Monday, October 26, 2020

FREEDOM FIGHTER SHAHEED JATINDERNATH DAS

 स्वतंत्रता आंदोलन के अमर सिपाही यतीन्द्रनाथ दास की जयंती पर विशेष
जतिन दास ने 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद दी शहादत

अरुण कुमार कैहरबा

भारत की आजादी की लड़ाई कितने ही वीरों की शहादतों से भरी हुई है। उन्होंने देश को आजाद करवाने और बेहतर समाज के निर्माण के लिए हंसते-हंसते मौत को गले लगा लिया। उनका जोश, जज़्बा, विचार, सपने और कार्य आज भी लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। क्रांतिकारी युवाओं में तो एक-दूसरे से आगे बढ़ कर कुर्बानी देने का जज्बा था। यतीन्द्रनाथ दास भी ऐसे ही युवा थे, जिन्होंने जेल में 63 दिनों की लंबी भूख हड़ताल करते हुए शहादत दी। उनका कहना था कि गोली खाकर या फांसी पर झूल कर मरना तो आसान है। जब अनशन करके आदमी धीरे-धीरे मरता है तो उसके मनोबल का पता चलता है। ऐसे में अगर वह मन से कमजोर है तो उससे यह नहीं हो पाएगा। अपने साथियों में जतिन दा के नाम से मशहूर यतीन्द्रनाथ दास बेहद असहनीय तरीके से भूख हड़ताल करते हुए और यातनाएं सहते हुए शहीद हुए।
जतिन दास की पैदाईश कलकत्ता में 27 अक्तूबर, 1904 में हुई। जतिन अभी नौ ही साल के थे कि उनकी माता सुहासिनी देवी का देहांत हो गया। उनके पिता बंकिम बिहारी दास एक शिक्षित और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गांधी जी द्वारा 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो जतिन भी उसमें कूद पड़े। वे जब विदेशी सामान की दुकान के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें छह महीने की जेल हुई। चौरा-चौरी की घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। इससे जतीन्द्रनाथ को बहुत निराशा हुई। जेल से वापिस आने के बाद उन्होंने पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वे क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के संपर्क में आए और हिन्दुस्तान सोशल रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के सदस्य बन गए। एचआरए सशस्त्र क्रांति द्वारा देश को आजाद करवाने और शोषण मुक्त व्यवस्था स्थापित करने के लिए प्रयासरत थी। इसी बीच जतिन दास ने बम बनाना सीख लिया था। 1925 में उन्हें दक्षिणेश्वर बम कांड व काकोरी कांड के मामले में गिरफ्तार किया गया। लेकिन प्रमाण  नहीं मिल पाने के कारण वे नज़रबंद कर लिए गए। जेल में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने 21 दिन की भूख हड़ताल की। इसका यह असर हुआ कि अंग्रेजों को उन्हें रिहा करना पड़ा।
जतीन्द्रनाथ दास की 1928 में एक मुलाकात में भगत सिंह ने उन्हें हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए बम बनाने के लिए राजी कर लिया। 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय एसेंबली में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने जतिन दा द्वारा बनाए गए बमों का इस्तेमाल किया। जतिन दा सहित कईं क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर लाहौर षडय़ंत्र केस चलाया गया। लाहौर जेल में क्रांतिकारियों के साथ दुव्र्यवहार हुआ। उन्हें चोर-डकैती आदि के आरोप में बंद किए गए अपराधियों के साथ रखा गया। भगत सिंह व क्रांतिकारियों ने इसे अपमान माना और राजनैतिक बंदियों जैसा सलूक करने की मांग उठाई। भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने जेल में हो रहे सलूक व अत्याचारों के विरूद्ध भूख हड़ताल शरू कर दी। शुरू में जतिन दा ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि भूख हड़ताल में कड़ा संघर्ष होता है और बिना जान दिए सफलता मिलने की संभावना नहीं है। लेकिन बाद में वे 13 जुलाई, 1929 को वे भी हड़ताल में कूद गए। इस भूख हड़ताल की पूरे देश में चर्चा हुई और क्रांतिकारियों को जनता का व्यापक समर्थन मिला।
कुछ दिन के बाद ही पुलिस जबरदस्ती पर उतर आई और क्रांतिकारियों के नाक में रबड़ की नाली डाल कर खाना दिया जाने लगा। जतिन दा को इसका पहले से अनुभव था। उन्होंने हाथापाई करते हुए नाली के माध्यम से दूध दिए जाने के सारे प्रयास असफल कर दिए। इस पर काफी सारे पुलिस के लोगों ने उसे दबोच लिया और जबरदस्ती नाली के माध्यम से उसके पेट में दूध डाला गया। दूध पेट में जाने की बजाय फेफड़ों में जाने लगा। इससे जतिन दा की तबियत खराब हो गई। उन्हें निमोनिया हो गया। डॉक्टरों ने उन्हें दवाई देने की कोशिश की तो उन्होंने दवाई भी नहीं ली। दिन-प्रतिदिन जतिन दा, शिव वर्मा व अन्य क्रांतिकारियों की बिगड़ती तबियत एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया था और क्रांतिकारियों को राजनैतिक बंदी मान कर बंदियों के अधिकारों की मांग उठने लगी। लोगों की जोरदार मांग व कांग्रेसियों के आह्वान पर जतिन दा को सशर्त रिहाई के प्रस्ताव को जतिन दा ने सिरे से खारिज कर दिया। 13सितंबर, 1929 को जतिन दास की भूख हड़ताल के 63 दिन हो गए थे। उन्होंने अपने साथियों से एकला चलो रे गाने का अनुरोध किया। विजय सिन्हा व किरन ने आंखों में आंसू लिए गाना गाया। इसी बीच वीर योद्धा जतिन दा ने आखिरी सांस ली। महान शहीद के सम्मान में पंजाब व बंगाल में बड़े प्रदर्शन हुए। उनके पार्थिव शरीर को ट्रेन के माध्यम से कलकत्ता लेकर गए। लाखों लोगों ने उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी। जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में जतीन्द्रनाथ दास की शहादत का जिक्र किया है। कांग्रेस सेवा दल में अपने सहायक रहे जतिन दास को सुभाषचन्द्र बोस ने याद किया। ऐसे वीरों की शहादत की बदौलत ही आज हम आजादी का आनंद ले रहे हैं। लेकिन हम उन वीरों को कितना याद करते हैं। आजादी के लिए उनके योगदान को हम कितना अपने जेहन में रखते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों द्वारा देखे गए शोषण व अन्याय मुक्त समतपूर्ण व न्यायसंगत समाज बनाने का सपना हम कितना साकार कर पाए हैं। ये बड़े सवाल हैं। आजादी प्राप्त करने के बाद ऐसा नहीं है कि उन उद्देश्यों के लिए संघर्ष कम हो गया है। उन कुर्बानियों को याद करते हुए संघर्ष को आगे बढ़ाना ही आज का मुख्य काम है।
DAINIK VEER ARJUN

