Tuesday, March 31, 2020

केदारनाथ अग्रवाल की जयंती पर विशेष


प्रगतिशील चेतना से सराबोर केदारनाथ अग्रवाल की कविता

अरुण कुमार कैहरबा
DAINIK ARTH PARKASH 01/04/2020

मानव जीवन और प्रकृति के विविध चित्रों को अपनी कविताओं के माध्यम से उकेरने वाले कवि हैं-केदारनाथ अग्रवाल। उनका काव्य प्रगतिशील चेतना से सराबोर है। लेकिन उनकी प्रगतिशीलता उधार लेकर ओढ़ी हुई नहीं है। उन्होंने अपनी प्रगतिशीलता का सृजन किया है। 
उनकी प्रगतिशीलता उनकी जन्मभूमि की माटी की गंध और रंग लिए हुए है। अपने काव्य-संग्रह अपूर्वा की भूमिका वे खुद कहते हैं- ‘लोग तो प्रगतिशील कविता में केवल राजनीति की चर्चा ही चाहते हैं। वे कविताएं जो प्रेम से, प्रकृति से, आस-पास के आदमियों से, लोक जीवन से, सुंदर दृश्यों से, भू-चित्रों से, यथावत चल रहे व्यवहारों से और इसी तरह की अनेकरूपताओं से विरचित होती हैं, प्रगतिशील नहीं मानी जाती। मेरी प्रगतिशीलता में इन तथाकथित वर्जित विषयों का बहिष्कार नहीं है।’ उनकी प्रगतिशीलता किसी विषय को वर्जित नहीं करती। ना ही किन्हीं विषयों तक सीमित रहती है। वे अपनी आंखों से भरा-पूरा जीवन देखते हैं और उसे जीते हैं। उसे प्रगतिशील दृष्टि से अपनी कवताओं में लेकर आते हैं।
केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1 अप्रैल, 1911 को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के कमासिन गांव में हुआ था। इनके पिताजी हनुमान प्रसाद अग्रवाल स्वयं कवि थे और एक काव्य-संग्रह-‘मधुरिम’ प्रकाशित हुआ था। कमासिन के ग्रामीण परिवेश में रहते हुए उन्होंने पाठशाला में कदम रखा। बाद में उन्होंने अपने चाचा मुकुंदलाल अग्रवाल के की देखरेख में शिक्षा पाई। रायबरेली, कटनी, जबलपुर के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. की। कानपुर से कानूनी शिक्षा ग्रहण करने के बाद बाँदा में वकालत करने लगे। 1975 में अपनी एक कविता ‘वे तीस साल’ में वे अपनी वकालत के बारे में क्षुब्धता कुछ यूं बयां करते हैं-‘कुछ नहीं किया मैंने अदालत में सिवाय बकवास के, मेज और कुर्सी को सुनाए हैं मैंने क़त्ल के कथानक, लोमहर्षक वीभत्स भयानक, बेदर्द पत्थर फ़र्श के, न पसीजे।’ धर्मेन्द्र सिंह के शब्दों में कहें तो-‘वकालत में वह छल-छंदर से दूर थे। इस पेशे में भले ही वह ख़ुद को ‘बे-पेशा’ मानते रहे हों, लेकिन जन-जीवन में चलने बाले सच-झूठ के संघर्ष, न्याय-अन्याय के बीच की मुठभेड़ और उसमें पिसते हुए आम आदमी की कराहती हुई आवाज़ को वह इसी के माध्यम से निकट से सुन सके। इस पेशे ने उन्हें ‘सिस्टम’ को पास से देखने का मौक़ा उपलब्ध कराया। यही वजह है कि व्यवस्था पर सटीक व्यंग कर सकने योग्य जो सटीक भाषा गद्य में श्रीलाल शुक्ल जी ने विकसित की, काव्य में वही भाषा केदारनाथ जी ने की।’
बचपन से ही उनके मन में काव्य का बीजारोपण हो गया था। बाद में उन्होंने हिन्दी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान बनाई। वैसे तो उन्होंने गद्य भी लिखा, लेकिन कवि के रूप में उन्हें अधिक ख्याति मिली। उनके काव्य-संग्रहों में युग की गंगा, फूल नहीं, रंग बोलते हैं, गुलमेंहदी, आग का आईना, पंख और पतवार, हे मेरी तुम, बोलेबोल अबोल, जमुन जल तुम, कहें केदार खरी खरी, मार प्यार की थापें, नींद के बादल आदि प्रमुख हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य को यात्रा संस्मरण-बस्ती खिले गुलाबों की, उपन्यास-पतिया व बैल बाजी मार ले गय ेतथा निबंध संग्रह समय समय पर (1970), विचार बोध (1980) तथा विवेक विवेचन (1980) की देन भी दी। उनकी कईं किताबों का अंग्रेजी, रूसी और जर्मन भाषा में अनुवाद हो चुकी हैं। केदार शोधपीठ की ओर हर साल एक साहित्यकार को लेखनी के लिए केदार सम्मान से सम्मानित किया जाता है। साहित्य में योगदान के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार व साहित्य अकादमी सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
केदारनाथ अग्रवाल ने अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शासन के खिलाफ कलम चलाई तो आजादी के बाद उन्होंने शासन-सत्ताओं के जनविरोध और दमन चक्र के विरूद्ध भी लिखा। उन्होंने साहित्यकार की भूमिका को बेबाकी के साथ निभाया। उनकी कविताओं में स्थानीय चित्र दिखाई देते हैं, लेकिन वह कविता स्थान से चिपकी नहीं रहती, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय हो जाती है। केदार जी की कविताएं यथार्थ से जुड़ी हैं, इसलिए अपने समय को उकेरने वाली महत्वपूर्ण दस्तावेज बनती हैं, लेकिन समय से जुड़ी होने के बावजूद वे कालजयी हो जाती हैं। वे कुदरत के नजारों को बड़ी बारीकी से देखते हैं। एक कविता ‘आज नदी बिलकुल उदास थी’ देखिए-‘आज नदी बिलकुल उदास थी। सोई थी अपने पानी में, उसके दर्पण पर-बादल का वस्त्र पड़ा था। मैंने उसको नहीं जगाया, दबे पांव घर वापस आया।’ उनकी कविताओं में आम आदमी की तरहचने का ठिगना पौधा भी शोभायमान होता है-‘एक बीते के बराबर यह हरा ठिगना चना, बाँधे मुरैठा शीश पर, छोटे गुलाबी फूल का, सज कर खड़ा है।’
उनका आम जन और उसकी क्षमता में गहरा यकीन है। वे कहते हैं- ‘वह जन मारे नहीं मरेगा...जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है, तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है, जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है, जो रवि के रथ का घोड़ा है, वह जन मारे नहीं मरेगा नहीं मरेगा, जो जीवन की आग जला कर आग बना है, फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है, जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है, जो युग के रथ का घोड़ा है, वह जन मारे नहीं मरेगा नहीं मरेगा।’
डॉ. कमला प्रसाद के शब्दों में कहें तो- ‘केदारनाथ अग्रवाल की कविता का स्वभाव हिन्दुस्तान की काव्य-परंपरा से जुड़ा हुआ है। परंपरा अर्थात विचार, भावबोध, भाषा तथा बिंब आदि सबकी परंपराओं में उसकी संगति है। उनकी कविता हृदय से निकलती है।’


अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक,
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145


No comments:

Post a Comment