मीराबाई चानू ने ओलंपिक में रचा इतिहास
टोक्यो ओलंपिक में चानू के पदक से भारत में आई खुशियां
मीराबाई चानू बनी महिला शक्ति की प्रतीकअरुण कुमार कैहरबाjansandesh times 27-7-2021
भारत की महिला भारोत्तोलक मीराबाई चानू ने भारत के ओलंपिक इतिहास में गरिमामयी उपस्थिति दर्ज कर ली है। शनिवार को टोक्यो ओलंपिक में भारोत्तोलन स्पर्धा में 49 किलोग्राम भार वर्ग में चानू ने रजत पदकी जीता। इस तरह से वह भारोत्तोलन में ओलंपिक का रजत पदक जीतने वाली पहली खिलाड़ी हो गई हैं। इससे पहले 2000 में हुए सिडनी ओलंपिक में कर्णम मल्लेश्वरी ने इसी खेल में कांस्य पदक जीता था। टोक्यो ओलंपिक में पदक जीत कर चानू ने ना केवल भारत का खाता खोल दिया, बल्कि किसी ओलंपिक में खेलों के पहले दिन पदक जीतने वाली भी वह पहली खिलाड़ी बन गई हैं। इसके साथ ही वह देश की जनता विशेष रूप से खेल प्रेमियों की आंखों का तारा बन गई है।मीराबाई चानू ने 2016 में हुए रियो ओलंपिक में भी हिस्सा लिया था। लेकिन बेहद खराब प्रदर्शन के साथ वह निराशा और हताशा का शिकार हो गई थी। एक बार तो वह खेल से विदा लेने के बारे में भी सोचने लगी थी। निराशा से निकलने के लिए चानू को मनोवैज्ञानिकों की सेवाएं लेनी पड़ी। जल्द ही उसने वापसी की और एक के बाद एक पदक के बाद आखिर उसने विश्व की सबसे प्रतिष्ठित खेल स्पर्धाओं में अपनी शारीकि और मानसिक मजबूती को साबित कर दिया। रियो ओलंपिक के आंसूओं को उसने टोक्यो में खुशियों में बदल दिया।
चानू का पूरा नाम साइखोम मीराबाई चानू है। 8 अगस्त, 1994 को इंफाल से काफी दूरी पर स्थित नोंगपेक काकचिंग नाम के छोटे से गांव में उसका जन्म हुआ। पारिवारिक पृष्ठभूमि की बात करें तो उसका संबंध साधारण परिवार से रहा है। व छह भाई-बहनों में सबसे छोटी है। बचपन में वह अपने घर में चूल्हा जलाने के लिए जंगल से लकडिय़ां बीनती थी। लकडिय़ों के ग_र उठाकर घर लेकर आना उसके लिए आम बात थी। लकडिय़ों के यह ग_र ओलंपिक के वजन उठाने के खेल में परिवर्तित होना सुखद है। आम स्कूल में ही उसने शिक्षा ग्रहण की। बचपन में वह तीरंदाज बनना चाहती थी। लेकिन कक्षा आठ तक आते-आते उसने तीरंदाज बनने की इच्छा छोड़ कर भारोत्तोलक बनने की इच्छा पाल ली। इसके पीछे स्कूल की किताब में मणिपुर में ही जन्मी भारत की मशहूर भारोत्तोलक कुंजरानी देवी पर आधारित पाठ ने प्रेरक की भूमिका निभाई। पाठ्य-पुस्तकों में संकलित पाठ किस तरह से प्रेरणा देने का काम कर सकते हैं, उसका यह ज्वलंत उदाहरण है। कुंजरानी देवी से ही प्रेरणा लेकर चानू ने भारोत्तोलक बनने की ठान ली। अब अभ्यास के लिए सुविधाओं की जरूरत होती है। लेकिन वे सुविधाएं कैसे उपलब्ध हों? लेकिन जहां चाह होती है, वहां राह भी मिल ही जाती है। विकल्प खोज लिए जाते हैं। ऐसा ही मीराबाई चानू ने किया। वजन उठाने के लिए लोहे की बार नहीं थी तो उसने बाँस से अभ्यास किया। उनके गांव में उस समय प्रशिक्षण केन्द्र की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी तो वह लंबी यात्रा तय करके प्रशिक्षण प्राप्त करने जाती थी। भार उठाने के खेल में दम लगता था। शरीर की जरूरत पूरी करने के लिए जिस भोजन की जरूरत थी, वह भी नहीं मिलता था। इस तरह के अभावों में चानू ने अपने जोश, जज्बे, जनून व प्रतिभा का लोहा मनवाया। 11 साल की उम्र में ही चानू भारोत्तोलन में अंडर-15 विजेता बन गई। बाद में जूनियर चैंपियन हो गई।
