नाट्य विधि से साहित्यिक रचनाओं को जीवंत बनाएं
अरुण कुमार कैहरबा
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में भाषा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आखिर भाषा ही तो ज्ञान की सब शाखाओं का आधार है। भाषा नहीं होगी तो किसी भी विषय को लेकर संवाद कैसे होगा? भाषा मानव विकास और सब प्रकार की तरक्कियों का आधार है। बच्चे के विकास में मातृभाषा और परिवेश की भाषा का कोई मुकाबला नहीं है। आज भले ही हरियाणा सहित भारत के विभिन्न राज्यों में शिशुओं को अंग्रेजी पढ़ाने-सिखाने का रिवाज चल निकला है, इसके बावजूद हिन्दी व मातृभाषाएं जीवन की ही तरह महत्वपूर्ण हैं। आज हमारी शिक्षा के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। उनमें से एक भाषा को व्यक्तित्व विकास और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाने की है। यह काम भाषा के आनंददायी शिक्षण से ही संभव है। भाषा में साहित्य का अध्ययन व अध्यापन यह काम कर सकता है।साहित्य में अर्थ छवियों के अनेक प्रकार के मंजर देखने को मिलते हैं। कविता में कवि को आकाश में फूल खिलाने और सागर में तारे छिटकाने की छूट होती है। साहित्य की भाषा विशेष प्रकार से सजी-संवरी होती है। कल्पना का खुला आकाश यहीं होता है। विचारों को दौड़ लगाने की यहां पूरी छूट होती है। साहित्यिक रचनाओं को लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं। यह बात आम तौर पर कही जाती है कि फलां रचना ने किसी के जीवन को बदल दिया। यही साहित्य जो किसी भी पाठक को अपनी ओर आकर्षित करता है। आखिर पाठशालाओं की कक्षाओं में साहित्य का जादू बेअसर क्यों हो जाता है या अपेक्षित असर क्यों नहीं कर रहा? शब्दों से लगाव क्यों नहीं हो रहा?
यह साहित्य स्कूलों में क्यों पढऩे-समझने का चस्का उतनी सघनता से पैदा नहीं कर पा रहा है। आखिर साहित्य का शिक्षण क्यों कक्षा के विद्यार्थियों को पुस्तकालयों तक नहीं खींच पा रहा। विद्यालयों के पुस्तकालय क्यों बेजान कमरे बने हुए हैं? स्कूलों का वातावरण जिज्ञासाओं के उत्साह से आखिर क्यों लबरेज नहीं हो पा रहा। एक अध्यापक के रूप में ये सवाल बार-बार सामने खड़े हो जाते हैं।
इन सवालों को समझने के लिए भाषा की कक्षा में इस्तेमाल होने वाले विभिन्न प्रारूपों को जानने की कोशिश करते हैं। साहित्य शिक्षण का एक भाषा प्रारूप है। यह प्रारूप भाषा सिखाने के लिए साहित्य का इस्तेमाल करता है। नाम के अनुरूप ही इस प्रारूप में भाषा सीखना-सिखाना प्राथमिक उद्देश्य है। उपयोग साहित्य का किया जाता है। इस प्रारूप की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें भाषा सीखने पर ध्यान दिया जाता है। साहित्य को एक साधन के रूप में इस्तेमाल तो कर लिया जाता है, लेकिन साहित्य के आनंद तक विद्यार्थी नहीं पहुंच पाता है। भाषा सिखाए जाने के चक्कर में विद्यार्थी बोझिल भी हो सकता है।
एक अन्य प्रारूप है-साहित्य प्रारूप। प्राय: यह प्रारूप द्वितीय व विदेशी भाषा को सिखाने में खास तौर से प्रयोग किया जाता है। इसमें साहित्य के माध्यम से ज्ञान और विचार प्रदान करने का उद्देश्य मुख्य होता है। तीसरा है- व्यक्तिगत विकास प्रारूप। इसमें विद्यार्थियों की साहित्य में रूचि पैदा की जाती है। लेकिन सीधे-सीधे इस प्रारूप का परीक्षा से कोई लेना देना नहीं होता है।
कक्षा में हिन्दी साहित्य शिक्षण के मामले में बात की जाए तो प्राय: अध्यापकों में एकांगी दृष्टिकोण देखने को मिलता है। विभिन्न प्रारूपों में से अध्यापकों के द्वारा सबसे अधिक भाषा प्रारूप का प्रयोग किया जाता है और परीक्षा पास करने का अंतिम लक्ष्य एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में छोटे-छोटे उद्देश्य उपेक्षित या नजरंदाज कर दिए जाते हैं। साहित्य की कक्षा नीरसता की ओर बढ़ती हुई विद्यार्थियों को आनंद और धीरे-धीरे शिक्षा से दूर ले जाती है। हमारा मानना है कि साहित्य पढऩे का प्रारंभिक उद्देश्य आनंद की प्राप्ति है। यह आनंद छिटकना नहीं चाहिए। इस रास्ते से भटकना नहीं चाहिए। प्रारंभिक उद्देश्य को बाईपास करते हुए गुजरना नहीं चाहिए। विभिन्न प्रारूपों के बीच समन्वय करने और एक बेहतर प्रारूप का विकास हम अध्यापकों के विवेक पर निर्भर करता है। व्यक्तित्व विकास प्रारूप का संबंध भले ही परीक्षा से दिखाई नहीं देता, लेकिन आनंद के सबसे अधिक नजदीक यही प्रारूप है। यह प्रारूप ही हिन्दी शिक्षण की नाट्य या रंगमंच विधि का जनक है। इस विधि पर हम विस्तार से बातचीत करना चाहते हैं।
