Friday, December 7, 2018

SEMINAR ON DR. B.R. AMBEDKAR IN GSSS CAMP YAMUNANAGAR

डॉ. आंबेडकर ने आजादी की लड़ाई में सामाजिक न्याय की आवाज को किया बुलंद 
 
यमुनानगर, 6 दिसंबर

 बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर देश के पहले कानून मंत्री और संविधान निर्माता से भी अधिक पिछड़ेपन के कारणों की छानबीन करने वाले दार्शनिक और सामाजिक चिंतक हैं, जिन्होंने  समाज के सबसे कमजोर तबकों को मुक्ति की राह दिखाई। स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने सामाजिक न्याय की विषय वस्तु दी। यह बात हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा ने राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय कैंप में  बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित विचार गोष्ठी में कहीं। बारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों के बीच में आंबेडकर के 'श्रम विभाजन एवं जाति प्रथा' निबंध का वाचन किया गया।अरुण कैहरबा ने कहा कि आंबेडकर को बचपन में जाति प्रथा की अनेक प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ा। स्कूल में भी उन्हें अलग बैठना पड़ता था। इन बाधाओं को समाप्त करने के लिए उन्होंने शिक्षा को ही हथियार बनाने का संकल्प किया। इतिहास गवाह है कि उन्होंने इतनी डिग्रियां हासिल की जो कि एक रिकार्ड है। उन्होंने कहा कि जाति प्रथा का समर्थन करने वालों के तर्कों को आंबेडकर ने तार्किक ढंग से जवाब दिया। महात्मा बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले के विचारों से प्रेरणा लेते हुए आंबेडकर ने शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो का संदेश दिया। 

एकता का लाजवाब गीत- एक हैं हम.. गीत एकता के जमाना गाएगा

डॉ. भीमराव आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस (6दिसंबर) पर विशेष

एक बेहतर समाज निर्माण का संघर्ष करने वाले युगपुरूष डॉ. आंबेडकर

अरुण कुमार कैहरबा
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर एक बहुमुखी प्रतिभाशाली शख्सियत हैं, जिन्होंने भारत में जाति-वर्ण की बेडिय़ों को तोडऩे के लिए अथक संघर्ष किया। दलित एवं अछूत समझी जाने वाली जाति में पैदा होने के कारण उनके रास्ते में बाधाओं के पहाड़ खड़े थे। अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने सभी रूकावटों को पछाड़ कर आगे बढऩे के रास्ते बनाए। उन्होंने जाति की जंजीरों में बुरी तरह से जकड़े भारतीय समाज में शिक्षा, संगठन व संघर्ष का जोश व जज़्बा जगाया। डॉ. आंबेडकर को आजाद भारत के पहले कानून मंत्री, भारतीय संविधान के शिल्पकार, आधुनिक भारत के निर्माता, शोषितों, दलितों, मजदूरों, महिलाओं के मानवाधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले समता पुरूष के रूप में जाना जाता है। उन्होंने महात्मा बुद्ध, संत कबीर व महात्मा ज्योतिबा फुले से प्रेरणा लेकर उनके विचारों और क्रांतिकारी परंपराओं को आगे का काम किया।
भीमराव रामजी आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 में तत्कालीन केन्द्रीय प्रांत और आधुनिक मध्य प्रदेश में महू में रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं संतान के रूप में हुआ था। उनका परिवार मराठी था और वो महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के अंबावडे नामक स्थान से संबंध रखता था। वे अछूत समझी जाने वाली महार जाति से संबंध रखते थे। रामजी सकपाल भारतीय सेना की महू छावनी में सूबेदार के पद पर तैनात थे। सामाजिक रूप से निचले पायदान पर स्थित होने के बावजूद उनकी अपने बच्चों को पढ़ाने की बहुत इच्छा थी। उन्होंने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिल किया। लेकिन जाति की जकडऩ के कारण शिक्षा की डगर आसान नहीं थी। भीमराव व अन्य अछूत मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को स्कूल में अलग बिठाया जाता था। स्कूल में बहुत ऊपर से पात्र द्वारा पानी कोई डालता तो भीमराव प्यास बुझाता। इसी कारण कईं बार बच्चों को प्यासे रह जाना पड़ता था। इस तरह के भेदभाव के बावजूद भीमराव की प्रतिभा को देखते हुए कुछ अध्यापकों का स्नेह भी उन्हें मिला। एक अध्यापक ने तो उनके नाम से सकपाल नाम हटाकर परिवार के मूल गांव अंबावडे के आधार पर आंबेडकर नाम जोड़ दिया।
1894 में रामजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गए और इसके दो साल बाद 1896 में भीमराव की मां की मृत्यु हो गई। बेहद कठिन परिस्थितियों में आंबेडकर के दो भाई और दो बहनें ही जीवित बचे। 1904 में आंबेडकर ने एल्फिंस्टोन हाई स्कूल में दाखिला लिया। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। 1913 में पिता की मृत्यु के बावजूद उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। गायकवाड शासक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन के लिये आंबेड
कर का चयन किया। साथ ही इसके लिये छात्रवृत्ति भी प्रदान की। 1916 में उन्हें पी.एच.डी. से सम्मानित किया गया। इस शोध को अंतत: उन्होंने पुस्तक इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के रूप में प्रकाशित किया। अनेक प्रकार की बाधाओं के बाजवूद उन्होंने अध्ययन जारी रखा। कानून, अर्थशास्त्र एवं विज्ञान विषयों की पढ़ाई की और अनेक डिग्रियां प्राप्त की, जोकि अपने आप में एक रिकार्ड था। 
शोषितों की आवाज को बुलंद करने के लिए उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत जैसे अखबार निकाले। आजादी की लड़ाई को उन्होंने अपनी सरगर्मियों और विचारों के जरिये नई विषय-वस्तु दी। राजनैतिक आजादी से भी पहले उन्होंने सामाजिक और आर्थिक आजादी का सवाल उठाया। सार्वजनिक स्थानों, कूओं व तालाबों पर जाने के दलितों के अधिकार के लिए आंदोलन चलाए। जाति के नाम पर चल रहे भेदभाव को लेकर उन्होंने बहुत ही सशक्त ढ़ंग से अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए गहरा विमर्श किया। उन्हें संविधान सभा का सदस्य चुना गया। देश की आजादी के बाद उन्हें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने मंत्रीमंडल में कानून मंत्री की जिम्मेदारी दी। उन्हें संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों के सपनों और जनता की आकांक्षाओं के अनुकूल देश के संविधान का निर्माण एक बड़ी चुनौती था। संविधान सभा के सदस्यों का नेतृत्व करते हुए आंबेडकर ने इस चुनौती को स्वीकार किया। संविधान निर्माण के लिए उन्होंने दुनिया के 60 से अधिक देशों के संविधान का अध्ययन किया और देश संचालन के लिए एक बहुत ही बेहतर संविधान का निर्माण किया। संविधान बनाने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही उन्हें संविधान निर्माता की संज्ञा दी जाती है। 
देश की आजादी के बाद भी जात-पात की बुराई के बरकरार रहने के कारण वे बहुत ही व्यथित थे। उन्होंने हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की। जाति से त्रस्त हिन्दु धर्म से जब वे बेचैन हो गए तो अपने लाखों अनुयायियों को लेकर उन्होंने 14अक्तूबर, 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 6दिसंबर, 1956 को आंबेडकर का महापरिनिर्वाण हो गया। देहांत के बावजूद अपने विचारों एवं संघर्षों के जरिये उन्होंने देश की राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया है। आंबेडकर भारतीय इतिहास की महात्मा बुद्ध, महात्मा ज्योतिबा फुले व कबीर के विचारों और उनकी परंपराओं को आगे बढ़ाने वाली शख्सियत हैं। एक जातिमुक्त समतावादी एवं न्यायसंगत समाज बनाने का सपना उन्होंने देखा था। अपने इस सपने के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया। 
मो.नं.-09466220145