DAINIK PRAKHAR VIKAS 27-10-2020

Sunday, October 25, 2020

GANESH SHANKAR VIDYARTHI was great jounalist

 हिन्दी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी

साम्प्रदायिक दंगा रोकने के लिए हुए थे शहीद

अरुण कुमार कैहरबा

आज जब चारों ओर पत्रकारिता के मूल्यों के क्षरण की चर्चाएं हो रही हैं। पीत-पत्रकारिता, पेड-न्यूज, फेक न्यूज, टीआरपी केन्द्रित पत्रकारिता और टीआरपी बढ़ाने का गोरखधंधा, हर खबर को सनसनी की तरह पेश करना, आम जन के मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए नए मुद्दे खड़े करके पेश करना सहित अनेक प्रकार की समस्याएं मौजूदा पत्रकारिता के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। ऐसे में हमें पत्रकारिता की उस शख्सियत की रह-रह कर याद आती है, जिसने देश को साम्प्रदायिकता के मुंह में जाने से रोकने के लिए ना केवल कलम चलाई, बल्कि दंगों के बीच में जाकर दंगे रोकने की कोशिश की और शहादत दे दी। जी हां हम गणेश शंकर विद्यार्थी की ही बात कर रहे हैं। विद्यार्थी पत्रकार और संपादक होने के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में आजादी की लड़ाई के सिपाही थे। उन्होंने ‘प्रताप’ अखबार की शुरूआत की थी, जिसने भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की प्रतिभा को मंच प्रदान किया।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्तूबर, 1890 को इलाहाबाद के अतरसुईया मोहल्ले में हुआ था। माता का नाम गोमती देवी था। पिता जय नारायण ग्वालियर रियासत में मुंगावली स्थित ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। यहीं विद्यार्थी की प्रारंभिक शिक्षा हुई। 1907 में प्राईवेट विद्यार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेस पास करके इलाहाबाद के एक कॉलेज में दाखिला लिया। इसी दौरान वे साप्ताहिक कर्मयोगी में पंडित सुंदरलाल के साथ संपादन सहयोग करने लगे। उन्हीं की प्रेरणा से गणेश शंकर ने अपने नाम के साथ विद्यार्थी जोड़ दिया, जो आजीवन जुड़ा रहा। 1911 में विद्यार्थी जी 25 रूपये मासिक वेतन पर साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के सहायक नियुक्त हुए। अपनी लगन, मेहनत व प्रतिभा से विद्यार्थी ने द्विवेदी जी को मुग्ध कर लिया। सरस्वती पत्रिका साहित्यिक थी और विद्यार्थी जी की दिलचस्पी राजनैतिक विषयों में अधिक थी। इसलिए करीब एक वर्ष यहां काम करने के बाद वे 29 दिसंबर, 1912 को मदनमोहन मालवीय के अखबार ‘अभ्युदय’ में चले गए। विद्यार्थी ने निरंतर घाटे में चल रहे अभ्युदय में जान फूंक दी और इसकी पाठक संख्या भी बढऩे लगी। यहां काम करते हुए अभी एक साल भी नहीं बीता था कि अचानक विद्यार्थी जी का स्वास्थ्य खराब हो गया और उन्हें कानपुर जाना पड़ा। कानपुर में माहाशय काशीनाथ अरोड़ा और शिवनारायण मिश्र के साथ उनका बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर विद्यार्थी जी अभ्युदय में इलाहाबाद वापिस नहीं गए। उन्होंने बिना अधिक तैयारी के कानपुर से ही साप्ताहिक अखबार ‘प्रताप’ का संपादन शुरू कर दिया। साप्ताहिक के बाद सात वर्ष बाद 1920 में उसे दैनिक कर दिया। उन्होंने प्रभा नाम की साहित्यिक और राजनैतिक मासिक पत्रिका भी निकाली।
प्रताप निर्भीक व निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए जाना जाने लगा। इसने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई। भगत सिंह ने बलवंत सिंह के नाम से करीब ढ़ाई साल तक पत्रकारिता की। प्रताप क्रांतिकारियों की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण मंच था। यहां पर बहुत से क्रांतिकारियों ने शरण भी हासिल की। विद्यार्थी जी ने भगत सिंह की चंद्रशेखर आजाद के साथ मुलाकात करवाई। इसके बाद शिव वर्मा सहित अनेक क्रांतिकारी जुड़ते चले गए। विद्यार्थी जी ने रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा को जेल से प्राप्त किया और उसे प्रताप के माध्यम से उजागर किया। विद्यार्थी ने बिस्मिल की मां की मदद की। रोशन सिंह की बहन का कन्यादान किया। प्रताप के माध्यम से विद्यार्थी जी ने महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह सहित विभिन्न आंदोलनों को कवर किया। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी व प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी रचनाओं को जन-जन तक पहुंचाया। विद्यार्थी जी ने प्रताप के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत को तो कटघरे में खड़ा करने के साथ-साथ भारतीय सामंतों, जागीरदारों और राजाओं के अत्याचारों पर भी जमकर लिखा। समझौताविहीन लेखनी की वजह से उन्हें पांच बार जेल यात्राएं करनी पड़ी।
विद्यार्थी जी धर्म और राजनीति के मेल के खिलाफ थे। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, अंधराष्ट्रवाद और धर्म-जाति के आधार पर लोगों को आपस में बांटने की तीखी आलोचना की। 27 अक्तूबर, 1924 को विद्यार्थी जी ने प्रताप में धर्म की आड़ नाम से लेख लिखा। इसमें उन्होंने आम लोगों की धर्म की आस्था और स्वार्थी लोगों द्वारा धार्मिक भावनाएं भडक़ा कर अपना उल्लू सीधा करने की सच्चाई को बहुत तार्किक ढ़ंग से समझाया है। उन्होंने लिखा-‘देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं। लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं।..धर्म और ईमान के  नाम पर किए जाने वाले इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग होना चाहिए।..अजां देने, शंख बजाने, नाक दाबने और नमाज पढऩे का नाम धर्म नहीं है।’ जब कानपुर में दंगे भडक़े तो विद्यार्थी जी केवल अखबार में लिखकर ही संतुष्ट नहीं हो गए। दंगों को रोकने के लिए वे दंगाईयों के बीच आ गए। उन्होंने लोगों को समझाया और दंगा रोकने की कोशिश की। लेकिन एक स्थान पर वे खुद दंगे की चपेट में आ गए। भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की शहादत के तीसरे ही दिन 25 मार्च, 1931 को वे शहीद हो गए। गणेश शंकर विद्यार्थी ने कलम और कर्तव्य के लिए शहादत की मिसाल कायम की। आज के कलमकारों के लिए विद्यार्थी जी ही आदर्श होने चाहिएं। ऐसे लोग नहीं जो अपने जरा से स्वार्थ के लिए कलम को गिरवी रख देते हों। आज के अंधराष्ट्रवाद, धर्मांधता और साम्प्रदायिकता के दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी, उनकी लेखनी व कार्य और ज्यादा प्रासंगिक हैं।  


