नाट्य समीक्षा
सामाजिक चेतना पैदा करता नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’
गुरशरण सिंह के नाटक ने भगत सिंह के संघर्षों और विचारों को किया उजागर
अरुण कुमार कैहरबा
काफी समय के बाद ऑडिटोरियम के बाहर खुले में नाटक देखने का मौका मिला। कुरुक्षेत्र स्थित सत्यभूमि के सुंदर, हरे-भरे और आकर्षक परिसर में जन नाट्य मंच कुरुक्षेत्र में बचपन से ही नाट्य व अन्य कलाओं में हाथ आजमा रहे रंगकर्मी राजवीर राजू के निर्देशन में पंजाबी नाटककार गुरशरण सिंह का नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का मंचन किया गया। एक शाम शहीदों के नाम कार्यक्रम में स्वतंत्रता आंदोलन और भगत सिंह पर केन्द्रित नाटक ने दर्शकों को जहां स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत की याद दिलाई, वहीं मौजूदा परिदृश्य व परिस्थितियों को आलोचनात्मक ढ़ंग से दिखाकर सोचने पर मजबूर कर दिया।
अपनी जीवंतता के कारण नाटक अभिव्यक्ति का बेहद सशक्त औजार है। नाटक को देखकर दर्शकों को चीजों को देखने की नई नजर मिलती है। प्रेक्षागृह में मंचीय होने पर आम जन प्राय: ही नाटक देखने से वंचित होते हैं। लेकिन कुछ लोग आज भी लोगों के बीच जा-जाकर नाटक को लोगों के बीच ले जाने में लगे हुए हैं। उन्हीं में से बचपन से ही जन पक्षधर कलाओं को समर्पित रहे कुरुक्षेत्र के राजवीर राजू भी हैं। रंगकर्मी व रंग निर्देशक होने के साथ-साथ वे विभिन्न वाद्ययंत्रों को बजाने और गायन में महारत रखते हैं। वे कभी कॉलेजों व विभिन्न संस्थाओं में युवाओं को नाटक तैयार करवाते हैं तो कभी बड़े-बड़े मंचों से लेकर गलियों व नुक्कड़ पर नाटक करते दिखाई देते हैं।
इंकलाब जिंदाबाद नाटक में हिम्मत दयोहरा, रूद्रांश सोनी, लव पुनिया, कंचन, सिया ढ़ींगरा, बीर सिंह, सुमित, श्याम शर्मा, पवित्र व शिवम संधु ने शानदार अभिनय किया। नाटक की शुरूआत जलियांवाला बाग के हत्याकांड के साथ होती है। हत्याकांड में मारे गए लोगों पर विलाप करते हुए एक महिला पात्र (कंचन) कहती है- ‘ओ क्रांतिकारियो, करते हैं हम हमारे भाई बहनों को तुम्हारे सुपुर्द। फैंकते हैं अपनी नन्हीं सी जान को तुम्हारी गोद में। ले जाओ और बता दो उन खून के सौदागरों को कि अब के बाद हर बैसाखी का दीदार कुछ और होगा।
सूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत
पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहूं ना छाड़े खेत।’
इसके बाद मंच पर बेडिय़ों में हाथ-पांव बंधे एक बाबा का प्रवेश होता है। कुछ लोग उस बाबा कोचोर, डाकू या हत्यारा कहते हैं। लेकिन बाबा की शक्ल में यह हिन्दुस्तान अपनी व्यथा बयां करता है कि वह चोर व डाकू नहीं है। सात समुंदर पार से आए अंग्रेजों ने उसे गुलाम बना लिया है। जब लोग सुनते हैं कि डेढ़ लाख अंग्रेज तीस करोड़ लोगों के भारत पर कब्जा करके उन्हें गुलाम बनाकर रख रहे हैं तो लोग कहते हैं कि यह तीस करोड़ या तो भेड़ें होंगी, या फिर चूहे, मच्छर या फिर मक्खी। लेकिन हिंदुस्तान बताता है कि नहीं, 60 करोड़ बाजूओं वाले तीस करोड़ लोग भेडं़े या चूहे नहीं हैं, बल्कि सूरमे हैं। उन्हीं में से सूरमे भगत सिंह की कहानी वह सुनाने लगता है। 