Saturday, December 1, 2018

जागरूकता से ही रोकी जा सकती है एड्स की महामारी

विश्व एड्स दिवस  पर विशेष

अरुण कुमार कैहरबा
DAINIK HARIBHOOMI 1/12/2018

दुनिया में एचआईवी/एड्स एक महामारी का रूप लेता जा रहा है। इस जानलेवा विषाणु के बारे में जागरूकता की कमी भारत सहित विकासशील देशों की सबसे बड़ी विडंबना है। आज भी एचआईवी संक्रमित या एड्स पीडि़त व्यक्तियों के साथ भयानक भेदभाव होता है। यह भेदभाव अनपढ़ लोगों द्वारा ही नहीं होता, बल्कि चिकित्सा के पेशेधारी लोगों के द्वारा भी इस प्रकार का भेदभाव देखने को मिलता है।
एचआईवी और एड्स दोनों शब्द एक साथ बोले जाते हैं। बहुत से लोगों को इसमें अंतर समझ में नहीं आता है। इनके बारे में भ्रम बहुत ज्यादा हैं। एचआईवी मतलब ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस एक ऐसा विषाणु है, जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है। इस वायरस की चपेट में आने के बाद यदि समय पर इसकी पहचान हो जाए तो चिकित्सकों के मार्गदर्शन और उपचार से बेहतर जीवन जिया जा सकता है। लेकिन यदि एचआईवी की समय पर पहचान ना हो तो यह एड्स मतलब एक्वायरड इम्यूनो डेफिसियेंसी सिंड्रोम में रूपांतरित हो सकता है। एड्स का कोई उपचार नहीं है। एड्स होने के बाद रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह से क्षीण हो जाती है और कोई भी बिमारी होने पर वही मृत्यु का कारण बन सकती है। इस तरह एक एचआईवी संक्रमित व्यक्ति जरूरी नहीं वह एड्स से भी पीडि़त हो।
ह्यूमन इम्यूनोडेफिसिएंसी वायरस की खोज के लिए चिकित्सा वैज्ञानिकों ने काफी संघर्ष किया है। 1983 में फ्रांस के लुक मॉन्टेगनियर और फ्रांसोआ सिनूसी ने एलएवी वायरस की खोज की। इसके एक साल बाद अमेरिका के रॉबर्ट गैलो ने एचटीएलवी 3 वायरस की पहचान की। 1985 में पता चला कि ये दोनों एक ही वायरस हैं। 1985 में मॉन्टेगनियर और सिनूसी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1986 में पहली बार इस वायरस को एचआईवी यानी ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वायरस का नाम मिला। लोगों को एड्स के प्रति जागरूक करने के मकसद से 1988 से हर वर्ष एक दिसम्बर को विश्व एड्स मनाया जाता है। 1991 में पहली बार लाल रिबन को एड्स का निशान बनाया गया। इस निशान को एड्स पीडि़त लोगों के खिलाफ दशकों से चले आ रहे भेदभाव को खत्म करने की एक कोशिश के रूप में देखा जाता है। भारत में एचआईवी का पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आज तक सात करोड़ से अधिक लोग एचआईवी से संक्रमित हो चुके हैं। करीब तीन करोड़ पचास लाख लोग एड्स के कारण मौत के मुंह में चले गए हैं। करीब चार करोड़ लोग पूरे विश्व में एचआईवी से पीडि़त हैं। भारत पूरे विश्व में एचआईवी पीडि़तों की आबादी के मामले तीसरे स्थान पर है। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन द्वारा जारी एड्स आकलन रिपोर्ट 2017 के अनुसार भारत में एचआईवी/एड्स पीडि़त लोगों की संख्या लगभग 21.40 लाख थी, इनमें वयस्क पीडि़त की संख्या 0.22 फीसदी थी। वर्ष 2017 में एचआईवी संक्रमण के लगभग 87,580 नए मामले सामने आए और 69,110 लोगों की एड्स से संबंधित बीमारियों से मौत हुई। 2005 में एड्स के कारण हुई मौतों की अधिकता की तुलना में 71 फीसदी की कमी आई है। सबसे अच्छी बात यह है कि भारत में 10 सितंबर, 2018 से एचआईवी/एड्स अधिनियम लागू हो गया है, जिसके अनुसार एचआईवी संक्रमित व एड्स पीडि़त व्यक्ति से भेदभाव करना अपराध घोषित किया गया है। अधिनियम के तहत मरीज को एंटी-रेट्रोवाइरल थेरेपी का न्यायिक अधिकार है और प्रत्येक एचआईवी मरीज को एचआईवी प्रिवेंशन, टेस्टिंग, ट्रीटमेंट और काउंसलिंग सर्विसेज का अधिकार मिलेगा।
विश्व एड्स दिवस को मनाते हुए 30वां साल शुरू हो रहा है। 2030 तक एड्स को समाप्त करने का लक्ष्य स्वास्थ्य संगठन ने निर्धारित कर रखा है। लेकिन करीब 11 लाख लोग प्रतिवर्ष एचआईवी से संक्रमित हो रहे हैं। आज तक एचआईवी संक्रमित सभी लोगों की पहचान नहीं हो पाई है। ऐसे में एड्स को समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित समय तक पूरा होना संदिग्ध ही लगता है। लेकिन जहां चाह होती है, वहीं राह होती है। मजबूत इरादों से बड़े से बड़ा लक्ष्य पूरा हो सकता है। अच्छी बात यह है कि आज एचआईवी संक्रमित 75प्रतिशत लोगों का परीक्षण हो चुका है, जोकि 2005 में 10प्रतिशत ही था। आज 60प्रतिशत उपचार की सुविधा भी ले रहे हैं। भारत में भी एचआईवी टेस्टिंग और उपचार की सुविधाओं का निरंतर फैलाव हो रहा है।
सभी लोगों के एचआईवी टेस्ट को लक्षित करते हुए 2018 में ‘अपनी स्थिति जानो’ को मुख्य विषय रखा गया है। यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि चार में से एक व्यक्ति आज भी अपनी एचआईवी संक्रमण की स्थिति से अनभिज्ञ है। जन जागरूकता से ही लोगों में एचआईवी संक्रमण के मूल कारणों के बारे में चेताया जा सकता है। असुरक्षित यौन संबंध, एक ही टीके से कईं लोगों द्वारा मादक पदार्थों का सेवन, संक्रमित सुई से टीका, एक ही ब्लेड से शेव, संक्रमित रक्त का दूसरे व्यक्तियों को दिया जाना और संक्रमित मां द्वारा बच्चे को जन्म दिए जाने आदि कारणों के प्रति सजगता की जरूरत है। इन सभी से बचा जा सकता है। एचआईवी एड्स के बारे में जानकारी ही बचाव है। एचआईवी की रोकथाम के लिए जानकारी व सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी। एचआईवी के लिए संवेदनशील तबकों की जीवन-परिस्थितियों को सुधारने के लिए सरकार को उपाय करने चाहिएं।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि किसी कारण से एचआईवी से संक्रमित हो गए लोगों के प्रति भेदभाव को समाप्त करना। जनजागरूकता की कमी के कारण ही बहुत बड़ी आबादी को एचआईवी पॉजिटिव होने पर भी यह बात छुपानी पड़ती है। आज भी बहुत से लोगों को यह लगता है कि एचआईवी पॅाजिटिव व्यक्ति को देखने से ही उन्हें संक्रमण हो जाएगा, तो यह अंधेरी सोच की इंतहा ही है। इसलिए एचआईवी एड्स ने एक सामाजिक संकट का रूप ले लिया है। दूसरी कोई बीमारी होने पर बीमार को इस तरह के संकट से दो-चार नहीं होना पड़ता, लेकिन एचआईवी/एड्स के मामले में लोगों सारी करुणा और दया की भावना धराशायी क्यों हो जाती है। आपदा की चपेट में आए लोगों की तो मदद करते हैं, लेकिन एचआईवी/एड्स से पीडि़त व्यक्ति को लोगों का भेदभाव क्यों झेलना पड़ता है। 
मो.नं-09466220145