Saturday, October 24, 2020

BOL KABIRA- TU CHALTA HI CHAL



 

SCIENTIFIC AGRICULTURE & PAINTA FESTIVAL

 वैज्ञानिक खेती और समृद्ध संस्कृति का प्रतीक है पैंता उत्सव
PRAVASI SANDESH 25-10-2020

दशहरे पर जहां उत्सवपूर्वक पुतलों का दहन किया जाता है, वहीं कृषक समुदाय कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए पैंता मनाते हुए भूमि-परीक्षण करते हैं। बहनें भाईयों के कानों पर जौं का पौधा रखकर देती हैं रबी की अच्छी फसल की शुभकामनाएं।

अरुण कुमार कैहरबा

हमारे देश में त्योहारों के विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं। एक ही त्योहार अलग-अलग तरीके से मनाए जाने की परंपराएं भी देखने में आती हैं। दशहरा भी उन्हीं में से एक है, जिसे जहां बहुत से लोग उत्सवपूर्वक रावण के पुतले का दहन करके मनाते हैं। वहीं उत्तरी भारत के कृषक समुदाय इस त्योहार को पैंते के रूप में वैज्ञानिक खेती को समर्पित करते हैं। किसान पैंते के रूप में भूमि-परीक्षण करते हैं। दशहरे के अवसर पर किसान परिवारों में परंपरागत ढंग व उल्लास के साथ पैंते का आयोजन करते हैं। पैंता क्षेत्र की कृषि आधारित अर्थ-व्यवस्था और संस्कृति का प्रतीक बन गया है। इस मौके पर बहनों द्वारा अपने किसान भाईयों के कानों पर जौं का पौधा (पैंता) रखकर रबी की अच्छी फसल की शुभकामनाएं दी जाती हैं।

हमारे समाज में त्योहार विभिन्न रीतियों से मनाए जाते हैं। इन त्योहारों का जहां पौराणिक कथाओं से रिश्ता होता है, वहीं देश की संस्कृति और खेती से भी उसका जुड़ाव है। दशहरा भी उन्हीं में से एक है। दशहरा मर्यादापुरूषोत्तम राम द्वारा पाप व घमंड के प्रतीक रावण के वध के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। पूरे देश में ही रावण के पुतले का उत्सवों के साथ दहन किया जाता है और इसे असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक माना जाता है। कुछ स्थानों पर रावण, मेघनाथ और कुंभकरण के विशालकाय पुतलों का निर्माण करवाकर उन्हें जलाया जाता है। इस अवसर पर मेले आयोजित हेाते हैं। पुतलों को जलाए जाने के कारण जहां पर्यावरण प्रदूषित होता है। वहीं इस वर्ष तो कोरोना महामारी के फैलने के खतरों के दृष्टिगत इस तरह के उत्सवों पर प्रश्रचिह्न भी लग गया है। इस पौराणिक कथा के साथ ही हरियाणा ही नहीं समस्त उत्तरी भारत में कृषक समुदायों में नवरात्रे और दशहरा गांवों की जीवन रेखा मानी जाने वाली खेती से भी जुड़ा हुआ है।

खेती बाड़ी से जुड़े समुदायों में दशहरे से जुड़ी पौराणिक कथा की बजाय वैज्ञानिक खेती से जुड़ी परंपरा को ज्यादा तरजीह दी जाती है। इस दिन किसान व खेतीहर मजदूर पैंते का उत्सव मनाते हैं। इस उत्सव की खूबी यह है कि यह उत्सव सादगी के साथ मनाया जाता है। उत्सव के पीछे वैज्ञानिक चेतना काम करती है। यह रबी के सीजन में खेती को दिशा दिखाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस उत्सव से पर्यावरण को फायदा ही होता है। 

