Friday, August 22, 2014
Monday, August 18, 2014
काव्य-तरंग-4
नज़दीक देख चुनाव को नेताओं में हडक़म्प।
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
काव्य-तरंग-4
नज़दीक देख चुनाव को नेताओं में हडक़म्प।
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
काव्य-तरंग-4
नज़दीक देख चुनाव को नेताओं में हडक़म्प।
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
काव्य-तरंग-4
नज़दीक देख चुनाव को नेताओं में हडक़म्प।
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
इस दल से उस दल में लगा रहे हैं जम्प।
लगा रहे हैं जम्प दल-दल में, हड़बड़ी देखो तो।
लाभ-लोभ, स्वार्थ के फेर में गड़बड़ी देखो तो।
‘स्वार्थियों से घिरा जनतंत्र है’- हो जाती तसदीक।
जब-जब भी चुनाव कहीं आते हैं नज़दीक।
-अरुण कुमार कैहरबा
Sunday, August 17, 2014
Monday, August 4, 2014
काव्य-तरंग-3
जात-गोत के रिश्ते सारे होते बड़े विचित्र।
साथ में मिलकर जो चलें कहलाते हैं मित्र।
कहलाते हैं मित्र मुसीबत में जो आएँ काम।
स्वार्थ के रिश्ते जो बनते होते बड़े हराम।
मित्रता ऐसी गढ़ें, जिसमें हों गहरे जज़्बात।
सरोकार की बात हो, पूछे ना कोई जात।
-अरुण कुमार कैहरबा
साथ में मिलकर जो चलें कहलाते हैं मित्र।
कहलाते हैं मित्र मुसीबत में जो आएँ काम।
स्वार्थ के रिश्ते जो बनते होते बड़े हराम।
मित्रता ऐसी गढ़ें, जिसमें हों गहरे जज़्बात।
सरोकार की बात हो, पूछे ना कोई जात।
-अरुण कुमार कैहरबा
काव्य-तरंग-2
तिकड़म कर मशहूर हो गए मियाँ नटवर लाल।
ऐसी लिखी किताब मच गया चारों ओर बवाल।
मच गया चारों ओर बवाल, धुरंधर पस्त हो गए।
मीडिया को मिला मसाला और व्यस्त हो गए।
लेखक सारे सोचते-यह कैसा है कर्म?
पाठक पढ़ते वो किताब जिसमें नहीं कोई मर्म!
ऐसी लिखी किताब मच गया चारों ओर बवाल।
मच गया चारों ओर बवाल, धुरंधर पस्त हो गए।
मीडिया को मिला मसाला और व्यस्त हो गए।
लेखक सारे सोचते-यह कैसा है कर्म?
पाठक पढ़ते वो किताब जिसमें नहीं कोई मर्म!
-अरुण कुमार कैहरबा
काव्य-तरंग-1
रोटी-चावल, दाल में मखनी
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
प्याज-टमाटर की अब चटनी
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
कंपनियों को छूट मिलेगी,
हमको-तुमको लूट मिलेगी।
शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
अच्छे दिनों के वादे मिलेंगे,
और चाहिए? नारे मिलेंगे
सपने साकार करे जो करनी,
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
-अरुण कुमार कैहरबा
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
प्याज-टमाटर की अब चटनी
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
कंपनियों को छूट मिलेगी,
हमको-तुमको लूट मिलेगी।
शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
अच्छे दिनों के वादे मिलेंगे,
और चाहिए? नारे मिलेंगे
सपने साकार करे जो करनी,
नहीं मिलेगी-नहीं मिलेगी।
-अरुण कुमार कैहरबा
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