1907 में सरदार किशन सिंह के घर में जन्मे भगत सिंह ने अंग्रेजों की जड़ें हिला दी। जलियांवाला बाग हत्याकांड अंग्रेजों की नृशंसता की इंतहा थी। 1926 में अंग्रेजों ने भारतीयों की आंखों में धूल झोंकने के लिए साइमन कमीशन को भारत भेजा। लेकिन भारतीयों ने कमीशन के खिलाफ गांव-गांव व गली-गली में प्रदर्शन करते हुए साइमन कमीशन गो बैक के नारे लगाए। नाटक में कमीशन के विरोध में लोगों के पदर्शन को जीवंत किया जाता है। साथ ही अंग्रेजी सरकार के सिपाहियों द्वारा प्रदर्शन को रोकने के लिए धमकियां और गिरफ्तारियां आदि को दिखाते हुए भारतीयों और सिपाहियों के टकराव के बाद लाला लाजपत राय शहीद हो जाते हैं।
बाबा की शक्ल में हिंदुस्तान कहता है- ‘देश के लिए बहा मेरे खून का एक-एक कतरा अंग्रेजों की ताबूत में आखिरी कील साबित होगा।’ मंच पर पुलिस का एक सिपाही आता है- ‘बड़े लाला लाजपत राय बने घूमते थे। क्यूं हो गए ना एक लाठी में ढ़ेर। अब कोई नजर उठाकर तो देखे, सीधा गोली मार देंगे।’ बाबा और सिपाही के बीच बात होती है। बाबा उससे सवाल करते हैं कि जिन लोगों ने तुम्हारी यह हालत कर दी है, उनके लिए तुम अपने लोगों का खून बहा रहे हो। वह सिपाही को उसकी व देश की बदहाली का अहसास करवाता है। दलालों के कारण क्रांतिकारियों पर हो रहे हमलों पर चिंता व्यक्त करता है। यदि दलालों ने गुप्त सूचनाएं ना दी होती तो चंद्रशेखर आजाद शहीद ना होते। कुछ लोगों की गद्दारी के कारण ही देश गुलाम बना।
अगले दृश्य में अंग्रेजों के दलाल और एक नशेड़ी व्यक्ति के बीच में चर्चा होती है। नशेड़ी पैसे लेकर उसे गुप्त सूचनाएं सांझी करता है। भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की मीटिंग, भगत सिंह द्वारा करतार सिंह सराभा की कहानी सुनाया जाना और देश की आजादी तक शादी नहीं करने का संकल्प आदि बातें वह बताता है। वह खुद भी देश की आजादी तक शादी नहीं करने का संकल्प करता हुआ चला जाता है।
बेडिय़ों में जकड़ा बाबा भगत सिंह का किस्सा जारी रखते हुए बताता है कि कैसे भगत सिंह ने क्रांतिकारियों की फौज तैयार कर दी है। लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए अंग्रेजी कप्तान सांडर्स की गोली मार कर हत्या कर दी है। तभी एक नौजवान बाबा की चादर में छुप जाता है। सिपाही उसकी तलाश कर रहा है। सिपाही के जाने के बाद नौजवान और बाबा की होती है। युवक बताता है कि सांडर्स को मारने का काम तो भगत सिंह व उनके साथियों का है। उनका काम तो पुलिस को चकमा देने का है। बाबा उसे शाबाशी देता है और उसके एक हाथ की बेड़ी टूट जाती है। बाबा आगे बताता है कि कैसे बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ने एसेंबली में बम फेंक कर गूंगी-बहरी सरकार के कानों में आजादी की धमक पहुंचा दी है। उस धमाके ने देश के बच्चे-बच्चे में जोश पैदा हो गया है।
