्दू विरोधी तक बता दिया। उनके जीते-जी पाकिस्तान में कट्टरपंथी उन्हें मुसलमान विरोधी बताते रहे। जिस देश में वे रहते थे, उस देश की सत्ताओं ने उन्हें या तो जेल में रखा या फिर निर्वासन के लिए मजबूर किया। दरअसल फैज़ अहमद फैज़ किसी एक देश का नहीं विश्व नागरिक है, जिसने लोकतंत्र के लिए आवाज उठाई। शोषित मेहनतकशों के हको-हुकूक की पक्षधरता की। प्रो. सुभाष चन्द्र कहते हैं- फैज़ की शायरी और कविताएं अपने पाठकों और श्रोताओं से संवाद रचाती हैं। वे एक तरफा बयान नहीं बनती, बल्कि उनकी सुप्त संवेदनाओं को जगाते हुए उनकी चेतना का हिस्सा हो जाती हैं और उनकी तरफ से बोलने लगती हैं। उनकी रचनाओं का पाठक या श्रोता पेसिव नहीं हो सकता। वह अपने पाठकों और श्रोताओं में जोश पैदा करती है। उनकी इंसानी गरिमा को उभारती है, उनको जगा जाती है, अहसासों को ताजा करती है। फैज की रचनाएं अपने पाठकों की जिंदगी में नया अर्थ भरती हैं। फैज की शायरी में पाठक को पकडक़र रखने की ताकत है। वह अपने पाठक से दोस्ती कायम कर लेती है।

Thursday, November 19, 2020

विश्व शौचालय दिवस (19नवंबर) पर विशेष लेख

 खुले में शौच से मुक्ति के लिए ठोस उपायों की दरकार

सबके लिए घर व हर घर में शौचालय का निर्माण करने के लिए आगे आए सरकार

अरुण कुमार कैहरबा
खुले में शौच स्वास्थ्य, स्वच्छता, पर्यावरण और समाज सभी के लिए घातक है। खुले में शौच की प्रवृत्ति आदत की बजाय विवशता से अधिक जुड़ी हुई है। खुले में शौच करने वाले के लिए ही यह शर्मनाक नहीं है, उस देश व समाज के लिए भी यह विवशता शर्मनाक होनी चाहिए। खुले में शौच का सीधा संबंध गरीबी और पिछड़ेपन से है। गरीबी के कारण ही आज तक बड़ी आबादी फुटपाथों, झोंपडिय़ों व अस्थाई घरों में जीवन व्यतीत कर रही है। ऐसे में बेहद गंदे वातावरण में शौच करना उनकी विवशता है, जिससे उनके स्वास्थ्य पर तो बुरा प्रभाव पड़ ही रहा है, मानवीय गरिमा भी तार-तार हो रही है।
रोजगार की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आकर रह रहे लोगों का जीवन भयानक विपदाओं से भरा हुआ है। कितनी ही फैक्ट्रियों, ईंट भ_ों व कार्य स्थलों पर रह रहे लोगों के लिए घर के नाम पर अंधेरे कमरों की व्यवस्था की गई है। सडक़ों के निर्माण आदि में लगे लोग अस्थाई झोंपड़ी बनाकर रहते हैं। बेरोजगारी के कारण आमदनी का कोई जरिया नहीं होने पर गांवों और शहरों में बड़ी आबादी कच्चे घरों में रहती है। बड़े परिवार और रहने के लिए एक या दो कमरों का कच्चा घर। घुमंतु समदायों के लोग आज भी खानाबदोशी का जीवन जीने को मजबूर हैं। मकान से पहले रोटी-कपड़ा की जंग उन पर भारी पड़ रही है। मकान के रूप में भी आम लोगों की प्राथमिकता यही रहती है कि रहने के लिए ठीक-ठाक कमरा हो। खाना बनाने के लिए रसोई के रूप में इस्तेमाल करने लायक छत हो। इसके बाद स्नानघर व शौचालय का नंबर आता है। यथार्थ के धरातल पर देखें तो स्वाभाविक क्रम भी यही होगा।
भयानक गरीबी, बीमारी और बेकारी के हालात में खुले में शौच ना करने और शौचालय का निर्माण करने का उपदेश और संदेश यदि कानों तक पहुंच भी जाए तो अंदाजा लगाएं कि आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? जी हां, ये सारे संदेश बेकार जान पड़ेंगे। भले ही बीमारी का एक कारण यह भी हो। स्वच्छ भारत मिशन की वैबसाईट पर जाएं तो हमें चमचमाते सरकारी आंकड़े दिखाई देंगे। इन आंकड़ों के मुताबिक 2 अक्तूबर, 2014 से आज तक सरकार द्वारा 10 करोड़, 70 लाख, 96 हजार 876 घरों में शौचालयों का निर्माण करवाया गया है। सभी 35 राज्य व केन्द्र शासित प्रदेश, 706 जिले और 6 लाख, तीन हजार, 177 गांव खुले में शौच मुक्त हो चुके हैं। रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ कंपैशनेट इकोनोमिक्स के शोध से इन आंकड़ों की सच्चाई सामने आई। शोध में मिला कि बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व राजस्थान की 44प्रतिशत ग्रामीण आबादी अभी भी खुले में शौच के लिए विवश है। शोध अध्ययनों की रिपोर्ट ना भी देखें तो भी अपने आस-पास हमें सच्चाई आसानी से दिख जाती है। स्वच्छ भारत मिशन के बड़े-बड़े होर्डिंग के आस-पास भी हमें सच्चाई नजर आ जाएगी। खुले में शौच मुक्ति की वाह-वाही लूटने वाले बहुत से गांवों में आज स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। हां, यह भी सच है कि स्थितियों में काफी सुधार हुआ है। बहुत से गांवों में काबिले तारीफ काम हुआ है। वे अधिकतर गांव अपेक्षाकृत सम्पन्न भी हैं। वहां के लोगों ने आदतों में सुधार करके खुले में शौच से मुक्ति पाई है और शौचालयों का इस्तेमाल करना शुरू किया है। नए शौचालयों का निर्माण भी किया गया है। इसमें स्वच्छ भारत मिशन के प्रशिक्षण ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जहां पर लोगों को खुले में शौच के दुष्प्रभावों का सूक्ष्मता से लोगों को अहसास करवाया गया। गांव के लोगों की स्वैच्छिक कमेटी ने खुले में शौच जाने वाले लोगों को शर्मसार किया और उन्हें शौचालय निर्माण के लिए बाध्य किया।
यह भी सच है कि कुछ स्थानों पर स्थितियों का सटीक अध्ययन किए बिना लीपापोती करते हुए गांव को खुले में शौच मुक्त घोषित करके वाह-वाही लूट ली गई। कुछ दिन के दिखावटी और बनावटी प्रयासों का नकाब उतरते ही स्थितियां अपने यथार्थ रूप में सामने आ गई। सच यह है कि लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाए बिना और शौचालयों के निर्माण में सहयोग किए बिना खुले में शौच से सम्पूर्ण मुक्ति नहीं हो पाएगी। जिन लोगों के पास आज तक एक अदद घर नहीं है, सरकार को उनके लिए घर के साथ ही शौचालयों का निर्माण करवाना चाहिए। ऐसे उद्योगों व कारखानों पर भी नकेल कसनी चाहिए, जो अपने मजदूरों के लिए रहने लायक आवास व शौचालय का निर्माण करने में सबसे ज्यादा कंजूसी बरत रहे हैं। सबको घर और हर घर में शौचालय सबके स्वास्थ्य व देश तरक्की का आधार मानी जानी चाहिए।