मीराबाई चानू की मेहनत ने असर करना शुरू किया। 2014 में ग्लास्गो कॉमनवेल्थे खेलों में उसने रजत पदक जीता। अपने अच्छे प्रदर्शन के बूते रियो ओलंपिक में जगह बनाई। रियो में उसका प्रदर्शन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। उसकी निराशा से निकलते हुए उसने 2017 में विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन किया। 2018 के कॉमनवेल्थ खेलों में फिर से सोना जीत कर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित की। एशियन चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीत कर उसने टोक्यो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया था। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म श्री व राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। टोक्यो ओलंपिक के लिए भारोत्तोलन में क्वालीफाई करने वाली भारत की इकलौती खिलाड़ी थी। देश को उससे उम्मीदें भी थी। वह उन उम्मीदों पर खरी उतरी। उसने स्नैच में 87 कि.ग्रा., क्लीन एंड जर्क में 115कि.ग्रा. और कुल 202 कि.ग्रा. वजन उठाया। चानू के कान में ओलंपिक के छल्लों के आकार की बालियां चमक उठी। ये बालियां रियो ओलंपिक से पहले साइखोम ओंगबी तोंबी लीमा ने पैसा बचाकर बनवाई थी। इन बालियों का अशीर्वाद भी रजत जीतने के साथ ही फलित हो गया। पदक जीतने की खबर सुनते ही पिता साइखोम कृति मेइतेई की आंखें खुशी के आंसूओं से छलक उठी। परिजन व रिश्तेदार ही नहीं सारे भारतवासी खुशी से झूम उठे।
himachal dastak 28-7-2021 |
मीराबाई चानू की इस उपलब्धि से ओलंपिक में हिस्सा लेने वाले भारत के अन्य खिलाडिय़ों में भी उत्साह का माहौल बन गया है। पूरे देश में खुशी है। उम्मीद है कि टोक्यो ओलंपिक में देश के खाते में रिकॉर्ड पदक आएंगे। यह खुशी ऐसे समय में आई है, जब देश और दुनिया कोरोना की महामारी के दौर से गुजर रही है। खेलों के दौरान भी टोक्यो में महामारी का साया है। खिलाडिय़ों को भी उचित दूरी बरतने की हिदायतें दी जा रही हैं। ऐसे समय में सामूहिक खुशी का यह अवसर और उम्मीदें काफी मायने रखती हैं।
भारत का बड़ा हिस्सा लड़कियों व महिलाओं की प्रतिभा को कम करके आंकने का आदी है। आज भी पितृसत्तात्मक समाज में उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर माना जाता है। हालांकि महिलाओं की मजबूती और उपलब्धियां समाज की घिसी-पिटी मानिकसता को झुठलाती आई हैं। लेकिन मीराबाई चानू की उपलब्धि ने एक बार फिर से महिलाओं की शक्ति और प्रतिभा से भेदभावपूर्ण सोच पर करारी चोट मारने का काम किया है। आशा है ऐसी सोच बदलेगी और लड़कियों के लिए और अधिक मौकों के रास्ते खुलेंगे। जरूरत इस बात की है कि देश के युवाओं को उनकी रूचि के अनुसार आगे बढऩे के बराबर मौके दिए जाएं।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्वतंत्र पत्रकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
vir arjun 26-7-2021 |
subah savere 26-7-2021 |
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