पैंता दरअसल जौं के पौधे को कहते हैं। आज कृषि वैज्ञानिकों द्वारा खेती से पूर्व भूमि-परीक्षण की सलाह दी जाती है लेकिन पैंते का त्यौहार भूमि-परीक्षण को परंपरागत रूप से महत्व प्रदान करता है। पैंते की कहानी-परम्परागत तौर पर नवरात्रों से पहले खरीफ की मुख्य फसल धान की कटाई व उठाई सम्पन्न हो जाती है। नवरात्रे के पहले दिन पूजा अर्चना के साथ किसान नई रबी की फसल उगाने की तैयारी करता है। तैयारी के तौर पर इस दिन खेत के सभी कोनों से मिट्टी घर में लाई जाती है। इस मिट्टी में पूरे धार्मिक विधि-विधान के साथ जौं के बीज डाले जाते हैं जिसे गांवों में पैंता उगाना कहा जाता है। पैंता उगाने के बाद किसान हर रोज पैंते की कोंपलें फूटती देखना चाहता है। इसके लिए किसान परिवारों में नवरात्रे के व्रत रखे जाते हैं और पूजा अर्चना की जाती है।

मिट्टी की उर्वरता की जांच की यह बहुत ही पुरानी विधि है। यदि नवरात्रे संपन्न होते-होते पैंते के हरे-भरे पत्ते निकल जाते हैं तो मिट्टी परीक्षण को सफल माना जाता है। दशहरे वाले दिन घर में उगाए गए इस पैंते को विधि-विधान के साथ उखाड़ा जाता है। बहनें इसे किसान भाईयों के कानों पर रखती हैं और रबी की खेती में जुट जाने के लिए तिलक करती हैं। बहनों से आशीर्वाद लेने तथा उसे शगुन के तौर पर दान देने के बाद किसान रबी की मुख्य फसल गेहूं व जौं उगाने में जुट जाते हैं।

घाटे का सौदा होने के कारण लोगों के द्वारा खेती-बाड़ी से किनारा किया जा रहा है लेकिन पैंता लोगों को उन्हें उनकी जड़ों की ओर लेकर जाता है और हमें हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की याद दिलाता है।

HARYANA PRADEEP 26-10-2020

Saturday, October 17, 2020

Ibrahim Alkazi is going to irrigate modern theater with his hard work

 जयंती विशेष

आधुनिक रंगमंच को अपनी मेहनत से सींचने वाले हैं इब्राहिम अल्काज़ी

पहले निदेशक के रूप में एनएसडी को बनाया एशिया का प्रतिष्ठित नाट्य संस्थान

अरुण कुमार कैहरबा

इब्राहिम अल्काज़ी ने भारत में आधुनिक रंगमंच की नींव रखी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली में पहले निदेशक के रूप में उन्होंने रंगमंच का पौधा रोपा और नाटक व सिनेमा की विभिन्न शख्सियतों को अभिनय के गुर सिखाते हुए पौधे को सींचा और विशाल वृक्ष बनाया। बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार अल्काज़ी को उनके योगदान के कारण आधुनिक रंगमंच के पिता होने का गौरव मिला। इसी साल 4 अगस्त को उनका निधन हुआ तो रंगमंच व कलाओं के क्षेत्र में किए गए उनके योगदान को लेकर चर्चाओं का दौर भी चला।

इब्राहम अल्काज़ी का जन्म 18 अगस्त, 1925 को महाराष्ट्र के पुणे शहर में तब हुआ जब देश अंग्रेजी गुलामी के नीचे दबा हुआ था। बचपन में पढ़ते हुए ही उनमें नाटक के प्रति पे्रम पैदा हो गया। मुंबई में सेंट जेवियर कॉलेज में सुल्तान बॉबी पदमसी की थियेटर कंपनी से जुड़ गए। पिता ने रंगमंच के प्रति बेटे का लगाव देखा तो लंदन में विख्यात रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रेमेटिक आर्ट में जाकर पढ़ाई करने का सुझाव दिया। वहीं से 1947 में थियेटर आर्ट की पढ़ाई करके वे भारत आए तो मुंबई में थियेटर गु्रप के साथ जुड़ गए। उस समय की प्रगतिशील शख्सियतों के साथ उनका संपर्क रहा।

1962 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की शुरूआत हुई तो उन्हें विद्यालय का पहला निदेशक बनने का उन्हें गौरव प्राप्त हुआ। 1977 तक 15वर्षों तक वे एनएसडी के निदेशक रहे। अल्काजी ने विद्यालय में विद्यार्थियों के चयन, उनके शिक्षण-प्रशिक्षण और नाटक के लिए देश में माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिल्मी दुनिया के सितारे नसीरूदीन शाह, ओमपुरी व अनुपम खेर सहित अनेक लोगों को अभिनय सिखाया। उन्होंने सिनेमा को प्रशिक्षित कलाकार देकर सिनेमा के आधुनिकीकरण में भी अपनी अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने अनेक नाटकों का निर्देशन और मंचन किया। तुगलक (गिरीश कर्नाड), आषाढ़ का एक दिन (मोहन राकेश), धर्मवीर भारती का अंधा युग जैसे उनके बेहद चर्चित नाटक हैं।

ऑनलाईन सभा में एनएसडी ने दी थी अल्काजी साहब को श्रद्धांजलि

अल्काजी साहब की मृत्यु पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आयोजित ऑनलाइन सभा में एनएसडी के पूर्व निदेशक व अल्काज़ी साहब के छात्र रहे प्रो. रामगोपाल बजाज, एनएसडी के अध्यापक व जानेमाने रंगकर्मी बंसी कौल, एमके रैना, मोहन महर्षि, उनके बेटे फैसल अल्काजी, रोहिणी, विजय कश्यप, बॉबी, एनएसडी की अध्यक्ष अमाल अलाना व निदेशक सुरेश शर्मा सहित अनेक शख्सियतों व उनके विद्यार्थियों ने अल्काज़ी साहब के योगदान को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।