Wednesday, November 28, 2018

महात्मा ज्योतिबा फुले की पुण्यतिथि मनाई

प्रतियोगिता के विजेताओं को किया सम्मानित

यमुनानगर, 28 नवंबर
कैंप स्थित राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में 19वीं सदी में सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फुले की पुण्यतिथि पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रधानाचार्य परमजीत गर्ग ने विभिन्न प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वाले विद्यार्थियों को स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया। प्रधानाचार्य ने कहा कि शिक्षा की बदौलत ही हम आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए बच्चों को अपनी पढ़ाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा ने कहा कि महात्मा ज्योतिबा फुले ने जाति भेद, वर्ण भेद, लिंग भेद, ऊंच नीच के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया और न्याय व समानता के मूल्यों पर आधारित समाज की परिकल्पना प्रस्तुत की। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढऩे के लिए प्रेरित किया, जोकि देश की पहली प्रशिक्षित महिला अध्यापिका बनी। 1848 में दोनों ने मिलकर पुणे में लड़कियों के लिए देश का पहला स्कूल स्थापित किया।
लड़कियों व समाज के कमजोर वर्ग के बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। उन्होंने कहा कि उस समय यह सब काम करना इतना आसान नहीं था। इसके लिए फुले के पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया। लेकिन उन्होंने अपने विचारों से समझौता नहीं किया। उन्होंने कहा कि विधवाओं की दशा को सुधारने और पुनर्विवाह के लिए भी उन्होंने सक्रिय रूप से कार्य किया। 
प्रधानाचार्य ने संगीत शिक्षक अभिषेक, छात्रा अर्चना, शबनम, रविता, वैशाली, नृति, शिव कुमार, हर्ष, रंजन कुमार, अमन कुमार, दिलीप, शुभम, अनुज को प्रमाण-पत्र व स्मृति चिह्न सम्मानित किया। इस मौके पर अनुराधा रीन, चंचल, सेवा सिंह, आलोक ढ़ोंढिय़ाल, सुरेश रावल, श्याम कुमार, ज्ञानचंद, चन्द्रशेखर, दर्शन लाल बवेजा, ओमप्रकाश, पंकज मल्होत्रा, राकेश मल्होत्रा, नरेश शर्मा, सुखजीत सिंह, ममता शर्मा उपस्थित रहे।