अगले दृश्य में एक तरफ भगत सिंह व उनके साथी हैं और दूसरी तरफ महात्मा गांधी के बीच में संवाद होता है। महात्मा गांधी शांति की बात करते हैं, जबकि भगत सिंह मुक्ति की बात करते हैं। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह को फांसी की सजा सुना दी। इससे देश भर में अंग्रेजी शासन का विरोध तेज हो गया। फांसी के बाद एक सिपाही मंच पर आकर कहता है-देखा बाबा, अंग्रेजों ने तो रातों-रात भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव को फांसी दे दी। किसी ने चूं तक नहीं की।
बाबा इस पर कहता है कि जा जाकर लाहौर की गलियों में देख। पंजाब के गांव-गांव में भगत सिंह को फांसी दिए जाने की क्या प्रतिक्रिया हो रही है। इस पर सिपाही के विचार बदल जाते हैं और वह भी सिपाही की वर्दी को त्याग कर अंग्रेजों की नौकरी छोडऩे का ऐलान कर देता है। बाबा प्रसन्न होते हुए कहा कि जिसके लिए भगत सिंह व साथियों ने फांसी का फंदा चूमा, वह बेकार नहीं गया। बाबा के दूसरे हाथ की हथकड़ी भी गिर जाती है। वह कहता है कि मेरे हाथ आज सदियों बाद आजाद हुए हैं। देश आजाद हो जाता है।
फिर एक किसान, एक मजदूर और एक कारीगर आते हैं। किसान बताता है कि वह अन्न उपजाता है लेकिन उसके बच्चे भूखे रहते हैं। मजदूर कहता है कि वह घर बनाता है लेकिन उसका मकान कच्चा है। कारीगर कहता है कि वह अपने हुनर से कपड़े बुनता है, लेकिन उसके बच्चों के पास पहनने को कपड़ा नहीं है। इस पर बाबा कहता है कि यह स्थिति इसलिए आई क्योंकि हम भगत सिंह के सपनों के भारत और इंकलाब के रास्ते को भूल गए। इंकलाब जिंदाबाद के नारों के साथ नाटक समाप्त होता है। दर्शक भी नाटक के पात्रों के साथ नारे लगाते हुए नाटक का हिस्सा बन जाते हैं।
नाटक अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब होता है। नाटक भगत सिंह के विचारों को उभारता है। वे सपने आज तक पूरे नहीं हुए जो भगत सिंह व उनके साथियों ने देखे थे। आज उन सपनों को याद किया जाना और उन्हें पूरा करने के लिए अपनी ताकत लगाना समय की जरूरत है। भगत सिंह का स्पष्ट मत था कि सत्ता परिवर्तन से कुछ नहीं होना है। सामाजिक-आर्थिक समानता व न्याय के बिना सच्चा इंकलाब नहीं आएगा। देश में गरीबी, महंगाई, असमानता, भ्रष्टाचार, सामाजिक भेदभाव आदि को लेकर नाटक सवाल खड़े करता है।
नाटक में बाबा के भेष में बेडिय़ों में जकड़े हिंदुस्तान की भूमिका को हिम्मत ने बहुत ही सशक्त ढ़ंग से निभाया। लेकिन उसे बहुत अधिक रोते हुए दिखाया गया है। आजादी के बाद तो बाबा की आंखों से आंसू तक टपक पड़ते हैं, जबकि रूदन की बजाय उसके चेहरे पर आक्रोश की ज्यादा जरूरत महसूस होती है। यह नाटक केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहता बल्कि दर्शकों में सामाजिक-राजनीतिक चेतना पैदा करने का माध्यम बन जाता है। राजवीर राजू कहते हैं कि इस नाटक के और भी मंचन किए जाएंगे। इसके साथ ही अन्य नाटक तैयार करना भी आगामी योजना का हिस्सा है।
अरुण कुमार कैहरबा
रंगकर्मी, नाट्य समीक्षक व हिन्दी प्राध्यापक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145 JANSANNDESH TIMES 20-8-2025 JAGMARG 24-8-2025
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