Tuesday, March 31, 2020

केदारनाथ अग्रवाल की जयंती पर विशेष


प्रगतिशील चेतना से सराबोर केदारनाथ अग्रवाल की कविता

अरुण कुमार कैहरबा
DAINIK ARTH PARKASH 01/04/2020

मानव जीवन और प्रकृति के विविध चित्रों को अपनी कविताओं के माध्यम से उकेरने वाले कवि हैं-केदारनाथ अग्रवाल। उनका काव्य प्रगतिशील चेतना से सराबोर है। लेकिन उनकी प्रगतिशीलता उधार लेकर ओढ़ी हुई नहीं है। उन्होंने अपनी प्रगतिशीलता का सृजन किया है। 
उनकी प्रगतिशीलता उनकी जन्मभूमि की माटी की गंध और रंग लिए हुए है। अपने काव्य-संग्रह अपूर्वा की भूमिका वे खुद कहते हैं- ‘लोग तो प्रगतिशील कविता में केवल राजनीति की चर्चा ही चाहते हैं। वे कविताएं जो प्रेम से, प्रकृति से, आस-पास के आदमियों से, लोक जीवन से, सुंदर दृश्यों से, भू-चित्रों से, यथावत चल रहे व्यवहारों से और इसी तरह की अनेकरूपताओं से विरचित होती हैं, प्रगतिशील नहीं मानी जाती। मेरी प्रगतिशीलता में इन तथाकथित वर्जित विषयों का बहिष्कार नहीं है।’ उनकी प्रगतिशीलता किसी विषय को वर्जित नहीं करती। ना ही किन्हीं विषयों तक सीमित रहती है। वे अपनी आंखों से भरा-पूरा जीवन देखते हैं और उसे जीते हैं। उसे प्रगतिशील दृष्टि से अपनी कवताओं में लेकर आते हैं।
केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1 अप्रैल, 1911 को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के कमासिन गांव में हुआ था। इनके पिताजी हनुमान प्रसाद अग्रवाल स्वयं कवि थे और एक काव्य-संग्रह-‘मधुरिम’ प्रकाशित हुआ था। कमासिन के ग्रामीण परिवेश में रहते हुए उन्होंने पाठशाला में कदम रखा। बाद में उन्होंने अपने चाचा मुकुंदलाल अग्रवाल के की देखरेख में शिक्षा पाई। रायबरेली, कटनी, जबलपुर के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. की। कानपुर से कानूनी शिक्षा ग्रहण करने के बाद बाँदा में वकालत करने लगे। 1975 में अपनी एक कविता ‘वे तीस साल’ में वे अपनी वकालत के बारे में क्षुब्धता कुछ यूं बयां करते हैं-‘कुछ नहीं किया मैंने अदालत में सिवाय बकवास के, मेज और कुर्सी को सुनाए हैं मैंने क़त्ल के कथानक, लोमहर्षक वीभत्स भयानक, बेदर्द पत्थर फ़र्श के, न पसीजे।’ धर्मेन्द्र सिंह के शब्दों में कहें तो-‘वकालत में वह छल-छंदर से दूर थे। इस पेशे में भले ही वह ख़ुद को ‘बे-पेशा’ मानते रहे हों, लेकिन जन-जीवन में चलने बाले सच-झूठ के संघर्ष, न्याय-अन्याय के बीच की मुठभेड़ और उसमें पिसते हुए आम आदमी की कराहती हुई आवाज़ को वह इसी के माध्यम से निकट से सुन सके। इस पेशे ने उन्हें ‘सिस्टम’ को पास से देखने का मौक़ा उपलब्ध कराया। यही वजह है कि व्यवस्था पर सटीक व्यंग कर सकने योग्य जो सटीक भाषा गद्य में श्रीलाल शुक्ल जी ने विकसित की, काव्य में वही भाषा केदारनाथ जी ने की।’
बचपन से ही उनके मन में काव्य का बीजारोपण हो गया था। बाद में उन्होंने हिन्दी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान बनाई। वैसे तो उन्होंने गद्य भी लिखा, लेकिन कवि के रूप में उन्हें अधिक ख्याति मिली। उनके काव्य-संग्रहों में युग की गंगा, फूल नहीं, रंग बोलते हैं, गुलमेंहदी, आग का आईना, पंख और पतवार, हे मेरी तुम, बोलेबोल अबोल, जमुन जल तुम, कहें केदार खरी खरी, मार प्यार की थापें, नींद के बादल आदि प्रमुख हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य को यात्रा संस्मरण-बस्ती खिले गुलाबों की, उपन्यास-पतिया व बैल बाजी मार ले गय ेतथा निबंध संग्रह समय समय पर (1970), विचार बोध (1980) तथा विवेक विवेचन (1980) की देन भी दी। उनकी कईं किताबों का अंग्रेजी, रूसी और जर्मन भाषा में अनुवाद हो चुकी हैं। केदार शोधपीठ की ओर हर साल एक साहित्यकार को लेखनी के लिए केदार सम्मान से सम्मानित किया जाता है। साहित्य में योगदान के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार व साहित्य अकादमी सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
केदारनाथ अग्रवाल ने अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शासन के खिलाफ कलम चलाई तो आजादी के बाद उन्होंने शासन-सत्ताओं के जनविरोध और दमन चक्र के विरूद्ध भी लिखा। उन्होंने साहित्यकार की भूमिका को बेबाकी के साथ निभाया। उनकी कविताओं में स्थानीय चित्र दिखाई देते हैं, लेकिन वह कविता स्थान से चिपकी नहीं रहती, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय हो जाती है। केदार जी की कविताएं यथार्थ से जुड़ी हैं, इसलिए अपने समय को उकेरने वाली महत्वपूर्ण दस्तावेज बनती हैं, लेकिन समय से जुड़ी होने के बावजूद वे कालजयी हो जाती हैं। वे कुदरत के नजारों को बड़ी बारीकी से देखते हैं। एक कविता ‘आज नदी बिलकुल उदास थी’ देखिए-‘आज नदी बिलकुल उदास थी। सोई थी अपने पानी में, उसके दर्पण पर-बादल का वस्त्र पड़ा था। मैंने उसको नहीं जगाया, दबे पांव घर वापस आया।’ उनकी कविताओं में आम आदमी की तरहचने का ठिगना पौधा भी शोभायमान होता है-‘एक बीते के बराबर यह हरा ठिगना चना, बाँधे मुरैठा शीश पर, छोटे गुलाबी फूल का, सज कर खड़ा है।’
उनका आम जन और उसकी क्षमता में गहरा यकीन है। वे कहते हैं- ‘वह जन मारे नहीं मरेगा...जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है, तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है, जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है, जो रवि के रथ का घोड़ा है, वह जन मारे नहीं मरेगा नहीं मरेगा, जो जीवन की आग जला कर आग बना है, फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है, जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है, जो युग के रथ का घोड़ा है, वह जन मारे नहीं मरेगा नहीं मरेगा।’
डॉ. कमला प्रसाद के शब्दों में कहें तो- ‘केदारनाथ अग्रवाल की कविता का स्वभाव हिन्दुस्तान की काव्य-परंपरा से जुड़ा हुआ है। परंपरा अर्थात विचार, भावबोध, भाषा तथा बिंब आदि सबकी परंपराओं में उसकी संगति है। उनकी कविता हृदय से निकलती है।’


अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक,
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145


AWARENESS SONG ON CORONA VIRUS PUBLISHED

PUBLISHED IN AJIT SAMACHAR ON 31-3-2020

Sunday, March 29, 2020

कवि भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती (29 मार्च) पर विशेष लेख

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख..

सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सहज लेखन के धनी भवानी प्रसाद मिश्र

अरुण कुमार कैहरबा
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख 
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।
इन पंक्तियों के रचनाकार भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी साहित्य में सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सहज लेखन के लिए जाने जाते हैं। साहित्य में वादों-विवादों से अलग वे नई राह बनाते हुए दिखाई देते हैं। वे देश के उन रचनाकारों में शुमार हैं, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। इसके लिए उन्हें जेल की यात्रा करनी पड़ी। महात्मा गांधी का असर अन्य अनेक रचनाकारों की तरह भवानी प्रसाद पर भी पड़ा था। उनकी रचनाओं की सहज लय को गांधी की चरखे की लय से जोड़ा जाता है। इसलिए उन्हें कविता का गांधी भी कहा जाता है।
भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च, 1913 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद के गांव टिगरिया में हुआ। पिता सीताराम मिश्र साहित्यिक रूचि के व्यक्ति थे। अपनी मां के बारे में उन्होंने स्वयं लिखा है- और मां बिन-पढ़ी मेरी, दुख में वह गढ़ी मेरी, मां कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर। भवानी बाबू ने पिता से साहित्यिक अभिरूचि और माता गोमती देवी से संवेदनशील दृष्टि प्राप्त की। उन्होंने बीए तक की शिक्षा ग्रहण की। गांधी जी के विचारों से प्रेरित होने के कारण उन्होंने पाठशाला खोली। राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी करने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। लेकिन उनकी लेखनी ना तो जेल के बाहर रूकी थी, ना जेल में जाने के बाद। जेल में रहते हुए उन्होंने घर की याद कविता लिखी, जिसमें उन्होंने अपने माता-पिता, चार भाई, चार भाईयों का स्मरण किया है। कविता में भवानी की मां पिता से कह रही है-‘गया है सो ठीक ही है, वह तुम्हारी लीक ही है। पांव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता।’ कविता में सावन के माध्यम से कवि अपने माता-पिता को संदेश भेजता है। घर में पढऩे-लिखने का माहौल था, सो कविताएं लिखने लगे। इसी तरह से बचपन से ही वे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गए।
दैनिक अर्थ प्रकाश 29/03/2020