महात्मा ज्योतिबा फुले ने दिखाई सामाजिक बदलाव की राह

महात्मा ज्योतिबा फुले की पुण्यतिथि (28 नवंबर) पर विशेष।

अरुण कुमार कैहरबा
महात्मा ज्योतिबा फुले भारत में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के अगुवा हैं। अपने विचारों और कार्यों की बदौलत उन्होंने दलित-वंचित समाज को वर्ण-व्यवस्था के भेदभावकारी व शोषणकारी चंगुल से आजादी के लिए निर्णायक संघर्ष का नेतृत्व किया। इसके साथ ही उन्होंने देश की पहली महिला शिक्षिका व अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर महिलाओं की मुक्ति के लिए भी अथक आंदोलन चलाया। देश के समाज सुधार आंदोलन पर उनके प्रभाव को इस बात से समझा जा सकता है कि संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर महात्मा फुले को अपना प्रेरणास्रोत मानते थे।
ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ। एक वर्ष की अवस्था में ही उनकी माता का देहांत हो गया। जाति व्यवस्था द्वारा खड़ी की गई बाधाएं कदम-कदम पर उनके रास्ते में आई। 13 साल की उम्र में सावित्री बाई से उनका विवाह हुआ। अपनी पढ़ाई के साथ-साथ पत्नी की पढ़ाई का ध्यान रखा। थॉमस पेन की पुस्तक ‘मनुष्य के अधिकार’ से प्रभावित होकर फुले सामाजिक न्याय की गहरी समझ विकसित करते हैं और भारतीय जाति व्यवस्था के कटु आलोचक बन जाते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि महिलाओं और निचली जातियों की सामाजिक असमानताओं को संबोधित करने में शिक्षा एक महत्वपूर्ण कारक है। उन्होंने अपनी पत्नी को शिक्षित करने के बाद देश में पहला लड़कियों का स्कूल अगस्त 1848 में खोला। यह काम उस समय के सवर्ण समाज को इतना नागवार गुजरा कि पति-पत्नी को अपना घर छोडऩा पड़ गया। लेकिन इससे वे जरा भी निरुत्साहित नहीं हुए। उनका संघर्ष और तीखा हो गया। अनपढ़ महिलाओं को पढ़ाने के लिए उन्होंने साक्षरता की कक्षाएं शुरू की। रात्रि स्कूल की शुरूआत की। विचार और आचरण के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए महात्मा ने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। फुले स्वयं इसके अध्यक्ष बने। सावित्रीबाई ने उसकी महिला शाखा की अध्यक्षता संभाली। दोनों ने विधवा पुनर्विवाह का अभियान छेड़ा। पति के गुजर जाने पर विधवा हुई महिलाओं का मुंडन कर दिया जाता था। इस अपमानजनक प्रथा के खिलाफ उन्होंने नाईयों को प्रेरित किया। एक ऐसे आश्रम की स्थापना की, जिसमें सभी जातियों की तिरस्कृत विधवाएं सम्मान के साथ रह सकें। उन नवजात शिशु कन्याओं के लिए भी एक घर बनाया, जो अवैध संबंधों से पैदा हुई थीं और जिनका सडक़ या घूरे पर फेंक दिया जाना निश्चित था। 
उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और जाति व्यवस्था की निंदा की। सत्य शोधक समाज ने तर्कसंगत सोच पर बल देते हुए शैक्षिक और धार्मिक नेताओं के रूप में ब्राह्मणों एवं पुरोहितों की जरूरत को खारिज कर दिया। उनका दृढ़ विश्वास था कि अगर आप स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे, मानवीय गरिमा, आर्थिक न्याय जैसे मूल्यों पर आधारित नई सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं तो सड़ी-गली, पुरानी, असमान व शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था और मूल्यों को उखाड़ फेंकना होगा। यह अच्छी तरह से जानने के बाद उन्होंने धार्मिक पुस्तकों और भगवान के नाम पर परोसे जाने वाले अंधविश्वास पर हमला किया। उन्होंने महिलाओं और शूद्रों के मन में बैठी मिथ्या धारणाओं की चीर-फाड़ की।

फुले ने महिलाओं, शूद्रों व समाज के अगड़े तबकों में अंधविश्वास को जन्म देने वाली आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को हटाने के लिए अभियान चलाए। उन्होंने कथित धार्मिक लोगों के व्यवहार का विश£ेषण करते हुए पाया कि वह राजनीति से प्रेरित था। उन्होंने धार्मिक शिक्षाओं का तार्किक विश्लेषण नहीं करने के विचार का खंडन किया। उन्होंने कहा कि सभी समस्याओं की जड़ अंधविश्वास है, जोकि पूजनीय माने जाने वाले धार्मिक ग्रंथों की गलत व्याख्या द्वारा निर्मित है। इसलिए फुले अंधविश्वास को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने सवाल उठाया कि अगर केवल एक ही परमेश्वर है, जिसने पूरी मानव जाति बनाई है तो उसने पूरी मानव जाति के कल्याण की चिंता के बावजूद वेद संस्कृत भाषा में ही क्यों लिखे? ऐसे में संस्कृत भाषा नहीं जानने वाले लोगों के कल्याण का क्या होगा? फुले इस बात से सहमत नहीं थे कि धार्मिक ग्रंथ भगवान ने लिखे हैं। ऐसा विश्वास करना अज्ञानता और पूर्वाग्रह है। सभी धर्म और उनके धार्मिक ग्रंथ मानव निर्मित हैं और अपने हितों को पूरा करने के लिए कुछ लोग इनका निर्माण करते हैं। फुले ही अपने समय के ऐसे समाजशास्त्री और मानवतावादी थे जिन्होंने ऐसे साहसिक विचार प्रस्तुत किए। फुले ऐसी सामाजिक व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन के पक्षधर थे, जिसमें शोषण करने के लिए कुछ लोगों को जानबूझकर दूसरों पर निर्भर, अनपढ़, अज्ञानी और गरीब बना दिया जाता है। उनके अनुसार व्यापक सामाजिक -आर्थिक परिवर्तन के लिए अंधविश्वास उन्मूलन एक हिस्सा है। परामर्श, शिक्षा और रहने के वैकल्पिक तरीकों के साथ-साथ शोषण के आर्थिक ढांचे को समाप्त करना भी बेहद जरूरी है। 28नवंबर, 1890 को उनका देहांत हो गया तो सावित्रीबाई फुले ने सत्यशोधक समाज की बागडोर संभाली।
आज जब सामाजिक रूढिय़ों की जकड़बंदी बढ़ती जा रही है। शादी-समारोहों में दहेज, दिखावा और ब्राह्मणवादी तौर-तरीकों का अनुसरण करने की होड़ लगी हुई है। बेहतर है कि पूरा समाज ज्योतिबा फुले को पथ-प्रदर्शक मान कर उनके बताए रास्ते का अनुसरण करते हुए सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाए। 

Sunday, November 4, 2018

नाटक कर रहे सुधार की आवाज बुलंद

ब्याना के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में सांस्कृतिक उत्सव की तैयारियां जोरों पर     
                                                                       गांव ब्याना स्थित राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में जिला स्तरीय सांस्कृतिक उत्सव-2018 की तैयारियां जोरों-शोरों से की जा रही हैं। करनाल में दो दिन चलने वाले उत्सव की विभिन्न प्रतियोगिताओं में स्कूल की टीमें हिस्सा ले रही हैं। कक्षा छठी से आठवीं और नौवीं से बारहवीं वर्ग की लघु नाटिका प्रतियोगिताओं के लिए स्कूल की टीमों ने रविवार को भी प्राध्यापक बलराज मुरादगढ़ और कम्प्यूटर अध्यापक विनीत के नेतृत्व में अभ्यास किया।
DAINIK JAGRAN 5-11-2018
नाटक तैयार करवाने में प्राध्यापिका नीलम व रचना का सक्रिय योगदान है। हिन्दी प्राध्यापक एवं रंगकर्मी अरुण कैहरबा ने विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया। बलराज ने बताया कि 5नवंबर को छह से आठवीं कक्षा की प्रतियोगिताएं होंगी और 6नवंबर को नौवीं से बारहवीं की।
प्रधानाचार्य अशोक गुप्ता ने बताया कि उनके स्कूल की टीमें पूरी तरह तैयार हैं और आत्मविश्वास से लबरेज हैं। दोनों नाटकों का विवरण इस प्रकार है-