माता-पिता व प्रेयसी की तरह बात करते थे अल्काज़ी-

श्रद्धांजलि सभा में प्रो. रामगोपाल बजाज ने 1962 के वे संस्मरण याद किए जब वे एनएसडी में दाखिले के लिए कलकत्ता में आयोजित ऑडिशन में पहली बार अल्काज़ी साहब से मिले थे। हालांकि उन्हें उनकी पहचान नहीं थी। उन्होंने बताया कि कैलाश कॉलोनी में 1अगस्त, 1962 एनएसडी की पहली कक्षा लगी। चि_ी में अल्काजी लिखा था तो हमने सोचा कि यह कोई महिला हैं। पहली कक्षा अल्काजी साहब ने ली थी। अल्काजी साहब पाठ कर रहे थे और मैं सुन रहा था। उन्होंने बताया कि वे पिता-माता या बिलव्ड की तरह बात करते थे।

हिन्दुस्तान के पहले टीचर, जिनकी हर चीज राईट ऐंगल थी-

बंसी कौल ने बताया कि 1969 में पहली बार अल्काजी साहब को देखा था। जम्मू में आर्ट गैलरी में उन्होंने लैक्चर दिया था। हम लैक्चर को समझ नहीं पाए थे। उन्होंने पहाड़ी पेंटिंग पर भाषण दिया था। कार्यशाला शुरू हुई तो उन्होंने पहली बार एक्सरसाइज करवाई। उन्होंने एक नई दुनिया से हमें जोड़ दिया, जिसमें साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। इससे पहले हम अंशकालिक थियेटर एक्टिविस्ट थे। कौल ने बताया कि अल्काजी हिन्दुस्तान में पहले ऐसे टीचर हैं, जिनकी हर चीज राईट एंगल में होती थी। राईट एंगल डायरेक्टर थे। दुनिया के साथ जोडऩे का जो उन्होंने काम किया, उसे कोई और नहीं कर सकता था। उनकी हर बात हमारे काम आती थी। वे बड़े साफ-सुथरे और व्यवस्थित ढ़ंग से काम करते वे होमवर्क करके आते थे। उनके कार्य को आगे बढ़ाते रहना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा-

सिडनी से सबा जै़दी ने बोलते हुए अल्लामा इकबाल के प्रसिद्ध शेर से अपनी शुरूआत की।
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा।
जै़दी ने कहा कि अल्काजी साहब की शख्सियत अपने दौर के हर एक व्यक्ति को मुतासिर करती है। वे हमारे लिए रोल मॉडल थे। उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। हमें कुछ अलग करना है। सामान्य से अधिक करना है। उन्होंने एनएसडी के मंच को बहुत बेहतर ढ़ंग से इस्तेमाल किया। यदि वे पहले निदेशक नहीं होते तो कला के क्षेत्र में यह स्थिति नहीं होती। उन्होंने सिखाया कि थियेटर एक जीने का तरीका है। उन्होंने हमें थियेटर में पहचान दी।
लास्ट बैच था उनका, जिसमें हम थे। दीक्षांत समारोह में उन्होंने मेरा नाम लिया था। यही बेहतर डिग्री है। हमारे सरों पर हमेशा उनका साया रहेगा। उनकी शख्सियत के लिए यह शेर उपयुक्त है-
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर
लोग मिलते गए और काफिला बनता गया।

डिगनिटी ऑफ लेबर था मूलमंत्र-

एमके रैना ने कहा कि जिस तरह से होमी भाभा व स्वामीनाथन ने अपने-अपने क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया, उसी तरह से अल्काजी साहब ने अपने आप को कला एवं रंगमंच के लिए समर्पित कर दिया। डिगनिटी ऑफ लेबर उनका मूलमंत्र था। उन्होंने बताया कि एनएसडी के बाथरूम व टॉयलट में पानी के पीक थूके होते थे। अल्काजी साहब ने उसे खुद साफ करके विद्यालय कर्मियों व विद्यार्थियों को श्रम की महत्ता सिखाई। वे बहु आयामी शख्सियत थे। मैं उनका विद्यार्थी था। वे जीवन के संकटों पर बात करते थे। एशिया में रैफरंस पाईंट बना एनएसडी, उनकी देन है। गांधी ने कहा था कि कोई फैसला लेते हुए सबसे गरीब व्यक्ति की तरफ देखो। नागालैंड के एक विद्यार्थी के पिता आए तो उन्होंने मुझे उन्हें खाना खिलाने का आदेश दिया। अल्काजी साहब ने कहा कि हमारे व्यवहार से ही लोग हमें याद करेंगे।

जो हूँ अल्काजी साहब की वजह से हूँ-

रोहिणी ने कहा कि मैं जहां हूँ सब अल्काजी साहब की वजह से हूँ। मैंने उनसे करीब दो मिनट से अधिक बात नहीं की। उन्होंने जो करने के लिए कहा वह करते गए।

मां की तरह थे इब्राहिम अल्काज़ी-

केके रैना ने कहा कि ईश्वर के बारे में क्या बोलें और कैसे बोलें। मैं कश्मीर से आया था, वे मां की तरह से थे, जो हर बच्चे का ध्यान रखती है। एक दिन मुझे वे पुस्तकालय में ले गए और किताबें निकालने का तरीका सिखाने लगे। यदि तुम अपने आप को साबित करना चाहते हो तो एनएसडी का नाम ना लेना। उनके नक्शेकदम पर चलेंगे और उनका झंडा हमेशा ऊंचा रखेंगे।

गुरुओं के गुरु थे अल्काज़ी-

विजय कश्यप ने कहा कि सूर्य को प्रकाश दिखाने जैसा है उनके बारे में बोलना। वे गुरुओं के गुरू थे। मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से था। पहले साल में मैं सोच रहा था कि इसे छोड़ कर चला जाऊं। उन्होंने मेेरे कंधे पर हाथ रखा तो आगे बढऩे की राह बताई और उत्साह दिया। बॉबी ने कहा कि हिन्दी क्षेत्र में थियेटर को नीची निगाह से देखा जाता था। उन्होंने रंगमंच और रंगकर्मियों को इज्जत दिलाई।
अरुण कुमार कैहरबा
रंगकर्मी, हिन्दी प्राध्यापक व साहित्यकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

Thursday, October 15, 2020

BOL KABIRA- SACH JHOOTH KI JANG


 