1932 में मिश्र जी पुष्प की अभिलाषा लिखने वाले माखन लाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण 1942 में जेल में जाना पड़ा। 1945 में जेल से छूटने के बाद वर्धा आश्रम में 4-5 साल तक शिक्षक के रूप में कार्य किया। कुछ समय राष्ट्रभाषा प्रचार का काम किया। बेरोजगारी से निजात पाने के लिए फिल्मों के लिए लिखा। उन्होंने रेडियो में काम किया और रेडियो बायोग्राफी ऑफ गांधी का निर्देशन किया। संपूर्ण गांधी वांगमय का संपादन किया। कुछ समय गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका-गांधी मार्ग, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की पत्रिका गगनांचल और कल्पना पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
अपनी सहजता के बारे में मिश्र जी का ही वक्तव्य है-‘छोटी सी जगह में रहता था, छोटी सी नदी नर्मदा के किनारे, छोटे से पहाड़ विंध्याचल के आंचल में छोटे-छोटे लोगों के बीच एकदम अविचित्र मेरे जीवन की कथा है।’ यही सहजता ही उनके व्यक्तित्व और लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है। सहजता उनकी जीवन साधना और काव्य-साधना के केन्द्र में है। सहजता-साधन भी है और साध्य भी। लंबे समय तक हैदराबाद, बंबई, दिल्ली जैसे शहरों में रहने के बावजूद वे शहरी नहीं हुए, गांव उनके भीतर बसा रहा। उन्होंने लिखा है- चतुर मुझे कुछ भी नहीं भाया, न औरत न आदमी न कविता। यह सहजता उनकी कथन की सादगी में दिखाई देती है। उनकी कविताओं में बोलचाल के गद्यात्मक-से लगते वाक्य विन्यास को भी कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है।
भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा सप्तक के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह- ‘गीत फरोश’ 1956 में प्रकाशित हुआ। उसमें 68 कविताएं हैं। संग्रह की अंतिम कविता गीत फरोश कवियों की व्यवसायिक प्रवृत्ति पर कटाक्ष है। वे कहते हैं-‘जी हां हुजूर मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ। यह गीत जरा सूने में लिक्खा था, यह गीत वहां पूने में लिखा था। यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है, यह गीत बढ़ाए बढ़ जाता है, यह गीत भूख और प्यास जगाता है, यह गीत मसान में भूख जगाता है।’
उनका दूसरा काव्य-‘संग्रह चकित है दुख’ है, जिसमें 65 कविताएं हैं। इस संग्रह को कवि ने कमाया हुआ सत्य बताया है। इस संग्रह की कविता में प्रेम का चित्रण देखिए-‘इस एकाकार शून्य में तुमभर दिखती हो, गिरस्ती सेमेटे बचाए कुंकुम, जलते हुए भाल पर।’
मिश्र के अन्य काव्य-संग्रह-अंधेरी कविताएं, गांधी पंचशती, बुनी हुई रस्सी (1971), खुश्बू के शिलालेख, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, अनाम तुम आते हो, इदं न मम, त्रिकाल संध्या, शरीर कविता फसले व फूल, मानसरोवर दिन, कालजयी (प्रबंध काव्य), संप्रति, नीली रेखा तक, तूस की आग आदि हैं। जिन्होंने मुझे रचना और कुछ  नीति कुछ राजनीति उनके गद्य संग्रह हैं।
मिश्र जी की कविता का आधार फलक बहुत विस्तृत है। वे जीवन के वैविध्य को लेकर चलते हैं। वे सामान्य जन के दुख-दर्द के साथ-साथ आशा-आकांक्षा को भी अभिव्यक्ति देते हैं। वे अपने समय के काव्यांदोलनों व विचारधाराओं की संकीर्णताओं से मुक्त होकर आगे बढ़ते हैं। उनके काव्य में भारतीय चिंतन की निरंतरता देखने को मिलती है। मानवीय संवेदना उनके काव्य का उत्स है। भवानी जी का काव्य यथार्थ की भूमि पर गहरी संवेदना व समझ का प्रमाण देता है। वे आज के मानव को जगाना चाहते हैं। उनकी इसे जगाओ शीर्षक कविता से उदाहरण देखिए-
‘भई, सूरज, जरा इस आदमी को जगाओ, भई पवन, जरा इस आदमी को हिलाओ, यह आदमी को जो सोया पड़ा है, जो सच से बेखबर सपनों में खोया पड़ा है, भई पंछी इसके कानों पर चिल्लाओ।’
उन्होंने लिखने-पढऩे को आगे बढऩे का पैमाना माना- 
‘कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो। 
जिस जगह जागा सवेरे, उस जग से बढ़ के सो।’
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक,
वार्ड नं-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145