हास्य-व्यंग्य से भरपूर भंडाफोड़ नाटक-

स्कूल के सौरभ, लवकेश, नैंसी, काजल, जागृति, साक्षी, सागर, प्रिंस व गौरव की टीम अपनी नाटिका द्वारा अंधविश्वास सहित अनेक प्रकार की सामाजिक कुरीतियों का भंडाफोड़ कर रही है। नाटक बच्चे के प्रति मां के प्रेम से शुरू होता है। इसमें बच्चे को स्कूल जाने से पहले मां प्यार से खिलाती है, लेकिन ठूंस-ठूंस कर फास्टफूड खिला देती है। बच्चा जाने को होता है तो बिल्ली के गुजरने से वह बच्चे को रोक लेती है। बच्चा परीक्षा में देरी से पहुंचता है। स्कूल का दृश्य हास्य से भरपूर है। बच्चों के लिए परीक्षाएं औपचारिकता ही हैं। स्कूल में परीक्षा देते हुए बच्चे के पेट में दर्द होने लगता है। उसे घर छोड़ा जाता है। फिर मां झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ जाती है। बाद में ढ़ोंगी बाबाओं का भंडाफोड़ होता है।

नशे के खिलाफ जंग का ऐलान-

प्रिंस, अमृत, अमित, आशीष, सुषांत व मोहित की टीम का नाटक नशे के  विरूद्ध आवाज उठाता है। नाटक में शराब, गुटके, तंबाकू का मानवीकरण किया गया है। वे अपनी भयावहता के बारे में दर्शकों को परिचित करवाते हैं। इनकी आदतों के कारण लोगों की दयनीय हालत को मार्मिक ढ़ंग से उकेरा गया है।बीड़ी-सिगरेट की आदत किस तरह से व्यक्ति को लाचार बना देती है। इनकी आदतों के कारण किन-किन बिमारियों के जाल में मनुष्य फंस जाता है। यह सब नाटक में दिखाया गया है। नाटक हरियाणवी बोली में है। नाटक की शुरूआत हरियाणा की तरक्की से होती है और फिर नशे की बुराई की चिंताजनक स्थिति को उभारा जाता है।


नाटकों की रिहर्सल करवाते हुए कहा अरुण कैहरबा ने कहा कि नाटक में विभिन्न कलाओं का समावेश होता है। नाटक टीम वर्क है। यही कारण है कि इससे मिल कर काम करने की संस्कृति का विकास होता है। उन्होंने विद्यार्थियों को स्टेज के इस्तेमाल, संवाद अदायगी, हाव-भाव-भंगिमाओं, नाटक में संबंधों को स्थापित करने सहित विभिन्न जानकारियां दी।

Friday, November 2, 2018

सांस्कृतिक उत्सव-2018 में बच्चों ने बिखेरे प्रतिभा के रंग

लघु नाटिका में खिजराबाद स्कूल की टीम ने पाया पहला स्थान

शिक्षा विभाग की तरफ से यमुनानगर के डीएवी सीनियर सैकंडरी स्कूल में दो दिवसीय सांस्कृतिक उत्सव-2018 एवं प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।
जिला स्तरीय कार्यक्रम में विभिन्न स्कूलों के सैंकड़ों विद्यार्थियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के रंग बिखेर कर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। उप जिला शिक्षा अधिकारी अनूप कोठियाल की देखरेख में कार्यक्रम आयोजित किया गया और संयोजन जिला विज्ञान विशेषज्ञ विशाल सिंघल ने किया। नोडल अधिकारी की भूमिका संदीप गुप्ता, अल्का शर्मा, लवण्या ने निभाई। 

कार्यक्रम के दूसरे दिन नौवीं से बारहवीं कक्षा की लघु नाटिका प्रतियोगिता में राजकीय कन्या वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय खिजराबाद की टीम ने पहला, राजकीय कन्या स्कूल जगाधरी की टीम ने दूसरा तथा राजकीय आदर्श वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय सरस्वतीनगर की टीम ने तीसरा स्थान प्राप्त किया। समूह गीत प्रतियोगिता में जयधर स्कूल की टीम ने पहला, अटावा स्कूल की टीम ने दूसरा व सरावां की टीम ने तीसरा स्थान हासिल किया। एकल गीत एवं रागणी प्रतियोगिता में सढौरा के राजकीय स्कूल की टीम ने पहला, खुर्दबन की टीम ने दूसरा व सरावां की टीम ने तीसरा स्थान हासिल किया।
सांझी प्रतियोगिता में छछरौली के राजकीय आदर्श स्कूल की टीम ने पहला, बक्करवाला स्कूल की टीम ने दूसरा, जगाधरी कन्या स्कूल की टीम ने तीसरा स्थान प्राप्त किया। एकल नृत्य में सढौरा राजकीय स्कूल की टीम ने पहला, छछरौली की टीम ने दूसरा और कन्या स्कूल जगाधरी की टीम ने तीसरा स्थान प्राप्त किया। समूह नृत्य में छछरौली की टीम ने पहला, जगाधरी कन्या स्कूल ने दूसरा और रादौर की टीम ने तीसरा स्थान लिया। 
कार्यक्रम के पहले दिन तीसरी से पांचवीं कक्षा की प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में प्राथमिक पाठशाला खुर्दबन की लविश, अंशिका, हिमेश की टीम ने पहला, लेदी पाठशाला की साक्षी, माही, अनीश कुमार की टीम ने दूसरा और टिब्बी अराईयां की राजकीय पाठशाला के गुरमीत, शहनाज, रिहान की टीम ने तीसरा स्थान हासिल किया। छह से आठवीं की प्रतियोगिता में राजकीय माध्यमिक विद्यालय बैंडी की सानिया, खुशी, शुभम की टीम ने पहला, राजकीय माध्यमिक विद्यालय टिब्बी अराईयां से खुर्शिदा, सौरव कुमार व दीक्षा की टीम ने दूसरा, राजकीय उच्च विद्यालय फतेहपुर की निरंजना, सानिया व निखिल की टीम ने तीसरा स्थान प्राप्त किया।
नौवीं से दसवीं कक्षा वर्ग में बक्करवाला राजकीय स्कूल की टीम के पायल, सचिन, गौरव ने पहला, तेजली स्कूल के आसिफ, इशरत, साहिन की टीम ने दूसरा, सढौरा राजकीय स्कूल की टीम के देवेन्द्र, वैभव, आशा देवी ने तीसरा स्थान प्राप्त करके पुरस्कार प्राप्त किए। प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल करने वाली टीम को 31हजार, दूसरा स्थान पाने वाली टीम को 21 हजार व तीसरा स्थान पाने वाली टीम को 11हजार रूपये का  पुरस्कार दिया गया।