WORLD FOOD DAY / सबको मिले खाद्य सुरक्षा का अधिकार

 विश्व खाद्य दिवस पर विशेष

भूख-गरीबी के विरूद्ध सब खड़े हों

सबको मिले खाद्य सुरक्षा का अधिकार

अरुण कुमार कैहरबा

भोजन जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकता है। भरपेट पौष्टिक भोजन और इसकी सुरक्षा हर मनुष्य का बुनियादी अधिकार है। लेकिन आज तक ना तो गरीबी खत्म हुई है और ना ही भुखमरी। कोरोना महामारी ने इस समस्या को विकराल बना दिया है। रोजगार छिन जाने के कारण लाखों प्रवासी मजदूरों के परिवारों को संकट ने आन घेरा है। यही नहीं विभिन्न प्रकार की कंपनियों और उद्यमों में बहुत से नियमित नौकरी कर रहे लोग भी बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार लॉकडाउन के बाद सिर्फ अप्रैल में ही 12 करोड़ 10 लाख लोगों ने रोजगार से हाथ धोया। लॉकडाउन खत्म होने के बाद इनमें से कुछ लोग रोजगार में वापिस आए। भारत की विकास दर में 23.9प्रतिशत की गिरावट आई है। इसके बावजूद पूंजीपतियों के एक हिस्से की आमदनी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। करोड़ों लोगों की बदहाली के दौर में मुकेश अंबानी की सम्पत्ति अप्रैल से अब तक 35 फीसदी बढ़ गई है। अडानी हवाई अड्डे खरीदने में लगे हुए हैं।

इस सारे परिदृश्य में भारत के भुखमरी और गरीबी सूचकांक के आंकड़ों की बात ना भी करें तो गरीबी और भुखमरी को समझा जा सकता है। किसी भी देश विशेष रूप से लोकतंत्र में सरकारों की जिम्मेदारी लोक कल्याण है। इसके बावजूद यदि लोग भूख और गरीबी की मार झेल रहे हैं तो सरकारों की नीतियों व नियत पर सवाल उठने तो लाजिम हैं। गरीबी और भुखमरी से निपटने के लिए भारत में अनेक प्रकार की योजनाएं बनाई गई हैं। आंगनवाडिय़ों में नन्हें बच्चों और गर्भवती महिलाओं के पोषण के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करने की योजना है। स्कूलों में पहली से आठवीं तक पढ़ रहे बच्चों के लिए मिड-डे-मील योजना चलाई गई है। कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन के ऐसे में समय में जब लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे थे, ऐसे में अध्यापकों व आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने बच्चों के घरों में जाकर खाद्य सामग्री व दूध के पैकेट और कोरोना योद्धा की भूमिका का निर्वहन किया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत लोगों को अनाज, दालें व अन्य खाद्य सामग्री प्रदान की जाती है। लेकिन यह भी सच है कि लॉकडाउन में रोजगार छिन जाने और खाद्य सामग्री खत्म हो जाने के बाद अपने ही देश में प्रवासी बने कितने ही लोगों को दरबदर होना पड़ा। आज तक भी बहुत से परिवारों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। वितरण प्रणाली के तहत यदि ऐसे लाखों लोगों को भोजन सुरक्षा प्रदान की गई होती तो तस्वीर इतनी भयावह नहीं होती। हां, उन स्वयंसेवी संस्थाओं की तारीफ की जानी चाहिए, जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान उजड़े लोगों को भोजन व आश्रय मुहैया करवाने में अग्रणी भूमिका निभाई। कईं स्थानों पर प्रशासन के हाथ-पांव फूले हुए थे। प्रशासन ने सारी जिम्मेदारी इन धार्मिक-सामाजिक संस्थाओं को सौंप कर राहत की सांस ली। महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ने बहुत से लोगों को रोजगार दिया है। कितने ही पढ़े-लिखे लोग जोकि बेरोजगार हो गए थे, उन्हें मनरेगा के तहत शारीरिक श्रम करते हुए देखा जा रहा है। शहरों से गांवों में आए लोग भी मनरेगा के तहत काम करके अपना घर चला रहे हैं। इस योजना को और अधिक विस्तार दिया जाना चाहिए।

तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद देश में बहुत सी आबादी ऐसी है, जिन्हें राशन-कार्ड, मतदाता पहचान-पत्र व आधार कार्ड जैसे प्रमाण-पत्र नहीं होने के कारण किसी सुविधा का लाभ नहीं मिल पाता है। इनमें किसी एक स्थान पर टिक कर नहीं रहने वाली घुमंतु आबादी आबादी है। गांव व शहर की मलिन बस्तियों में वर्षों से रह रहे कितने ही लोगों को आज तक बहुत-सी सरकारी योजनाओं को लाभ नहीं मिल पाता है। बहुत से बच्चे भी किसी आंगनवाड़ी व स्कूल में नहीं जा पाते हैं। रोजी-रोटी का जुगाड़ करने के लिए कितने ही बच्चों को स्कूल छोड़ देना पड़ता है। महामारी के दौरान ऐसे लोगों के लिए वितरण प्रणाली के तहत भोजन सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए थी। आज भी ऐसे लोगों के लिए बेरोक-टोक खाद्य-सामग्री लेने की सुविधा होनी चाहिए।
किसानों-मजदूरों की कड़ी मेहनत से उगाई गई फसलों के कारण अनाज से देश के भंडार भरे हुए हैं। ऐसी प्रचूरता के बीच में अभाव और ज्यादा परेशान करने वाला है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 85 करोड़ 30 लाख लोग भुखमरी का शिकार हैं। अकेले भारत में भूखे लोगों की तादाद लगभग 20 करोड़ से ज्यादा है। जबकि संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट बताती है कि रोजाना भारतीय 244 करोड़ रुपए यानी पूरे साल में करीब 89060 करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद कर देते हैं। इतनी राशि से 20 करोड़ से कहीं ज्यादा पेट भरे जा सकते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा हर दिन भूखा सोने मजबूर है, जिससे हर वर्ष लाखों जान चली जाती हैं। ऐसे में समाज के प्रबुद्ध लोगों और सरकार को मिलकर भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए और जरूरतमंदों तक भोजन पहुंचाने के लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। लैंगिक व जातीय भेदभाव भी भूख का बड़ा कारण है। सम्पन्न परिवारों की महिलाएं भी खून की कमी की शिकार देखी जाती हैं। लड़कियों को दूध पीने से इसलिए मना किया जाता है, क्योंकि वे लड़कियां हैं। चाहे जो भी हर हाथ को काम और हर व्यक्ति को पर्याप्त पौष्टिक भोजन अवश्य मिलना चाहिए। केन्द्र व राज्य सरकारों को इस दिशा में खाद्य सुरक्षा के अधिकार का कानून बनाकर प्रबंध करने चाहिएं।
AAJ SAMAJ 16-10-2020