Saturday, March 28, 2020

हरियाणा सृजन यात्रा-वृत्तांत

प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत से जुडऩे की मुहिम

देस हरियाणा और सत्यशोधक फाउंडेशन की पहल

ये रहे सृजन यात्रा के पड़ाव-


पानीपत में प्रख्यात शायर हाली पानीपती, रेवाड़ी के गांव गुडिय़ानी में बालमुकुंद गुप्त की हवेली, झज्झर जिला के गांव छुड़ानी में संत गरीबदास के धाम और हांसी में चार कुतुब में सूफी कवि बाबा फरीद की साधना स्थली
अरुण कुमार कैहरबा
घुमक्कड़ी एक बेहतरीन शौक है। यात्रा समाज को कूएं का मेंढक़ बनने के विरूद्ध किया गया शंखनाद है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना केवल यात्रियों को ही लाभान्वित नहीं करता, बल्कि ज्ञान के प्रसार के जरिये पूरे समाज को लाभ पहुंचाता है। हमारे समाज में तीर्थ यात्राएं, साहसिक यात्राएं, प्राकृतिक सहित अनेक प्रकार की यात्राएं निकाली जाती हैं। कितने ही लोगों ने यात्राओं के जरिये समाज को अनेक प्रकार की देन दी है। साहित्य में यात्रा साहित्य की एक पूरी धारा है। हिन्दी साहित्य में राहुल सांकत्यायन ने तो पूरा घुमक्कड़शास्त्र रच कर घुमक्कड़ी को प्रतिष्ठित किया। इधर साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद शुष्क माने जाने वाले प्रदेश हरियाणा से एक नए प्रकार की यात्रा की धमक सुनाई दी। देस हरियाणा और सत्यशोधक फाउंडेशन ने इसका आगाज किया। हरियाणा सृजन यात्रा नाम की इस यात्रा में हरियाणा की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत की खोज करने का सार्थक प्रयास किया गया। यात्रा साहित्य, सृजन, विचार-विमर्श पर केन्द्रित थी। सृजन यात्रा में प्रदेश भर के 18 रचनाकारों व कलाकारों ने हरियाणा की चार नामचीन साहित्यिक शख्सियतों-प्रख्यात शायर मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली, प्रसिद्ध पत्रकार, संपादक व साहित्यकार बाबू बालमुकुंद गुप्त, कबीर परंपरा के संत कवि गरीबदास और सूफी कवि बाबा फरीद से जुड़े स्थानों का भ्रमण किया। उनकी स्मृतियों से जुड़े स्थानों व वस्तुओं को करीब से देखा। उनकी साहित्यिक विरासत को जानने के लिए संगोष्ठियां आयोजित करके उन पर गहरा अध्ययन-मंथन किया। यात्रा में सृजन यात्रियों का जोश व उत्साह देखते ही बनता था। विभिन्न स्थानों पर यात्रा के स्वागत और संगोष्ठियों में शिरकत के जरिये प्रदेश के सैंकड़ों साहित्यकार सृजन यात्रा से जुड़े।
PUBLISHED IN DAINIK TRIBUNE ON 29-03-2020
हरियाणा सृजन यात्रा के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर व देस हरियाणा के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र की अगुवाई में रचनाकार 29 फरवरी को कुरुक्षेत्र में इक_ा हुए। इनमें पंचकूला से लोक संस्कृति लेखक सुरेन्द्र पाल सिंह, कुरुक्षेत्र से सत्यशोधक फाउंडेशन की प्रबंधक विपुला सैनी, शोधार्थी अंजू, विकास साल्यान, ब्रजपाल, हिसार से कवि राज कुमार जांगड़ा, इन्द्री कस्बे से कवि दयालचंद जास्ट, शायर मंजीत भोला, टोहाना से सामाजिक कार्यकर्ता बलवान सत्यार्थी, विक्रम वीरू, कॉलेज अध्यापक राजेश कासनिया, कवि कपिल भारद्वाज, योगेश शर्मा, नरेश दहिया और लेखक अरुण कैहरबा स्वयं शामिल थे।
कुरुक्षेत्र में शहीद उधम सिंह मूर्ति पर सृजन यात्रियों ने  श्रद्धांजलि अर्पित की। समाजशास्त्री प्रो. टी.आर. कुुंडू, कवि ओमप्रकाश करुणेश व डॉ. विजय विद्यार्थी आदि रचनाकारों ने सृजन यात्रियों को फूलमालाएं डाल कर विदाई दी और यात्रा के लिए शुभकामनाएं दी। करनाल में लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया की अगुवाई में साहित्यकारों ने सृजन यात्रा का जोरदार स्वागत किया। यहीं से डॉ. भाटिया भी यात्रा का हिस्सा बन गए। घरौंडा में पंजाबी अध्यापक नरेश सैनी यात्रा में शामिल हुए। सृजन यात्रा का पहला मुख्य पड़ाव हाली पानीपती के नाम से प्रसिद्ध मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली की पानीपत स्थित मज़ार रही।
हाली की मजार सूफी हजरत बू अली शाह कलंदर की दरगाह के प्रांगण में ही बनाई गई हैं। हाली पानीपती उर्दू शायरी का बहुत मकबूल नाम है। उन्हें उर्दू-फारसी शायरी के बेताज बादशाह मिजऱ्ा गालिब की शागिर्दि करने का मौका मिला। गालिब के इंतकाल के बाद हाली ने यादगारे गालिब ग्रंथ लिख कर अपने उस्ताद का नाम भी चमकाया और खुद भी प्रसिद्धि हासिल की। हाली से पहले शायरी में अक्सर हुस्नो-इश्क और अमीर-उमरा की चापलूसी भरी पड़ी थी। उन्होंने शायरी को नई राह दिखाई। उन्होंने अपने साहित्य में जनभाषा का प्रयोग किया। उनके लेखन में पानीपती व ब्रज भाषा का प्रयोग होता था तो उस समय के साहित्यकार उनका उपहास उड़ाते थे। उस समय इसका उत्तर हाली ने इस तरह दिया था- हाली को बदनाम किया उसके वतन ने, पर आपने बदनाम किया अपने वतन को। हाली ने - हुब्बे वतन (देश प्रेम), चुप की दाद, बरखा रूत व निशाते उम्मीद सहित अनेक प्रसिद्ध नज्में  दी हैं। उनकी नज्म मुसद्दस-ए-हाली को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की भारत-भारती की प्रेरणा मानी जाती है। इसके अलावा हाली ने संयुक्त पंजाब में लड़कियों के लिए पहला स्कूल पानीपत में खोला। यहीं पर उनकी बेटी ने भी शिक्षा प्राप्त की। हाली ने महिलाओं के हको-हुकूक की आवाज को अपनी रचनाओं में बुलंद किया। उन्होंने अपनी नज़्म चुप की दाद में लिखा-ऐ मांओ बहनों बोटियों, दुनिया की ज़ीनत तुम से है, मुल्कों की बस्ती हो तुम्हीं, कौमों की इज्ज़त तुमसे है। हाली साम्प्रदायिक सौहाद्र्र और भाईचारे के पक्षधर थे। हुब्बे वतन में उन्होंने लिखा-तुम अगर चाहते हो मुल्क की खैर। न समझो किसी हम वतन को गैर।
हाली पानीपती ट्रस्ट के महासचिव राम मोहन राय, लेखक रमेश चन्द्र पुहाल पानीपती, डॉ. शंकर लाल, सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र छोक्कर, शिक्षा अधिकारी सरोजबाला गुर, भगत सिंह से दोस्ती मंच के जिला संयोजक दीपक कथूरिया, पायल, सुनीता आनंद, मुख्याध्यापिका प्रिया लूथरा सहित अनेक रचनाकारों ने सृजन यात्रा का स्वागत किया। सभी ने बू अली शाह कलंदर और हाली की मज़ार पर चादर चढ़ाई। संगोष्ठी में रमेश चन्द्र पुहाल की पुस्तक यादगारे हाली पानीपती का विमोचन किया गया। हाली की विरासत विषय पर संगोष्ठी में वक्ताओं ने उर्दू शायरी व शिक्षा में हाली के योगदान को रेखांकित किया। सृजन यात्रा के अगुवा डॉ. सुभाष चन्द्र ने कहा कि सृजन यात्रा सिखाने की बजाय सीखने के लिए है। हरियाणा की सांस्कृतिक विरासत बहुत समृद्ध है, इससे सभी को सीखने की जरूरत है।
रिमझिम बरसात में सृजन यात्री अगले सफर के लिए रवाना हुए। अगला लघु पड़ाव रोहतक था। यहां पर संस्कृतिकर्मी अविनाश सैनी, डॉ. रणबीर दहिया, डॉ. संतोष मुद्गिल, डॉ. राजेन्द्र सिंह सहित साथियों ने यात्रियों का फूलमालाओं के साथ स्वागत किया। इसके बाद शाम को देश के जाने-माने पत्रकार, संपादक व साहित्यकार बाबू बालमुकुंद गुप्त के जन्मस्थान रेवाड़ी जिला के गुडिय़ानी गांव में यात्रा पहुंची तो बरसात की रिमझिम बूंदें यहां भी यात्रा का स्वागत कर रही थी।
14 नवंबर 1865 को गुडिय़ानी में जन्मे बाबू बालमुकुंद गुप्त के उस घर को देखना सृजन यात्रा टीम के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं था। गुप्त जी की वह हवेली देखने का जोश ही था कि शाम के बढ़ते अंधेरे व बरसात के बावजूद पूरी टीम आगे बढ़े जा रही थी। हवेली पर पहुंचे तो बालमुकुंद गुप्त ट्रस्ट व पत्रकारिता एवं साहित्य परिषद सहित विभिन्न संस्थाओं के पदाधिकारियों व साहित्यकारों ने यहां भव्य आयोजन की तैयारियां कर रखी थी। हवेली के बीचों-बीच खुले आंगन में बैनर लगाए गए थे। मैट बिछाकर कुर्सियां लगा रखी थी। अंधेरा घिर आया था। वर्षा की रिमझिम हो रही थी। गुप्त जी की हवेली के आंगन में बरसात के बीच ही साहित्यकारों ने फूलमालाओं के साथ यात्रियों का स्वागत किया। देस हरियाणा के बालमुकुंद गुप्त विशेषांक का विमोचन किया गया। बरसात और अंधेरे के कारण यहां का कार्यक्रम संक्षिप्त रहा। इसके बाद गुडिय़ानी में ही स्थित न्यू इरा पब्लिक स्कूल में संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का संचालन साहित्यकार सत्यवीर नाहडिय़ा ने किया और अध्यक्षता जिला शिक्षा अधिकारी एवं कवि राजेश कुमार ने की। प्रो. सुभाष चन्द्र, डॉ. अमित मनोज व डॉ. सिद्धार्थ शंकर राय ने बाबू बालमुकुंद गुप्त की विरासत पर प्रकाश डाला। विपिन सुनेजा, मुकुट अग्रवाल, अंजू, ब्रजपाल, योगेश शर्मा ने गुप्त जी की रचनाएं सुनाई। परिषद के संरक्षक नरेश चौहान व ऋषि सिंहल ने आए अतिथियों का आभार व्यक्त किया। स्कूल में ही रात्रि ठहराव हुआ। लेकिन बालमुकुंद गुप्त की हवेली देखने की इच्छा सभी के मन में थी। सुबह उठते ही सभी निकल गए हवेली देखने।