छठी से आठवीं कक्षा की लघु नाटिका प्रतियोगिता में सरावां राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय की टीम ने पहला, समूहगीत व सांझी में पोटली राजकीय स्कूल, एकल एवं समूह नृत्य में भंगेडा राजकीय माध्यमिक स्कूल, एकल गीत व रागनी में छछरौली की टीम ने पहला स्थान हासिल किया। वर्षा रानी, संध्या शर्मा, मनप्रीत, मीना, सन्नी चोपड़ा, मनिन्द्र कुमार, रंजन, जितेन्द्र, रोहिणी, गुरशरण, मयंक, अनुभा, मीता गुप्ता, मोनिका, नीरू, प्रिंस वर्मा विभिन्न स्पर्धाओं के निर्णायक मंडल में शामिल रहे।

समापन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए उप जिला शिक्षा अधिकारी अनूप कोठियाल ने विजेता टीमों को पुरस्कार एवं प्रमाण-पत्र देकर सम्मानित किया। मंच संचालन प्राध्यापक उमेश खरबंदा ने किया। कोठियाल ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि विद्यार्थियों में प्रतिभा की कमी नहीं है। केवल उन्हें अवसर व मंच प्रदान करने की है। उन्होंने विजेता टीमों को बधाई देते हुए कहा कि राज्य स्तर पर विद्यार्थी हिस्सा लेकर जिला यमुनानगर का नाम रोशन करें।

इस मौके पर प्रधानाचार्य सुशील गुलाटी, अनिल शर्मा, अख्तर अली, राज कुमार बक्शी, ओमप्रकाश सैनी, मधुकर चैहान, संजय गर्ग, रजनीश गुप्ता, अरुण कुमार कैहरबा, सुखजीत सिंह, राकेश मल्हो़त्रा, दीपक कुमार, मुकेश कुमार, लक्ष्मी चोपडा, पूनम रंगा, शिलक, राजेश, उमेश खरबंदा, उमेश वत्स, प्रीति, आशीष गुप्ता, मनोज पंजेटा, अनीता माहिल, रीतू गर्ग, प्रवीन बत्रा, सत्यवीर, रेणुका शर्मा, राजेश कुमार, राकेश गुप्ता, सुरेन्द्र सिंह, अमित कुमार, प्रियंका वर्मा, लवनेश, सहित अनेक प्राध्यापक, विषय विशेषज्ञ निर्णायक गण उपस्थित रहे।













Wednesday, October 31, 2018

आखिर कक्षाओं में साहित्य का जादू बेअसर क्यों हो रहा?