TARUN MITR 16-10-2020

JAGMARG 16-10-2020
HIMACHAL DASTAK 16-10-2020

DAINIK PRAKHAR VIKAS 16-10-2020



Wednesday, October 14, 2020

White Cane is tool for empowerment of visually impaired persons

 विश्व सफेद छड़ी दिवस पर विशेष

सफेद छड़ी दृष्टिबाधितों की बराबरी और सशक्तिकरण का औजार

अरुण कुमार कैहरबा

मानव अधिकारों की रक्षा और सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए बहुविध उपाय किए जाने की जरूरत है। दृष्टिहीन बच्चों एवं बड़ों की शिक्षा के लिए समय-समय पर शिक्षाविदों एवं पुनर्वास कार्यकर्ताओं द्वारा अनेक प्रकार की प्रयोग किए गए हैं। दृष्टिहीनों की शिक्षा के क्षेत्र में सबसे जरूरी कदम है, उनकी अपने वातावरण में स्वतंत्रता और आत्मविश्वास के साथ चलने की योग्यता। उनके चलन, सुरक्षा, स्वतंत्रता और पहचान के लिए जिस क्रांतिकारी उपकरण का आविष्कार किया गया, वह है-सफेद छड़ी। अंग्रेजी में यह व्हाईट केन के नाम से प्रसिद्ध है। इसे लंबी छड़ी (लोंग केन) भी कहा जाता है। हालांकि छड़ी की लंबाई इसके प्रयोक्ता के कद पर निर्भर करती है लेकिन मोटे तौर पर इसकी लंबाई इसे प्रयोग में लाने वाले व्यक्ति की छाती के बराबर होनी चाहिए। इस छड़ी के मानक स्वरूप को ईजाद करने का श्रेय अमेरिका के पुनर्वास विशेषज्ञ रिचार्ड ई. हूवर को जाता है। उन्होंने लंबे समय तक अथक मेहनत व प्रयोग के बाद छड़ी को अंतिम रूप दिया। यही कारण है कि इस छड़ी को हूवर छड़ी के नाम से भी जाना जाता है। दृष्टिहीन व्यक्ति चलन के दौरान सफेद छड़ी के माध्यम से रास्ते में पड़ी वस्तुओं को पहचान सकता है। वह रास्ते की सतह और आगे आने वाले गड्ढ़ों या अन्य खतरों के बारे में सावधान हो जाता है। यही नहीं सफेद छड़ी से दृष्टिवान व्यक्ति दृष्टिहीन व्यक्ति की पहचान कर लेते हैं। इससे वे रास्ता पार कर रहे दृष्टिहीन महिला/पुरूष की मदद कर सकते हैं और दुर्घटना से बच जाते हैं।