पता चला कि कभी बालमुकुंद गुप्त ट्रस्ट का कार्यालय यहीं पर चलता था, जोकि अब रेवाड़ी में चला गया है। गुप्त जी के वंशज कोलकाता में रहते हैं। हवेली में बालमुकुंद और उनके पिता जी का चित्र लगा है। यहां पर उनकी वह अलमारी भी रखी है, जिसमें कभी वे अपनी किताबें रखते होंगे। उनके लिखने की संदूक नुमा मेज भी रखी है। लेकिन ये सभी चीजें पूरी तरह उपेक्षित हैं। दो-मंजिला हवेली देखने पर भी लगा जैसे कईं दिनों से हवेली की सफाई तक नहीं की गई है। जिन बालमुकुंद गुप्त के नाम पर हरियाणा साहित्य अकादमी हर साल पुरस्कार देती है और हरियाणा ही नहीं देश भर में अपनी लेखनी के लिए जाने जाते हैं, उनकी हवेली की यह उपेक्षा अंदर तक हिला गई। भारतमित्र अखबार के संपादक बालमुकुंद गुप्त अंग्रेजी सरकार के दमन के खिलाफ आग उगलते थे। अपने शिवशंभु के चिट्टे शीर्षक व्यंगय में उन्होंने अंग्रेजी शासन के आकाओं की तानाशाही व स्वेच्छाचारिता पर जमकर कलम चलाई। गुप्त जी हिन्दी भाषा के स्वरूप निर्माण के स्तम्भ हैं। उन्होंने हिन्दी भाषा के स्वरूप, राजकाज की भाषा, लिपि संबंधी समस्याओं पर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान होने वाली बहसों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। वे भारतीय नवजागरण के आधार स्तंभों में से एक हैं। अंग्रेजी शासन के जुल्मो-सितम पर उन्होंने कहा था-
आज का सारा परिवेश वह परिवेश है, जिसमें कोई भी देश अपमान और पतन के कष्टों को भोगने के लिए विवश होता है। परंतु इस अमावस्या में भी साहित्यकार रूपी दीपक अपनी ज्योति फैलाकर इस अपमान से मुक्ति दिलाने में अत्यधिक समर्थ सिद्ध होता है।
उनके जन्मदिन व पुण्य-तिथियों पर फूलमालाएं चढ़ाकर रस्म तो जरूर पूरी की जाती होगी। लेकिन उनकी विरासत को संजोने की तरफ किसी भी सरकार का आज तक ध्यान नहीं गया, यह देखकर सभी दुखी हुए।
सुबह सृजन यात्रियों ने गांव के पास ही स्थित पहाड़ी का भ्रमण किया, जहां पर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 114 लोगों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। वहां पर एक पत्थर पर ये पंक्तियां लिखी हैं-
हमारा खून भी शामिल है तजईने गुलिस्तां में,
हमें भी याद कर लेना चमन में जब बहार आए।
ये पंक्तियां कितने ही अनाम शहीदों की शहादत पर सोचने को मजबूर करती हैं। क्या अब हमें उन शहीदों को याद करने फुर्सत है, जिन्होंने देश के लिए हंसते-हंसते प्राणों की आहुति दे दी। क्या गुडिय़ानी व आस-पास के 114 शहीदों के बारे में स्कूलों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। आखिर क्यों नहीं ये शहादतें व ऐसे स्थान शैक्षिक भ्रमण का हिस्सा बनते। शहीदों के स्मारक की स्थिति अत्यंत खराब है। यही नहीं स्मारक तक जाने का कोई रास्ता भी नहीं है। सभी ने उन अनाम क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि अर्पित की।
झज्झर जिला के गांव छुड़ानी में संत गरीबदास धाम।
छुड़ानी धाम के महंत दयासागर जी सृजन-यात्रा टीम को किताबें भेंट करते हुए।
संत गरीबदास के मूल वस्त्र व पगड़ी।
नाश्ता करने और साथियों से विदाई लेने के बाद एक मार्च को सृजन यात्रा का अगला पड़ाव झज्झर जिला का गांव छुड़ानी था। छुड़ानी में संत गरीबदास का धाम है। कबीर परंपरा के संत गरीबदास ने अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक बुराईयों का विरोध किया और साम्प्रदायिक सद्भाव व भाईचारे की पक्षधरता की। धार्मिक पाखंडों व अंधविश्वासों के खिलाफ तंज कसे। यहां पर संत गरीबदास की विरासत को देखते हुए धाम के महंत दयासागर जी के साथ भेंट की। संत दयासागर ने देस हरियाणा के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र व साथियों को कुछ किताबें भी भेंट की।
इसके बाद सृजन यात्रा का अगला महत्वपूर्ण पड़ाव हांसी शहर में स्थित चार कुतुब था। इसका चार कुतुब नाम-चार सूफी संतों के नाम पर रखा गया है। यहां पर उनकी दरगाह भी है। यही वह स्थान है, जहां पर सूफी कवि बाबा फरीद ने लगातार 12 साल चिंतन-मनन व साहित्य साधना की थी। यहां पर चार कुतुब की देखरेख कर रहे चांद मियां जमाली ने बताया कि भारत में हांसी एकमात्र स्थान है, जहां पर एक ही गुंबद के नीचे चार कुतुब हैं। बाबा  फरीद के शिष्यों में शेख कुतुब जमालुद्दीन हांसवी साहब हुए, जिनकी दरगाह चार कुतुब में ही स्थित है। इसके अलावा शेख कुतुब बुरहानुद्दीन, शेख कुतुब मुनव्वरूद्दीन और नुरूद्दीन के कुतुब इसी चार कुतुब में ही हैं। हांसी में साहित्य साधना करने वाले महान सूफी संत हज़रत ख्वाजा फरीदुद्दीन गंजशकर को लोग बाबा फरीद के नाम से जानते हैं। महान सूफी निजामुद्दीन औलिया (दरगाह दिल्ली में है) और साबिर साहब (दरगाह उत्तराखंड में है) उनके चेले हुए हैं, जिन्होंने सूफी मत में काफी नाम कमाया। अपने गुरू शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के देहांत के बाद बाबा फरीद चिश्ती मत के खलीफा नियुक्त हुए। लेकिन सत्ता के केन्द्रों से दूर रह कर शांति और संतोष का जीवन व्यतीत किया। उन्होंने कहा- रूखी-सूखी खाय के ठंडा पाणी पीय, देख पराई चोपड़ी मत तरसाय जीय। वे लहंदी या सरायकी में लिखते थे। बाबा फरीद का पंजाबी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्हें पंजाबी का पहला कवि कहा जाए तो गलत ना होगा। बाबा फरीद की वाणी को गुरू ग्रंथ साहिब में भी स्थान दिया गया है।
हांसी में चार कुतुब का दृश्य
सृजन यात्रा के दौरान चार कुतुब के प्रांगण में बाबा फरीद, सूफी परंपरा और हमारा समाज विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में पंजाब से आए जाने-माने संस्कृतिकर्मी सुमेल सिंह सिद्धू ने बाबा फरीद के जीवन और साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला।  सृजन यात्रा में शामिल साहित्यकारों के अलावा यहां पर स्थानीय मा. रोहताश, श्रद्धानंद राजली, बलवान सिंह दलाल, सुशीला, ऋषिकेश, धर्मबीर सिंह, मा. हनुमान प्रसाद सहित अनेक साहित्य प्रेमी शामिल रहे।
हांसी स्थित चार कुतुब के परिसर में संगोष्ठी को संबोधित करते पंजाब से आए लेखक सुमेल सिंह सिद्धु। 
सृजन यात्रा अपने आप में अनोखी थी। बौद्धिक-साहित्यिक जगत में हरियाणा की चारों शख्सियतें महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। लेकिन प्रदेश में ही इन पर चर्चाएं बहुत कम ही सुनाई देती हैं। ऐसे समय में जब लोग अपनी विरासत से कटते जा रहे हैं। प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर की पहचान करते हुए उससे जुडऩा अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है। देस हरियाणा के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र ने कहा कि मानवता की यात्रा सृजन की यात्रा के साथ जुड़ी हुई है। हाली पानीपती, हज़रत बू अली शाह कलंदर, बाबू बालमुकुंद गुप्त, संत गरीबदास व बाबा फरीद जैसी शख्सियतों ने अपनी कलम व संदेशों के जरिये मानवता के पक्ष को मजबूत किया। उन्होंने मानवता के पक्षधर साहित्यकारों को अपनी विरासत की पहचान करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि लोग अपने महापुरूषों और उनके विचारों को भूल गए हैं। उन विचारों को पुन: याद करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि जिस तरह मानवता के दुश्मन सडक़ों पर घूम रहे हैं। मानवता के पक्षधर लोग अपने घरों में ही क्यों रहें। इसीलिए यह यात्रा निकाली गई है।