नाट्य विधि से साहित्यिक रचनाओं को जीवंत बनाएं

अरुण कुमार कैहरबा

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में भाषा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आखिर भाषा ही तो ज्ञान की सब शाखाओं का आधार है। भाषा नहीं होगी तो किसी भी विषय को लेकर संवाद कैसे होगा? भाषा मानव विकास और सब प्रकार की तरक्कियों का आधार है। बच्चे के विकास में मातृभाषा और परिवेश की भाषा का कोई मुकाबला नहीं है। आज भले ही हरियाणा सहित भारत के विभिन्न राज्यों में शिशुओं को अंग्रेजी पढ़ाने-सिखाने का रिवाज चल निकला है, इसके बावजूद हिन्दी व मातृभाषाएं जीवन की ही तरह महत्वपूर्ण हैं। आज हमारी शिक्षा के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं। उनमें से एक भाषा को व्यक्तित्व विकास और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाने की है। यह काम भाषा के आनंददायी शिक्षण से ही संभव है। भाषा में साहित्य का अध्ययन व अध्यापन यह काम कर सकता है।
 साहित्य ही ज्ञान का ऐसा अनुशासन है जिसमें शब्द और अर्थ के बीच होड़ मची होती है। शब्द अर्थ से आगे निकलने की कोशिश करता है और अर्थ शब्द की सीमाओं को लांघने के लिए प्रयासरत रहता है।
साहित्य में अर्थ छवियों के अनेक प्रकार के मंजर देखने को मिलते हैं। कविता में कवि को आकाश में फूल खिलाने और सागर में तारे छिटकाने की छूट होती है। साहित्य की भाषा विशेष प्रकार से सजी-संवरी होती है। कल्पना का खुला आकाश यहीं होता है। विचारों को दौड़ लगाने की यहां पूरी छूट होती है। साहित्यिक रचनाओं को लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं। यह बात आम तौर पर कही जाती है कि फलां रचना ने किसी के जीवन को बदल दिया। यही साहित्य जो किसी भी पाठक को अपनी ओर आकर्षित करता है। आखिर पाठशालाओं की कक्षाओं में साहित्य का जादू बेअसर क्यों हो जाता है या अपेक्षित असर क्यों नहीं कर रहा? शब्दों से लगाव क्यों नहीं हो रहा?
यह साहित्य स्कूलों में क्यों पढऩे-समझने का चस्का उतनी सघनता से पैदा नहीं कर पा रहा है। आखिर साहित्य का शिक्षण क्यों कक्षा के विद्यार्थियों को पुस्तकालयों तक नहीं खींच पा रहा। विद्यालयों के पुस्तकालय क्यों बेजान कमरे बने हुए हैं? स्कूलों का वातावरण जिज्ञासाओं के उत्साह से आखिर क्यों लबरेज नहीं हो पा रहा। एक अध्यापक के रूप में ये सवाल बार-बार सामने खड़े हो जाते हैं।
इन सवालों को समझने के लिए भाषा की कक्षा में इस्तेमाल होने वाले विभिन्न प्रारूपों को जानने की कोशिश करते हैं। साहित्य शिक्षण का एक भाषा  प्रारूप है। यह प्रारूप भाषा सिखाने के लिए साहित्य का इस्तेमाल करता है। नाम के अनुरूप ही इस प्रारूप में भाषा सीखना-सिखाना प्राथमिक उद्देश्य है। उपयोग साहित्य का किया जाता है। इस प्रारूप की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें भाषा सीखने पर ध्यान दिया जाता है। साहित्य को एक साधन के रूप में इस्तेमाल तो कर लिया जाता है, लेकिन साहित्य के आनंद तक विद्यार्थी नहीं पहुंच पाता है। भाषा सिखाए जाने के चक्कर में विद्यार्थी बोझिल भी हो सकता है।
एक अन्य प्रारूप है-साहित्य प्रारूप। प्राय: यह प्रारूप द्वितीय व विदेशी भाषा को सिखाने में खास तौर से प्रयोग किया जाता है। इसमें साहित्य के माध्यम से ज्ञान और विचार प्रदान करने का उद्देश्य मुख्य होता है। तीसरा है- व्यक्तिगत विकास प्रारूप। इसमें विद्यार्थियों की साहित्य में रूचि पैदा की जाती है। लेकिन सीधे-सीधे इस प्रारूप का परीक्षा से कोई लेना देना नहीं होता है। 
कक्षा में हिन्दी साहित्य शिक्षण के मामले में बात की जाए तो प्राय: अध्यापकों में एकांगी दृष्टिकोण देखने को मिलता है। विभिन्न प्रारूपों में से अध्यापकों के द्वारा सबसे अधिक भाषा प्रारूप का प्रयोग किया जाता है और परीक्षा पास करने का अंतिम लक्ष्य एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में छोटे-छोटे उद्देश्य उपेक्षित या नजरंदाज कर दिए जाते हैं। साहित्य की कक्षा नीरसता की ओर बढ़ती हुई विद्यार्थियों को आनंद और धीरे-धीरे शिक्षा से दूर ले जाती है। हमारा मानना है कि साहित्य पढऩे का प्रारंभिक उद्देश्य आनंद की प्राप्ति है। यह आनंद छिटकना नहीं चाहिए। इस रास्ते से भटकना नहीं चाहिए। प्रारंभिक उद्देश्य को बाईपास करते हुए गुजरना नहीं चाहिए। विभिन्न प्रारूपों के बीच समन्वय करने और एक बेहतर प्रारूप का विकास हम अध्यापकों के विवेक पर निर्भर करता है। व्यक्तित्व विकास प्रारूप का संबंध भले ही परीक्षा से दिखाई नहीं देता, लेकिन आनंद के सबसे अधिक नजदीक यही प्रारूप है। यह प्रारूप ही हिन्दी शिक्षण की नाट्य या रंगमंच विधि का जनक है। इस विधि पर हम विस्तार से बातचीत करना चाहते हैं। 
क्या है साहित्य शिक्षण की रंगमंच या नाट्य विधि-
रंगमंच एक मंचीय प्रदर्शन कला है। जिसमें कलाकार मंच पर अभिनय के माध्यम से दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ सीखने, सोचने और विचारने का मौका प्रदान करते हैं। रंगमंच की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें अन्य कलाओं का भी समावेश होता है। रंगमंच के माध्यम से विभिन्न साहित्यिक कृतियों के प्रस्तुतीकरण की सुदीर्घ परंपरा है। नाटक स्वयं दृश्य काव्य होते हुए एक साहित्यिक रचना भी होती है। नाटक और एकांकी के अलावा कहानी, यात्रा वृत्तांत, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, संस्मरणात्मक रेखाचित्र का भी नाट्य रूपांतरण व नाट्य प्रस्तुतिकरण होने लगा है। यही नहीं कविताओं की रंगमंचीय प्रस्तुति किया जाना जहां विधाओं के आपसी संबंधों को मजबूत बनाता है, वहीं कलाओं के भीतर होने वाले आदान-प्रदान को नई धार और नए तेवर प्रदान करता है। साहित्य शिक्षण की नाट्य विधि कुछ और नहीं किसी साहित्यिक रचना को नाटक के माध्यम से पढ़ाने-सिखाने की ही विधि है। यह विद्यार्थी केन्द्रित विधि है, जिसमें विद्यार्थी सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं। 
नाट्य विधि के लाभ-
नाट्य विधि साहित्य शिक्षण की सबसे प्रभावी और कारगर विधि हो सकती है। विद्यार्थियों की सक्रिय सहभागिता इस विधि की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। विद्यार्थी सोचने और विचारने की प्रक्रिया में ही सक्रिय नहीं होता, बल्कि शारीरिक रूप से भी सक्रिय होता है। इस तरह से नाटक शरीर, मन और मस्तिष्क को साथ लेकर चलता है। नाटक करते हुए विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति मिलती है। उनकी कल्पनाशीलता और विचारशीलता को पंख लग जाते हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास जागता है। साहित्यिक रचनाओं को नाटक के रूप में ढ़ालते हुए विद्यार्थियों में विभिन्न प्रकार के कौशल विकसित होते हैं। उनमें समूह भावना का विकास होता है। मिलकर काम करने के लिए सहयोग और तालमेल करना सीख जाते हैं। वे समूह के साथ समायोजन करना सीखते हैं। व्यक्तिगत भिन्नताओं की उनमें समझ विकसित होती है। उनमें नेतृत्व क्षमता का विकास होता है। तरह-तरह से नाटक विधि विद्यार्थियों को लाभान्वित करती है, तो अध्यापकों को भी फायदा पहुंचाती है। अध्यापक ही नहीं अभिभावक भी प्राय: विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता का रोना रोते पाए जाते हैं। नाटक में अभिनय का अभ्यास करते हुए विद्यार्थियों में धैर्य, सहनशीलता और अनुशासन जैसे गुण स्वयं ही पैदा हो जाते हैं। विद्यार्थियों में एकाग्रता बढ़ती है। सबसे बड़ा लाभ छात्र और अध्यापक के संबंध बेहतर बनते हैं। छात्र अपनी बात कहते हुए संकोच नहीं करता। नाटक विधि में अध्यापकों को एक-एक विद्यार्थी को समझने का मौका मिलता है और इस तरह से वह विद्यार्थियों की भिन्नता के उसे अपनी योजना बनाने में दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता।
नाट्य विधि की प्रक्रिया-
साहित्य शिक्षण में नाटक विधि की प्रक्रिया शुरू करते हुए अध्यापक को पहले-पहल योजना बनानी होगी। उसे नाट्य विधि के लिए पाठ्य पुस्तक से रचना का चयन करना होगा। उसे पढ़ते-पढ़ाते हुए विद्यार्थियों से चर्चा करनी होगी। नाटक के लिए विद्यार्थियों का चयन करने में विद्यार्थियों की इच्छा और अध्यापक की चुनाव दोनों कारगर हो सकते हैं। किसी स्कूल में यदि इस विधि का प्रयोग पहली बार हो रहा है तो संभव है कि विद्यार्थी संकोच करें। हमारी कक्षा नाटक की कक्षा नहीं, इसलिए नाट्य और अभिनय की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण साहित्यिक रचना को विद्यार्थियों की बीच ले जाना हमारा उद्देश्य है। टीम बन जाने के बाद फिर से निर्धारित रचना को पठन, उसके कथानक, संवाद, पात्र, परिवेश और भाषा सहित विभिन्न तत्वों पर विस्तृत चर्चा की जानी जरूरी है। यह भी आवश्यक है कि चर्चा में विद्यार्थियों की सक्रिय भागीदारी हो। चर्चा में उसी तरह की अन्य रचनाओं और लेखक की अन्य रचनाओं को भी शामिल किया जाए। रचना की नाट्य प्रस्तुति से पहले उसका नाट्य रूपांतरण किया जाना जरूरी होगा। किसी कहानी या यात्रा-वृत्तांत को नाटक के रूप में ढ़ालने के लिए मूल रचना में कुछ परिवर्तन किए जा सकते हैं। इसमें विद्यार्थी सक्रिय रूप से सहभागी बनें, इसकी कोशिश तो की ही जानी चाहिए। साथ ही साथ नाटक में अभिनय, आंगिक-वाचिक सक्रियता व एकाग्रता के लिए आवश्यक गतिविधियां व खेल आदि भी शुरू कर दिए जाने चाहिएं। चरित्रों का विभाजन और उनके अभिनय के लिए विद्यार्थियों का चयन किया जाए। कहानी का नाट्य रूपांतरण करते हुए आवश्यक होने पर एक विद्यार्थी को सूत्रधार बनाया जा सकता है, जोकि बीच-बीच में कहानी को आगे बढ़ाने के लिए संकेत कर दे या कहानी सुना दे। अभिनेता विद्यार्थियों के साथ चरित्रों पर तरह-तरह से चर्चा किया जाना जरूरी है, ताकि किसी चरित्र के विविध आयाम खुल कर सामने आएं। लक्षित रचना में किसी चरित्र के विविध पहलु अनछुए हो सकते हैं, लेकिन नाटक में यदि उनकी कल्पना कर ली जाएगी तो उस चरित्र को जीवंत करने में विद्यार्थियों को आसानी होगी। रचना में गीतात्मक पंक्तियों का समावेश करने से नाटक और अधिक रोचक हो जाएगा। यदि मंच से परे से गीत गाया जाना है तो विद्यार्थियों का एक कोरस बनाया जा सकता है। गीत या गीतात्मक पंक्तियों के गायन का अलग से अभ्यास करना पड़ेगा। अभिनय का अभ्यास अध्यापक अपनी सुविधा के अनुसार करवा सकते हैं। रूपांतरित नाटक को हिस्सों में बांट कर धीरे-धीरे मंचन की तैयारियों को आगे बढ़ाया जा सकता है। बार-बार अभ्यास अभिनय को और अधिक प्रभावी बनाएगा। संवाद याद करने और अभिनय की तैयारियों के साथ-साथ वेशभूषा, साज-सज्जा आदि का निर्धारण कर लेना चाहिए। संसाधनों व सुविधाओं की उपलब्धता नाटक को प्रभावी बनाने में सहायक होंगे। जिस मंच पर नाटक खेला जाना है, समय और परिस्थिति के अनुसार उसे भी सजाया व तैयार किया जा सकता है। जिस मंच पर नाटक होगा, उस पर नाटक का बार-बार अभ्यास कलाकार विद्यार्थियों में आत्मविश्वास का संचार करेगा। सारे स्कूल के विद्यार्थियों के बीच मंचन से पहले उस कक्षा के लिए अलग से मंचन पहले किया जा सकता है, जिस कक्षा की पाठ्यपुस्तक में निर्धारित रचना संकलित है। एक बार नाटक को देखने के बाद कोई विद्यार्थी उसे भूलेगा ही नहीं। नाटक खेलने वाले विद्यार्थियों के लिए तो यह रचना अविस्मरणीय हो जाएगी। 
नाट्य विधि की सीमाएं-
नाट्य विधि की कुछ सीमाएं भी गिनाई जा सकती हैं, जैसे यह विधि श्रमसाध्य और अधिक समय की मांग करती है। इस विधि का क्रियान्वयन कालांश की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। ऊपर से यह भी नजर आ सकता है कि इस विधि को अपनाने के लिए अध्यापक में अतिरिक्त कुशलताएं होनी चाहिएं। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। अध्यापक अपनी सुविधा से इस विधि को शिक्षण के लिए अपना सकते हैं। प्रक्रिया को अपनी तरह से आसान बनाया जा सकता है। विद्यार्थियों को नाटक करवाना अपने आप में महत्वपूर्ण है। सुविधानुसार विधि को ढ़ाला और रूपांतरित किया जा सकता है। अध्यापक यदि बार-बार इस विधि को अपनाएगा तो उसका भी आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा। विद्यार्थियों की सक्रियता से अध्यापक को भी बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा। कक्षा-कक्ष में आम तौर पर चुपचाप रहने वाले विद्यार्थियों की सकारात्मक मुखरता उसमें भी उत्साह जगाएगी। अध्यापक व विद्यार्थियों के जीवंत रिश्तों से स्कूल का वातावरण भी खुशनुमा बन जाएगा। 
-अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक एवं लेखक
राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, कैंप (यमुनानगर)
मो.नं.-9466220145