सामान्य-सी लगने वाली सफेद छड़ी अनेक खूबियों से युक्त है। छड़ी के तीन हिस्से हैं: ऊपरी भाग-हत्था, मध्य भाग और नीचे का भाग जो धरती पर टिकता है। छड़ी का हत्था रबड़ से बना होता है, जोकि करंट रोधी है। मध्य भाग एल्यूमीनियम का है, जोकि हल्का होता है। नीचे का प्लास्टिक का भाग जिस भी वस्तु से टकराता है, उसकी सतह का अहसास छड़ी का प्रयोग रहे दृष्टिहीन व्यक्ति को आसानी से होता है। आजकल सफेद छड़ी अनेक प्रकार की उपलब्ध होती है। फोल्डिंग छड़ी को दृष्टिहीन व्यक्ति सुविधा के मुताबिक इस्तेमाल कर सकता है। अपनी खूबियों के कारण ही अधिकतर दृष्टिबाधित व्यक्ति अपने वातावरण में स्वतंत्रता एवं आत्मविश्वास के साथ चलने के लिए इस साधन का ही चुनाव करते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि यह बुनियादी, बहु उपयोगी, सहज उपलब्ध एवं सस्ता साधन है और इसे बहुत ही कम रखरखाव की जरूरत पड़ती है। 1964 में अमेरिका में प्रति वर्ष 15 अक्तूबर को सफेद छड़ी सुरक्षा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। उसके बाद दृष्टिबाधा के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने और सफेद छड़ी के बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से विश्व के अन्य देशों में भी इस दिवस को मनाया जाने लगा।
सदियों से ही दृष्टिहीन व्यक्ति चलन उपकरण के तौर पर छडिय़ों का प्रयोग करते आ रहे हैं लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बाद सफेद छड़ी की परिकल्पना के बाद दृष्टिहीनों के सुविधाजनक चलन में बड़ा बदलाव आया है। सफेद छड़ी के विकास की एक लंबी प्रक्रिया है। इंग्लैंड के शहर ब्रिस्टल में 1921 में जेम्स बिग्स नाम के फोटोग्राफर दुर्घटना के कारण दृष्टिहीन हो जाते हैं। सडक़ों पर ट्रैफिक की बहुलता के कारण उन्हें बहुत अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। वे अन्य लोगों को अपनी उपस्थिति जाहिर करने के लिए अपनी छड़ी पर सफेदी लगा देते हैं। 1931 में फ्रांस में गिल्ली हरबेमाऊंट ने दृष्टिबाधित लोगों के लिए राष्ट्रीय स्तर का सफेद छड़ी आंदोलन चलाया। इसी वर्ष 7 फरवरी को उन्होंने देश के कईं मंत्रियों की उपस्थिति में दृष्टिहीन लोगों को पहली दो सफेद छडिय़ां प्रदान की। बाद में प्रथम विश्व युद्ध में दृष्टिहीन हुए पूर्व सैनिकों व सिविलियनों को करीब पांच हजार सफेद छडिय़ां भेजी गई। अमेरिका में सफेद छड़ी का परिचय करवाने का श्रेय लायंस क्लब इंटरनेशनल के जियोर्ज ए. बोनहम को जाता है। 1930 में लायंस क्लब के सदस्यों ने काले रंग की छड़ी लिए हुए दृष्टिहीन व्यक्तियों को सडक़ पार करते हुए देखा। काली सडक़ पर यह छड़ी ठीक ढ़ंग से दिखाई नहीं देती थी। सदस्यों ने छड़ी को सफेद रंग से रंगने का निर्णय लिया ताकि छड़ी ज्यादा दृश्यमान हो सके। 1931 में लायंस क्लब ने दृष्टिहीन लोगों के प्रयोग के लिए सफेद छड़ी को बढ़ावा देने का कार्यक्रम शुरू किया।
लायंस क्लब द्वारा विकसित की गई लकड़ी की सफेद छड़ी को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1944 में रिचार्ड हूवर ने अपने हाथ में लिया। वे वैली फोर्ज सेना अस्पताल में पुनर्वास विशेषज्ञ के रूप में काम करते थे। वे आँख पर पट्टी बाँध कर छड़ी के साथ अस्पताल में सप्ताह भर तक घूमते रहे। अपनी प्रयोगशीलता से उन्होंने लंबी छड़ी की मौजूदा हूवर विधि इजाद की। वे बेहद कम वजन की लंबी छड़ी तकनीक के पिता माने जाते हैं। इस तकनीक के अनुसार छड़ी को बहुत ही वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रयोग में लाया जाता है। छड़ी को दाहिने हाथ से शरीर के मध्य में पकड़ा जाता है। चलते हुए इसका प्रयोक्ता कलाई का प्रयोग करके इसे दाएँ-बाएँ घुमाता है। दोनों पाँवों के आगे यह छड़ी मार्गदर्शन का काम करती है। ज्यों-ज्यों दायां पाँव आगे जाता है, छड़ी को दायीं तरफ से बाईं तरफ ले जाया जाता है। इसी प्रकार जब बायां पाँव आगे जाता है तो छड़ी दाईं तरफ ले जाई जाती है। चलन अभिविन्यास विशेषज्ञ के द्वारा दृष्टिहीन विद्यार्थी को छड़ी का प्रशिक्षण दिया जाता है। अभ्यास के बाद दृष्टिबाधित बालक व व्यक्ति पूरी स्वतंत्रता व सुरक्षा के साथ चलने-फिरने में सक्षम हो जाते हैं और छड़ी नए रास्तों पर भी मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है। श्वेत छड़ी की महत्ता को देखते हुए श्वेत छड़ी दिवस को दृष्टिबाधितों की समानता व सफलताओं का दिवस भी कहा जाता है।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जि़ला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-94662-20145

DAINIK SWADESH 15-10-2020

DAINIK HAWK 15.10.2020



DAINIK PRAKHAR VIKAS


Saturday, October 3, 2020

Need for social reform movement

 व्यापक समाज सुधार आंदोलन की जरूरत

अरुण कुमार कैहरबा

छेड़छाड़, बलात्कार, गैंग रेप और यौन-शोषण की घटनाएं रूकने का नाम नहीं ले रही हैं। दुष्कर्म की एक से एक दर्दनाक घटनाओं से कईं बार हमारे समाज में हलचल होती है और उसके बाद फिर से समाज अपने ढर्ऱे पर चल पड़ता है और घटनाएं घटित होती रहती हैं। इन घटनाओं पर प्राय: लोगों का तब ध्यान जाता है जब इनके प्रति सरकारी व प्रशासनिक स्तर पर घोर उदासीनता देखने को मिलती है। महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के प्रति पुलिस का रवैया तो आम तौर पर टरकाऊ होता है। कईं बार तो इस तरह के अपराधों के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार माना जाता है। अपराधों पर से ध्यान हटाने का सबसे सुनियोजित तरीका है-पीडि़त पर ही दोषारोपण करना। यूपी के हाथरस जिला के गांव की दलित युवती के साथ कथित तौर पर गैंगरेप, उसकी आवाज को दबाने के लिए उसकी जीभ काटने और रीढ़ की हड्डी तोडऩे की घटना ने समाज की सोई पड़ी संवेदना को झकझोर कर रख दिया है। इस पर पुलिस की कार्रवाई और पीडि़ता के उपचार में बरती गई देरी व ढ़ील के बाद जब पीडि़ता की मौत हो गई तो शव परिजनों को देने की बजाय उनकी अनुपस्थिति में पुलिस द्वारा रात को शव को जला दिए जाने से सरकार व प्रशासन की सोच व कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े हो गए हैं। जाति व धर्म के आधार पर भेदभाव और महिलाओं को खाने-पीने की वस्तु समझने की मानसिकता ने स्थितियों को विकराल बना दिया है। बलात्कार व यौन-शोषण की घटनाओं को रोकने के लिए व्यापक समाज सुधार की प्रक्रिया की जरूरत है। आजादी के बाद यह सुधार आंदोलन मंद पड़ता गया है। मुख्यधारा की राजनीति समाज सुधार के काम से कन्नी काट कर स्वार्थांे व अय्याशियों की गलियों में विचरण कर रही है। प्रशासनिक सेवाओं में आने के लिए परीक्षाओं की वैतरणी पार करना पर्याप्त है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने का प्रश्र समाज सुधार और व्यवस्था परिवर्तन का महत्वपूर्ण व गंभीर प्रश्र है। इस पर निरंतर चिंतन और कार्य करने की जरूरत है।