अरुण कुमार कैहरबा
सह-संपादक, देस हरियाणा
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, 
जि़ला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-09466220145 

चौथा हरियाणा सृजन उत्सव-एक रपट

हरियाणवी समाज की उदासीनता को तोड़ रहा हरियाणा सृजन उत्सव

एक स्थान पर परिसंवाद, नाटकों, कविताओं, पुस्तक प्रदर्शनी


अरुण कुमार कैहरबा 
उत्सवधर्मिता हमारे देश की खासियत है। पूरे देश की भांति हरियाणा के लोग तीज-त्याहारों के अलावा भी उत्सव और उल्लास के अवसर ढूंढ़ लेते हैं। हालांकि आलोचक यह कहते हुए भी पाए जाते हैं कि हरियाणा में कल्चर के नाम पर एग्रीकल्चर होती है। यहां लोगों में बौद्धिक उदासीनता के भी चर्चे होते हैं। इसमें आंशिक सच्चाई भी है। लेकिन देस हरियाणा पत्रिका की तरफ से कुरुक्षेत्र में हर साल आयोजित होने वाला हरियाणा सृजन उत्सव बौद्धिकता और उत्सवधर्मिता की नई परिभाषा गढ़ रहा है, जिसमें देश भर से साहित्यकार व विचारक आते हैं। हरियाणा के रचनाकारों में तो इस उत्सव में हिस्सा लेने का खास आकर्षण देखने को मिलता है। देस हरियाणा के संपादक एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर डॉ. सुभाष चन्द्र की अगुवाई मे सृजन उत्सव प्रदेश का सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक उत्सव बन गया है।
हरियाणा सृजन उत्सव में प्रदेश भर के साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, कलाकार, रंगकर्मी, चित्रकार जुटते हैं। विभिन्न विषयों पर संगोष्ठियां होती हैं। नाटक होते हैं, कवि सम्मेलन में कवि कविताएं पढ़ते हैं। नाटकों का मंचन होता है। प्रकाशक अपनी पुस्तकें लेकर आते हैं और पाठक पसंदीदा पुस्तकें खरीदते हैं। विभिन्न शख्सियतों पर के जीवन और विचारों को दर्शाने वाली प्रदर्शनियां लगती हैं। देस हरियाणा पत्रिका के द्वारा 2017 में हरियाणा सृजन उत्सव के आयोजन का सिलसिला शुरू हुआ। अब तक इन उत्सवों में देश के जाने-माने साहित्यकार, कवि, समीक्षक, पत्रकार, चित्रकार, रंगकर्मी शिरकत कर चुके हैं।
इस वर्ष देस हरियाणा और सत्यशोधक फाउंडेशन के तत्वावधान में कुरुक्षेत्र की सैनी धर्मशाला में 14-15 मार्च को सृजन उत्सव हुआ। हरियाणा सृजन उत्सव का शुभारंभ सामूहिक रूप से संविधान की प्रस्तावना पढऩे के साथ हर्षोल्लास  के माहौल में हुआ। छत्तीसगढ़ से आए जाने-माने कानूनविद कनक तिवारी सहित विभिन्न साहित्यकारों ने देस हरियाणा के अंक-27,28 का विमोचन किया। कनक तिवारी ने भारतीय संविधान और हम भारत के लोग विषय पर अपने उद्घाटन वक्तव्य में कहा कि भारत का संविधान स्वतंत्रता आंदोलन की प्राप्ति है। यह संविधान डॉ. आंबेडकर के बिना बन ही नहीं सकता था। आज संविधान राजपथ बन गया है, जिसे जनपथ बनाने की जरूरत है। समारोह में देस हरियाणा के अंक-27 एवं 28 का विमोचन किया गया। उन्होंने कहा कि भारत की आजादी की लड़ाई आम आदमी की लड़ाई थी। जब संविधान बनाया गया तो आम आदमी के प्रतिनिधि संविधान बनाने के काम में शामिल थे। लेकिन साथ ही राजे-रजवाड़ों के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल किए थे। उन्होंने कहा कि संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि हम भारत के लोग ही संविधान बना रहे हैं। लेकिन सत्ताओं की अनदेखी के चलते आज संविधान में से भारत के लोग गायब हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि संविधान की परिकल्पना जवाहर लाल नेहरू ने पेश की थी और डॉ भीम राव आंबेडकर ने इस परिकल्पना को साकार किया। उन्होंने कहा कि 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ शुरू किए गए भारत छोडो आंदोलन युवाओं का आंदोलन था, जिसकी परिणति 1947 में आजादी के रूप में हुई। देस हरियाणा के संपादक एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के चेयरमैन डॉ. सुभाष चन्द्र ने सृजन उत्सव में आए अतिथियों व प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए कहा कि यह वैचारिक उद्वेलन का समय है। संकीर्णताएं, नफरत व भेदभाव के माहौल में साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों की अहम भूमिका है। उन्होंने कहा कि हरियाणा सृजन उत्सव इसी भूमिका पर विचार-विमर्श करने का मंच बन गया है।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता देस हरियाणा के सलाहकार प्रो टीआर कुंडू ने की और संचालन डॉ. अमित मनोज ने किया। इस मौके पर पूर्व सांसद गुरदयाल सिंह सैनी, सैनी सभा के प्रधान गुरनाम सिंह सैनी, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी आरआर फुलिया, शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो. जगमोहन, वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत, एसपी सिंह व हिसार से साहित्य प्रसारक वीना मंच पर उपस्थित रहे।
सृजन उत्सव के दूसरे सत्र में गांधी, आंबेडकर व भगत सिंह के चिंतन की सांझी जमीन विषय पर परिसंवाद आयोजित किया गया। सत्र का संचालन हरविन्द्र सिंह सिरसा ने किया। परिसंवाद में शहीद भगत सिंह के भानजे एवं चिंतक प्रो. जगमोहन सिंह ने कहा कि महात्मा गांधी की एक आवाज पर शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद व साथी सत्याग्रह में पहुंचे थे। भगत सिंह द्वारा एसेंबली में आवाज करने वाला बम फेंकना और जेल में भूख हड़ताल करना यह दर्शाता कि गांधी और भागत सिंह के विचारों में कितनी समानता है। उन्होंने कहा कि शैक्षिक संस्थाओं से भगत सिंह को वैज्ञानिक विचार की जमीन मिली। इससे उनके सोचने का तरीका बदला। आगे चल कर भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा बनाई, जिसका लक्ष्य था कि युवाओं के दिमाग से जात-पात व धार्मिक संकीर्णताओं की सोच को हटाकर वैज्ञानिक नजरिये वाला समाज बनाया जाए। गांधीवादी चिंतक व पत्रकार प्रसून लतांत ने कहा कि गांधी, आंबेडकर व भगत सिंह तीनों धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल किए जाने के खिलाफ थे। प्रो. सुभाष चन्द्र ने कहा कि गांधी, आंबेडकर और शहीद भगतसिंह की विचारधाराओं को एक दूसरे की विरोधी के रूप में पढऩे-समझने का जमाना बीत गया है। भारतीय समाज व राजनीति जिस दौर से गुजर रही है उसके लिए इन महानायकों के अवदान को समूचे तौर पर ग्रहण करके ही कुछ नया संभव हो सकता है। उसमें समानता तलाशने की जरूरत है। 
तीसरा सत्र हरियाणवी समाज: सृजन और बौद्धिक उदासीनता विषय पर रहा। जिसमें समाजशास्त्री प्रो. टीआर कुंडू, युवा उपन्यासकार अमित ओहलान और मीडिया विश£ेषक महेन्द्र सिंह ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन देस हरियाणा के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र ने किया।
सांस्कृतिक संध्या में चरदास चोर और ईदगाह का हुआ मंचन-
हरियाणा सृजन उत्सव की सांस्कृतिक संध्या ने प्रतिभागियों का मन मोह लिया। संध्या में रंगटोली के कलाकारों ने रंगकर्मी राजवीर राजू के निर्देशन में हबीब तनवीर के प्रसिद्ध नाटक- चरणदास चोर का मंचन किया। नाटक ने दर्शकों के मन को आह्लादित करने के साथ-साथ विचारों को उद्वेलित कर दिया। लोककथा पर आधारित यह नाटक देश भर में चर्चित है। रंगटोली के कलाकारों के अभिनय के साथ-साथ निर्देशक राजवीर राजू, गायिका संजना संजू, चमन सहित कलाकारों के समूह ने गायन व वादन के जरिये समां बांध दिया।
सांस्कृतिक संध्या में दूसरा नाटक प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी-ईदगाह पर आधारित था। नाटक का मंचन थियेटर आर्ट गु्रप के कलाकारों ने किया, जिसका निर्देशन और मुख्य किरदार हामिद की भूमिका प्रवेश त्यागी ने निभाई। प्रवेश त्यागी के अभिनय की दर्शकों द्वारा जोरदार प्रशंसा की गई। हामिद के बालपन, समझदारी और दादी के प्रति स्नेह ने दर्शकों के जेहन पर अमिट छाप छोड़ी। मंच संचालन देस हरियाणा टीम के सदस्य राज कुमार जांगड़ा व अरुण कैहरबा ने किया।
सृजन उत्सव के दूसरे दिन 15 मार्च को पहला परिसंवाद विश्वविद्यालय परिसरों का माहौल और शैक्षिक परिदृश्य विषय पर हुआ। इस संवाद में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कमलानंद झा ने नई शिक्षा नीति-2019 के मसौदे के अन्तर्विरोधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि छह सौ पृष्ठों के इस दस्तावेज में बहुत अच्छी-अच्छी बातें कही गई हैं, लेकिन दस्तावेज को अध्ययन करने पर सरकारों की शिक्षा नीति और नियत में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। उन्होंने कहा कि मसौदा एक स्थान पर अध्यापकों के ऊपर गैर-शैक्षिक कार्यों का बोझ नहीं डालने की बात करता है, लेकिन दूसरे स्थान पर उच्चतम न्यायालय के निर्देश व चुनावों आदि छोड कर अन्य गैर-शैक्षणिक कार्य अध्यापकों से नहीं लेने की भी बात करता है। मसौदे के एक पृष्ठ पर शिक्षकों को समान वेतन देने की बात की गई है, लेकिन व्यवहार में असमान वेतन दिया जा रहा है। देश के सभी विद्यार्थियों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने की बात भी की जाती है और दूसरी ओर बडे पैमाने पर सरकारी स्कूलों को समाप्त किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति से हमारे देश की शिक्षा पर बहुत बुरा असर होगा। उन्होंने कहा कि हमारे देश में शिक्षा संस्थानों और स्वतंत्र विचारकों को बदनाम किया जा रहा है। उन्होंने विश्वविद्यालयों में शोध कार्यों की स्थिति पर चिंता जताई। डॉ. सुभाष चन्द्र ने कहा कि शिक्षा संस्थानों में सामाजिक न्याय की स्थिति पर चर्चा की।
एमडीयू के छात्रनेता अरविन्द इन्द्रजीत ने कहा कि संस्थानों का शैक्षिक परिदृश्य बेहद खराब है। युवा रोजगार के लिए दिन-रात पढ़ाई करते हैं। लेकिन निजीकरण के कारण नौकरियां कम होती जा रही हैं। चपड़ासी के रिक्त पदों पर पीएचडी व उच्च शिक्षा प्राप्त युवा आवेदन कर रहे हैं। हर घंटे बेरोजगार व अद्र्ध बेरोजगार तीन युवा आत्महत्या कर रहे हैं। बडी संख्या में युवा अपनी जान गंवा रहे हैं। युवाओं की दिक्कतों की तरफ कोई ध्यान देने वाला नहीं हैं। सरकारें अपनी जिम्मेदारी से लगातार हाथ खींच रही हैं। स्वास्थ्य व शिक्षा, रोजगार नहीं देती तो सरकार है किसलिए। संस्थानों में भी राजनीतिक दल जातिवादी एजेंडे को आगे बढा रहे हैं।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की छात्र नेता सुमन ने कहा कि शिक्षा सवाल खड़े करना सिखाती है, लेकिन अब सवाल उठाने पर पाबंदियां लगाई जा रही हैं। उन्होंने कहा कि विद्यार्थी अपनी कक्षा में शिक्षकों की मांग कर रहे हैं। परिसंवाद का संचालन डॉ. सुनील थुआ ने किया। रविन्द्र गासो, परमानंद शास्त्री, डॉ गुलाब सिंह, रविन्द्र कुमार, दिवाकर तिवारी, संदीप, डॉ आबिद, शैलेन्द्र सिंह ने सवाल पूछे और टिप्पणियां की।
समापन समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो. जोगा सिंह ने हम भारत के लोग और आगे का रास्ता विषय पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि भारत बहुनस्ली, बहुधर्मी, बहु संस्कृतियों का देश है। भारतीय परंपरा में धर्म, नस्ल, भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। देश की एकता व अखंडता के लिए भारत के समस्त लोगों को साम्प्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव, धार्मिक विद्वेष को समाप्त किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि संत कबीर, गुरू नानक, महात्मा बुद्ध, बाबा फरीद, महात्मा ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, डॉ आंबेडकर, भगत सिंह सहित स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानियों ने भारत की संस्कृति का निर्माण किया है। हमें उन्हीं के दिखाए रास्ते पर आगे बढऩे की जरूरत है।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के चेयरमैन एवं देस हरियाणा के संपादक प्रोफेसर सुभाष चन्द्र ने कहा कि मनुष्य एक बौद्धिक और सांस्कृतिक प्राणी है। बौद्धिकता जैविक गुण नहीं है वह अर्जित करना पड़ता है, जो इस तरह के उत्सवों से ही प्राप्त होता है। मनुष्य के बौद्धिक पक्ष को कुंद करके ही अमानवीय और असामाजिक शक्तियां उसकी मानवीय गरिमा पर कुठाराघात करती हैं। हरियाणा सृजन उत्सव का सिलसिला प्रदेश की साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान को स्थापित करते हुए आगे बढ़ रहा है। उन्होंने कहा कि अध्ययन की संस्कृति को बढ़ावा मिले और जगह-जगह देश-प्रदेश के समाज की स्थितियों पर चर्चाएं हों। हरियाणा सृजन उत्सव के आयोजन का यही मकसद है। उन्होंने कहा कि सभी रचनाकारों के सहयोग से विभिन्न स्थानों पर इस प्रकार के आयोजनों की शृंखला खड़ी की जानी चाहिए ताकि हरियाणा में सृजन का माहौल बने। उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों से आए संस्कृतिकर्मियों व साहित्यकारों का सृजन उत्सव में पहुंचने के लिए आभार व्यक्त किया।
समापन सत्र के अध्यक्ष मंडल में प्रो. टीआर कुंडू, राममोहन राय, डॉ फकीर चंद, रामसरूप किसान शामिल रहे और संचालन परमानंद शास्त्री ने किया। समारोह में शशि सिंह, जगदीश चन्द्र, डॉ. आबिद, कमलेश चौधरी, टीना ने हरियाणा सृजन उत्सव के सफल आयोजन के लिए टीम देस हरियाणा और सत्यशोधक फाउंडेशन की टीम को बधाई दी और इस प्रकार के वैचारिक विमर्श के अधिक कार्यक्रमों की जरूरत रेखांकित की।
इन किताबों का हुआ विमोचन-
हरियाणा सृजन उत्सव में किताबों का विमोचन भी खास अहमियत रखता है। पाठकों को नई किताबों के बारे में जानकारी मिल जाती है और लेखकों को पाठक मिल जाते हैं। सृजन उत्सव में लोक संस्कृति लेखक एसपी सिंह की किताब-बाइटिगोंग, वीरेन्द्र भाटिया के काव्य संग्रह-युद्ध रही हैं लड़कियां, हरभगवान चावला के काव्य-संग्रह इंतजार की उम्र, राधेश्याम भारतीय की किताब-समरीन का स्कूल का विमोचन किया गया। सृजन उत्सव में पुस्तक प्रदर्शनी भी आयोजित की गई, जिसमें पाठकों को किताबें देखने और खरीदने का मौका मिलता है। उत्सव के दौरान देस हरियाणा व महात्मा ज्योतिबा फुले सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय के द्वारा फुले दंपत्ति के जीवन की झांकी प्रस्तुत की गई।
सृजन उत्सव के बारे में युवा कवि कपिल भारद्वाज देखिए क्या कहते हैं- हरियाणा सृजन उत्सव सबसे अलग, सबसे अलहदा और सबसे नवीन उत्सव है जो मनुष्य की चेतना को झंकृत करता है, जो न केवल सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव है बल्कि साहित्यिक विमर्शों को नए सन्दर्भो में भी प्रस्तुत करता है जो हरियाणा की बंजर साहित्यिक भूमि की परतों को न केवल खंड-खड करता है बल्कि नई महकती फसलें भी तैयार करता है। एक तरफ यह उत्सव नई उमंगें, नया उल्लास व नई तरंगें पैदा करता है तो दूसरी तरफ इसमें गम्भीर सामाजिक विमर्श आपके दिलो दिमाग पर गहरा असर डाल जाते हैं। एक तरफ संगीत की वेला है, कविताएं हैं, गजलें हैं, नाटक हैं, हास्य है जो आधुनिक दौर में मशीनी होते जीवन को जीने का सलीका सिखाते हैं तो दूसरी तरफ हमारी सामाजिक संस्कृति में दीमक की तरह पसरे रोगों को चिन्हित करने का काम भी इस उत्सव में बखूबी किया जाता है।
-अरुण कुमार कैहरबा
सह-संपादक, देस हरियाणा
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145