जिला स्तरीय एंबुलेंस प्रतियोगिताएं हुई सम्पन्न

प्रथम व द्वितीय स्थान पाने वाली टीमें लेंगी राज्य स्तर पर हिस्सा

दिनांक 31अक्तूबर, 2018 को जगाधरी के राजकीय मॉडल वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल में सेंट जॉन एंबुलेंस जिला एसोसिएशन की तरफ से जिला स्तरीय एंबुलेंस प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम का संयोजन जिला प्रशिक्षण अधिकारी सुनीता गर्ग ने किया। आयोजन में रमेश कांबोज, रक्षा गर्ग, वीरेन्द्र, राज कुमार सहित प्राथमिक सहायता के अनेक प्राध्यापकों ने किया।
विभिन्न वर्गों की प्रतियोगिताओं के बाद समापन समारोह में रैड क्रॉस एवं सेंट जॉन एंबुलेंस के सचिव रणदीप सिंह ने विजेता टीमों को स्मृति चिह्न एवं पदक देकर सम्मानित किया।
उन्होंने कहा कि प्राथमिक सहायता सेवा का कार्य है। इस कार्य को आगे बढ़ाने और बच्चों व युवाओं को प्रेरित करने के लिए इस प्रकार की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं।
सुनीता गर्ग ने बताया कि 17 से 19 नवंबर को नारनौल में राज्य स्तरीय प्रतियोगिताएं आयोजित की जाएंगी। इन प्रतियोगिताओं में जिला स्तर पर प्रथम व द्वितीय स्थान प्राप्त करने वाली टीमें हिस्सा लेंगी।

कैंप स्कूल की टीम ने सीनियर वर्ग में पाया दूसरा स्थान-

कैंप स्थित राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय की टीम कईं दिनों से तैयारियों में लगी हुई थी। हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा के नेतृत्व में 11वीं कक्षा के विद्यार्थियों- रोनिश राज, विवेकानंद, राम, श्याम व अमित कुमार तैयारियों में लगे थे।
बीच में डीटीओ सुनीता गुप्ता व प्राध्यापक वीरेन्द्र का सहयोग मिला। विद्यार्थियों ने थोड़े समय में अथक मेहनत की और द्वितीय स्थान प्राप्त करके राज्य स्तरीय प्रतियोगिता के लिए स्थान पक्का कर लिया।