क्या है साहित्य शिक्षण की रंगमंच या नाट्य विधि-
रंगमंच एक मंचीय प्रदर्शन कला है। जिसमें कलाकार मंच पर अभिनय के माध्यम से दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ सीखने, सोचने और विचारने का मौका प्रदान करते हैं। रंगमंच की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें अन्य कलाओं का भी समावेश होता है। रंगमंच के माध्यम से विभिन्न साहित्यिक कृतियों के प्रस्तुतीकरण की सुदीर्घ परंपरा है। नाटक स्वयं दृश्य काव्य होते हुए एक साहित्यिक रचना भी होती है। नाटक और एकांकी के अलावा कहानी, यात्रा वृत्तांत, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, संस्मरणात्मक रेखाचित्र का भी नाट्य रूपांतरण व नाट्य प्रस्तुतिकरण होने लगा है। यही नहीं कविताओं की रंगमंचीय प्रस्तुति किया जाना जहां विधाओं के आपसी संबंधों को मजबूत बनाता है, वहीं कलाओं के भीतर होने वाले आदान-प्रदान को नई धार और नए तेवर प्रदान करता है। साहित्य शिक्षण की नाट्य विधि कुछ और नहीं किसी साहित्यिक रचना को नाटक के माध्यम से पढ़ाने-सिखाने की ही विधि है। यह विद्यार्थी केन्द्रित विधि है, जिसमें विद्यार्थी सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं।
नाट्य विधि के लाभ-
नाट्य विधि साहित्य शिक्षण की सबसे प्रभावी और कारगर विधि हो सकती है। विद्यार्थियों की सक्रिय सहभागिता इस विधि की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। विद्यार्थी सोचने और विचारने की प्रक्रिया में ही सक्रिय नहीं होता, बल्कि शारीरिक रूप से भी सक्रिय होता है। इस तरह से नाटक शरीर, मन और मस्तिष्क को साथ लेकर चलता है। नाटक करते हुए विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति मिलती है। उनकी कल्पनाशीलता और विचारशीलता को पंख लग जाते हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास जागता है। साहित्यिक रचनाओं को नाटक के रूप में ढ़ालते हुए विद्यार्थियों में विभिन्न प्रकार के कौशल विकसित होते हैं। उनमें समूह भावना का विकास होता है। मिलकर काम करने के लिए सहयोग और तालमेल करना सीख जाते हैं। वे समूह के साथ समायोजन करना सीखते हैं। व्यक्तिगत भिन्नताओं की उनमें समझ विकसित होती है। उनमें नेतृत्व क्षमता का विकास होता है। तरह-तरह से नाटक विधि विद्यार्थियों को लाभान्वित करती है, तो अध्यापकों को भी फायदा पहुंचाती है। अध्यापक ही नहीं अभिभावक भी प्राय: विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता का रोना रोते पाए जाते हैं। नाटक में अभिनय का अभ्यास करते हुए विद्यार्थियों में धैर्य, सहनशीलता और अनुशासन जैसे गुण स्वयं ही पैदा हो जाते हैं। विद्यार्थियों में एकाग्रता बढ़ती है। सबसे बड़ा लाभ छात्र और अध्यापक के संबंध बेहतर बनते हैं। छात्र अपनी बात कहते हुए संकोच नहीं करता। नाटक विधि में अध्यापकों को एक-एक विद्यार्थी को समझने का मौका मिलता है और इस तरह से वह विद्यार्थियों की भिन्नता के उसे अपनी योजना बनाने में दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता।
नाट्य विधि की प्रक्रिया-
साहित्य शिक्षण में नाटक विधि की प्रक्रिया शुरू करते हुए अध्यापक को पहले-पहल योजना बनानी होगी। उसे नाट्य विधि के लिए पाठ्य पुस्तक से रचना का चयन करना होगा। उसे पढ़ते-पढ़ाते हुए विद्यार्थियों से चर्चा करनी होगी। नाटक के लिए विद्यार्थियों का चयन करने में विद्यार्थियों की इच्छा और अध्यापक की चुनाव दोनों कारगर हो सकते हैं। किसी स्कूल में यदि इस विधि का प्रयोग पहली बार हो रहा है तो संभव है कि विद्यार्थी संकोच करें। हमारी कक्षा नाटक की कक्षा नहीं, इसलिए नाट्य और अभिनय की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण साहित्यिक रचना को विद्यार्थियों की बीच ले जाना