KAVI SAMMELAN IN HARYANA SRIJAN UTSAV

धर्म में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचाएगी.. .. गौहर रज़ा

हरियाणा सृजन उत्सव में गूंजती रही कविताएं

हरियाणवी गजल के सत्र में मंगतराम शास्त्री और कर्मचंद केसर ने सुनाई गज़लें

कवि सम्मेलन में कवियों ने राजस्थानी, पंजाबी, हरियाणवी व हिन्दी में सुनाई रचनाएं
अरुण कुमार कैहरबा
देस हरियाणा और सत्यशोधक फाउंडेशन द्वारा 14-15 मार्च को कुरुक्षेत्र स्थित सैनी धर्मशाला में आयोजित हरियाणा सृजन उत्सव में दोनों दिन सवाल उठाने और चेतना पैदा करने वाली कविताएं गूंजती रही। देश के जाने-माने वैज्ञानिक एवं शायर गौहर रज़ा के कविता पाठ के लिए विशेष सत्र आयोजित किया गया। सत्र का संचालन रेतपथ के संपादक डॉ. अमित मनोज ने किया। गौहर रजा ने अपनी प्रसिद्ध रचना सुनाते हुए कहा- धर्म में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचाएगी, मसली कलियां झुलसा गुलशन ज़र्द खिजां दिखलाएगी। यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा-सहमा रहता है, खतरा है वो वहशत मेरे मुल्क में आग लगाएगी। अंधे कूएं में देश की नाव तेज चली थी मान लिया, लेकिन बाहर रोशन दुनिया तुमसे सच बुलवाएगी। गौहर रजा ने अपने संबोधन में कहा कि फासीवादी खतरों का सामना करने के लिए कविताओं, कहानियों, गीत-संगीत व फिल्मों को उठ खड़ा होना होगा। सत्र के दौरान गौहर रज़ा, देस हरियाणा के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र सहित अनेक साहित्यकारों ने सिरसा के कवि हरभगवान चावला के काव्य संग्रह-‘इंतजार की उम्र’ और वीरेन्द्र भाटिया के काव्य संग्रह ‘युद्ध लड़ रही हैं लड़कियां’ का विमोचन किया।

सृजन उत्सव में हरियाणवी $गज़ल पर विशेष सत्र भी आकर्षण का केन्द्र बना, जिसमें प्रसिद्ध हरियाणवी गजलकार मंगतराम शास्त्री खड़तल और कर्मचंद केसर ने अपनी गजलें पढ़ी। देस हरियाणा के उप-संपादक अरुण कुमार कैहरबा ने सत्र का संचालन किया। मंगतराम शास्त्री खड़तल ने अपनी हरियाणवी $गज़ल सुनाते हुए फरमाया- हांसण खात्तर मनवा बेफिकरा चाहिए सै, सुंदर होण खात्तर हिरदा सुथरा चाहिए सै। कहणे खात्तर बोहत फिरैं सैं मुंह नैं बाएं, साच्ची बात कहण खात्तर जिगरा चाहिए सै। दूसरी गजल में उन्होंने कहा- बीज नफरत के सदा जो बोवैगा, जिंदगी भर नफरतां नैं ढ़ोवैगा। सारे जाणैं देश भगत था जो, उस गांधी के हत्यारे पुजवाए जा सैं। खड़तल के छोड्डै और लिखै भी के-के, आज गपोड़े भी इतिहास बताए जा सैं।
कर्मचंद केसर ने हरियाणवी में सार्थक-निरर्थक शब्दों के जोड़े को प्रयोग करने की प्रवृत्ति को आधार बनाकर भ्रष्टाचार पर जमकर तंज कसे। उन्होंने कहा-ठेकेदार का देखो हाजमा क्यूकर इने डकारे। रेता-रूत्ता, बजरी-बुजरी पत्थर-पात्थर सारे। बाबा की करामात देखिए सब चरणा मैं बैठे,धाक्कड़-धूक्कड़, अफसर-उफसर, लीडर-लूडर सारे। अपनी दूसरी गजल में उन्होंने कहा-भूली-बिसरी याद पुराणी लिख दूं के, मैं भी अपणी राम कहाणी लिख दूं के। फूटे आंडे, गिर्या आलणा चिडिय़ा का, दरखत की वा टूटी टाहणी लिख दूं के। गायक और कवि विक्रम राही ने अपनी रागणी- माणस नै माणस की चाहना, माणस बण सम्मान करो, जो कैरया संविधान सुणो गाकर श्रोताओं की खूब तालियां बटोरी। सृजन उत्सव में अध्यापक व गायक विक्रम राही ने अपनी स्वरचित रागणी को वाद्य यंत्रों के साथ सुनाया।
सृजन उत्सव के पहले दिन रात को कवि सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें वरिष्ठ एवं युवा कवियों ने देर रात तक अपनी कविताएं पढ़ी। दूसरे दिन सुबह भी कवि सम्मेलन कईं कवियों ने अपनी कविताएं पढ़ी। सम्मेलन का संचालन दरवाजों के बाहर काव्य संग्रह से चर्चा में आए कवि जयपाल एवं युवा कवि योगेश शर्मा ने किया। कवि सम्मेलन में राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि रामस्वरूप किसान ने राजस्थानी में ही अपनी दो कविताएं- बाप के नाम बेटी का खत और अन्नदाता सुनाई। बेटी का खत कविता की कुछ पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद देखिए-सच में पापा क्या परंपरा के कीचड़ में धंसा आपका पांव, आधुनिकता के फूलों पर टिके दूसरे पांव के पास आ गया।
सुरजीत सिरड़ी ने अपनी दिलीए व भारतमाता शीर्षक की पंजाबी कविताएं सुनाई। कवि जयपाल ने अपनी पाखंडी शीर्षक कविता में कहा- वे आर्थिक सुधार करेंगे, मरने को मजबूर कर देंगे, वे रोजगार की बात करेंगे, रोटी छीन लेंगे, वे शिक्षा की बात करेंगे, व्यापार के केन्द्र खोल देंगे, वे हमारे आंसू पोछेंगे और दृष्टि छीन लेंगे। कवयित्री पूनम तुषामड़ ने कश्मीर शीर्षक कविता सुनाते हुए कहा- कश्मीर एक घाटी है, सिसकती-सी, सुबकती-सी, सुलगती सी, किसी शायर ने जन्नत भी कहा था जिसको, उसकी हकीकत अब कुछ ओर नजर आती है।
सिरसा से आए कवि हरभगवान चावला ने अपनी छोटी-छोटी कविताओं के जरिये श्रोताओं को सोचने को मजबूर कर दिया। वीरेन्द्र भाटिया ने अपने नव प्रकाशित काव्य संग्रह-युद्ध लड़ रही हैं लड़कियां से चिडिय़ा उड़ व हम जो हम हैं शीर्षक कविताएं सुनाई। कवि अरुण कैहरबा ने बच्चों के नाम कविता सुनाते हुए कहा-हर बच्चा ही रहा है बोल, खेल-मेल का मिले माहौल। जिज्ञासा में जब कुछ पूछें, प्रश्रों को ना करे कोई गोल।
शायर मंजीत भोला ने अपनी गजल में कुछ यूं कहा- चरागों की तो आपस में नहीं कोई अदावत है, अंधेरा मिट नहीं पाया उजालों की सियासत है। बहाना मत जरा आंसू समझ लेना मेरे बाबा, कतल मेरा करेंगे वो बताएंगे शहादत है। दूसरी गजल में उन्होंने कहा-संगदिल वो पानियों की धार से वाकिफ नहीं, किसी तरह दिल में रहेगा प्यार से वाकिफ नहीं।
केन्द्रीय विश्वविद्यालय महेन्द्रगढ़ में प्रोफसर एवं कवि अमित मनोज ने होर्डिंग कविता के जरिये राजनीति में विकल्पहीनता की स्थिति पर तंज कसते हुए कहा-बेशक यह लोकतंत्र है, लेकिन जनता के पास एक ही विकल्प है, या यह मुख्यमंत्री या वह मुख्यमंत्री। उन्होंने बिटिया की सैंडिल कविता भी सुनाई।
दयाल चंद जास्ट ने तरन्नुम में अपनी कविता सुनाते हुए कहा कि जो प्रात: प्यार बरसाएगी, सबके तकरार मिटाएगी, उस दिन की है इंतजरा मुझे। उभरते कवि कपिल भारद्वाज ने अपनी कविता सुनाते हुए कहा-अमरूद के दूषित पत्ते पर बैठी तितली को आभास हो चुका है कि आजकल पुष्पगुच्छ कागजों से बनाए जा रहे हैं और कमल कीचड़ में नहीं रक्त की दलदल में उगाए जा रहे हैं। युवा कवि योगेश शर्मा व श्रद्धानंद राजली ने भी कविताएं सुनाकर खूब दाद पायी। 
देस हरियाणा के संपादक डॉ. सुभाष चन्द्र ने कहा कि अपने समय के साथ जुड़ी कविताएं केवल समाज की स्थिति ही नहीं दर्शाती बल्कि हस्तक्षेपकारी भूमिका निभाती हैं। हरियाणा सृजन उत्सव एक ऐसा अवसर है, जिसमें प्रदेश ही नहीं विभिन्न राज्यों के रचनाकार आते हैं और अपनी रचनाएं एक-दूसरे को सुनाकर अपनी भूमिका की तलाश करते हैं।
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, 
वार्ड नं-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जि़ला-करनाल
हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145

महादेवी वर्मा पर विशेष

DAINIK ARTH PARKASH

महादेवी वर्मा ने कलम व कर्म के जरिये उठाई महिला मुक्ति की 

अरुण कुमार कैहरबा
DAINIK JAGMARG 26/03/2020

समाज में महिलाओं की स्थिति शुरू से ही अच्छी नहीं रही। 20वीं सदी के शुरूआत में तो स्थिति ज्यादा खराब थी। जब लेखन ही नहीं किसी भी क्षेत्र में गिनी-चुनी महिलाएं अग्रणी भूमिकाओं में दिखाई देती थी। ऐसे में महादेवी वर्मा ने लेखन के जरिये ना केवल अपने समय को वाणी दी, बल्कि दो कदम आगे बढक़र अपनी लेखनी और कार्यों के जरिये महिला मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। 20वीं सदी की सबसे अधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार और आधुनिक मीरा के रूप में विख्यात महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य में छायावादी कविता के चार आधार स्तंभों में से एक हैं। आधुनिक गीत काव्य में महादेवी का स्थान सर्वोपरि है। प्रेम की पीर और भावों की तीव्रता से पूर्ण उनके गीतों के अलावा गद्य में उनके लिखे संस्मरण एवं रेखाचित्र बहुत प्रसिद्ध हैं। खड़ी बोली को परिष्कृत बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने खड़ी बोली को ब्रजभाषा की कोमलता प्रदान की। निराला ने उन्हें हिन्दी के विशाल मंदिर की सरस्वती कह कर सम्मानित किया है। महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद में हुआ था। उनके परिवार में सात पीढिय़ों के बाद पहली पुत्री का जन्म हुआ था। अत: बेटी के जन्म पर पूरा परिवार खुशी से झूम उठा। उनके बाबा ने उन्हें घर की देवी-महादेवी नाम दिया। उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता हेमरानी देवी अध्ययनशील थीं और मीरा के पद विशेष रूप से गाती थी। छायावाद के अन्य स्तंभों में शामिल सुमित्रानंदन पंत एवं निराला उनके मानस बंधु थे। वे सात वर्ष की अवस्था में ही कविता लिखने लगी थीं। क्रास्थवेट गल्र्स कॉलेज के छात्रावास में रहते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान के पूछने पर जब महादेवी ने उनसे कविता लिखने की बात छुपाई तो सुभद्रा ने डेस्क में रखी उसकी किताबों की छानबीन की। किताबों में ही महादेवी वर्मा की लिखी कविताएं भी निकल आई और सुभद्रा कुमारी ने सबको बता दिया कि महादेवी कविताएं लिखती है। जब अन्य सहेलियां खेल रही होती तो छात्रावास में पेड़ की डाल पर बैठ कर महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी तुकबंदी करती थी। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते-करते वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। कईं पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। बाल विवाह ने उनकी साहित्य साधना का मार्ग अवरूद्ध करने की कोशिश जरूर की, लेकिन उनके इरादों के आगे यह बाधा भी दूर हो गई। 1932 में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया तो उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे। उन्होंने खड़ी बोली में लिखे अपने गीतों में ब्रज भाषा की कोमलता का समावेश किया।
महादेवी वर्मा का लेखन के अलावा संपादन और अध्यापन कार्यक्षेत्र रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नाम के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। गद्य में उनकी मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कडिय़ाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख कृतियां हैं। महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद और रंगवाणी नाट्य संस्था की स्थापना की। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव रखी। पहला अखिल भारतीय महिला कवि सम्मेलन 15अप्रैल, 1933 को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में संपन्न हुआ। महादेवी बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूंसी में कार्य किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। 1936 में नैनीताल से 25 किलोमीटर दूर रामगढ़ कस्बे के उमागढ़ गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बँगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मंदिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। शृंखला की कडिय़ाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए साहस व दृढ़ता से आवाज उठाई और सामाजिक रूढिय़ों की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की। उनके गीतों में जहां वेदना और पीड़ा भरी हई है, लेकिन गद्य में इनके कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष, समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव दिखाई देता है। समालोचन में श्रीधरम ने महादेवी वर्मा के साहित्य का मूल्यांकन करने में आलोचकों पर मर्दवादी दृष्टि अपनाने के आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि महादेवी वर्मा के साहित्य को उनके समकालीन साहित्यकारों के साथ तुलना करके  नहीं समझा जा सकता। उनका साहित्य तत्कालीन और आज के परिवेश में महिलाओं की स्थितियों के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। डॉ. मैनेजर पांडेय का कहना है-‘महादेवी वर्मा भारतीय स्त्री के जीवन के अनुभवों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने वाली कलाकार हैं, उसके जागरण का अभियान चलाने वाली कार्यकर्ता और उसकी पराधीनता के जटिल रूपों का विश्लेषण तथा स्वाधीनता की संभावनाओं की तलाश करने वाली दार्शनिक भी हैं। उनके गीतों, चित्रों और रेखाचित्रों में उनका कलाकार रूप मिलता है तो उनकी शिक्षा, संस्कृति और साहित्यिक पत्रकारिता संबंधी गतिविधियों में उनका कार्यकर्ता रूप। श्रंखला की कडिय़ां के माध्यम से वे एक स्त्रीवादी दार्शनिक के रूप में हमारे समाने आती हैं।’ मैनेजर पांडेय की बात का ही उद्धरण लें तो-‘महादेवी वर्मा की कविता के साथ आरंभ से ही एक प्रकार के आलोचनात्मक पूर्वग्रह की स्थिति दिखाई देती है। यह ठीक है कि उनकी कविता में दुख है, वेदना है, निराशा है, आंसू हैं, अंतर्मुखता है और अभिव्यक्ति शैली के परोक्ष की प्रधानता भी है, पर साथ ही वहां असंतोष है, आक्रोश है और संघर्ष की चेतना भी। आलोचकों ने उनके आंसुओं पर ध्यान दिया है, लेकिन उनके आक्रोश पर नहीं।’
महादेवी वर्मा को ‘यामा’ काव्य संकलन के लिये भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये पद्म भूषण की उपाधि दी। वे भारत की यशस्वी महिलाओं में से एक हैं। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। 11 सितंबर 1987 को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया। 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया। साहित्य में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा।
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक,
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
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विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष

नाटक हम दिखाएंगे, दुनिया नई बनाएंगे

अरुण कुमार कैहरबा

थियेटर या रंगमंच जीवन के विविध रंगों को मंच पर प्रस्तुत करने की जीवंत विधा है। इसमें नृत्य, संगीत, चित्र, अभिनय सहित समस्त कलाओं और विभिन्न प्रकार के कौशलों का समावेश होता है। रंगमंच पर जब समाज की दशा को जीवंत किया जाता है तो दर्शक उसके साथ आसानी से जुड़ जाता है। रंगमंच सही गलत के भेद को बारीकी से चित्रित करता है। आम आदमी के मसलों के साथ खड़े होकर जनपक्ष को मजबूत करता है और जनविरोधी ताकतों की अमानवीयता को नंगा करता है। रंगमंच सवाल खड़े करता है। हर प्रकार की जड़ता और यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह करता हुआ रंगमंच एक बेहतर समाज की परिकल्पना तैयार करता है। रंगमंच समाज का आईना ही नहीं है, बल्कि परिवर्तन का सशक्त औजार भी है। 

रंगमंच सहित कला की अन्य विधाओं को समाज में हल्के ढ़ंग से देखा जाता है। जब कोई व्यक्ति विशेष अंदाज में अपनी बात रखने की कोशिश करता है तो प्राय: कह दिया जाता है- ‘क्यों नाटक कर रहा है।’ नाटक करना इनता सहज कार्य नहीं है, जितना आम दर्शक सोचते हैं। लंबे समय तक देह, दिल व दिमाग पर मेहनत करने के बाद कलाकार पैदा होता है और यही स्थिति एक प्रस्तुति पर भी लागू होती है। रंगमंच या नाटक जीवन से कम नहीं है। यह जीने का तरीका भी है। नाटक सिर्फ नाटक करने वालों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए है। यह सभी को जीवन-दृष्टि देता है। 