हमारा उद्देश्य है। टीम बन जाने के बाद फिर से निर्धारित रचना को पठन, उसके कथानक, संवाद, पात्र, परिवेश और भाषा सहित विभिन्न तत्वों पर विस्तृत चर्चा की जानी जरूरी है। यह भी आवश्यक है कि चर्चा में विद्यार्थियों की सक्रिय भागीदारी हो। चर्चा में उसी तरह की अन्य रचनाओं और लेखक की अन्य रचनाओं को भी शामिल किया जाए। रचना की नाट्य प्रस्तुति से पहले उसका नाट्य रूपांतरण किया जाना जरूरी होगा। किसी कहानी या यात्रा-वृत्तांत को नाटक के रूप में ढ़ालने के लिए मूल रचना में कुछ परिवर्तन किए जा सकते हैं। इसमें विद्यार्थी सक्रिय रूप से सहभागी बनें, इसकी कोशिश तो की ही जानी चाहिए। साथ ही साथ नाटक में अभिनय, आंगिक-वाचिक सक्रियता व एकाग्रता के लिए आवश्यक गतिविधियां व खेल आदि भी शुरू कर दिए जाने चाहिएं। चरित्रों का विभाजन और उनके अभिनय के लिए विद्यार्थियों का चयन किया जाए। कहानी का नाट्य रूपांतरण करते हुए आवश्यक होने पर एक विद्यार्थी को सूत्रधार बनाया जा सकता है, जोकि बीच-बीच में कहानी को आगे बढ़ाने के लिए संकेत कर दे या कहानी सुना दे। अभिनेता विद्यार्थियों के साथ चरित्रों पर तरह-तरह से चर्चा किया जाना जरूरी है, ताकि किसी चरित्र के विविध आयाम खुल कर सामने आएं। लक्षित रचना में किसी चरित्र के विविध पहलु अनछुए हो सकते हैं, लेकिन नाटक में यदि उनकी कल्पना कर ली जाएगी तो उस चरित्र को जीवंत करने में विद्यार्थियों को आसानी होगी। रचना में गीतात्मक पंक्तियों का समावेश करने से नाटक और अधिक रोचक हो जाएगा। यदि मंच से परे से गीत गाया जाना है तो विद्यार्थियों का एक कोरस बनाया जा सकता है। गीत या गीतात्मक पंक्तियों के गायन का अलग से अभ्यास करना पड़ेगा। अभिनय का अभ्यास अध्यापक अपनी सुविधा के अनुसार करवा सकते हैं। रूपांतरित नाटक को हिस्सों में बांट कर धीरे-धीरे मंचन की तैयारियों को आगे बढ़ाया जा सकता है। बार-बार अभ्यास अभिनय को और अधिक प्रभावी बनाएगा। संवाद याद करने और अभिनय की तैयारियों के साथ-साथ वेशभूषा, साज-सज्जा आदि का निर्धारण कर लेना चाहिए। संसाधनों व सुविधाओं की उपलब्धता नाटक को प्रभावी बनाने में सहायक होंगे। जिस मंच पर नाटक खेला जाना है, समय और परिस्थिति के अनुसार उसे भी सजाया व तैयार किया जा सकता है। जिस मंच पर नाटक होगा, उस पर नाटक का बार-बार अभ्यास कलाकार विद्यार्थियों में आत्मविश्वास का संचार करेगा। सारे स्कूल के विद्यार्थियों के बीच मंचन से पहले उस कक्षा के लिए अलग से मंचन पहले किया जा सकता है, जिस कक्षा की पाठ्यपुस्तक में निर्धारित रचना संकलित है। एक बार नाटक को देखने के बाद कोई विद्यार्थी उसे भूलेगा ही नहीं। नाटक खेलने वाले विद्यार्थियों के लिए तो यह रचना अविस्मरणीय हो जाएगी।
नाट्य विधि की सीमाएं-
नाट्य विधि की कुछ सीमाएं भी गिनाई जा सकती हैं, जैसे यह विधि श्रमसाध्य और अधिक समय की मांग करती है। इस विधि का क्रियान्वयन कालांश की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। ऊपर से यह भी नजर आ सकता है कि इस विधि को अपनाने के लिए अध्यापक में अतिरिक्त कुशलताएं होनी चाहिएं। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। अध्यापक अपनी सुविधा से इस विधि को शिक्षण के लिए अपना सकते हैं। प्रक्रिया को अपनी तरह से आसान बनाया जा सकता है। विद्यार्थियों को नाटक करवाना अपने आप में महत्वपूर्ण है। सुविधानुसार विधि को ढ़ाला और रूपांतरित किया जा सकता है। अध्यापक यदि बार-बार इस विधि को अपनाएगा तो उसका भी आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा। विद्यार्थियों की सक्रियता से अध्यापक को भी बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा। कक्षा-कक्ष में आम तौर पर चुपचाप रहने वाले विद्यार्थियों की सकारात्मक मुखरता उसमें भी उत्साह जगाएगी। अध्यापक व विद्यार्थियों के जीवंत रिश्तों से स्कूल का वातावरण भी खुशनुमा बन जाएगा।
-अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक एवं लेखक
राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, कैंप (यमुनानगर)
मो.नं.-9466220145
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