सदियों पहले भरत मुनि द्वारा ‘नाट्यशास्त्र’ की रचना से नाटक विधा का प्रारम्भ माना जाता है। इसमें रंगमंच के सभी रूपों मंच संयोजन, वेश-भूषा व पाश्र्व गायन आदि सभी रूपों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस रचना की महत्ता को देखते हुए इसे पंचमवेद कहा जाता है। माना जाता है कि नाट्य विधा के प्रति भेदभाव की दृष्टि के कारण इसे वेद नहीं माना गया। संभवत: इसी का परिणाम रहा कि समाज में कलाकारों व अभिनेताओं को हेय दृष्टि से देखा गया। लेकिन आज स्थितियां बदल रही हैं। आधुनिक भारत में रंगमंच के सिद्धांतों को प्रयोगात्मक रूप देने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चन्द्र को जाता है। वे हिन्दी रंगमंच के पितामह कहे जाते हैं। भारतेन्दु ने भारत-दुर्दशा, नीलदेवी व वैदिक हिंसा हिंसा न भवति सहित अनेक नाटक लिखे और खेले। उनका नाटक अंधेर नगरी आज भी प्रासंगिक माना जाता है और आज भी अनेक नाटक मंडलियाँ उसका मंचन करती हैं। आज़ादी से पहले रंगमंच के विकास में पृथ्वीराज कपूर और आगा हश्र कश्मीरी का अहम योगदान रहा। रंगमंच एवं कलाओं के विकास में इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। इप्टा ने रंगमंच, जनगीतों और कलाओं को अंग्रेजी दासता एवं सामाजिक बुराईयों से मुक्ति का माध्यम बनाया। इप्टा प्रख्यात फिल्मी कलाकारों ए.के. हंगल और बलराज साहनी की अभिनय पाठशाला साबित हुई। मौजूदा दौर में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, इब्राहिम अल्काजी, विजय तेंदुलकर, बीवी कारंत, रामगोपाल बजाज, मोहन महर्षि, नीलम मानसिंह, माया कृष्णा राव, गिरीश कर्नाड, के.एन. पणिक्कर, अनुराधा कपूर, रूद्रप्रताप सेन गुप्ता, बंसी कौल, भानु भारती, केवल धालीवाल, त्रिपुरारी शर्मा, रतन थियम, कीर्ति जैन, देवेन्द्रराज अंकुर, साबित्री मां, कन्हाई लाल सहित अनेक नाटककारों एवं निर्देशकों ने भारतीय रंगमंच को आगे बढ़ाया। 

उद्देश्यपूर्ण नाटकों की श्रेणी में महान नाटककार, लेखक, प्रयोगधर्मी हबीब तनवीर की नाट्यधर्मिता के सन्दर्भ में जितना कहा जाये कम है। विदेशों में पढ़ाई करने के बावजूद तनवीर ने अपनी कर्मस्थली भारत के उन पिछड़े गांवों को बनाया जिनके बाशिंदों के लिए दो जून की रोटी जुटाना एक समस्या होती है। हबीब तनवीर ने नौ फिल्मों में अभिनय भी किया है, जिसमें रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ भी शामिल है। उनका नाटक ‘आगरा बाजार’ काफी पसंद किया गया। भोपाल में ‘नया थिएटर’ की शुरुआत, भोपाल गैस त्रासदी पर भी एक फिल्म के साथ साथ उन्होंने भास्, विशाखादत्त, भवभूति जैसे पौराणिक संस्कृत नाटककारों से लेकर यूरोपियन क्लासिक्स शेक्सपियर, मोलियर, ब्रेख्त, लोर्का भी किये। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं और वहीं के स्थानीय लोगों के समूह बनाकर छत्तीसगढ़ी में ही नाटक किये। जिनमें- मिट्टी की गाड़ी, गाउ का नाम ससुराल मोर नाउ दामाद, चरणदास चोर व बहादुर कल्हरिन प्रसिद्ध नाटक हैं। इसी के साथ नाटक को जन-जन तक पहुंचाने के लिए स$फदर हाश्मी ने नुक्कड़ नाटक विधा को प्रचारित-प्रसारित किया। उनसे प्रेरित होकर अनेक नाट्य मंडलियों ने नुक्कड़ नाटक करना शुरू किया।
नाट्य विधा में असीम क्षमताएँ हैं। अनेक निर्देशकों ने अनगढ़ लोगों और बच्चों को लेकर नाटक किए। धीरे-धीरे वे अनगढ़ नाट्यकर्मी परिपक्व कलाकार के रूप में विकसित हो गए। नाटक करते समय कलाकार की देह, दिल व दिमाग सभी का विकास होता है। उनमें मिल कर काम करने की संस्कृति का विकास होता है। नाटक करने के लिए जब वे लोगों के बीच में जाते हैं, तो चर्चाओं के दौरान भी उनका विकास होता है। यही कारण है कि शिक्षण की विधि के रूप में तो नाटक का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए। यही नहीं इसे एक विषय का दर्जा देकर नाटक व रंगमंच के विकास की दिशा प्रशस्त की जानी चाहिए। रंगमंच को शिक्षा का माध्यम और अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नाट्य प्रस्तुतियों के अलावा शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में इसका बहुत कम प्रयोग किया जाता है। सीबीएसई ने रंगमंच को ग्यारहवीं और बारहवीं में एक वैकल्पिक विषय के रूप में लागू किया है। हरियाणा के स्कूलों में भी गिने-चुने रंगमंच शिक्षक अनुबंध के आधार पर लगाए गए हैं, जोकि सालाना कार्यक्रमों का संयोजन आदि ही अधिक कर पाते होंगे। निष्ठा अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कला समावेशी शिक्षा की बात की गई। लेकिन स्कूल स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है और किया जाना चाहिए।
बुनियादी ढ़ांचे के अभाव में परंपरागत तौर पर की जाने वाली रामलीलाएं भी आज कईं स्थानों पर समाप्त हो चुकी हैं। देश के गाँवों को तो छोड़ ही दें, शहरों तक में भी ऑडिटोरियम की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। जहां ऑडिटोरियम या रंगशालाएं हैं, वे कलाकारों के लिए सुलभ नहीं हैं। रोहतक में पिछले दिनों नगर निगम ने श्रीराम रंगशाला में अपना कार्यालय बना लिया और रंगशाला में नाट्य प्रस्तुति करने के लिए मोटी फीस लाद दी गई, जिसको लेकर काफी समय तक कलाकार एकत्रित होते रहे। 
यह भी सत्य है कि सरकार के भरोसे कलाओं का विकास नहीं हो सकता है। बाजारीकरण के द्वारा रंगमंच का कलावादी स्वरूप तो विकसित हो सकता है। लेकिन जनवादी रूप विकसित करने के लिए जनता के बीच जाना ही होगा। थियेटर कोई उपभोग की वस्तु नहीं है और ना ही वस्तुएं बेचने या चुनाव प्रचार के सशक्त प्रचार माध्यम के रूप में ही इसकी उपयोगिता है। इस विधा की प्रासंगिकता इसी में है कि जनता के असली मुद्दों से जुडक़र रंगमंच का विकास हो। गांव-गांव में ऐसी रंगमंडलियों की जरूरत है, जोकि समाज में पसरती जा रही जड़ता, उदासीनता, चुप्पी, भय व निराशा को समाप्त करके उत्साह का संचार करंे। सामूहिकता और संवाद की संस्कृति का विकास करंे।
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक,
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-09466220145

Monday, March 9, 2020

कुरुक्षेत्र की सैनी धर्मशाला में 14-15 मार्च को हरियाणा सृजन उत्सव

कुरुक्षेत्र की सैनी धर्मशाला में 14-15 मार्च होगा हरियाणा सृजन उत्सव

इन्द्री के साहित्यकारों ने की बैठक, उत्सव को लेकर दर्शाया उत्साह

इन्द्री, 9 मार्च

स्थानीय राजकीय कन्या वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में सृजन साहित्य मंच की बैठक आयोजित की गई। बैठक में देस हरियाणा और सत्यशोधक फाउंडेशन की तरफ से कुरुक्षेत्र की सैनी धर्मशाला में 14-15 मार्च को आयोजित होने वाले हरियाणा सृजन उत्सव की तैयारियों पर चर्चा की गई। बैठक में क्षेत्र के साहित्यकारों व कलाकारों ने हिस्सा लिया। सभी ने सृजन उत्सव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने और अन्य प्रबुद्ध नागरिकों व युवाओं को शामिल करने का उत्साह दिखाया। बैठक में देस हरियाणा के संपादक मंडल सदस्य अरुण कुमार कैहरबा, वरिष्ठ साहित्यकार दयाल चंद जास्ट, कवि नरेश मीत, हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ के अध्यक्ष मान सिंह चंदेल, अध्यापक तिलक राज, युवा कवयित्री अंजलि तुसंग, उर्वशी, सबरेज अहमद, बंसी लाल पिंगली, जसविन्द्र पटहेड़ा, कुलदीप सिंह, सार्थक ने हिस्सा लिया।

अरुण कैहरबा ने कहा कि हरियाणा के पास समृद्ध सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत है। हरियाणा प्रख्यात शायर मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली, प्रसिद्ध पत्रकार व संपादक बाबू बालमुकुंद गुप्त, सूफी कवि बाबा फरीद, संत गरीबदास सहित अनेक रचनाकारों की साहित्य साधना स्थली है। उन्होंने कहा कि साहित्यक सांस्कृतिक परंपराओं और लोक जीवन की सृजनात्मकता को लेकर हरियाणा की नई पहचान गढ़ने का महत्वपूर्ण कार्य है। देस हरियाणा इस कार्य को आगे बढ़ा रही है। उन्होंने कहा कि 14-15 मार्च को कुरुक्षेत्र की सैनी धर्मशाला में चौथा हरियाणा सृजन उत्सव हो रहा है। इससे पहले हुए तीन सृजन उत्सवों में देश के जाने-माने साहित्यकारों, कलाकारों व समाज शास्त्रियों ने प्रदेश के रचनाकारों के साथ संवाद किया है। प्रदेश के रचनाकारों में सृजन उत्सव को लेकर खासा उत्साह है।
दयाल चंद जास्ट ने 29 फरवरी और 1 मार्च को निकाली गई हरियाणा सृजन यात्रा के अनुभव सांझा करते हुए कहा कि यह यात्रा हरियाणा की खोज करने का प्रयास था, जिसमें प्रदेश भर के रचनाकारों को एक दूसरे से जानने और सीखने का अवसर मिला। सृजन उत्सव भी ऐसा ही अवसर होगा। उन्होंने रचनाकारों का सृजन उत्सव में सपरिवार शिरकत करने का आह्वान किया।

नरेश मीत ने रचनाकार के सामाजिक दायित्व पर चर्चा करते हुए कहा कि रचनाकार केवल समाज का मनोरंजन ही नहीं करता, बल्कि समाज का निर्माण भी करता है। उन्होंने सृजन उत्सव को सीखने का बेहतरीन अवसर बताया।